बैगाओं की खेती की चर्चा

बैगा जनजाति का भोजन
बैगा जनजाति का भोजन

हाल ही में बैगा आदिवासियों की खेती को इंडोनेशिया के किसान देखने आए तो वे देखते ही रह गए। एक ही खेत में डोंगर कुटकी, सलहार, मड़िया, कंगनी, सिकिया, झुंझरू, राहर, सांवा आदि फसलों को देखकर उन्हें सुखद आश्चर्य हुआ। उन्होंने न केवल बैगाओं की खेती को देखा बल्कि वे दो दिनों तक उनके साथ गांव-घर में रहे, भोजन किया और खूब बातें की।

वे यहां बैगाचक के बैगाओं की खेती के सिलसिले में एक किसानी संवाद में हिस्सा लेने आए थे। 6-7 अक्टूबर को निर्माण संस्था ने दो दिनी इस अनूठे कार्यक्रम का आयोजन किया था। इसके प्रमुख नरेश विश्वास बैगाओं की बेंवर खेती को प्रोत्साहित करने के लिए लंबे समय से प्रयासरत हैं। उन्होंने बेंवर पर गहन अध्ययन किया है और बेंवर स्वराज नामक पुस्तक भी लिखी है।

नरेश विश्वास मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के आदिवासियों में बेंवर खेती में देशी बीजों की परंपरागत खेती के संरक्षण व संवर्धन को बढ़ावा देने में जुटे हुए हैं। बैगाओं के अलावा छत्तीसगढ़ के पहाड़ी कोरबा आदिवासियों के बीच में बेंवर खेती का काम कर रहे हैं। वे लुप्त हो चुके बीजों को एकत्र कर आदिवासियों में वितरित करते हैं।


बैगा जनजाति का भोजन मध्य प्रदेश के डिंडौरी जिले के ग्राम बौना, चपवार और गौरा में अंतरदेशीय किसानी ज्ञान के आदान-प्रदान के लिए यह संवाद रखा गया था जिसमें इंडोनेशिया के सात किसान प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। इस कार्यक्रम में बैगाओं के साथ उनकी खेती-किसानी पर बातचीत तो हुई, साथ ही उनके बेंवर खेतों का अवलोकन भी किया गया।

बैगा आदिवासियों ने विदेशी मेहमानों का बेंवर खेती में होने वाले विभिन्न फसलों से बनाए गुलदस्ता भेंट कर उनका स्वागत किया। इस दौरान वे यहां के आदिवासियों से मिलकर, उनकी संस्कृति से परिचित होकर और उनके अत्यंत कम संसाधनों में जीवनशैली देखकर अभिभूत हो गए।

जब वे ग्राम बौना की रामप्यारी बाई के खेत में गए और एक ही खेत में कई प्रकार की फसल देखी तो उनकी आंखें चमक गईं। उन्होंने कहा हमारे यहां हम केवल बाजार की मांग के मुताबिक फसलें बोते हैं, भोजन की जरूरत के हिसाब से नहीं। जबकि बैगा अपनी भोजन की जरूरत के हिसाब से फसलें बोते हैं।

इंडोनेशिया के किसान हिरोनिमस पाला ने कहा कि साल भर केवल चावल ही खाते हैं, इससे शरीर को सभी पोषक तत्व नहीं मिल पाते और इसलिए हमारे देश में बच्चों का कुपोषण बढ़ रहा है। यहां हमने देखा कि एक ही खेत में कई फसलें हैं।

रामप्यारी बाई बताती हैं कि हमें बेंवर खेती के लिए जुताई की जरूरत नहीं है। छोटी झाड़ियों की राख में बारिश के पहले सभी अनाजों के बीज मिलाकर बिखेर देते हैं, जो बारिश के बाद उग जाते हैं। और पकने वाली फसलों को बारी -बारी से काटते जाते हैं।


बैगा जनजाति का भोजन वह कहती है कि यह खेती हम पीढ़ियों से करते आ रहे हैं। हमारे आजा-दादी भी यही खेती करते थे। वे बारह जात के अनाज उगाते थे। बीच में हमें बीज नहीं मिलने से एकल राहर की खेती कर रहे थे, लेकिन पिछले कुछ समय से हमने फिर से अपने पुराने बीजों को खोज कर बेंवर करना शुरू कर दिया है।

इंडोनेशिया के किसान इससे बहुत प्रभावित थे कि पहाड़ पर भी बिना जुताई की खेती हो सकती है। उन्होंने बताया कि वहां भी पहाड़ों में लोग खेती करते हैं, इसके लिए वे खेतों को खोदकर तैयार करते हैं। जब बारिश होती है तो मिट्टी बह जाती है। भूक्षरण होता है।

किसानी संवाद के दौरान बैगा महिलाओं ने अपने खेती के अनुभव साझा किए। ग्राम बौना की गलसो बाई ने बताया कि वह अपने पति के निधन के बाद से अकेले ही खेती कर रही है। यह खेती सरल है, इसमें हल-बैल से नांगर नहीं चलाना पड़ता। बाकी सभी काम हाथ से करने होते हैं, जो हम कर लेते हैं। इस खेती को अकेली महिला आसानी से कर सकती है। जबकि उन्नत किस्म की खेती में मशीन या हल-बैल से जुताई की जरूरत होती है जो एक महिला के लिए बेहद कठिन तो होता ही है और सामाजिक रीति-रिवाजों के अनुसार बैगा समाज में महिलाओं का नांगर चलाने की मनाही भी है।


बैगा जनजाति का भोजनबेंवर में न बीज खरीदना पड़ता है और न रासायनिक खाद। देशी बीजों से ही अच्छी उपज होती है। इसमें कीट-प्रकोप भी नहीं होता। इंडोनेशिया के किसानों ने बताया कि हमारे देश में काफी, चाकलेट, पाम जैसी फसलें उगाते हैं, जो बाजार की मांग होती हैं। और इन्हें बेचकर भोजन के लिए बाजार से अनाज खरीदते हैं।

वे कहते हैं कि हर रोज एक ही तरह के भोजन से पेट तो भरता है लेकिन जरूरी पोषक तत्व नहीं मिलते, खुराक में विविधता नहीं होती। स्वाद भी नहीं होता। यहां की विविध फसलों की खेती इसलिए भी बहुत महत्वपूर्ण है।

बेंवर का महत्व इसलिए और बढ़ जाता है कि क्योंकि खेती में मशीनीकरण से ग्लोबल वार्मिंग का खतरा मंडरा रहा है। मौसम बदलाव से लगातार खेती में अनिश्चितता बनी रहती है। कभी सूखा तो कभी अतिवर्षा से फसलें चौपट हो रही हैं। बेंवर में अगर एक फसल मार खाती है तो दूसरी से उसकी क्षतिपूर्ति हो जाती है। बेंवर के अलावा गैर खेती भोजन यानी जंगलों से मिलने वाले कंद मूल, फल, फूल, पत्तों को भी बैगा अपना प्रिय भोजन मानते हैं।

बहरहाल, इस अंतरदेशीय किसानी संवाद से बैगा बहुत खुश हैं और इस बात से भी खुश हैं कि इंडोनेशिया के किसान उनके घरों में, उनके बीच दो दिन तक रहे। उनकी पारंपरिक खेती की विदेशी मेहमान न केवल सराहना की बल्कि इसे अपनाने पर जोर भी दिया है।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं

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Post By: Shivendra
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