बागमती की 1956 की बाढ़

इस परियोजना की रूप रेखा 1956 में तय की जा चुकी थी और नदी के निचले हिस्से में दायें किनारे पर सोरमार हाट से लेकर बदलाघाट तक तटबन्धों पर काम शुरू कर दिया गया था। आधी-अधूरी योजना में हाथ लगाने का कारण यह बताया गया कि बागमती की धारा केवल उसी लम्बाई में स्थिर है अतः वहाँ तटबन्ध बनाये जा सकते हैं। नदी की बाकी ऊपरी लम्बाई में नदी की धारा अस्थिर है अतः वहाँ तटबन्ध बनाना अभी अनुकूल नहीं होगा। सरकार की तरफ से सोरमार हाट से बदलाघाट तटबन्धों के बारे में जो सूचना दी गई।

1956 में एक बार फिर राज्य में दक्षिण में सूखा और उत्तर में बाढ़ की परिस्थिति बनी और बागमती तथा बूढ़ी गंडक फिर अपने पुराने तेवर पर लौटीं। इस बार विधान सभा में जब राज्य में बाढ़ और सूखे पर बहस शुरू हुई।

गिरिजा नन्दन सिंह ने सदन को बताया, ‘‘...इस बार दुर्भाग्य से हमारे जिले में मई महीने में ही बाढ़ का प्रकोप हुआ और यहाँ के जितने कार्यकर्ता थे सभी ने, जिसमें एक मैं भी था, राजस्व मंत्री से आग्रह किया कि वहाँ की दर्दनाक हालत को जाकर देखें। मंत्री महोदय वहाँ गए भी, वहाँ बाढ़ सम्मेलन भी किया गया जिसमें वहाँ के जितने लोग थे सब इकट्टा हुए थे। जो-जो कठिनाई उस इलाके की थी उन सारी बातों को उनके सामने पेश किया। उन्होंने बहुत संतोषपूर्वक सुना और उसके निराकरण के लिए आश्वासन भी देकर आये। हम लोगों ने समझा कि तकलीफ की जानकारी करा देने पर इस बार कोई अच्छी व्यवस्था हो सकेगी लेकिन देखने में आता है कि गत साल जो व्यवस्था थी, उससे भी गई गुजरी हालत इस साल की है। ...अगर स्थानीय पदाधिकारी से कुछ कहा जाए तो वे मुकदमा चलाने की धमकी देते हैं।’’

इस समय तक सरकारी हलकों में बागमती को नियंत्रित करने का कोई स्वरूप नहीं उभरा था और वह खामोश थी जिसके फलस्वरूप गिरिजा नन्दन सिंह जैसे निर्विवाद व्यक्तित्व वाले प्रभावशाली नेताओं की जब यह हालत थी कि उनको सरकारी अफसर गिरफ्तार कर लेने की धमकी दे सकते थे तब आम आदमी की क्या बिसात रही होगी, यह बड़ी आसानी से समझा जा सकता है। अब तक बागमती नदी दाहिने किनारे पर बेलवा के पास नई धारा में बहने की कोशिश करने लगी थी जबकि सुगिया-परदेशिया गाँव के पास उसकी धारा बदलने का प्रयास जारी था।उधर विधायक बृजबिहारी शर्मा का मानना था, ‘‘...बागमती नदी जिस क्षेत्र में जाकर भीषण विभीषिका उत्पन्न करती है वह है मधुबन का क्षेत्र, वहाँ से बागमती मुजफ्फरपुर की तरफ मीनापुर थाने में प्रवेश करती है। हर साल वहाँ पर हजारों रुपया खर्च करके सुगिया और परदेशिया नालों को बांध कर रोकने की कोशिश की जाती है, लेकिन सिंचाई मंत्री का यह रुपया बिल्कुल बेकार खर्च होता है क्योंकि जेठ में बांध बनाया जाता है और आषाढ़ में वह टूट जाता है। हमको यही मालूम होता है कि अकाल के जमाने में निलही कोठी के मालिकों ने सरकार से मदद लेकर इस बांध को बंधवाया था और इस बांध के टूट जाने से बड़का गाँव, पताही, मधुबन और मीनापुर थाने का इलाका प्रत्येक साल बह जाया करता है... इस बांध की मरम्मत हो जाने से चार थानों के इलाके की रक्षा हो सकती है यानी ढाका, पताही, मधुबन और शिवहर का कुछ इलाका। हम चार वर्ष से इसके बारे में सरकार से कह रहे हैं लेकिन फिर भी अभी तक इसकी मरम्मत नहीं हो सकी है।’’ रुन्नी सैदपुर और आस-पास के इलाकों की बागमती नदी की बाढ़ से होने वाली दुर्दशा और खड़ी फसलों के नुकसान का जिक्र करते हुए विवेकानन्द गिरि की अपेक्षा थी, ‘‘यदि बागमती का नियंत्रण किया जाए तो लोगों की बहुत भलाई होगी तथा जमीन भी उपजाऊ होगी।’’

कपिल देव नारायण सिंह ने विधान सभा में अपनी मांग रखी। उन का विचार कुछ इसी तरह का था, ‘‘हमारे यहाँ बहुत सी नदियाँ हैं। खास करके मुजफ्फरपुर जिले में बागमती और बूढ़ी गंडक है पर विभिन्न दृष्टिकोणों को रखते हुए इन पर नियंत्रण की आवश्यकता है। बागमती के पानी में एक तरह की कदई रहती है जिसको कदली कहते हैं। उस कदली के जमीन में जाने से जमीन उपजाऊ हो जाती है। जहाँ-जहाँ यह कदली पड़ती है वहाँ की जमीन स्वतः उर्वरा हो जाती है। जिस खेत में कदली चली जाती है उसमें अगर ज्यादा पानी आ जाता है तो पौधे तक डूब जाते हैं तब भी फसल का नुकसान नहीं होता है। बूढ़ी गंडक कदली की जगह बालू भर देती है। इस पर नियंत्रण करने की आवश्यकता है ताकि खेतों में बालू न जा सके। नियंत्रण करने के वक्त इन दोनों का ध्यान रखना चाहिये, बाढ़ का पानी नुकसान भी न पहुँचाये और सूखा के समय उस पानी का उपयोग भी सिंचाई के लिए हो सके।’’

यह सभी नेता नदी को नियंत्रित करने की बात तो जरूर करते थे मगर बागमती नदी में आने वाली गाद और उससे खेती को होने वाले फायदे को इन सभी सदस्यों ने कभी नजरअंदाज नहीं किया। अपेक्षाएं लगभग सभी सदस्यों की एक जैसी थीं कि उन्हें बागमती की गाद अपने खेतों में चाहिये और यह गाद खेतों तक तब तक नहीं पहुँचेगी जब तक नदी की बाढ़ का पानी वहाँ तक न पहुँचे।

बाढ़ नियंत्रण की जो भी तकनीक उस समय प्रचलन में थी उसके अनुसार नदी पर तटबन्ध बना कर ही बाढ़ का नियंत्रण किया जा सकता था और जगह-जगह पर स्लुइस गेट बना कर नदी के पानी को यथा संभव खेतों तक पहुँचाया जा सकता था। स्लुइस गेटों की गैर-मौजूदगी या उनके संचालन में किसी तरह की कोताही से तटबन्धों पर खतरा बढ़ता है और एक बार नदी पर बने तटबन्ध टूटने की स्थिति में आ जाएं तो अधिकांश खेतों पर मोटा बालू ही फैलता है। नदी के पानी को विस्तृत इलाके पर फैलाने के लिए जो तकनीक, तैयारी और जिस संचालन तंत्र की जरूरत पड़ती है वह हमारे पास तब भी नहीं था और आज भी नहीं है। हमें यह भी नही भूलना चाहिये कि तटबन्धों के निर्माण के बाद नदी में आने वाली गाद के कारण नदी की पेटी धीरे-धीरे ऊपर उठती है और यह उठान तटबन्ध के रिवर साइड में स्लुइस गेट को जाम कर देता है। इसलिए स्लुइस गेट के सामने से जमा हुई मिट्टी का नियमित तौर पर हटाया जाना बहुत ही जरूरी है ताकि बाहर के पानी की नदी में निकासी होती रहे। दुर्भाग्यवश ऐसा होता नहीं है।

नेताओं की मांग में स्पष्टता नहीं थी लेकिन बिहार का सिंचाई विभाग इस समय तक नदी पर तटबन्ध और नहर निर्माण की योजना को करीब-करीब अंतिम रूप दे चुका था। बिहार के तत्कालीन चीफ इंजीनियर एम. पी. मथरानी द्वारा 1956 में प्रस्तावित योजना के बारे में हम पहले यहाँ चर्चा करेंगे और उसके बाद बाढ़ की परिस्थिति पर फिर चर्चा शुरू करेंगे।

बागमती बाढ़ नियंत्रण का पहला प्रस्ताव (;1956)


पिछले अध्याय में हम एम.पी. मथरानी के प्रस्ताव के बारे में कुछ चर्चा कर चुके हैं। उनके प्रतिवेदन में बागमती की बाढ़ को नियंत्रित करने पर भी टिप्पणी थी। बागमती नदी नेपाल के तराई वाले हिस्से से लेकर भारत के मैदानी भाग में काफी छिछली है और उसमें बरसात का पूरा प्रवाह समा नहीं पाता जिसकी वजह से नदी बुरी तरह किनारे तोड़ कर बहती है। ढेंग रेल पुल के ऊपर भी नदी की यही हालत है और उसका उपट कर बहता हुआ बहुत सा पानी नरकटियागंज से दरभंगा जाने वाली रेल लाइन के कई पुलों से होकर बहा करता है। 1956 में इस योजना में नदी पर भारत-नेपाल सीमा से लेकर नदी की कुल 315 मील (504 किलोमीटर) लम्बाई में, जहाँ यह नदी कमला नदी से संगम करती थी, तटबन्धों के निर्माण का प्रस्ताव किया गया। इस योजना में नदी पर सिंचाई के लिए प्रस्तावित दोनों वीयरों के माघ्यम से, जिनके बारे में हमने अध्याय-2 में चर्चा की है, नदी के कुछ पानी को आगे चल कर तबाही का कारण बनने के पहले ही फैला कर बहा देने का प्रयास किये जाने की व्यवस्था थी। एक लाख रुपया प्रति किलोमीटर की दर से यह खर्च 5.04 करोड़ रुपये बैठता था। उसमें दोनों वीयरों की आंशिक लागत (1.52 करोड़ रुपये) जोड़ देने पर कुल अनुमानित राशि 6.56 करोड़ रुपये बैठती थी। वीयरों के निर्माण की लागत का आधा हिस्सा सिंचाई व्यवस्था वाले मद में डाले जाने का प्रस्ताव था। क्योंकि नदी का पानी नेपाल वाले हिस्से में भी छलकता है इसलिए यह जरूरी था कि बागमती के तटबन्धों को नेपाल में भी बढ़ाया जाता। इन तटबन्धों की लम्बाई 128 किलोमीटर आंकी गई थी। अगर नेपाल में तटबन्धों के निर्माण की लागत वही रहती जो कि भारतीय भाग में प्रस्तावित थी तो उन पर 1.28 करोड़ रुपये खर्च होने चाहिये थे। संभवतः नेपाल के साथ किसी समझौते के अभाव में उस समय इस राशि को एस्टीमेट में शामिल नहीं किया गया था। एक समझौते के तहत बागमती के तटबन्धों का विस्तार नेपाल में 2000 के दशक में पूरा किया गया और अब यह तटबन्ध नेपाल में प्रायः करमहिया बराज तक बन कर पूरे हो गए हैं।

इस परियोजना की रूप रेखा 1956 में तय की जा चुकी थी और नदी के निचले हिस्से में दायें किनारे पर सोरमार हाट से लेकर बदलाघाट तक तटबन्धों पर काम शुरू कर दिया गया था। आधी-अधूरी योजना में हाथ लगाने का कारण यह बताया गया कि बागमती की धारा केवल उसी लम्बाई में स्थिर है अतः वहाँ तटबन्ध बनाये जा सकते हैं। नदी की बाकी ऊपरी लम्बाई में नदी की धारा अस्थिर है अतः वहाँ तटबन्ध बनाना अभी अनुकूल नहीं होगा। सरकार की तरफ से सोरमार हाट से बदलाघाट तटबन्धों के बारे में जो सूचना दी गई उसके अनुसार नदी के दाहिने किनारे पर बाकी योजना में समय-समय पर सुधार किया जाता रहा और इन सुधारों पर 1965 में जाकर रोक लगी।

एम. पी. मथरानी के योजना-प्रस्ताव ने बागमती परियोजना को बाढ़ नियंत्रण तथा सिंचाई की दिशा में एक ठोस स्वरूप प्रदान किया। कोई भी तकनीकी प्रकल्प हाथ में लेने से पहले उसकी विस्तृत योजना रिपोर्ट तैयार करनी पड़ती है और यह काम शुद्ध रूप से इंजीनियरों का होता है। जन-प्रतिनिधियों, राजनीतिज्ञों तथा समाजकर्मियों को टीका- टिप्पणी, योजना में सुधार और क्रियान्वयन आदि के लिए दबाव बनाने हेतु योजना की रूप-रेखा पर्याप्त होती है। मथरानी के बागमती नदी सम्बन्धी योजना प्रस्ताव ने इस कमी को पूरा कर दिया था और अब बहस और मांग करने के लिए बुनियादी सामग्री मुहैया कर दी गयी थी।

डॉ. के. एल. राव की दूसरी बागमती यात्रा


डॉ. के. एल. राव की नवम्बर 1963 की सीतामढ़ी यात्रा के अगले वर्ष 1964 में अधवारा समूह की नदियों में भीषण बाढ़ आई और उसके निदान के लिए अधवारा (खिरोई) नदी पर तटबन्धों का निर्माण किया गया लेकिन यह तटबन्ध कभी सफलतापूर्वक अपना काम नहीं कर पाये और कहीं न कहीं हर साल टूटते रहे। स्थानीय लोगों की अपेक्षा थी कि समूह की सारी नदियों पर तटबन्धों का निर्माण कर के उनमें जगह-जगह पर स्लुइस गेट की व्यवस्था कर दी जाए ताकि अधवारा समूह की नदियों की बाढ़ पर नियंत्रण और सिंचाई की भी व्यवस्था हो। इस तरह की बातें इसी भरोसे पर की जाती हैं कि तटबन्ध हमेशा सलामत रहेंगे और कैसी भी बाढ़ आये, उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा। दुर्भाग्यवश यह मान्यता ही गलत है और यह बात प्रायः हर साल सच साबित होती है।

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Post By: tridmin
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