बागानों की धरती

मैंने बंजर जमीन पर सफेद बन-मेथी और अल्फा-अल्फा घास बो दी। उन्हें जमने में तो कई बरस लगे, लेकिन एक बार जम जाने पर उन्होंने पूरे बागान के पहाड़ी ढलानों को ढंक लिया। मैंने वहां जापानी मूली भी बोई। इस उत्साही सब्जी की जड़े भी जमीन में गहरी जाती हैं, और उनमें जैव-पदार्थ बढ़ाने के अलावा वह हवा और पानी के आने-जाने के लिए उसमें रास्ता बनाती हैं।

इस बात को अलग से कहने की जरूरत नहीं है कि बागान-प्रबंधन में सबसे ज्यादा ध्यान मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने पर देना होता है। रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से पेड़ तो बड़े-बड़े हो जाते हैं, लेकिन जमीन बिगड़ती जाती है। रासायनिक उर्वरक धरती से उसकी ऊर्जा खींच लेते हैं। एक ही बार उनका प्रयोग करने से ही मिट्टी को काफी नुकसान पहुंच जाता है। खेतों के काम में सबसे ज्यादा समझदारी का रास्ता यही है, कि मिट्टी की गुणवत्ता में निरंतर वृद्धि की जाए। बीस साल पहले इस पहाड़ी की सतह पर बंजर लाल मिट्टी के अलावा कुछ नजर नहीं आता था। जमीन इतनी सख्त थी कि उसमें आप पफावड़ा भी नहीं चला सकते थे। यहां आसपास की ज्यादातर जमीन ऐसी ही थी। लोग उसमें जब तक संभव था आलू उगाते थे और जब मिट्टी चुक जाती थी तो उसे छोड़कर आगे बढ़ जाते थे। आप यह भी कह सकते हैं कि खेती के नाम पर मैं केवल नारंगियों और सब्जियां ही नहीं उगा रहा बल्कि धरती की उर्वरता को भी दुबारा स्थापित कर रहा हूं।

चलिए, पहले हम इसी बारे में बात करें, कि मैंने इन बंजर पहाड़ी ढलानों को फिर से उपजाऊ कैसे बनाया। दूसरे महायुद्ध के बाद संतरे के बागानों को गहरे जोतने के बाद उनमें गड्ढे खोदकर जैव-खाद मिलाने की तकनीक की सिफारिश की गई थी। जब मैं परीक्षण-केंद्र की नौकरी छोड़कर यहां वापस लौटा तो मैंने अपने बागान में भी इसी तरीके को आजमाया। कुछ बरसों बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा, कि यह विधि न केवल शारीरिक रूप से थकाने वाली थी बल्कि, जहां तक मिट्टी को सुधरने का सवाल था, बिल्कुल ही बेकार भी। सबसे पहले तो मैंने पुआल और पत्तों (फर्न) को मिट्टी में गाढ़ा। सर पर ढोकर 50-50 किलो पुआल और फर्न लाना काफी मेहनत का काम था, लेकिन दो-तीन वर्ष के बाद भी वहां खाद, मिट्टी मुट्ठी भर भी नहीं बनी। इन जैव पदार्थों को गाढ़ने के लिए जो खंदकें मैंने खोदी थीं, वे अंदर धंस कर खुली खाईयों में बदल गयीं।

इसके बाद मैंने लकड़ी के छिलपे गाढ़ना शुरू किया। ऐसा लगता है कि मिट्टी बनाने के लिहाज से तो पुआल ही ज्यादा अच्छा है, लेकिन जितनी मात्रा इस तरह की मिट्टी की बनती है, उस हिसाब से लकड़ी ही बेहतर है। यह तरीका भी लेकिन, तभी तक अच्छा है, जब तक कि आसपास काटने के लिए वृक्ष हों। उन लोगों के लिए जिनके नजदीक पेड़ नहीं हैं, उन्हें तो कहीं दूर से लकड़ी ढोकर लाने की बजाए वहीं बागानों में उन्हें उगा लेना बेहतर होगा। मेरे बागान में आपको देवदार, चीड़, जापानी चेरी तथा नाशपाती, तेंदू तथा कई देसी किस्मों के पेड़, संतरों के पेड़ों के बीच ही उगते नजर आएंगे। मगर इनमें सबसे उल्लेखनीय पेड़ मेरीसिमा बबूल है। यह वही वृक्ष है जिसका जिक्र मैंने लेडी-बग तथा प्राकृतिक परभक्षी कीटों तथा प्राकृतिक संरक्षण के सिलसिले में किया था।

इस पेड़ की लकड़ी सख्त होती है, इसके फूल मधुमक्खियों को ललचाते हैं तथा पत्तियां पशु-आहार के काम आती हैं। यह पेड़ बाग में कीड़ों के प्रकोप को भी रोकता है, हवा के लिए आड़ बनता है तथा इसकी जड़ों में रहने वाले राइजोबियम जीवाणु मिट्टी को उपजाऊ बनाते हैं। यह वृक्ष कुछ बरस पहले जापान में आस्ट्रेलिया से लाया गया, तथा मेरे देखे गए पेड़ों में सबसे तेजी से बढ़ता है। कुछ ही महीनों में इसकी जड़ काफी गहरी चली जाती है तथा छह-सात साल में यह टेलीफोन के खंबे जितना ऊंचा हो जाता है। इसके अलावा यह पेड़ नाइट्रोजन का संतुलन भी बनाता है। अतः यदि चौथाई एकड़ में इसके 6 से 10 पेड़ लगा दिए जाएं तो गहरे स्तर की मिट्टी को उपजाऊ बनाने के लिए आपको पहाड़ पर से लकड़ी के लट्ठे ढो-ढो कर लाने की कमरतोड़ मेहनत नहीं करनी पड़ेगी।

जहां तक ऊपरी सतह की मिट्टी का सवाल है, मैंने बंजर जमीन पर सफेद बन-मेथी और अल्फा-अल्फाघास बो दी। उन्हें जमने में तो कई बरस लगे, लेकिन एक बार जम जाने पर उन्होंने पूरे बागान के पहाड़ीढलानों को ढंक लिया। मैंने वहां जापानी मूली भी बोई। इस उत्साही सब्जी की जड़े भी जमीन में गहरी जाती हैं, और उनमें जैव-पदार्थ बढ़ाने के अलावा वह हवा और पानी के आने-जाने के लिए उसमें रास्ता बनाती हैं। इसके बीज अपने आप गिरते और उगते रहते हैं। तथा एक बार बो देने के बाद आप उसे लगभग भूल जा सकते हैं।

जैसे ही मिट्टी में कुछ सुधर आया, खरपतवारों ने भी वापस लौटना शुरू कर दिया। सात-आठ साल के बाद खरपतवार में बन-मेथी जब दिखलाई पड़ना ही बंद हो गई, तो मैंने गर्मियों के अंतिम दिनों में खरपतवार काटकर, थोड़े से मेथी के बीज खेत में और बिखेर दिए। इस घने मेथी एवं खरपतवार की चादर का ही नतीजा यह रहा, कि पच्चीस से भी ज्यादा बरसों में बागान की मिट्टी की ऊपरी सतह, जो पहले लाल कड़क चिकनी मिट्टी की थी, वह अब नरम सांवली और केंचुओं और जैव-पदार्थों से समृद्ध हो गई है।

हरी खाद के द्वारा मिट्टी की ऊपरी सतह को उर्वर बनाने तथा मोटिसिमा बबूल की जड़ों द्वारा गहरी मिट्टी के सुधर जाने के बाद आपको न तो उर्वरक उपयोग करने की आवश्यकता होगी, और न ही बागान के वृक्षों की जमीन की निंदाई-गुड़ाई या जुताई करने की ही जरूरत रह जाती है। तेज हवा को रोकने के लिए ऊंचे वृक्षों, बीच में संतरे के पेड़ों तथा नीचे हरे खाद की चादर के साथ मैंने आराम से बैठने तथा बागान को अपनी देखभाल अपने आप करने देने का तरीका ढूंढ लिया है।

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