बागमती घाटी में राहत के सवाल पर गोली

हमारी सरकारें, चाहे वह केन्द्र की हों या राज्य की, पानी की बात तो करती हैं पर गाद की अनदेखी करती हैं। हम कभी भी अपनी नदियों, तालाबों, पुलों आदि में इकट्ठा होने वाली गाद की सफाई की बात नहीं करते। बागमती की अगर बात करें तो बागमती, अधवारा, जमुने, शिकाओ, हरदी, धौंस आदि सभी नदियाँ पिछले सौ वर्षों के मुकाबले बहुत छिछली हो चुकी हैं, उनकी गहराई कायम रखी जाए और उन पर बने तटबन्धों को तोड़ दिया जाय। ऐसा अगर किया जा सके तो बाढ़ से होने वाला नुकसान वर्तमान नुकसान का मात्र 10 प्रतिशत रह जायेगा।

बागमती घाटी में पिछले वर्षों में इस तरह की दो बड़ी घटनाएं हुई हैं। पहली घटना में 11 अगस्त 1998 को सीतामढ़ी जिला मुख्यालय पर राहत नियमित करने के लिए मांग करने वालों पर पुलिस को ‘अपनी सुरक्षा’ के लिए गोली चलानी पड़ी। जनता की गलती सिर्फ इतनी थी कि वह समुचित मात्रा में राहत सामग्री की मांग कर रही थी और राहत कार्यों में कुव्यवस्था और भ्रष्टाचार रोकने के खिलाफ आवाज बुलन्द कर रही थी। मारे गए लोगों में से दो व्यक्ति जनता दल के सदस्य थे जिसकी वजह से इस पूरी घटना को राजनैतिक रंग मिल गया। विपक्ष ने सरकार पर लोगों की कठिनाइयों के प्रति संवेदनहीन होने का आरोप लगाया तो राज्य सरकार का विपक्ष पर आरोप था कि वे इस दुर्घटना से राजनैतिक लाभ उठाना चाहता है। यह घटना सीतामढ़ी कलेक्टरेट के सामने एक प्रदर्शन के समय घटी जिसका नेतृत्व स्थानीय सांसद नवल किशोर राय कर रहे थे। वह पूरी घटना को कुछ इस तरह बयान करते हैं, ‘‘...पानी को रोक पाना तो संभव नहीं है, यह अप्राकृतिक काम है। रोक देंगे तो वह कहीं न कहीं से रास्ता खोजेगा और बांध तोड़ कर निकल जायेगा। बुजुर्ग बताते हैं कि बाढ़ पहले भी आती थी और इससे भी भयंकर आती थी पर उसके निकलने का रास्ता पूरा खुला हुआ था। पानी बस आया और गया।

पानी के साथ जो गाद आती थी वह खेतों पर फैल जाती थी जिससे अच्छी खासी फसल होती थी लेकिन अब नदी को बांध दिया गया है तो ताड़ के पेड़ जितना ऊँचा पानी आता है। इतना परिवर्तन हम सबने देखा भी है। फिर सिंचाई और बिजली का प्रश्न है। इन सारे मुद्दों को उठाते हुए हम लोग हर साल कोई न कोई कार्यक्रम करते ही रहते हैं। 11 अगस्त 1998 के दिन हमने सीतामढ़ी में एक कार्यक्रम का आह्नान किया था। लगभग 50,000 लोग इकट्ठा हो गए। सीतामढ़ी गाँधी मैदान से कलेक्टरेट की दूरी 6 किलोमीटर के आस-पास है। इस रास्ते पर इतने सारे लोग भर गए कि जूलूस अंतहीन दिखायी देता था। बी.बी.सी. ने भी इतनी ही संख्या बतायी थी। हम लोग चले अपनी मांगों का ज्ञापन देने कलक्टर के यहाँ। उस जगह पहले से ही सी.पी.एम. का कोई धरना चल रहा था। वह लोग भी हमारी भीड़ को देख कर अचम्भित थे। कलक्टरेट का फाटक खोल दिया गया। कुछ तनाव सा पैदा हो गया। हम बाढ़ की बात कर रहे थे। बाढ़ पीड़ितों के लिए नाव नहीं थी, राहत नहीं थी, बचाव कार्य बिल्कुल नगण्य था, उठने-बैठने की जगह नहीं बची थी, कितने ही लोग बह गए थे या मारे गए थे। उनकी कोई सुनने वाला नहीं था। उस पीड़ा के कारण लोग आक्रोशित थे। कुछ पथराव हो गया।

मैं चारदीवारी पर लाठी लेकर चढ़ गया कि अपने आक्रोशित लोगों को बाहर ले आऊँ क्योंकि कुछ लोग कलेक्टरेट के अन्दर घुस गए थे। फिर फाटक बन्द कर के मीटिंग शुरू हुई। शान्तिपूर्वक सभा चल रही थी। तभी एस. पी. पहुँचे, डी.एम. भी थे। शायद उन्होंने एस.पी. से कहा कि उन्हें पत्थर लगा है। मैंने तो यह देखा भी नहीं था। फिर उन लोगों ने फोन पर कुछ बातें की और बिना कारण बताये गोली चलानी शुरू कर दी। आन्दोलन को शान्त करने के लिए जो मान्य परम्परा है उसमें पहले हवा में लाठी भांजी जाती है, फिर लाठी चार्ज किया जाता है, पानी की धार मारी जाती है, रबर की गोली चलायी जाती हैं, हवाई फायर किया जाता है, आंसू गैस छोड़ी जाती है। इससे भी अगर भीड़ शान्त नहीं होती है तो कमर के नीचे गोली मारी जाती है। इस प्रक्रिया का यहाँ एकदम पालन नहीं किया गया। हम शान्तिपूर्वक सभा कर रहे थे मगर बिना चेतावनी दिये प्रदर्शनकारियों के सीने पर सीधे गोली मारी गयी जिसमें रिवाल्वर और राइफल का खुलेआम इस्तेमाल हुआ। बिहार सरकार के वर्तमान विधि मंत्री उस सभा में मौजूद थे। मुझे और उनको लक्ष्य करके गोली चलायी गयी। हम लोगों ने थाने में घुस कर टेबुल के नीचे छिप कर जैसे-तैसे अपनी जान बचायी। रामनाथ ठाकुर ने पहचान छिपाने के लिए अपनी धोती खोल कर कन्धे पर रख ली थी और मैं किसी तरह छिप कर एक चाय की दुकान में जा बैठा।

इसके बाद तो चारो तरफ हल्ला हो गया। मीडिया के लोग आ गए, हमारे राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव आये और अनिश्चितकालीन धरना शुरू हुआ। अकारण लोगों को पकड़-पकड़ कर जेल में डाला गया। धारा 111 और 98 लगायी गयी जिसका मैं अभी भी अभियुक्त हूँ। बाद में वहाँ राम बिलास पासवान आये, बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी आये। उस समय उन्होंने शरद यादव से धरना तोड़ने का आग्रह किया और यह भी कहा कि भविष्य में जब हमारी सरकार बनेगी तब इन सारे झूठे मुकदमों को वापस ले लिया जायेगा। जनहित से जुड़े इन सब सवालों को लेकर हर साल हम कोई न कोई कार्यक्रम करते जरूर हैं भले ही देखने वालों को वह एक रस्म-अदायगी ही क्यों न लगे। उस समय हमारी 16 सूत्री मांगें थी और जहाँ तक बाढ़ नियंत्रण का प्रश्न है, हमने सघन वनीकरण की भी एक मांग रखी थी। वन क्षेत्र 33 प्रतिशत होना चाहिये जो कि यहाँ 14.15 प्रतिशत पर आ टिका है। हमारे सामने मोहन धारिया कमीशन की सिफारिशें थी जिसमें कहा गया था कि बीस वर्षों तक सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर लगातार लगभग 20,000 करोड़ रुपये अगर वनीकरण पर खर्च किये जाएं तो स्थिति सामान्य बन पायेगी। वह तो खैर नहीं ही हुआ। बाढ़ के पानी का गाद के साथ अटूट संबंध है।

हमारी सरकारें, चाहे वह केन्द्र की हों या राज्य की, पानी की बात तो करती हैं पर गाद की अनदेखी करती हैं। हम कभी भी अपनी नदियों, तालाबों, पुलों आदि में इकट्ठा होने वाली गाद की सफाई की बात नहीं करते। बागमती की अगर बात करें तो बागमती, अधवारा, जमुने, शिकाओ, हरदी, धौंस आदि सभी नदियाँ पिछले सौ वर्षों के मुकाबले बहुत छिछली हो चुकी हैं, उनकी गहराई कायम रखी जाए और उन पर बने तटबन्धों को तोड़ दिया जाय। ऐसा अगर किया जा सके तो बाढ़ से होने वाला नुकसान वर्तमान नुकसान का मात्र 10 प्रतिशत रह जायेगा। वह मुकदमा अभी भी चल रहा है और नीतीश कुमार के आश्वासन के बावजूद चल रहा है। उस घटना में 5 लोग मारे गए और 12 घायल हुए थे। उनमें से 4 बार विधायक रहे रामचरित्र यादव थे जिन्हें नजदीक से रिवाल्वर से गोली मारी गयी थी। जिला पंचायत परिषद के अध्यक्ष, ब्लाक प्रमुख और मुखिया रह चुके डॉ. अयूब को पीछा करके दौड़ा कर गोली मारी गयी थी। महन्त मण्डल एक गरीब आदमी था वह भी मारा गया। रामपरी देवी मुसम्मात को मार दिया गया और एक मुनीफ नदाफ नाम का मुसलमान था जिसे मार दिया गया। मुनीफ को कब्र तक नसीब नहीं हुई, उसे जला दिया गया था।

हमारी लड़ाई का प्रतिफल इतना जरूर हुआ कि इन मारे गए लोगों के परिवारों को एक-एक लाख रुपया मुआवजे के तौर पर मिला। तीन लोगों के आश्रितों को नौकरी भी मिली पर यह देकर वापस ले ली गयी क्योंकि कलक्टर और एस.पी. के माध्यम से जो मुकदमा दायर किया गया था उसमें इन तीन मृतकों को भी अपराधी का दर्जा दिया गया था। कानून की शायद यही मान्यता है। हमें उनके आश्रितों की वैकल्पिक व्यवस्था करनी पड़ी। घायलों में मंजू देवी का पैर काटना पड़ गया था। वह रुन्नी सैदपुर में रहती हैं और उनके रोजगार की कुछ व्यवस्था की गयी है। मंजू की शादी हम लोगों ने एक संघर्षशील युवक अशोक से करवा दी थी पर अब उसकी मृत्यु हो गयी है। बाकी घायलों की भी हमने यथासंभव मदद की। मैं जनता दल (यू.) में हूँ और जब यह घटना हुई तब भी जनता दल (यू.) में था। उन दिनों जनता दल (यू.) ने 9 अगस्त से 14 अगस्त के बीच में एक राष्ट्रव्यापी आन्दोलन चलाया था और उसी बीच में संयोग से यहाँ बाढ़ आ गयी। वह भयानक बाढ़ थी और इस आन्दोलन को किसी तरह से रिलीफ के आन्दोलन का नाम मिल गया। वह बाढ़ के खिलाफ आन्दोलन था और बाढ़, सिंचाई, बिजली तथा पानी समेत 16 सूत्री मांगें उसमें शामिल थीं।

हम लोगों ने 11 अगस्त 1998 की तारीख धरना, जलूस और प्रदर्शन के लिए तय की थी और उसके एक महीना पहले से लोगों के साथ सभी स्तरों पर हम कार्यक्रम चला रहे थे। इसके पहले भी मैं इस प्रश्न को संसद में उठा चुका था। मैं बाढ़, पानी और बांध के प्रश्न पर हमेशा से अपनी बात रखता रहा हूँ। बाद में शरद यादव ने राष्ट्रपति के. आर. नारायणन को 19 अगस्त 1998 को जनता दल (यू) की तरफ से ज्ञापन देकर यह मांग की कि इस गोली काण्ड की न्यायिक जांच करवायी जाए और मृतकों के आश्रितों को पांच-पांच लाख रुपये का मुआवजा दिया जाए।’’ पुलिस की गोलियों के धमाके सीतामढ़ी में ही शान्त नहीं हुए। इनकी गूंज 6 अगस्त 2001 को मुजफ्फरपुर जिले के औराई प्रखण्ड में फिर सुनायी पड़ी जब 4 निर्दोष लोग मारे गए। यहाँ झंझट तब शुरू हुआ जब रिलीफ बांटने वाले मुंशी ने सरकार द्वारा निर्धारित राहत सामग्री से कम वजन की सामग्री का वितरण शुरू किया। जब राहत मांगने वालों ने, जिनमें से अधिकांश लाल कार्डधारी थे, इस मनमानी का विरोध किया तो उपद्रव शुरू हो गया और पुलिस को अपने ‘बचाव’ में गोली चलानी पड़ गयी। इस घटना का विवरण नीचे दे रहे हैं।

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Post By: tridmin
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