बिहार की गिनती भारत के सर्वाधिक बाढ़ प्रवण क्षेत्रों में होती है। राष्ट्रीय बाढ़ आयोग (1980) के अनुसार देश के कुल बाढ़ प्रवण क्षेत्र का 16.5 प्रतिशत हिस्सा बिहार में है, जिस पर देश की कुल बाढ़ प्रभावित जनसंख्या की 22.1 प्रतिशत आबादी है। इसका मतलब यह होता है कि अपेक्षाकृत कम क्षेत्र पर बाढ़ से त्रस्त ज्यादा लोग बिहार में निवास करते हैं।
1986 की बाढ़ के बाद किए गए अनुमान के अनुसार यह पाया गया कि बाढ़ प्रवण क्षेत्र का प्रतिशत सारे देश के सन्दर्भ में बढ़कर 56.5 प्रतिशत हो गया है। इसका अधिकांश भाग उत्तर बिहार में पड़ता है जिसकी जनसंख्या 4.06 करोड़ (1991) है तथा क्षेत्रफल 54 लाख हेक्टेयर है। यहाँ की 76 प्रतिशत जमीन बाढ़ से प्रभावित है जबकि जनसंख्या घनत्व लगभग 754 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है।
उत्तर बिहार में आठ मुख्य नदियाँ हैं, जिनके नाम घाघरा, गण्डक, बूढ़ी गण्डक, बागमती, अधवारा समूह की नदियाँ, कमला, कोसी तथा महानन्दा हैं। यह सारी नदियाँ गंगा में समाहित हो जाती हैं। बूढ़ी गण्डक और महानन्दा को छोड़कर इन सारी नदियों का उद्गम नेपाल में है। बूढ़ी गण्डक, पश्चिम चम्पारण जिले के चौतरवा चौर से निकलती है जबकि महानन्दा पश्चिम बंगाल में करसियांग के पास से निकलती है।
इन दोनों नदियों का भी अधिकांश जलग्रहण क्षेत्र नेपाल में पड़ता है। यह सभी नदियाँ अपने प्रवाह में हिमालय से अत्यधिक मात्रा में मिट्टी और रेत बहा कर लाती हैं। हिमालय पर्वतमाला अपने निर्माण के प्रारम्भिक दौर से गुजर रही है और एक तरह से भुरभुरी मिट्टी का ढेर है।
इस तरह की मिट्टी को नदियाँ बड़ी आसानी से कटाव कर देती हैं और मिट्टी/रेत को मैदानों में पहुँचा देती हैं। नदियाँ जब पहाड़ों से मैदानों में उतरती हैं तो उन का वेग एकाएक कम हो जाता है, पानी, मिट्टी और रेत के साथ विस्तीर्ण क्षेत्र पर फैल जाता है और नदी के कछारों का निर्माण होता है।
कछारों में जमा होने वाली रेत/मिट्टी अगली बरसात के मौसम में नदी के प्रवाह की रुकावट बनती है, जिसे काट कर नदी अपना नया रास्ता बना लेती है। नदियों का धारा-परिवर्तन इसी तरह से होता है। हिमालय से आने वाली नदियों के कछार के निर्माण की प्रक्रिया रुकी नहीं है, इसलिए उनका धारा-परिवर्तन भी बन्द नहीं होता है और इसीलिए बाढ़ें आती रहती हैं। बाढ़ की वजह से कृषि पर नई मिट्टी पड़ती है और उसे पोषक तत्व मिलते हैं। यही कारण रहा होगा कि शुरू-शुरू में लोग बाढ़ वाले इलाकों में बसे होंगे।
यहाँ की उपजाऊ मिट्टी और पानी की बहुतायत ने उन्हें आकर्षित किया होगा। बाढ़ वाले क्षेत्रों में जनसंख्या घनत्व का ज्यादा होना बाढ़ों का प्रतिफल है। हिन्दू शास्त्र नदियों की स्तुति और वन्दना से भरे पड़े हैं। इनमें उन्हें ‘विश्व की माताओं’ के रूप में मान्यता मिली है।
इस नदी का जलग्रहण क्षेत्र 74,500 वर्ग किलोमीटर है जिसका 85 प्रतिशत नेपाल और तिब्बत में पड़ता है। बाकी का हिस्सा भारत (बिहार) में है । इस नदी की कुल लम्बाई 468 किलोमीटर है, जिसमें से भारत में इस नदी की लम्बाई 248 किलोमीटर है। इस नदी में सर्वाधिक प्रवाह बराह क्षेत्र (नेपाल) में 25,880 क्यूमेक देखा गया है।
वर्ष में पानी की हर साल लगभग 6,828 करोड़ घनमीटर मात्रा इस नदी से होकर प्रवाहित होती है और हर साल इस नदी में औसतन 9,495 हेक्टेयर मीटर मिट्टी/रेत आती है। नदी के भारत वाले जलग्रहण क्षेत्र में औसतन 1276 मिलीमीटर वर्षा होती है।
कोसी नेपाल के सप्तरी जिले में चतरा के पास पहाड़ों से मैदान में उतरती है और लगभग 50 किलोमीटर का सफर तय करके भीमनगर (जिला-सुपौल, बिहार) के पास भारत में प्रवेश करती है। धारा परिवर्तन के लिए प्रसिद्ध यह नदी कटिहार जिले में कुरसेला के पास गंगा में मिल जाती है।
कई धाराओं में बहने वाली इस नदी की बाढ़ का अपना रंग हुआ करता था। उत्तर बिहार के सुपौल, सहरसा, मधेपुरा, अररिया, किशनगंज, पूर्णिया और कटिहार जिलों की एक इंच भी जमीन ऐसी नहीं है जिस पर से होकर कोसी कभी बही न हो। पिछले ढाई सौ वर्षों में यह नदी 112 किलोमीटर पश्चिम की ओर खिसक गई है। कोसी का व्यवहार सदियों से बड़ा अनिश्चित रहा है और अंग्रेजों ने इसे ‘बिहार के शोक’ की संज्ञा दी हुई थी।
भारत में जब अंग्रेजों का राज आया तो उन्होंने उन्नीसवीं सदी के मध्य में तटबन्धों के माध्यम से दामोदर नदी को, जिसे वह ‘बंगाल का शोक’ कहते थे, नियन्त्रित करने का काम किया। इस प्रयास में वह पूरी तरह असफल हुए। इसलिए उन्होंने हिमालय से आने वाली नदियों को बाढ़ नियन्त्रण के लिए कभी हाथ नहीं लगाया, क्योंकि उन नदियों का व्यवहार भी दामोदर की ही तरह अप्रत्याशित था।
दामोदर से मुँह की खाने के बाद वह 1947 तक इन नदियों से बचते रहे। इस बीच कोसी को नियन्त्रित करने के लिए कितने ही प्रस्ताव उनके पास आए पर उनका मानना था कि कोसी को नियन्त्रित नहीं किया जाना चाहिए और तटबन्धों के जरिए तो हरगिज नहीं।
उनकी इस विचारधारा पर 1953 तक अमल हुआ और इसके पीछे नदी को तटबन्धों में कैद न करने की सौ साल से ज्यादा की बहस थी। इस बहस के विस्तार में पड़े बिना यहाँ इतना ही बता देना काफी होगा कि नदियाँ अपने पानी को गाद के साथ विस्तृत क्षेत्र पर फैलाती हैं।
अपने प्रवाह में भारी मात्रा में रेत/मिट्टी लाने वाली नदी को जब तटबन्धों में जकड़ लिया जाता है तो उनका विस्तार क्षेत्र सीमित हो जाता है और वह सारी मिट्टी/रेत, जो अन्यथा एक बड़े इलाके पर फैलती, उन तटबन्धों के बची जमा होकर नदी के तल को ऊँचा करने लगती है। इसके साथ ही तटबन्धों के बाहर की जमीन को नदी के पानी के कारण मिलने वाले पोषक तत्व भी नहीं मिल पाते हैं। लगातार ऊपर उठते रहने वाले नदी के तल के कारण तटबन्धों को भी ऊँचा करना पड़ता है।
इसके अलावा तटबन्धों के कारण नदी के स्वाभाविक जल-ग्रहण की प्रक्रिया में भी बाधा पड़ती है। वर्षा का वह पानी, जो कि अपने आप नदी में आ जाता है। अब वह तटबन्धों के कारण बाहर अटक जाता है और सुरक्षित क्षेत्रों में जल-जमाव उत्पन्न करता है। तटबन्धों से होकर नदी के पानी के रिसाव के कारण सुरक्षित क्षेत्रों में जल-जमाव की समस्या और भी ज्यादा जटिल हो जाती है। अगर कभी नदी की कोई सहायक धारा नदी से संगम करती हो तो मुख्य नदी पर बने तटबन्ध उसका मुहाना बन्द कर देते हैं।
अब सहायक धारा का पानी या तो सुरक्षित क्षेत्रों में पीछे की ओर लौटेगा या फिर तटबन्धों के बाहर नीचे की ओर बहने पर मजबूर होगा। अगर सहायक धाराएँ नदी के दोनों किनारों पर मिलती हों तो दोनों तटबन्धों के बाहर ऐसी धाराएँ बहेंगी। ऐसी परिस्थिति में यह माँग उठेगी कि संगम स्थल पर एक स्लुइस गेट बनाया जाए। इस स्लुइस गेट के साथ दिक्कत यह होगी कि बरसात भर इसे बन्द रखना पड़ेगा, क्योंकि अगर कभी स्लुइस गेट खुला हो और मुख्य धारा में अधिक पानी आ जाए तो स्लुइस गेट होकर बहुत-सा पानी सहायक नदी से होता हुआ सुरक्षित क्षेत्रों में घुस जाएगा। इसलिए स्लुइस गेट बनें या न बनें, कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला है। इसके अलावा निर्माण के कुछ ही वर्षों के अन्दर नदी के तल में जमा होती हुई रेत/मिट्टी स्लुइस गेट को ही जाम कर देती है।
अब अगर स्लुइस गेट भी काम न करें तब अगली माँग उठती है कि सहायक नदी पर भी तटबन्ध बना दिए जाएँ। अगर ऐसा कर दिया जाए, तो एक नई मुसीबत पैदा होती है और वह यह कि अब वर्षा का पानी मुख्य नदी और सहायक नदी के तटबन्धों के बीच फँस जाता है और उन इलाकों को डुबाता है जहाँ अभी तक बाढ़ नहीं आती थी।
अब एक ही रास्ता बचता है कि दोनों तटबन्धों के बीच फँसे इस पानी को पम्प करके निकाला जाए। इसके अलावा इस बात की गारण्टी कोई नहीं दे सकता कि नदी पर बना हुआ तटबन्ध कभी टूटेगा नहीं। अगर इन दोनों में से कोई भी तटबन्ध टूट जाता है तो बीच में रहने वाले लोगों की जल-समाधि हो जाएगी। इसलिए तटबन्धों के माध्यम से बाढ़ सुरक्षा खोजना एक ऐसा दुष्चक्र है कि एक बार अगर कोई इस व्यूह में फँस जाए तो बाहर निकलना असम्भव हो जाता है। इन कारणों से बहुत से इंजीनियर तटबन्धों को बाढ़ नियन्त्रण के लिए उपयोगी नहीं मानते। दुर्भाग्यवश, तकनीक के इस छलावे को समझने में देर लगती है और जब तक प्रभावित लोगों की समझ में यह प्रपंच आए, काफी देर हो चुकी होती है।
दूसरी तरफ इंजीनियरों की अच्छी खासी जमात मानती है कि जब नदी पर तटबन्ध बनाए जाते हैं तो पानी का प्रवाह क्षेत्र कम हो जाता है। अगर पानी की एक ही मात्रा कम क्षेत्र से होकर प्रवाहित की जाए तो उसका वेग बढ़ जाता है। पानी के बढ़े हुए वेग में किनारों के कटाव करने की अधिक क्षमता होती है और यह इंजीनियर ऐसा मानते हैं कि बदली परिस्थितियों में नदी की चौड़ाई और गहराई बढ़ जाएगी और उसके साथ ही नदी से ज्यादा पानी गुजरने लगेगा और बाढ़ स्वाभाविक रूप से कम हो जाएगी।
तकनीकी हलकों में यह बहस कि नदी पर बने तटबन्धों के कारण बाढ़ कम होती या बढ़ती है - अभी तक फैसले का इन्तजार कर रही है। तटबन्धों के पक्ष और विपक्ष में दिए जाने वाले दोनों तर्क तकनीकी रूप से इतने पुष्ट और प्रभावशाली हैं कि इंजीनियर इनका उपयोग किसी भी योजना का अनुमोदन करने या उसे ध्वस्त करने में बड़ी आसानी से कर लेते हैं। उन्हें बस इतना ही विश्लेषण करना रहता है कि तात्कालिक सामाजिक परिस्थितियों की माँग क्या है और शासक वर्ग क्या चाहता है। एक बार यह स्पष्ट हो जाए तो वे अपना तर्क सामने रखते हैं और उनकी राय को चुनौती नहीं दी जा सकती।
जब राजनीतिज्ञ यह फैसला करते हैं कि तटबन्ध नहीं बनना चाहिए तब तक इंजीनियर पहले दिए गए तर्कों का आश्रय लेते हैं। जब वह यह तय करते हैं कि तटबन्ध बनने चाहिए तो इंजीनियर बाद वाला तर्क देते हैं अगर किसी परियोजना को टाल देना हो तो वे लोग आँकड़ों की कमी का वास्ता देते हैं। इस प्रकार परिस्थिति चाहे जैसी भी हो वे उसका सामना बड़ी आसानी से कर लेते हैं।
1954 में, जब भारत में पहली बाढ़ नीति को मंजूरी नहीं दी गई थी, बिहार में नदियों के किनारे बनाये गए तटबन्धों की कुल लम्बाई 160 किलोमीटर थी और प्रान्त का बाढ़ प्रवण क्षेत्र 25 लाख हेक्टेयर था। इस वक्त (1999) राज्य में नदियों के किनारे बने तटबन्धों की लम्बाई 3,465 किलोमीटर है और राज्य का बाढ़ प्रभावित क्षेत्र 68.8 लाख हेक्टेयर है। इस बीच में बाढ़ नियन्त्रण पर राज्य में 791 करोड़ रुपए खर्च हुए। जाहिर है कि बिहार में बाढ़ नियन्त्रण के क्षेत्र में निवेश फायदे की जगह नुकसान पहुँचा रहा है। इस विसंगति का सारा दोष नदियों के किनारे बने तटबन्धों को नहीं दिया जा सकता क्योंकि इसके कारण दूसरे भी हैं। जल-निकासी की व्यवस्था किए बगैर सड़कों और रेल लाइनों के अन्धाधुन्ध निर्माण का इस गिरावट में अपना योगदान रहा है। अंग्रेजों ने पहले तटबन्ध इसलिए बनाए, क्योंकि वह बाढ़ से सुरक्षा देने के नाम पर लोगों से लगान वसूल कर सकें और जब उनके लिए तटबन्धों का रख-रखाव नामुमकिन हो गया और राहत तथा पुनर्वास के खर्च बढ़ने लगे तब उन्होंने तटबन्धों से तौबा कर ली। सरकार के इस कदम को उचित ठहराने के लिए उनके इंजीनियरों ने तर्क दिया। आजादी के बाद जब राजनेताओं को लगा कि बाढ़ से सुरक्षा मिलनी चाहिए और उसके लिए तटबन्धों से उन्हें परहेज नहीं था, तब दूसरे प्रकार के तर्क इंजीनियरों के काम आए।
बहुत से इंजीनियरों ने तो अपने अंग्रेजों के समय के सेवा काल में तटबन्धों का खूब विरोध किया था, मगर जब कोसी पर तटबन्ध के लिए राजनैतिक दबाव पड़ने लगा तो वे खुलकर तटबन्धों के पक्ष में बोलने लगे।
1955-60 के बीच कोसी नदी पर तटबन्ध बना दिए गए और इसके साथ ही उत्तर बिहार की बाकी नदियों पर भी तटबन्ध बनाने का मार्ग प्रशस्त हो गया और उन पर भी तटबन्ध बन गए। इसका समुचित परिणाम सामने आया।
1954 में, जब भारत में पहली बाढ़ नीति को मंजूरी नहीं दी गई थी, बिहार में नदियों के किनारे बनाये गए तटबन्धों की कुल लम्बाई 160 किलोमीटर थी और प्रान्त का बाढ़ प्रवण क्षेत्र 25 लाख हेक्टेयर था। इस वक्त (1999) राज्य में नदियों के किनारे बने तटबन्धों की लम्बाई 3,465 किलोमीटर है और राज्य का बाढ़ प्रभावित क्षेत्र 68.8 लाख हेक्टेयर है। इस बीच में बाढ़ नियन्त्रण पर राज्य में 791 करोड़ रुपए खर्च हुए। जाहिर है कि बिहार में बाढ़ नियन्त्रण के क्षेत्र में निवेश फायदे की जगह नुकसान पहुँचा रहा है।
इस विसंगति का सारा दोष नदियों के किनारे बने तटबन्धों को नहीं दिया जा सकता क्योंकि इसके कारण दूसरे भी हैं। जल-निकासी की व्यवस्था किए बगैर सड़कों और रेल लाइनों के अन्धाधुन्ध निर्माण का इस गिरावट में अपना योगदान रहा है। केवल रोजगार पैदा करने के उद्देश्य बनाई गई ग्रामीण सड़कों ने भी जल-निकासी और बाढ़ समस्या को बढ़ाया है, क्योंकि इनमें से होकर जल-निकासी को कोई इन्तजाम आमतौर पर नहीं होता।
कोसी तथा गण्डक परियोजना की नहरों ने सतही पानी के प्रवाह में बाधा पैदा की है तथा उनसे होने वाले रिसाव ने भूमिगत जल की सतह को ऊपर किया है। उत्तर बिहार का मैदानी क्षेत्र लगभग सपाट है और गंगा के किनारे लगी पट्टी में तो जमीन की ढाल 11 सेन्टीमीटर प्रति किलोमीटर तक मिलती है। ऐसे में पानी के रास्ते की हल्की-सी भी रुकावट जल जमाव का कारण बनती है। नदियों के तटबन्धों में अक्सर पड़ने वाली दरारें कोढ़ में खाज की स्थिति पैदा करती हैं।
बहुचर्चित कोसी तटबन्ध 1968,1981,1984 तथा 1987 में टूट चुके हैं। इन दुर्घटनाओं में 1984 वाली दरार सबसे घातक थी, जिसने 11 गाँवों को नेस्तनाबूद कर दिया, 196 गाँवों को डुबाया और लगभग साढ़े चार लाख लोगों को बेघर बना दिया था। बिहार की 1987 वाली बाढ़ में विभिन्न नदियों के तटबन्धों में 104 दरारें पड़ीं और तटबन्ध टूटने की विनाश-यात्रा अभी थमी नहीं है।
कोसी पर बाढ़ नियन्त्रण के लिए पहली बार 1937 में एक बड़े बाँध का प्रस्ताव उस समय किया गया था जब सरकारी नीति जल-निकासी की दशा सुधारने तथा पानी के रास्ते में आने वाली तमाम रुकावटों को खत्म कर देने की थी। अंग्रेज सरकार इस मसले पर नेपाल से किसी प्रकार के सहयोग पाने के प्रति आशावान नहीं थी, इसलिए उन्होंने नेपाल से इस प्रस्ताव पर कोई खास पहल नहीं की। इस बाँध पर पहली बार 1945 में कोई गम्भीर बयान आया जबकि बिहार सरकार ने कोसी नदी की पूरी लम्बाई पर तटबन्ध बनाने का प्रस्ताव केन्द्र सरकार के पास भेजा था, जिसने उसे स्पष्ट रूप से नकार दिया था।
जाते-जाते ब्रिटिश हुकूमत बाढ़ से बचाव के लिए बड़े बाँध का बीज बो गई और इस तरह कोसी पर बराहक्षेत्र बाँध की बात उठी। इसकी औपचारिक घोषणा 6 अप्रैल, 1947 को निर्मली (जिला-सुपौल), बिहार में तत्कालीन केन्द्रीय योजना मन्त्री सी एच भाभा ने की थी। बाद में घटनाक्रम कुछ ऐसा बदला कि कोसी पर तटबन्ध ही बनाने पड़ गए, मगर बराहक्षेत्र का भूत तभी से योजनाकारों पर अपनी छाया डाले हुए है।
जब कभी बिहार में बाढ़ आती है तब बिना कोई समय खोए यह बयान सरकारी हलकों से दिया जाता है कि बिहार की बाढ़ समस्या का समाधान बराहक्षेत्र बाँध ही है। यह बात तब भी कही जाती है जब बाढ़ कोसी के अलावा दूसरी नदियों में आती है। तब समाचार पत्रों में पत्र आने लगते हैं कि इस बाँध के निर्माण पर शीघ्र कार्यवाही हो। सरकार की तरफ से आश्वासन दिया जाता है कि वह बराहक्षेत्र बाँध के प्रति सजग और गम्भीर है। फिर काठमाण्डू और नई दिल्ली के बीच उच्चस्तरीय प्रतिनिधि मण्डल की आवाजाही होती है।
अगस्त से लेकर नवम्बर के बीच इस तरह की खबरें समाचार पत्रों मे भरी रहती हैं और जैसे ही नदियाँ शान्त होती हैं, यह सारा कर्मकाण्ड भी शान्त हो जाता है, अगले साल के अगस्त महीने तक के लिए। यह षटराग 1956 से चल रहा है जबकि कोसी तटबन्धों के निर्माण के समय ही नदी में भंयकर बाढ़ आ गई थी। लोगों को तभी से बार-बार यह बताया जाता है कि तटबन्ध बाढ़ समस्या का अस्थायी समाधान है और असली समाधान तो नेपाल में प्रस्तावित इस बाँध में ही है।
1947 में बराहक्षेत्र में प्रस्तावित बराहक्षेत्र बाँध से भारत और नेपाल के 12 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई होने का अनुमान था। इससे 3,300 मेगावाट बिजली पैदा होती और निचले क्षेत्रों में बाढ़ से सुरक्षा देने का वायदा किया गया था। तब इस बाँध की लागत 100 करोड़ रुपए थी। प्राथमिक सर्वेक्षण और अध्ययन के दौरान 1952 में इस बाँध की अनुमानित लागत 177 करोड़ रुपयों तक जा पहुँची जबकि इस योजना का ख्याल छोड़ दिया गया और 1953 में कोसी पर तटबन्ध के निर्माण की स्वीकृति दी गई। इस योजना पर गम्भीरतापूर्वक पुनर्विचार एक बार फिर 1971 में हुआ, जब बिहार एक भयंकर बाढ़ की चपेट में आया।
इस बाँध की संरचनात्मक सुरक्षा पर भूगर्भ वैज्ञानिकों में मतभेद रहा है, क्योंकि इसका निर्माण उस क्षेत्र में होगा, जहाँ बड़े भूकम्प आने की सम्भावना है और यह गुत्थी अभी तक सुलझी नहीं है। जब कोसी नदी पर तटबन्ध बनाए जाने का प्रस्ताव किया गया था तो यह बात बिहार विधान सभा में उठी कि क्यों बराहक्षेत्र बाँध के स्थान पर तटबन्ध बनाए जा रहे हैं। तब सरकार की तरफ से 22 सितम्बर, 1954 को बिहार विधान सभा में अनुग्रह नारायण सिंह ने बयान दिया था कि सरकार प्रस्तावित बाँध के निचले क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की सुरक्षा के प्रति चिन्तित है और इसलिए इस बाँध पर काम नहीं हो सकेगा और इस पृष्ठभूमि में तटबन्धों का निर्माण करना पड़ रहा है।
इस बाँध के निर्माण के लिए कुछ प्रस्ताव बनाए गए हैं। बिहार के सिंचाई आयोग (1994) में योजना का जो स्वरूप बताया गया है, उसके अनुसार इस बाँध की अनुमानित लागत 407 करोड़ रुपए (1986) हो गई है। आजकल तो राजनीतिज्ञों और इंजीनियरों द्वारा बयान दिए जाते हैं, उसके अनुसार इस बाँध की अनुमानित लागत 35 से 40 हजार करोड़ रुपयों तक पहुँच गई है। प्रश्न यह उठता है कि इतना पैसा हम कहाँ से लाएँगे? जाहिर है, बहुत-सी अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएँ सरकारों को यह काम करने के लिए प्रोत्साहित कर रही हैं।
बराहक्षेत्र बाँध पर जापान की ग्लोबल इन्फ्रास्ट्रक्चर फण्ड की नजर है। उदारीकरण के इस दौर में यह संस्थाएँ अब केवल कर्ज की व्यवस्था न करके स्वयं निर्माण में उतरना चाहती हैं। जैसे हालात अब बन रहे हैं उनके अनुसर यह कम्पनियाँ बाँध बनाएँगी। नेपाल को उसकी रॉयल्टी और टैक्स देंगी तथा भारत को बिजली बेचेंगी, जिसकी दरें अभी तय नहीं हो पा रही हैं और भारत यह बिजली खरीदेगा ही, इस पर भी कोई समझौता नहीं हो पा रहा है।
इस बात का अन्देशा व्यक्त किया जाता है कि इन बाँधों से पैदा होने वाली बिजली इतनी मँहगी होगी कि भारतीय उपभोक्ता उसकी कीमत नहीं अदा कर पाएगा और इसीलिए यह बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने निवेश पर सरकार से लाभ की गारण्टी चाहती हैं। इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का बाढ़ नियन्त्रण जैसे कल्याणकारी कामों में कितनी रुचि होगी यह कह पाना मुश्किल है, पर यह निश्चित है कि यह कम्पनियाँ जन-कल्याण का काम नहीं करतीं।
इसके अलावा भी कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे हैं जिनकी विवेचना होनी चाहिए। नेपाल में बराहक्षेत्र के पास जिस साइट नं. 13 पर बाँध का प्रस्ताव किया गया है वहाँ कोसी का जल-ग्रहण क्षेत्र 59,550 वर्ग किलोमीटर है। साइट नम्बर 13 से भीमनगर बराज के बीच में कोसी का जलग्रहण क्षेत्र 2266 वर्ग किलोमीटर बढ़ जाता है। बराज के नीचे कुरसेला में कोसी का गंगा से संगम तक नदी का जलग्रहण क्षेत्र 11,410 वर्ग किलोमीटर और बढ़ जाता है। इस तरह से बराहक्षेत्र बाँध के नीचे भी कोसी में 13,676 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र से पानी आता है।
बागमती नदी का जल-ग्रहणक्षेत्र थोड़ा-सा ही ज्यादा है और कमला नदी का जल ग्रहणक्षेत्र इसका लगभग आधा है। इसका सीधा मतलब यह होता है कि बराहक्षेत्र बाँध के निर्माण के बाद भी बागमती नदी के प्रवाह जितना या कमला के प्रवाह से दो गुना पानी बाँध के नीचे फिर भी बहेगा। जिसने भी इन दोनों नदियों को उफनते देखा है, वह इस पानी का आसानी से अन्दाजा लगा सकता है। आजकल यही पानी कोसी के पूर्वी और पश्चिमी तटबन्ध के किनारे जमा होता है और जल जमाव को स्थायी बनाता है।
पश्चिमी तटबन्ध के पश्चिम में बहने वाली पाँची, धोकरा, घोरदह, खड़क, बिहुल, भुतही बलान, गेहुमाँ और सुपैन जैसी नदियों पर बराहक्षेत्र बाँध का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। कमला-बलान और बागमती नदियाँ भी इसके प्रभाव क्षेत्र से बाहर हैं। इस तरह से पश्चिमी तटबन्ध के पश्चिम में बाढ़ परिस्थिति पर बराहक्षेत्र बाँध बनने के बाद भी कोई अन्तर नहीं पड़ेगा, क्योंकि इन नदियों का उद्गम और उनका अन्तिम बिन्दु दोनों ही, बराहक्षेत्र बाँध के बाहर होंगे।
ठीक इसी तरह से पूर्वी तटबन्ध के पूर्व में फरियानी धार, हरसंखी धार, गोरहो धार, धेमुरा धार, हरेली धार, बंसवारा धार, सौरा धार, सपनी धार, बैलदौर धार, चौसा धार, लछहा धार, सुरसर धार, तिलाबे धार और गाई धार के प्रवाह पर बराहक्षेत्र बाँध का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इन क्षेत्रों में कोसी नदी पर तटबन्ध बनाए जाने के बाद तथाकथित रूप से बाढ़ से सुरक्षित इलाकों में बराहक्षेत्र बाँध के बनने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है।
इंजीनियरों का समुदाय तथा राजनीतिज्ञ पिछले 52 वर्षों से इसी बात की दुहाई देते आए हैं कि तटबन्ध सक्षम रूप से तभी काम करेंगे जब बराहक्षेत्र बाँध बना लिया जाए। जैसा कि हमने ऊपर देखा है कि यह तटबन्धों के बाहर रहने वाले लोगों के लिए फायदेमन्द नहीं होगा, उसी तरह कोसी तटबन्धों के बीच बसे 338 गाँवों के लगभग 8 लाख बाशिन्दों पर भी इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। मान लिया जाए कि बाँध बन जाता है और सारी मिट्टी/रेत उसके अन्दर रुक जाती है और बाहर छोड़ा जाने वाला पानी गाद मुक्त है तथा तटबन्धों को भी चुस्त-दुरूस्त हालत में रखा गया है, तो पहली बात तो यह है कि न तो बरसात में नदी में आने वाले सारे पानी को रोक पाना मुमकिन है और न ही, जो पानी बाँध से छोड़ा जाएगा, वह कभी गाद मुक्त होगा। दूसरी सम्भावना यह है कि नदी के पानी को बरसात भर बहने दिया जाए और वर्षा के अन्त में ही जलाशय भरा जाए।
दोनों ही परिस्थितियों में तटबन्धों के अन्दर नदी की धारा परिवर्तन में कोई कमी नहीं आएगी और न ही गाँवों/खेतों का कटाव रुकेगा, और अगर बरसात का अन्त होते-होते तक जलाशय भर लिया जाता है तब भी खतरा समाप्त हो जाएगा, इसकी कोई गारण्टी नहीं है, क्योंकि 1968 या 1978 जैसी बाढ़ अक्टूबर के महीने में आई थी। ऐसी स्थिति में जलाशय तो भरा रहेगा और पानी बरसने पर सारे फाटक खोल देने पड़ेंगे। तब ऊपर से पानी बरसेगा और बाँध के पानी का भी मुकाबला करना पड़ेगा। सितम्बर के बाद आने वाली बाढ़ में इस बाँध की कोई उपयोगिता नहीं होगी।
पश्चिम बंगाल की अक्टूबर, 1978 की बाढ़ दामोदर घाटी निगम के बाँधों के कारण आई थी। इधर हाल में सितम्बर, 1999 में नर्मदा घाटी में भोपाल और होशंगाबाद में जो बाढ़ आई थी वह भी बरगी, बारना और तवा बाँधों की वजह से और उनके बावजूद आई थी। वहीं भुक्तभोगियों का मानना है कि बाढ़ इन बाँधों द्वारा अत्यधिक पानी छोड़ने के कारण आई थी। ऐसे मौकों पर अधिकारियों का एक नपा-तुला जवाब होता है कि अगर बाँध नहीं रहे होते तो तबाही और भी ज्यादा हुई होती। ऐसी परिस्थितियों में तटबन्धों के अन्दर रह रहे लोगों पर खतरा पहले से ज्यादा बढ़ा हुआ रहेगा, मगर विडम्बना यह है कि वही लोग सबसे आगे बढ़ कर बराहक्षेत्र बाँध की माँग करेंगे। हम फिर याद दिला दें कि कोसी तटबन्धों के बीच 338 गाँव फँसे हैं, जिनकी कुल आबादी लगभग 8 लाख है।
इस तरह बराहक्षेत्र बाँध बने या न बने, इस इलाके में बाढ़ की स्थिति यथावत् बनी रहेगी, लेकिन प्रचार-प्रसार के लिए हमेशा बाढ़ नियन्त्रण के लाभ का ही नाम लिया जाएगा। अगर हम इस बाँध के 1986 वाले प्राक्कलन पर एक नजर डालें, तो विभ्रम की धुन्ध थोड़ी-सी छंटती है। बाँध की कुल लागत 4,074 करोड़ रुपयों में से 2,677 करोड़ रुपए विद्युत उत्पादन तथा 1,347 करोड़ रुपए सिंचाई पर खर्च किए जाने का प्रावधान है। बाकी बचे 50 करोड़ रुपए जल-छाजन और भूमि संरक्षण योजनाओं पर खर्च किए जाएँगे। जलाशय में आने वाली गाद को रोकने या कम करने के लिए इतना ही आवण्टन है जो कि कुल लागत का 1.3 प्रतिशत है।
जब बराहक्षेत्र बाँध से बाढ़ नहीं रुकेगी तब इंजीनियरों की अगली पीढ़ी इसी बहाने का उपयोग करेगी कि उनके पहले के इंजीनियरों ने जल-छाजन और वनीकरण के महत्व को नहीं समझा और उसके लिए समुचित प्रावधान नहीं किया। अभी जो भी बाढ़ नियन्त्रण इस बाँध से किया जाएगा वह जलाशय के नियमन से किया जाएगा। इसमें जल-ग्रहण क्षेत्रों के सुधार का कोई खास प्रावधान नहीं लगता।
आज जब हम यह कहते हैं कि तटबन्ध काम करते जरूर, मगर बराहक्षेत्र बाँध के बनने पर ही इनका पूरा उपयोग हो पाएगा, तब आज से 50 या 100 साल बाद लोगों को बताया जाएगा कि बराहक्षेत्र बाँध काम करता जरूर, मगर यह तब तक नहीं हो पाएगा जब तक कि वनीकरण और जल-छाजन पर काम न हो। फिर जल-छाजन और वनीकरण पर काम चलेगा।
मगर नदी में बाढ़ तब भी आती थी और उसकी धारा तब भी बदलती थी जब सारे-के-सारे जंगल सही सलामत थे। उस दिन कहा जाएगा सिल्ट/रेत इस क्षेत्र की नदियों में ज्यादा इसलिये आती है क्योंकि यह इलाका भूगर्भीय रूप से अस्थिर है। यहाँ भूकम्प आते हैं जो कि हिमालय को अस्थिर कर देते हैं। इससे भूस्खलन होता है और नदियों में इनका गाद भर जाती है। भूस्खलन रोकने में जंगलों की कोई भूमिका नहीं है। जो भूकम्प हिमालय की पूरी संरचना को अस्थिर कर देते हैं, वह बाँध को बख्श देंगे क्या? सच यह है कि कमाने-खाने वालों को न तो काम की कमी होगी और न ही बहानों की।
वास्तव में यह बाँध विद्युत उत्पादन के लिए बनेंगे और इनका बाढ़ नियन्त्रण से कोई लेना-देना हो ही नहीं सकता। इनकी पब्लिसिटी जरूर बाढ़ के नाम पर होगी, जिससे कि जन-समर्थन इन बाँधों के पक्ष में जुटाया जा सके। सवाल इस बात का है कि अगर यह बाँध विद्युत उत्पादन के लिए बनता है तो ऐसा कहने में हर्ज क्या है? क्यों लोगों को एक और झूठी तसल्ली दी जाती है?
अब एक नजर सिंचाई के दावों पर डालें। प्रस्तावित बराहक्षेत्र बाँध से भारत और नेपाल में 12.17 लाख हेक्टेयर जमीन पर सिंचाई का अनुमान है। इसी तरह का एक दावा 1953 वाले वर्तमान कोसी परियोजना प्रस्ताव में भी किया गया था। उस समय यह कहा गया था कि कोसी परियोजना से 7.12 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई की जाएगी। बाद में (1975) में कोसी सिंचाई समिति (राम नारायण मण्डल समिति) ने पाया कि यह अनुमान पूरी तरह गलत था और यह कि कोसी परियोजना से किसी भी हालत में 3.74 लाख हेक्टेयर के कृषिक्षेत्र से ज्यादा पर सिंचाई हो ही नहीं सकती। पूर्वी कोसी मुख्य नहर से सर्वाधिक सिंचाई 1983-84 में 2.13 लाख हेक्टेयर पर हुई थी और इस नहर से 1996, 1997 और 1998 में होने वाली सिंचाई एक लाख हेक्टेयर की सीमा को पार नहीं कर पाई।
यही हश्र पश्चिमी कोसी नहर का हुआ। जब इस योजना का प्रस्ताव पहली बार 1962 में किया गया तब उसकी अनुमानित लागत 13.49 करोड़ रुपए थी और इस तरह से 2.61 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई का प्रस्ताव था। इस नहर का शिलान्यास लाल बहादुर शास्त्री ने 1965 में किया था और इस नहर से पिछले तीन वर्षों 1996,1997 और 1998 में खरीफ के मौसम में क्रमशः 15,120 हेक्टेयर, 17,421 हेक्टेयर और 18,943 हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई हुई। इस परियोजना पर 1998 तक 278.31 करोड़ रुपए खर्च हुए थे और 1996 में इसकी अनुमानित लागत 569 करोड़ रुपए थी जो कि अपने मूल प्राक्कलन से चालीस गुना से भी ज्यादा थी।
बिहार सरकार का ऐसा विश्वास है कि यह नहर 2001 में पूरी कर ली जाएगी, मगर जो काम की रफ्तार है, उसके हिसाब से नहर का काम पूरा होने में कितना समय लगेगा, कह पाना मुश्किल है। अब अगर बराहक्षेत्र बाँध बनाने का काम हमारा यही अकर्मण्य तन्त्र करे और उसकी प्राक्कलित राशि 35,000 करोड़ से बढ़कर वास्तविक खर्च 3,50,000 करोड़ हो जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। बिहार का वार्षिक बजट 3,000 करोड़ के आसपास होता है। बराहक्षेत्र बाँध अकेले बिहार के पूरे बजट का दस वर्ष का प्रावधान खा जाएगा, जिसमें हमारी दो पंचवर्षीय योजनाएँ पूरी हो जाएँगी।
जापान का ग्लोबल इन्फ्रास्ट्रक्चर फण्ड नेपाल में 13 ऐसे बाँधों को बनाने का दम भरता है यदि अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं को मनमानी करने का मौका मिले तो देश कर्ज की गिरफ्त में फँसेगा और यदि यह खुद निर्माण के क्षेत्र में उतर आए तब तो भगवान ही मालिक है। हम लोगों ने अभी हाल में ही एनरॉन के हाथों महाराष्ट्र में बिजली के दामों की तथा कर्नाटक में कोजेन्ट्रिक्स की सरकार द्वारा मान-मनौवल की एक झाँकी देखी है।
जैसा कि कहा जाता है, बराहक्षेत्र बाँध से 3300 मेगावाट बिजली पैदा होगी। बिहार में इस समय 1800 मेगावट बिजली पैदा करने की स्थापित क्षमता है, जबकि गर्मी के महीनों में बिरले ही 350 मेगावाट बिजली का उत्पादन हो पाता है। वैसे भी प्रान्त में जो बिजली की ट्रान्समीशन लाइन है वह 1,000 मेगावाट से ज्यादा बिजली का बोझ वहन नहीं कर सकती। एक नया बाँध बनाने और उससे बिजली पैदा करने के पहले क्यों नहीं जो मौजूदा क्षमता है, उसका समुचित उपयोग किया जाए। इसकी बात कोई क्यों नहीं करता ? और इस बात की गारण्टी कौन देगा कि बराहक्षेत्र से बिजली का उत्पादन 3300 मेगावाट की जगह 500 मेगावाट नहीं होगा।
इसके अलावा पूर्वी तटबन्ध के पूर्व में 1,82,000 हेक्टेयर जमीन पर जल जमाव है। पश्चिमी तटबन्ध के पश्चिम में 44.19 मीटर कन्टूर लाइन के नीचे 94,000 हेक्टेयर तथा उसके ऊपर 34,400 हेक्टेयर जमीन जल-जमाव से ग्रस्त है। साथ ही दोनों तटबन्धों के बीच 1,10,000 हेक्टेयर जमीन हमेशा के लिए बाढ़ में फँसी है। इस तरह कुल मिलाकर किसी-न-किसी तरह 4,20,400 हेक्टेयर जमीन पानी में गई। जल जमाव वाले क्षेत्रों में जल-निकासी की योजनाएँ बनती हैं, कहीं-कहीं कुछ काम भी होता है पर बाद में फिर वही ढाक के तीन पात! जब 1953 वाली कोसी परियोजना पर काम शुरू हुआ था तब यह कहा गया था कि कोसी तटबन्धों से 2,12,000 हेक्टेयर जमीन को बाढ़ से बचाया जाएगा।
फिलहाल नेपाल में 30 बाँधों के निर्माण का तथा 60 ऐसी जल-विद्युत परियोजनाओं का प्रस्ताव है, जिनमें नदी को बिना बाँधे, उसके प्रवाह से ही बिजली पैदा की जाएगी। इन तीस बाँधों में से 7 बाँधों की ऊँचाई 50 से 100 मीटर के बीच है, 12 बाँधों की ऊँचाई 100 से 200 मीटर के बीच में और 11 बाँधों की ऊँचाई 200 मीटर से ज्यादा होगी। इन योजनाओं से 1,45,000 गीगावाट ऑवर बिजली पैदा हो सकेगी, जिससे दक्षिण एशिया में बसने वाले 70 करोड़ परिवारों की बिजली की जरूरतें पूरी हो सकेंगी। इस काम में 50 करोड़ टन लोहा, 10 करोड़ घनमीटर कंक्रीट और 100 करोड़ घनमीटर पत्थरों का इस्तेमाल होगा।
प्रस्तावित बाँध के कारण होने वाली विस्थापन और पुनर्वास की समस्या, यद्यपि इससे हमारा कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है, एक बड़ा ही पेचीदा मामला है। हमारे यहाँ ही नर्मदा घाटी के बाँधों, सुवर्णरेखा या टिहरी परियोजनाओं में विस्थापन के प्रश्न पर योजनाओं के कार्यान्वयन पर बुरा असर पड़ा है। इन परियोजनाओं की आर्थिक दक्षता और उनके पूरा होने में अनुमान से ज्यादा लगने वाला समय अपने आप में एक समस्या है। बिहार में हमारी खुद की सिंचाई और बाढ़ नियन्त्रण की परियोजनाओं की उपलब्धियाँ सभी के लिए चिन्ता का विषय बनी हुई हैं और केवल क्षीण-सी आशा है कि इस पूरे अकर्मण्य तन्त्र की छाया नेपाल में प्रस्तावित बाँधों पर नहीं पड़ेगी। इन बाँधों में प्रतिवर्ष 70 करोड़ टन रेत/मिट्टी हर साल जमा होगी और इनका जीवन काल 30 से 75 वर्ष का होगा। इन बाँधों में नेपाल की 2,200 वर्ग किलोमीटर जमीन डूबेगी जो कि नेपाल की कुल जमीन का 1.5 प्रतिशत है और इसमें वहाँ की 20 प्रतिशत सिंचित कृषि भूमि भी डूब जाएगी। डूब क्षेत्र में जंगल और गाँव भी शामिल हैं। इन बाँधों के निर्माण से करीब 6,00,000 लोग विस्थापित होंगे जो कि नेपाल की कुल आबादी का 3 प्रतिशत है। क्या इन कीमतों पर नेपाल अपने यहाँ बाँध निर्माण करवाएगा, यह एक यक्ष-प्रश्न है।
नेपाल में अरुण नदी पर बने अरूण-।।। बाँध का एक अनुभव हमारे पास है और उसके नतीजे कुछ उत्साहवर्धक नहीं हैं। कोसी की सहायक धारा पर बन रहे 115 मीटर लम्बे और 68 मीटर ऊँचे अरुण-III बाँध की प्राक्कलित राशि 108.2 करोड़ अमरीकी डॉलर थी और इस काम में विश्व बैंक, एशियन डेवलपमेंट बैंक, जर्मनी, फ्रांस तथा स्वीडेन की सरकारें मदद कर रही थीं। इस बाँध का काम जब 1992 में शुरू हुआ तब नेपाल में बुद्धिजीवियों तथा सक्रिय समूहों में बहस छिड़ गई कि इस परियोजना का औचित्य है भी या नहीं।
उन लोगों का मानना था कि इस परियोजना से नेपाल को फायदा नहीं होगा और दाता संस्थाएँ अपने-अपने व्यापारिक हितों का पोषण करने के लिए नेपाल को कर्ज के गर्त में ढकेल रही हैं। इन लोगों का यह भी मानना था कि नेपाल को रोजगार के क्षेत्र में भी कोई लाभ नहीं होने वाला है तथा योजना से पैदा होने वाली बिजली इतनी मँहगी होगी कि नेपाली उपभोक्ता उसका खर्च वहन ही नहीं कर पाएगा। उनकी आशंका थी कि इस बिजली की कीमत लगभग वही होगी जो कि एक अमरीकी उपभोक्ता अपने देश में अदा करता है और भारतीय उपभोक्ता जिस दर से बिजली का भुगतान करता है, यह बिजली उससे दोगुनी महँगी होगी। अगर ऐसा होता है तो भारत यह बिजली खरीदेगा ही नहीं जबकि बाँध इसी उम्मीद पर बन रहा था कि भारत यह बिजली ले लेगा।
नेपाल में प्रस्तावित इन बाँधों के बारे में भारत में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती। जो कुछ भी जानकारी मिलती है वह नेपाल से प्रकाशित होने वाली पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं और समाचार पत्रों से ही मिलती है। हमारे पास जो भी सूचनाएँ मिलती हैं वह इन योजना प्रस्तावों पर नेपाली जनता या बुद्धिजीवियों की टिप्पणी की शक्ल में ही मिलती हैं और इन योजनाओं पर जो कुछ भी बहस होनी चाहिए वह यहाँ हो ही नहीं पाती है। हमारी बाँध की सुरक्षा के प्रति दुश्चिन्ता हो सकती है, क्योंकि अकेले बराहक्षेत्र बाँध में इतना पानी संचित किया जा सकता है जिससे पूरे उत्तर बिहार पर एक फुट मोटी पानी की चादर बिछाई जा सके।
प्रस्तावित बाँध के कारण होने वाली विस्थापन और पुनर्वास की समस्या, यद्यपि इससे हमारा कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है, एक बड़ा ही पेचीदा मामला है। हमारे यहाँ ही नर्मदा घाटी के बाँधों, सुवर्णरेखा या टिहरी परियोजनाओं में विस्थापन के प्रश्न पर योजनाओं के कार्यान्वयन पर बुरा असर पड़ा है। इन परियोजनाओं की आर्थिक दक्षता और उनके पूरा होने में अनुमान से ज्यादा लगने वाला समय अपने आप में एक समस्या है। बिहार में हमारी खुद की सिंचाई और बाढ़ नियन्त्रण की परियोजनाओं की उपलब्धियाँ सभी के लिए चिन्ता का विषय बनी हुई हैं और केवल क्षीण-सी आशा है कि इस पूरे अकर्मण्य तन्त्र की छाया नेपाल में प्रस्तावित बाँधों पर नहीं पड़ेगी।
इसके अलावा, बाँध कितनी ही दक्षता और फुर्ती से बनाया जाए, इसके निर्माण में 12 से 15 वर्ष का समय अवश्य लग जाएगा। इस अन्तरिम समय में बाढ़ का मुकाबला करने की कोई योजना हमारे पास है क्या? या फिर यह समय बराहक्षेत्र बाँध के निर्मित हो जाने के आश्वासन पर ही कट जाएगा? इस इलाके में बाढ़ की समस्या के पीछे नदियों में आने वाली अत्यधिक गाद की मात्रा है और यह प्रस्तावित बाँध गाद को रोकने की दिशा में कुछ भी नहीं कर पाएगा। दिक्कत यह है कि इंजीनियरों को पानी के साथ क्या करना है यह तो मालूम है पर उसके साथ आने वाली मिट्टी का क्या करना है, इसका कोई सस्ता समाधान निकालने की विद्या उन्हें नहीं आती है।
बाढ़ वाले क्षेत्र के किसी भी ग्रामीण से पूछिए तो वह आप को बताएगा कि कैसे पहले बाढ़ का पानी आता था, चारों ओर फैलता था, खेतों पर नई मिट्टी पड़ती थी और ज्यादा-से-ज्यादा दो ढाई दिन के अन्दर बड़ी-से-बड़ी बाढ़ समाप्त हो जाती थी। अगर कभी असाधारण-सी बाढ़ आ गई और खरीफ की फसल पूरी तरह चौपट हो गई तो रबी की एक जबर्दस्त फसल इस नुकसान की भरपाई कर देती थी। बड़े इलाके पर गाद फैलने के कारण उसके लिए अलग से कोई व्यवस्था नहीं करनी पड़ती थी और नदी भूमि निर्माण का अपना काम बिना किसी रुकावट के पूरा करती थी।
बाढ़ का इंजीनियारिंग समाधान कर हमने नदियों को सही मायनों में विनाशकारी बना दिया है। अब वह अपने स्वाभाविक धर्म-जल-ग्रहण क्षेत्र के पानी की निकासी के बदले उसमें पानी फैलाने का काम कर रही हैं। तब क्या यह जरूरी नहीं है कि बाढ़ों पर एक नई दृष्टि डाली जाए। बड़े-बड़े बाँधों पर निर्भर करने के बदले क्या हम ऐसा नहीं कर सकते कि पानी को गाँवों तक आने दिया जाए और स्थानीय स्तर पर उनसे निबटा जाए और एक बार और हमेशा के लिए बड़े बाँधों और नदियों की बाढ़ के रिश्तों को समाप्त कर दिया जाए, क्योंकि ऐसे बाँधों की मदद से बाढ़ न तो पहले कभी रुकी है और न ही भविष्य में कभी रुक पाएगी। हमने बाढ़ों के साथ जीवन निर्वाह की विधा को अभी तक केवल बातचीत के स्तर तक ही सीमित रखा है।
जो कुछ भी हमारे सामने पड़ता है, क्या हम उसको अपने कब्जे में कर लेने की धींगा-मुश्ती से बाज आएँगे? क्या हम बाढ़-रोधी घरों के स्थान पर बाढ़ को बर्दाश्त कर लेने वाले घरों के बारे में सोच सकते हैं? क्या हम बाढ़-विरोधी फसलों के बदले बाढ़ बर्दाश्त करने वाली फसलों को उगाने का प्रयास करेंगे? अगर इन प्रश्नों का उत्तर सकारात्मक है तो प्रस्ताविक बाँध, जहाँ तक बाढ़ नियन्त्रण का प्रश्न है, अपने आप आम जनता द्वारा पुनरीक्षण के दायरे में आ जाएगा।
पूरे देश में सूखा प्रवण क्षेत्रों में विकास के बहुत-से सफल प्रयोग हुए हैं, मगर बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों को आज भी एक ‘मसीहा’ का इन्तजार है। अन्तर केवल इतना ही है कि सूखा-प्रभावित क्षेत्रों में दो-एक गाँवों को लेकर विकास का काम किया जा सकता है जबकि बाढ़ वाले क्षेत्रों में यही काम क्षेत्रीय स्तर पर या कुछ गाँवों के समूह को लेकर ही करना पड़ेगा। यह जरा महँगा है मगर इस पर काम होना चाहिए।
इसी तरह से क्या सिंचाई के लिए भी कुछ कर सकते हैं, कम-से-कम हम योजना काल के अपने सिंचाई प्रकल्पों का एक मूल्याँकन कर लें। पूर्वी कोसी मुख्य नहर से जितनी सिंचाई आज होती है उससे ज्यादा योजना बनने से पहले कोसी कमाण्ड में लोग भूमि पर सिंचाई अपने दम पर कर लिया करते थे। इससे क्या यह सबक नहीं मिलता कि देश के इस हिस्से में सिंचाई के क्षेत्र में किया गया निवेश न केवल बट्टे-खाते में चला गया वरन् काफी बड़ा क्षेत्र जल जमाव की भेंट चल गया।
दरअसल पहले से ही भूमिगत जल के ऊपर रहने वाले इलाके में नहरों से सिंचाई का प्रयोग ही नहीं होना चाहिए था। अब समय आ गया है कि हम अपने पारम्परिक सिंचाई के साधनों की पुनर्स्थापना आधुनिक मगर जनविज्ञान के जरिए करने का प्रयास करें, क्योंकि वह सुनिश्चित था और उसमें अपने संसाधनों को समाज अपने नियन्त्रण में रखता था। इसमें न तो बड़ी नहरों के टूटने का खतरा है और न ही मरम्मत न होने के कारण उनसे सिंचाई बन्द होने का डर रहता है। इस स्रोत से खेतों पर बालू भी नहीं पड़ता है और न ही ऐन मौके पर इंजीनियरों के हड़ताल पर जाने का खतरा रहता जबकि सिंचाई की माँग चरम पर हो।
अगर यह बाँध केवल बिजली की जरूरतों को पूरा करने के लिए बनाए जा रहे हैं, तब इस बात की जरूरत है कि अपनी बिजली की माँग का अध्ययन कर लें। अपने मौजूदा बिजली घरों की कार्य क्षमता बढ़ाना, बिजली पैदा करने की सारी सम्भावनाओं को तलाश करना और उसका दुरुपयोग रोकना आदि कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन पर गम्भीरता से विचार होना चाहिए और जिस तरह के बाँध को बनाने की बात चल रही है वह तभी बनें, जब उसके अलावा कोई चारा न बचा हो। पिछले दो वर्षों में बिहार में तीन बड़े ताप बिजली घरों के शिलान्यास हुए हैं। इस दरम्यान बाढ़ और चतरा बिजली घर (दोनों की अलग-अलग क्षमता 2,000 मेगावाट) और पुसौली ताप बिजली घर (क्षमता 500 मेगावाट) की नींव रखी गई है।
इन तीन बिजली घरों से कुल मिलाकर 4,500 मेगावाट बिजली उपलब्ध हो सकेगी, जबकि राज्य की सन् 2025 की बिजली की माँग 2750 मेगावाट होने का अनुमान है। अगर ये बिजली घर काम करने लगें और अगर हम अपनी वर्तमान क्षमता को सुधार सकें तो विद्युत उत्पादन के लिए भी बराहक्षेत्र बाँध की जरूरत नहीं पड़ेगी। अधिकांश बड़े बाँध विद्युत उत्पादन के उद्देश्य से बनते हैं। हाँ, इनका प्रचार-प्रसार सिंचाई या बाढ़ नियन्त्रण के नाम पर अवश्य होता है। यह बाँध गरीबों और उनके विकास की दुहाई देकर बनते हैं। मगर बाँध बनने के बाद की प्राथमिकताओं का अगर अध्ययन किया जाए तो वे गरीब ही होते हैं, जो पीछे छूट जाते हैं।
नेपाल में प्रस्तावित बाँधों पर एक राष्ट्रव्यापी बहस की जरूरत है जो कि पर्यावरण, संरचनात्मक सुरक्षा, लागत, निर्माण पूरा करने का समय, विस्थापन या पुनर्वास-यद्यपि यह मुद्दा सीधे हमको प्रभावित नहीं करता है, मगर निर्माण कार्य को बहुत प्रभावित कर सकता है और भारतीय उपभोक्ता को मिलने वाली बिजली और उसकी कीमत आदि विषयों को समेटे बहस अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं की भूमिका पर भी होनी चाहिए और बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ क्यों इन योजनाओं में इतनी ज्यादा रूचि ले रही हैं, वह भी सार्वजनिक किया जाना चाहिए। जरूरी है कि वर्तमान कोसी परियोजना का भी मूल्यांकन उसके कथित उद्देश्यों की पृष्ठभूमि में किया जाए। लोगों के पास योजना बनाने वालों की बातों पर विश्वास करने का समुचित कारण होना चाहिए, क्योंकि जिन योजनाओं की बात चल रही है वह बहुत ही महँगी है।
ब्रिटिश शासन काल में सरकार, प्रशासक तथा उसके इंजीनियर बाढ़ नियन्त्रण की जगह जल-निकासी पर ज्यादा जोर दे रहे थे, क्योंकि उनका मानना था कि बाढ़ नियन्त्रण पर किया गया कोई भी काम पानी की निकासी में बाधा पहुँचाता है। इसके साथ ही बाढ़ नियन्त्रण परियोजनाओं की असफलता की स्थिति में जो राहत और पुनर्वास का खर्च सरकार को उठाना पड़ता है, उसके प्रति भी वे काफी सतर्क थे।
मैदानी इलाकों में बाढ़ नियन्त्रण परम्परागत रूप से काफी महत्वपूर्ण नहीं था। नदी की बाढ़ से बचाव के लिए गाँवों में टीलानुमा जगह बना दी जाती थी, जहाँ लोग बाढ़ के समय शरण ले लेते थे। अगर गाँव पास-पास में हों, तो यह टीले भी पास-पास बन जाते थे। वह कभी भी नदी के प्रवाह को रोकने के लिए या नदी की पूरी लम्बाई में नहीं बनाए जाते थे। उनको इस तरह निर्मित किया जाता था कि नदी का पानी गाँव के रिहाइशी इलाकों को कम-से-कम नुकसान पर पहुँचा सके। कुल मिलाकर प्रयास पानी को ज्यादा-से-ज्यादा इलाकों पर फैलाने का था, जिससे वर्षा के समय खेतों को पानी मिले, नई मिट्टी पड़ने के कारण जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़े और ज्यादा क्षेत्र पर पानी फैलने के कारण बाढ़ का प्रकोप सीमित हो।
बाढ़ का पानी फैलने के कारण जमीन की नमी बनी रहती थी और रबी की जबरदस्त फसल होती थी। फसलों के सही चुनाव से असाधारण परिस्थितियों में भी अन्न की कमी नहीं रहती थी। अंग्रेज मैदानी क्षेत्रों की बाढ़ देखकर घबरा गए थे और जन-साधारण की बाढ़ों से निपटने की तैयारी और तरीकों को समझने में उन्हें काफी समय लग गया। शुरू-शुरू में तो उन्होंने बाढ़ से बचाव के लिए बनाए गए टीलों या बाँधों को नदी के किनारे बनाए गए तटबन्ध ही समझ लिया। परिणामतः उन्होंने उनका उसी तरह से विस्तार किया और उन्हें मजबूत बनाने का प्रयास किया। इन तटबन्धों का रख-रखाव बड़ा मुश्किल था और यह अक्सर टूटा करते थे। उनकी नजर में लोगों को इनसे कभी सुरक्षा मिलती थी तो कभी नहीं मिलती थी।
अपने बाद के शासन काल में अंग्रेजों ने जल-निकासी के रास्ते में अड़चनें न पैदा करने का प्रयास किया और राहत तथा पुनर्वास के कामों से बचने का भरसक प्रयास किया। कटक के कमिश्नर ए जे मोफेट (1847) की इन तटबन्धों पर एक बड़ी अनोखी टिप्पणी उपलब्ध है। उनका कहना था कि, ‘... मेरे लिये यह कह पाना बड़ा मुश्किल है कि तटबन्धों को हटा देने से सरकार को फायदा होगा या नुकसान। कुछ इलाकों में मिट्टी पड़ने से सुधार की सम्भावना है, परन्तु मैं यह भी सोचता हूँ कि जितना फायदा होगा उतना ही नुकसान दूसरी जगहों पर बालू पड़ने से हो जाएगा। कटक में बहने वाली नदियाँ अक्सर ऐसा करती हैं।’
उनके रेवेन्यू अफसरों और मिलिट्री इंजीनियरों के बीच बड़ा तीव्र विवाद था। रेवेन्यू अफसरों की माँग रहती थी कि खेती की जमीन को बाढ़ से सुरक्षा मिलती रहे ताकि उन्हें लगान वसूल करने में दिक्कत न हो। इंजीनियरों के साथ परेशानी थी कि वह नदी के पानी से बचाव के लिए बने तटबन्धों को चुस्त-दुरुस्त हालत में रख पाने में असमर्थ थे और वह भी उस हालत में जब यह काम कम-से-कम खर्च पर होना हो।
धीरे-धीरे तटबन्धों का रखरखाव इंजीनियरों के लिए बड़ा भारी सिरदर्द बन गया, क्योंकि वर्षा वाले महीनों में उनका फर्ज था कि वह तटबन्ध को सही-सलामत रखने के लिए काम करते रहें और पूरी बरसात भर न केवल तटबन्धों की नदी की बाढ़ से, बल्कि ग्रामीणों के हमलों से भी हिफाजत करें। सूखे के समय तो हालत और भी बदतर थी, क्योंकि तब तटबन्धों पर रात-दिन नजर रखनी पड़ती थी। नदी के पानी को खेतों तक पहुँचाने के लिए लोग चोरी-छिपे इन तटबन्धों को काट दिया करते थे, जिससे कुछ इलाके को भले ही फायदा हो जाए, मगर एक बड़े क्षेत्र को नुकसान पहुँचता था।
तटबन्ध टूटने की स्थिति में सरकार को लगान माफ कर देना पड़ता था और तकावी ऋण की व्यवस्था करनी पड़ती थी। कुल मिलाकर सरकार के लिए यह घाटे का सौदा था।
अब जो हालात पैदा हो रहे थे, उनकी वजह से उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में दामोदर परियोजना को हाथ में लेकर छोड़ दिया गया और इसी आधार पर जब लाट साहब के पास उत्तर बिहार में गण्डक सिंचाई परियोजना का प्रस्ताव भेजा गया तब उन्होंने उसे स्वीकृति देने से साफ मना कर दिया।
आजादी के बाद राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार तत्कालीन केन्द्रीय योजना और सिंचाई मन्त्री श्री गुलजारी लाल नन्दा ने 3 सितम्बर 1954 को लोकसभा में बाढ़ जनित समस्याओं और उनके निदान के स्वरूप पर एक वक्तव्य दिया। जिसे सम्भवतः बाढ़ नीति सम्बन्धी स्वतन्त्र भारत का पहला वक्तव्य कहा जा सकता है। 1953 तथा 1954 की प्रचण्ड बाढ़ों ने देश में काफी चिन्ताजनक परिस्थिति पैदा कर दी थी। श्री नन्दा ने अपने बयान में कहा था कि ‘बहरहाल, बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में लोगों की सुरक्षा का इतना अधिक महत्व है कि हमें उन तरीकों को चुनना पड़ेगा, जो उद्देश्य को प्राप्त करने के साथ-साथ शीघ्रतापूर्वक अपनाया जा सके, इन अर्थों में एक कार्यक्रम को अपनाने पर विचार किया जा रहा है। यह तीन चरणों में विभाजित है।’
(क) तात्कालिक - पहला चरण दो वर्षों की अवधि तक का होगा। इस अवधि को गहन अन्वेषणों और आँकड़े एकत्रित करने में लगाया जाएगा। बाढ़ नियन्त्रण के लिए अल्पकालीन उपायों के लिए विस्तृत योजनाएँ बनाई जाएँगी तथा अभिकल्पों एवं अनुमानों को तैयार किया जाएगा। निवेशों, स्परों और यहाँ तक कि तटबन्धों के निर्माण के उपाय चुने हुए स्थलों में तत्काल लागू किए जाएँगे।
(ख) अल्पावधिक - दूसरे चरण के दौरान, जो दूसरे वर्ष से आरम्भ होकर 6 वें अथवा 7 वें वर्ष तक का होगा, तटबन्धों और चैनल सुधारों जैसे बाढ़ नियन्त्रण के उपाय किए जाएँगे। इस प्रकार की सुरक्षा को इस समय बाढ़ से प्रभावित क्षेत्रों में वृहत् भाग पर लागू किया जाएगा।
(ग) दीर्घावधिक - तीसरा चरण, जहाँ आवश्यक हो, कुछ नदियों की सहायक नदियों पर भण्डारण जलाशयों तथा अतिरिक्त तटबन्धों के निर्माण जैसे चुने हुए दीर्घावधि उपायों से सम्बन्धित होगा। इनमें तीन से पांच वर्ष का और समय लग सकता है।
किसी एक उपाय में बाढ़ों की समस्या का कोई पूर्ण समाधान नहीं मिल सकता। यदि कोई उचित हल ढूँढ़ना है तो प्रत्येक मामले पर इसके गुणावगुणों के आधार पर विचार करना पड़ेगा तथा कोई उपाय अथवा अनेकों उपाय के एक समूह को अपनाना पड़ेगा।
इस प्रकार 1954 में शुरू हुए बाढ़ नियन्त्रण कार्यक्रमों में आने वाले 14-15 वर्षों में प्रभावी रूप से बाढ़ पर काबू पा लेने का इरादा जाहिर किया गया था। इस नीति के पालन करने के ध्येय से केन्द्र तथा राज्य सरकार की तरफ से आँकड़ों के संकलन की दिशा में काफी काम किया गया, कई तटबन्ध बनाए गए तथा चैनल सुधार और नगर रक्षा का काम भी हाथ में लिया गया और पूरा किया गया। आँकड़ों का संग्रह एक लम्बी प्रक्रिया है। जब तक सन्तोषजनक आँकड़े न हों तब तक किसी प्रकल्प को हाथ में लेना सहज् नहीं होता। आजादी के ठीक बाद वाले दौर में विकास का जादू सिर चढ़ कर बोलता था और किसी भी बड़ी योजना में नेताओं और आम जनता को ‘विकास के मन्दिर’ का दर्शन होता था।
इन ‘मंदिरों’ के निर्माण के लिए विपुल धनराशि की जरूरत थी जो कि देश के पास नहीं थी। आँकड़ों का अभाव तो सचमुच था, मगर उससे ज्यादा संसाधन जुटाने के लिए समय की जरूरत थी। सरकार आज की ही तरह बड़े बाँधों को बाढ़ की समस्या का स्थायी समाधान मानती थी। दामोदर घाटी निगम, भाखड़ा परियोजना तथा हीराकुण्ड बाँध पर काम चल रहा था। मगर अन्य प्रकल्पों के लिए धन की कमी बनी हुई थी। अतः बाढ़ नियन्त्रण पर अब जो कुछ भी होना था वह अस्थायी स्तर का काम होना था और इसके लिए भी आँकड़ों की कमी का बहाना काफी काम आया होगा। बाद का घटना क्रम इस सन्देह की पुष्टि करता है।
सरकार ने संसाधनों के अभाव में बाढ़ के लिए तटबन्धों के निर्माण जैसे अल्पकालिक कामों को ही स्थायी रूप दे दिया और जिसे वह दीर्घकालिक समाधान मानती थी उन बड़े बाँधों पर काम हुआ ही नहीं। मगर इसका यह तात्पर्य कतई नहीं है कि बड़े बाँधों में बाढ़ समस्या का समाधान छिपा हुआ है।
1986 की बाढ़ के बाद किए गए अनुमान के अनुसार यह पाया गया कि बाढ़ प्रवण क्षेत्र का प्रतिशत सारे देश के सन्दर्भ में बढ़कर 56.5 प्रतिशत हो गया है। इसका अधिकांश भाग उत्तर बिहार में पड़ता है जिसकी जनसंख्या 4.06 करोड़ (1991) है तथा क्षेत्रफल 54 लाख हेक्टेयर है। यहाँ की 76 प्रतिशत जमीन बाढ़ से प्रभावित है जबकि जनसंख्या घनत्व लगभग 754 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है।
उत्तर बिहार में आठ मुख्य नदियाँ हैं, जिनके नाम घाघरा, गण्डक, बूढ़ी गण्डक, बागमती, अधवारा समूह की नदियाँ, कमला, कोसी तथा महानन्दा हैं। यह सारी नदियाँ गंगा में समाहित हो जाती हैं। बूढ़ी गण्डक और महानन्दा को छोड़कर इन सारी नदियों का उद्गम नेपाल में है। बूढ़ी गण्डक, पश्चिम चम्पारण जिले के चौतरवा चौर से निकलती है जबकि महानन्दा पश्चिम बंगाल में करसियांग के पास से निकलती है।
इन दोनों नदियों का भी अधिकांश जलग्रहण क्षेत्र नेपाल में पड़ता है। यह सभी नदियाँ अपने प्रवाह में हिमालय से अत्यधिक मात्रा में मिट्टी और रेत बहा कर लाती हैं। हिमालय पर्वतमाला अपने निर्माण के प्रारम्भिक दौर से गुजर रही है और एक तरह से भुरभुरी मिट्टी का ढेर है।
इस तरह की मिट्टी को नदियाँ बड़ी आसानी से कटाव कर देती हैं और मिट्टी/रेत को मैदानों में पहुँचा देती हैं। नदियाँ जब पहाड़ों से मैदानों में उतरती हैं तो उन का वेग एकाएक कम हो जाता है, पानी, मिट्टी और रेत के साथ विस्तीर्ण क्षेत्र पर फैल जाता है और नदी के कछारों का निर्माण होता है।
कछारों में जमा होने वाली रेत/मिट्टी अगली बरसात के मौसम में नदी के प्रवाह की रुकावट बनती है, जिसे काट कर नदी अपना नया रास्ता बना लेती है। नदियों का धारा-परिवर्तन इसी तरह से होता है। हिमालय से आने वाली नदियों के कछार के निर्माण की प्रक्रिया रुकी नहीं है, इसलिए उनका धारा-परिवर्तन भी बन्द नहीं होता है और इसीलिए बाढ़ें आती रहती हैं। बाढ़ की वजह से कृषि पर नई मिट्टी पड़ती है और उसे पोषक तत्व मिलते हैं। यही कारण रहा होगा कि शुरू-शुरू में लोग बाढ़ वाले इलाकों में बसे होंगे।
यहाँ की उपजाऊ मिट्टी और पानी की बहुतायत ने उन्हें आकर्षित किया होगा। बाढ़ वाले क्षेत्रों में जनसंख्या घनत्व का ज्यादा होना बाढ़ों का प्रतिफल है। हिन्दू शास्त्र नदियों की स्तुति और वन्दना से भरे पड़े हैं। इनमें उन्हें ‘विश्व की माताओं’ के रूप में मान्यता मिली है।
कोसी
इस नदी का जलग्रहण क्षेत्र 74,500 वर्ग किलोमीटर है जिसका 85 प्रतिशत नेपाल और तिब्बत में पड़ता है। बाकी का हिस्सा भारत (बिहार) में है । इस नदी की कुल लम्बाई 468 किलोमीटर है, जिसमें से भारत में इस नदी की लम्बाई 248 किलोमीटर है। इस नदी में सर्वाधिक प्रवाह बराह क्षेत्र (नेपाल) में 25,880 क्यूमेक देखा गया है।
वर्ष में पानी की हर साल लगभग 6,828 करोड़ घनमीटर मात्रा इस नदी से होकर प्रवाहित होती है और हर साल इस नदी में औसतन 9,495 हेक्टेयर मीटर मिट्टी/रेत आती है। नदी के भारत वाले जलग्रहण क्षेत्र में औसतन 1276 मिलीमीटर वर्षा होती है।
कोसी नेपाल के सप्तरी जिले में चतरा के पास पहाड़ों से मैदान में उतरती है और लगभग 50 किलोमीटर का सफर तय करके भीमनगर (जिला-सुपौल, बिहार) के पास भारत में प्रवेश करती है। धारा परिवर्तन के लिए प्रसिद्ध यह नदी कटिहार जिले में कुरसेला के पास गंगा में मिल जाती है।
कई धाराओं में बहने वाली इस नदी की बाढ़ का अपना रंग हुआ करता था। उत्तर बिहार के सुपौल, सहरसा, मधेपुरा, अररिया, किशनगंज, पूर्णिया और कटिहार जिलों की एक इंच भी जमीन ऐसी नहीं है जिस पर से होकर कोसी कभी बही न हो। पिछले ढाई सौ वर्षों में यह नदी 112 किलोमीटर पश्चिम की ओर खिसक गई है। कोसी का व्यवहार सदियों से बड़ा अनिश्चित रहा है और अंग्रेजों ने इसे ‘बिहार के शोक’ की संज्ञा दी हुई थी।
कोसी को नियन्त्रित करने के पूर्व प्रयास
भारत में जब अंग्रेजों का राज आया तो उन्होंने उन्नीसवीं सदी के मध्य में तटबन्धों के माध्यम से दामोदर नदी को, जिसे वह ‘बंगाल का शोक’ कहते थे, नियन्त्रित करने का काम किया। इस प्रयास में वह पूरी तरह असफल हुए। इसलिए उन्होंने हिमालय से आने वाली नदियों को बाढ़ नियन्त्रण के लिए कभी हाथ नहीं लगाया, क्योंकि उन नदियों का व्यवहार भी दामोदर की ही तरह अप्रत्याशित था।
दामोदर से मुँह की खाने के बाद वह 1947 तक इन नदियों से बचते रहे। इस बीच कोसी को नियन्त्रित करने के लिए कितने ही प्रस्ताव उनके पास आए पर उनका मानना था कि कोसी को नियन्त्रित नहीं किया जाना चाहिए और तटबन्धों के जरिए तो हरगिज नहीं।
उनकी इस विचारधारा पर 1953 तक अमल हुआ और इसके पीछे नदी को तटबन्धों में कैद न करने की सौ साल से ज्यादा की बहस थी। इस बहस के विस्तार में पड़े बिना यहाँ इतना ही बता देना काफी होगा कि नदियाँ अपने पानी को गाद के साथ विस्तृत क्षेत्र पर फैलाती हैं।
अपने प्रवाह में भारी मात्रा में रेत/मिट्टी लाने वाली नदी को जब तटबन्धों में जकड़ लिया जाता है तो उनका विस्तार क्षेत्र सीमित हो जाता है और वह सारी मिट्टी/रेत, जो अन्यथा एक बड़े इलाके पर फैलती, उन तटबन्धों के बची जमा होकर नदी के तल को ऊँचा करने लगती है। इसके साथ ही तटबन्धों के बाहर की जमीन को नदी के पानी के कारण मिलने वाले पोषक तत्व भी नहीं मिल पाते हैं। लगातार ऊपर उठते रहने वाले नदी के तल के कारण तटबन्धों को भी ऊँचा करना पड़ता है।
इसके अलावा तटबन्धों के कारण नदी के स्वाभाविक जल-ग्रहण की प्रक्रिया में भी बाधा पड़ती है। वर्षा का वह पानी, जो कि अपने आप नदी में आ जाता है। अब वह तटबन्धों के कारण बाहर अटक जाता है और सुरक्षित क्षेत्रों में जल-जमाव उत्पन्न करता है। तटबन्धों से होकर नदी के पानी के रिसाव के कारण सुरक्षित क्षेत्रों में जल-जमाव की समस्या और भी ज्यादा जटिल हो जाती है। अगर कभी नदी की कोई सहायक धारा नदी से संगम करती हो तो मुख्य नदी पर बने तटबन्ध उसका मुहाना बन्द कर देते हैं।
अब सहायक धारा का पानी या तो सुरक्षित क्षेत्रों में पीछे की ओर लौटेगा या फिर तटबन्धों के बाहर नीचे की ओर बहने पर मजबूर होगा। अगर सहायक धाराएँ नदी के दोनों किनारों पर मिलती हों तो दोनों तटबन्धों के बाहर ऐसी धाराएँ बहेंगी। ऐसी परिस्थिति में यह माँग उठेगी कि संगम स्थल पर एक स्लुइस गेट बनाया जाए। इस स्लुइस गेट के साथ दिक्कत यह होगी कि बरसात भर इसे बन्द रखना पड़ेगा, क्योंकि अगर कभी स्लुइस गेट खुला हो और मुख्य धारा में अधिक पानी आ जाए तो स्लुइस गेट होकर बहुत-सा पानी सहायक नदी से होता हुआ सुरक्षित क्षेत्रों में घुस जाएगा। इसलिए स्लुइस गेट बनें या न बनें, कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला है। इसके अलावा निर्माण के कुछ ही वर्षों के अन्दर नदी के तल में जमा होती हुई रेत/मिट्टी स्लुइस गेट को ही जाम कर देती है।
अब अगर स्लुइस गेट भी काम न करें तब अगली माँग उठती है कि सहायक नदी पर भी तटबन्ध बना दिए जाएँ। अगर ऐसा कर दिया जाए, तो एक नई मुसीबत पैदा होती है और वह यह कि अब वर्षा का पानी मुख्य नदी और सहायक नदी के तटबन्धों के बीच फँस जाता है और उन इलाकों को डुबाता है जहाँ अभी तक बाढ़ नहीं आती थी।
अब एक ही रास्ता बचता है कि दोनों तटबन्धों के बीच फँसे इस पानी को पम्प करके निकाला जाए। इसके अलावा इस बात की गारण्टी कोई नहीं दे सकता कि नदी पर बना हुआ तटबन्ध कभी टूटेगा नहीं। अगर इन दोनों में से कोई भी तटबन्ध टूट जाता है तो बीच में रहने वाले लोगों की जल-समाधि हो जाएगी। इसलिए तटबन्धों के माध्यम से बाढ़ सुरक्षा खोजना एक ऐसा दुष्चक्र है कि एक बार अगर कोई इस व्यूह में फँस जाए तो बाहर निकलना असम्भव हो जाता है। इन कारणों से बहुत से इंजीनियर तटबन्धों को बाढ़ नियन्त्रण के लिए उपयोगी नहीं मानते। दुर्भाग्यवश, तकनीक के इस छलावे को समझने में देर लगती है और जब तक प्रभावित लोगों की समझ में यह प्रपंच आए, काफी देर हो चुकी होती है।
दूसरी तरफ इंजीनियरों की अच्छी खासी जमात मानती है कि जब नदी पर तटबन्ध बनाए जाते हैं तो पानी का प्रवाह क्षेत्र कम हो जाता है। अगर पानी की एक ही मात्रा कम क्षेत्र से होकर प्रवाहित की जाए तो उसका वेग बढ़ जाता है। पानी के बढ़े हुए वेग में किनारों के कटाव करने की अधिक क्षमता होती है और यह इंजीनियर ऐसा मानते हैं कि बदली परिस्थितियों में नदी की चौड़ाई और गहराई बढ़ जाएगी और उसके साथ ही नदी से ज्यादा पानी गुजरने लगेगा और बाढ़ स्वाभाविक रूप से कम हो जाएगी।
तकनीकी हलकों में यह बहस कि नदी पर बने तटबन्धों के कारण बाढ़ कम होती या बढ़ती है - अभी तक फैसले का इन्तजार कर रही है। तटबन्धों के पक्ष और विपक्ष में दिए जाने वाले दोनों तर्क तकनीकी रूप से इतने पुष्ट और प्रभावशाली हैं कि इंजीनियर इनका उपयोग किसी भी योजना का अनुमोदन करने या उसे ध्वस्त करने में बड़ी आसानी से कर लेते हैं। उन्हें बस इतना ही विश्लेषण करना रहता है कि तात्कालिक सामाजिक परिस्थितियों की माँग क्या है और शासक वर्ग क्या चाहता है। एक बार यह स्पष्ट हो जाए तो वे अपना तर्क सामने रखते हैं और उनकी राय को चुनौती नहीं दी जा सकती।
जब राजनीतिज्ञ यह फैसला करते हैं कि तटबन्ध नहीं बनना चाहिए तब तक इंजीनियर पहले दिए गए तर्कों का आश्रय लेते हैं। जब वह यह तय करते हैं कि तटबन्ध बनने चाहिए तो इंजीनियर बाद वाला तर्क देते हैं अगर किसी परियोजना को टाल देना हो तो वे लोग आँकड़ों की कमी का वास्ता देते हैं। इस प्रकार परिस्थिति चाहे जैसी भी हो वे उसका सामना बड़ी आसानी से कर लेते हैं।
1954 में, जब भारत में पहली बाढ़ नीति को मंजूरी नहीं दी गई थी, बिहार में नदियों के किनारे बनाये गए तटबन्धों की कुल लम्बाई 160 किलोमीटर थी और प्रान्त का बाढ़ प्रवण क्षेत्र 25 लाख हेक्टेयर था। इस वक्त (1999) राज्य में नदियों के किनारे बने तटबन्धों की लम्बाई 3,465 किलोमीटर है और राज्य का बाढ़ प्रभावित क्षेत्र 68.8 लाख हेक्टेयर है। इस बीच में बाढ़ नियन्त्रण पर राज्य में 791 करोड़ रुपए खर्च हुए। जाहिर है कि बिहार में बाढ़ नियन्त्रण के क्षेत्र में निवेश फायदे की जगह नुकसान पहुँचा रहा है। इस विसंगति का सारा दोष नदियों के किनारे बने तटबन्धों को नहीं दिया जा सकता क्योंकि इसके कारण दूसरे भी हैं। जल-निकासी की व्यवस्था किए बगैर सड़कों और रेल लाइनों के अन्धाधुन्ध निर्माण का इस गिरावट में अपना योगदान रहा है। अंग्रेजों ने पहले तटबन्ध इसलिए बनाए, क्योंकि वह बाढ़ से सुरक्षा देने के नाम पर लोगों से लगान वसूल कर सकें और जब उनके लिए तटबन्धों का रख-रखाव नामुमकिन हो गया और राहत तथा पुनर्वास के खर्च बढ़ने लगे तब उन्होंने तटबन्धों से तौबा कर ली। सरकार के इस कदम को उचित ठहराने के लिए उनके इंजीनियरों ने तर्क दिया। आजादी के बाद जब राजनेताओं को लगा कि बाढ़ से सुरक्षा मिलनी चाहिए और उसके लिए तटबन्धों से उन्हें परहेज नहीं था, तब दूसरे प्रकार के तर्क इंजीनियरों के काम आए।
बहुत से इंजीनियरों ने तो अपने अंग्रेजों के समय के सेवा काल में तटबन्धों का खूब विरोध किया था, मगर जब कोसी पर तटबन्ध के लिए राजनैतिक दबाव पड़ने लगा तो वे खुलकर तटबन्धों के पक्ष में बोलने लगे।
1955-60 के बीच कोसी नदी पर तटबन्ध बना दिए गए और इसके साथ ही उत्तर बिहार की बाकी नदियों पर भी तटबन्ध बनाने का मार्ग प्रशस्त हो गया और उन पर भी तटबन्ध बन गए। इसका समुचित परिणाम सामने आया।
1954 में, जब भारत में पहली बाढ़ नीति को मंजूरी नहीं दी गई थी, बिहार में नदियों के किनारे बनाये गए तटबन्धों की कुल लम्बाई 160 किलोमीटर थी और प्रान्त का बाढ़ प्रवण क्षेत्र 25 लाख हेक्टेयर था। इस वक्त (1999) राज्य में नदियों के किनारे बने तटबन्धों की लम्बाई 3,465 किलोमीटर है और राज्य का बाढ़ प्रभावित क्षेत्र 68.8 लाख हेक्टेयर है। इस बीच में बाढ़ नियन्त्रण पर राज्य में 791 करोड़ रुपए खर्च हुए। जाहिर है कि बिहार में बाढ़ नियन्त्रण के क्षेत्र में निवेश फायदे की जगह नुकसान पहुँचा रहा है।
इस विसंगति का सारा दोष नदियों के किनारे बने तटबन्धों को नहीं दिया जा सकता क्योंकि इसके कारण दूसरे भी हैं। जल-निकासी की व्यवस्था किए बगैर सड़कों और रेल लाइनों के अन्धाधुन्ध निर्माण का इस गिरावट में अपना योगदान रहा है। केवल रोजगार पैदा करने के उद्देश्य बनाई गई ग्रामीण सड़कों ने भी जल-निकासी और बाढ़ समस्या को बढ़ाया है, क्योंकि इनमें से होकर जल-निकासी को कोई इन्तजाम आमतौर पर नहीं होता।
कोसी तथा गण्डक परियोजना की नहरों ने सतही पानी के प्रवाह में बाधा पैदा की है तथा उनसे होने वाले रिसाव ने भूमिगत जल की सतह को ऊपर किया है। उत्तर बिहार का मैदानी क्षेत्र लगभग सपाट है और गंगा के किनारे लगी पट्टी में तो जमीन की ढाल 11 सेन्टीमीटर प्रति किलोमीटर तक मिलती है। ऐसे में पानी के रास्ते की हल्की-सी भी रुकावट जल जमाव का कारण बनती है। नदियों के तटबन्धों में अक्सर पड़ने वाली दरारें कोढ़ में खाज की स्थिति पैदा करती हैं।
बहुचर्चित कोसी तटबन्ध 1968,1981,1984 तथा 1987 में टूट चुके हैं। इन दुर्घटनाओं में 1984 वाली दरार सबसे घातक थी, जिसने 11 गाँवों को नेस्तनाबूद कर दिया, 196 गाँवों को डुबाया और लगभग साढ़े चार लाख लोगों को बेघर बना दिया था। बिहार की 1987 वाली बाढ़ में विभिन्न नदियों के तटबन्धों में 104 दरारें पड़ीं और तटबन्ध टूटने की विनाश-यात्रा अभी थमी नहीं है।
तटबन्धों से कोसी हाई डैम की ओर
कोसी पर बाढ़ नियन्त्रण के लिए पहली बार 1937 में एक बड़े बाँध का प्रस्ताव उस समय किया गया था जब सरकारी नीति जल-निकासी की दशा सुधारने तथा पानी के रास्ते में आने वाली तमाम रुकावटों को खत्म कर देने की थी। अंग्रेज सरकार इस मसले पर नेपाल से किसी प्रकार के सहयोग पाने के प्रति आशावान नहीं थी, इसलिए उन्होंने नेपाल से इस प्रस्ताव पर कोई खास पहल नहीं की। इस बाँध पर पहली बार 1945 में कोई गम्भीर बयान आया जबकि बिहार सरकार ने कोसी नदी की पूरी लम्बाई पर तटबन्ध बनाने का प्रस्ताव केन्द्र सरकार के पास भेजा था, जिसने उसे स्पष्ट रूप से नकार दिया था।
जाते-जाते ब्रिटिश हुकूमत बाढ़ से बचाव के लिए बड़े बाँध का बीज बो गई और इस तरह कोसी पर बराहक्षेत्र बाँध की बात उठी। इसकी औपचारिक घोषणा 6 अप्रैल, 1947 को निर्मली (जिला-सुपौल), बिहार में तत्कालीन केन्द्रीय योजना मन्त्री सी एच भाभा ने की थी। बाद में घटनाक्रम कुछ ऐसा बदला कि कोसी पर तटबन्ध ही बनाने पड़ गए, मगर बराहक्षेत्र का भूत तभी से योजनाकारों पर अपनी छाया डाले हुए है।
जब कभी बिहार में बाढ़ आती है तब बिना कोई समय खोए यह बयान सरकारी हलकों से दिया जाता है कि बिहार की बाढ़ समस्या का समाधान बराहक्षेत्र बाँध ही है। यह बात तब भी कही जाती है जब बाढ़ कोसी के अलावा दूसरी नदियों में आती है। तब समाचार पत्रों में पत्र आने लगते हैं कि इस बाँध के निर्माण पर शीघ्र कार्यवाही हो। सरकार की तरफ से आश्वासन दिया जाता है कि वह बराहक्षेत्र बाँध के प्रति सजग और गम्भीर है। फिर काठमाण्डू और नई दिल्ली के बीच उच्चस्तरीय प्रतिनिधि मण्डल की आवाजाही होती है।
अगस्त से लेकर नवम्बर के बीच इस तरह की खबरें समाचार पत्रों मे भरी रहती हैं और जैसे ही नदियाँ शान्त होती हैं, यह सारा कर्मकाण्ड भी शान्त हो जाता है, अगले साल के अगस्त महीने तक के लिए। यह षटराग 1956 से चल रहा है जबकि कोसी तटबन्धों के निर्माण के समय ही नदी में भंयकर बाढ़ आ गई थी। लोगों को तभी से बार-बार यह बताया जाता है कि तटबन्ध बाढ़ समस्या का अस्थायी समाधान है और असली समाधान तो नेपाल में प्रस्तावित इस बाँध में ही है।
बराहक्षेत्र बाँध
1947 में बराहक्षेत्र में प्रस्तावित बराहक्षेत्र बाँध से भारत और नेपाल के 12 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई होने का अनुमान था। इससे 3,300 मेगावाट बिजली पैदा होती और निचले क्षेत्रों में बाढ़ से सुरक्षा देने का वायदा किया गया था। तब इस बाँध की लागत 100 करोड़ रुपए थी। प्राथमिक सर्वेक्षण और अध्ययन के दौरान 1952 में इस बाँध की अनुमानित लागत 177 करोड़ रुपयों तक जा पहुँची जबकि इस योजना का ख्याल छोड़ दिया गया और 1953 में कोसी पर तटबन्ध के निर्माण की स्वीकृति दी गई। इस योजना पर गम्भीरतापूर्वक पुनर्विचार एक बार फिर 1971 में हुआ, जब बिहार एक भयंकर बाढ़ की चपेट में आया।
इस बाँध की संरचनात्मक सुरक्षा पर भूगर्भ वैज्ञानिकों में मतभेद रहा है, क्योंकि इसका निर्माण उस क्षेत्र में होगा, जहाँ बड़े भूकम्प आने की सम्भावना है और यह गुत्थी अभी तक सुलझी नहीं है। जब कोसी नदी पर तटबन्ध बनाए जाने का प्रस्ताव किया गया था तो यह बात बिहार विधान सभा में उठी कि क्यों बराहक्षेत्र बाँध के स्थान पर तटबन्ध बनाए जा रहे हैं। तब सरकार की तरफ से 22 सितम्बर, 1954 को बिहार विधान सभा में अनुग्रह नारायण सिंह ने बयान दिया था कि सरकार प्रस्तावित बाँध के निचले क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की सुरक्षा के प्रति चिन्तित है और इसलिए इस बाँध पर काम नहीं हो सकेगा और इस पृष्ठभूमि में तटबन्धों का निर्माण करना पड़ रहा है।
इस बाँध के निर्माण के लिए कुछ प्रस्ताव बनाए गए हैं। बिहार के सिंचाई आयोग (1994) में योजना का जो स्वरूप बताया गया है, उसके अनुसार इस बाँध की अनुमानित लागत 407 करोड़ रुपए (1986) हो गई है। आजकल तो राजनीतिज्ञों और इंजीनियरों द्वारा बयान दिए जाते हैं, उसके अनुसार इस बाँध की अनुमानित लागत 35 से 40 हजार करोड़ रुपयों तक पहुँच गई है। प्रश्न यह उठता है कि इतना पैसा हम कहाँ से लाएँगे? जाहिर है, बहुत-सी अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएँ सरकारों को यह काम करने के लिए प्रोत्साहित कर रही हैं।
बराहक्षेत्र बाँध पर जापान की ग्लोबल इन्फ्रास्ट्रक्चर फण्ड की नजर है। उदारीकरण के इस दौर में यह संस्थाएँ अब केवल कर्ज की व्यवस्था न करके स्वयं निर्माण में उतरना चाहती हैं। जैसे हालात अब बन रहे हैं उनके अनुसर यह कम्पनियाँ बाँध बनाएँगी। नेपाल को उसकी रॉयल्टी और टैक्स देंगी तथा भारत को बिजली बेचेंगी, जिसकी दरें अभी तय नहीं हो पा रही हैं और भारत यह बिजली खरीदेगा ही, इस पर भी कोई समझौता नहीं हो पा रहा है।
इस बात का अन्देशा व्यक्त किया जाता है कि इन बाँधों से पैदा होने वाली बिजली इतनी मँहगी होगी कि भारतीय उपभोक्ता उसकी कीमत नहीं अदा कर पाएगा और इसीलिए यह बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने निवेश पर सरकार से लाभ की गारण्टी चाहती हैं। इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का बाढ़ नियन्त्रण जैसे कल्याणकारी कामों में कितनी रुचि होगी यह कह पाना मुश्किल है, पर यह निश्चित है कि यह कम्पनियाँ जन-कल्याण का काम नहीं करतीं।
बाढ़ तो फिर भी आएगी
इसके अलावा भी कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे हैं जिनकी विवेचना होनी चाहिए। नेपाल में बराहक्षेत्र के पास जिस साइट नं. 13 पर बाँध का प्रस्ताव किया गया है वहाँ कोसी का जल-ग्रहण क्षेत्र 59,550 वर्ग किलोमीटर है। साइट नम्बर 13 से भीमनगर बराज के बीच में कोसी का जलग्रहण क्षेत्र 2266 वर्ग किलोमीटर बढ़ जाता है। बराज के नीचे कुरसेला में कोसी का गंगा से संगम तक नदी का जलग्रहण क्षेत्र 11,410 वर्ग किलोमीटर और बढ़ जाता है। इस तरह से बराहक्षेत्र बाँध के नीचे भी कोसी में 13,676 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र से पानी आता है।
बागमती नदी का जल-ग्रहणक्षेत्र थोड़ा-सा ही ज्यादा है और कमला नदी का जल ग्रहणक्षेत्र इसका लगभग आधा है। इसका सीधा मतलब यह होता है कि बराहक्षेत्र बाँध के निर्माण के बाद भी बागमती नदी के प्रवाह जितना या कमला के प्रवाह से दो गुना पानी बाँध के नीचे फिर भी बहेगा। जिसने भी इन दोनों नदियों को उफनते देखा है, वह इस पानी का आसानी से अन्दाजा लगा सकता है। आजकल यही पानी कोसी के पूर्वी और पश्चिमी तटबन्ध के किनारे जमा होता है और जल जमाव को स्थायी बनाता है।
पश्चिमी तटबन्ध के पश्चिम में बहने वाली पाँची, धोकरा, घोरदह, खड़क, बिहुल, भुतही बलान, गेहुमाँ और सुपैन जैसी नदियों पर बराहक्षेत्र बाँध का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। कमला-बलान और बागमती नदियाँ भी इसके प्रभाव क्षेत्र से बाहर हैं। इस तरह से पश्चिमी तटबन्ध के पश्चिम में बाढ़ परिस्थिति पर बराहक्षेत्र बाँध बनने के बाद भी कोई अन्तर नहीं पड़ेगा, क्योंकि इन नदियों का उद्गम और उनका अन्तिम बिन्दु दोनों ही, बराहक्षेत्र बाँध के बाहर होंगे।
ठीक इसी तरह से पूर्वी तटबन्ध के पूर्व में फरियानी धार, हरसंखी धार, गोरहो धार, धेमुरा धार, हरेली धार, बंसवारा धार, सौरा धार, सपनी धार, बैलदौर धार, चौसा धार, लछहा धार, सुरसर धार, तिलाबे धार और गाई धार के प्रवाह पर बराहक्षेत्र बाँध का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इन क्षेत्रों में कोसी नदी पर तटबन्ध बनाए जाने के बाद तथाकथित रूप से बाढ़ से सुरक्षित इलाकों में बराहक्षेत्र बाँध के बनने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है।
इंजीनियरों का समुदाय तथा राजनीतिज्ञ पिछले 52 वर्षों से इसी बात की दुहाई देते आए हैं कि तटबन्ध सक्षम रूप से तभी काम करेंगे जब बराहक्षेत्र बाँध बना लिया जाए। जैसा कि हमने ऊपर देखा है कि यह तटबन्धों के बाहर रहने वाले लोगों के लिए फायदेमन्द नहीं होगा, उसी तरह कोसी तटबन्धों के बीच बसे 338 गाँवों के लगभग 8 लाख बाशिन्दों पर भी इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। मान लिया जाए कि बाँध बन जाता है और सारी मिट्टी/रेत उसके अन्दर रुक जाती है और बाहर छोड़ा जाने वाला पानी गाद मुक्त है तथा तटबन्धों को भी चुस्त-दुरूस्त हालत में रखा गया है, तो पहली बात तो यह है कि न तो बरसात में नदी में आने वाले सारे पानी को रोक पाना मुमकिन है और न ही, जो पानी बाँध से छोड़ा जाएगा, वह कभी गाद मुक्त होगा। दूसरी सम्भावना यह है कि नदी के पानी को बरसात भर बहने दिया जाए और वर्षा के अन्त में ही जलाशय भरा जाए।
दोनों ही परिस्थितियों में तटबन्धों के अन्दर नदी की धारा परिवर्तन में कोई कमी नहीं आएगी और न ही गाँवों/खेतों का कटाव रुकेगा, और अगर बरसात का अन्त होते-होते तक जलाशय भर लिया जाता है तब भी खतरा समाप्त हो जाएगा, इसकी कोई गारण्टी नहीं है, क्योंकि 1968 या 1978 जैसी बाढ़ अक्टूबर के महीने में आई थी। ऐसी स्थिति में जलाशय तो भरा रहेगा और पानी बरसने पर सारे फाटक खोल देने पड़ेंगे। तब ऊपर से पानी बरसेगा और बाँध के पानी का भी मुकाबला करना पड़ेगा। सितम्बर के बाद आने वाली बाढ़ में इस बाँध की कोई उपयोगिता नहीं होगी।
पश्चिम बंगाल की अक्टूबर, 1978 की बाढ़ दामोदर घाटी निगम के बाँधों के कारण आई थी। इधर हाल में सितम्बर, 1999 में नर्मदा घाटी में भोपाल और होशंगाबाद में जो बाढ़ आई थी वह भी बरगी, बारना और तवा बाँधों की वजह से और उनके बावजूद आई थी। वहीं भुक्तभोगियों का मानना है कि बाढ़ इन बाँधों द्वारा अत्यधिक पानी छोड़ने के कारण आई थी। ऐसे मौकों पर अधिकारियों का एक नपा-तुला जवाब होता है कि अगर बाँध नहीं रहे होते तो तबाही और भी ज्यादा हुई होती। ऐसी परिस्थितियों में तटबन्धों के अन्दर रह रहे लोगों पर खतरा पहले से ज्यादा बढ़ा हुआ रहेगा, मगर विडम्बना यह है कि वही लोग सबसे आगे बढ़ कर बराहक्षेत्र बाँध की माँग करेंगे। हम फिर याद दिला दें कि कोसी तटबन्धों के बीच 338 गाँव फँसे हैं, जिनकी कुल आबादी लगभग 8 लाख है।
बहाना दर बहाना
इस तरह बराहक्षेत्र बाँध बने या न बने, इस इलाके में बाढ़ की स्थिति यथावत् बनी रहेगी, लेकिन प्रचार-प्रसार के लिए हमेशा बाढ़ नियन्त्रण के लाभ का ही नाम लिया जाएगा। अगर हम इस बाँध के 1986 वाले प्राक्कलन पर एक नजर डालें, तो विभ्रम की धुन्ध थोड़ी-सी छंटती है। बाँध की कुल लागत 4,074 करोड़ रुपयों में से 2,677 करोड़ रुपए विद्युत उत्पादन तथा 1,347 करोड़ रुपए सिंचाई पर खर्च किए जाने का प्रावधान है। बाकी बचे 50 करोड़ रुपए जल-छाजन और भूमि संरक्षण योजनाओं पर खर्च किए जाएँगे। जलाशय में आने वाली गाद को रोकने या कम करने के लिए इतना ही आवण्टन है जो कि कुल लागत का 1.3 प्रतिशत है।
जब बराहक्षेत्र बाँध से बाढ़ नहीं रुकेगी तब इंजीनियरों की अगली पीढ़ी इसी बहाने का उपयोग करेगी कि उनके पहले के इंजीनियरों ने जल-छाजन और वनीकरण के महत्व को नहीं समझा और उसके लिए समुचित प्रावधान नहीं किया। अभी जो भी बाढ़ नियन्त्रण इस बाँध से किया जाएगा वह जलाशय के नियमन से किया जाएगा। इसमें जल-ग्रहण क्षेत्रों के सुधार का कोई खास प्रावधान नहीं लगता।
आज जब हम यह कहते हैं कि तटबन्ध काम करते जरूर, मगर बराहक्षेत्र बाँध के बनने पर ही इनका पूरा उपयोग हो पाएगा, तब आज से 50 या 100 साल बाद लोगों को बताया जाएगा कि बराहक्षेत्र बाँध काम करता जरूर, मगर यह तब तक नहीं हो पाएगा जब तक कि वनीकरण और जल-छाजन पर काम न हो। फिर जल-छाजन और वनीकरण पर काम चलेगा।
मगर नदी में बाढ़ तब भी आती थी और उसकी धारा तब भी बदलती थी जब सारे-के-सारे जंगल सही सलामत थे। उस दिन कहा जाएगा सिल्ट/रेत इस क्षेत्र की नदियों में ज्यादा इसलिये आती है क्योंकि यह इलाका भूगर्भीय रूप से अस्थिर है। यहाँ भूकम्प आते हैं जो कि हिमालय को अस्थिर कर देते हैं। इससे भूस्खलन होता है और नदियों में इनका गाद भर जाती है। भूस्खलन रोकने में जंगलों की कोई भूमिका नहीं है। जो भूकम्प हिमालय की पूरी संरचना को अस्थिर कर देते हैं, वह बाँध को बख्श देंगे क्या? सच यह है कि कमाने-खाने वालों को न तो काम की कमी होगी और न ही बहानों की।
वास्तव में यह बाँध विद्युत उत्पादन के लिए बनेंगे और इनका बाढ़ नियन्त्रण से कोई लेना-देना हो ही नहीं सकता। इनकी पब्लिसिटी जरूर बाढ़ के नाम पर होगी, जिससे कि जन-समर्थन इन बाँधों के पक्ष में जुटाया जा सके। सवाल इस बात का है कि अगर यह बाँध विद्युत उत्पादन के लिए बनता है तो ऐसा कहने में हर्ज क्या है? क्यों लोगों को एक और झूठी तसल्ली दी जाती है?
सिंचाई या मृगतृष्णा
अब एक नजर सिंचाई के दावों पर डालें। प्रस्तावित बराहक्षेत्र बाँध से भारत और नेपाल में 12.17 लाख हेक्टेयर जमीन पर सिंचाई का अनुमान है। इसी तरह का एक दावा 1953 वाले वर्तमान कोसी परियोजना प्रस्ताव में भी किया गया था। उस समय यह कहा गया था कि कोसी परियोजना से 7.12 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई की जाएगी। बाद में (1975) में कोसी सिंचाई समिति (राम नारायण मण्डल समिति) ने पाया कि यह अनुमान पूरी तरह गलत था और यह कि कोसी परियोजना से किसी भी हालत में 3.74 लाख हेक्टेयर के कृषिक्षेत्र से ज्यादा पर सिंचाई हो ही नहीं सकती। पूर्वी कोसी मुख्य नहर से सर्वाधिक सिंचाई 1983-84 में 2.13 लाख हेक्टेयर पर हुई थी और इस नहर से 1996, 1997 और 1998 में होने वाली सिंचाई एक लाख हेक्टेयर की सीमा को पार नहीं कर पाई।
यही हश्र पश्चिमी कोसी नहर का हुआ। जब इस योजना का प्रस्ताव पहली बार 1962 में किया गया तब उसकी अनुमानित लागत 13.49 करोड़ रुपए थी और इस तरह से 2.61 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई का प्रस्ताव था। इस नहर का शिलान्यास लाल बहादुर शास्त्री ने 1965 में किया था और इस नहर से पिछले तीन वर्षों 1996,1997 और 1998 में खरीफ के मौसम में क्रमशः 15,120 हेक्टेयर, 17,421 हेक्टेयर और 18,943 हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई हुई। इस परियोजना पर 1998 तक 278.31 करोड़ रुपए खर्च हुए थे और 1996 में इसकी अनुमानित लागत 569 करोड़ रुपए थी जो कि अपने मूल प्राक्कलन से चालीस गुना से भी ज्यादा थी।
बिहार सरकार का ऐसा विश्वास है कि यह नहर 2001 में पूरी कर ली जाएगी, मगर जो काम की रफ्तार है, उसके हिसाब से नहर का काम पूरा होने में कितना समय लगेगा, कह पाना मुश्किल है। अब अगर बराहक्षेत्र बाँध बनाने का काम हमारा यही अकर्मण्य तन्त्र करे और उसकी प्राक्कलित राशि 35,000 करोड़ से बढ़कर वास्तविक खर्च 3,50,000 करोड़ हो जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। बिहार का वार्षिक बजट 3,000 करोड़ के आसपास होता है। बराहक्षेत्र बाँध अकेले बिहार के पूरे बजट का दस वर्ष का प्रावधान खा जाएगा, जिसमें हमारी दो पंचवर्षीय योजनाएँ पूरी हो जाएँगी।
जापान का ग्लोबल इन्फ्रास्ट्रक्चर फण्ड नेपाल में 13 ऐसे बाँधों को बनाने का दम भरता है यदि अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं को मनमानी करने का मौका मिले तो देश कर्ज की गिरफ्त में फँसेगा और यदि यह खुद निर्माण के क्षेत्र में उतर आए तब तो भगवान ही मालिक है। हम लोगों ने अभी हाल में ही एनरॉन के हाथों महाराष्ट्र में बिजली के दामों की तथा कर्नाटक में कोजेन्ट्रिक्स की सरकार द्वारा मान-मनौवल की एक झाँकी देखी है।
बिजली की आँख मिचौली
जैसा कि कहा जाता है, बराहक्षेत्र बाँध से 3300 मेगावाट बिजली पैदा होगी। बिहार में इस समय 1800 मेगावट बिजली पैदा करने की स्थापित क्षमता है, जबकि गर्मी के महीनों में बिरले ही 350 मेगावाट बिजली का उत्पादन हो पाता है। वैसे भी प्रान्त में जो बिजली की ट्रान्समीशन लाइन है वह 1,000 मेगावाट से ज्यादा बिजली का बोझ वहन नहीं कर सकती। एक नया बाँध बनाने और उससे बिजली पैदा करने के पहले क्यों नहीं जो मौजूदा क्षमता है, उसका समुचित उपयोग किया जाए। इसकी बात कोई क्यों नहीं करता ? और इस बात की गारण्टी कौन देगा कि बराहक्षेत्र से बिजली का उत्पादन 3300 मेगावाट की जगह 500 मेगावाट नहीं होगा।
बेभाव जल जमाव
इसके अलावा पूर्वी तटबन्ध के पूर्व में 1,82,000 हेक्टेयर जमीन पर जल जमाव है। पश्चिमी तटबन्ध के पश्चिम में 44.19 मीटर कन्टूर लाइन के नीचे 94,000 हेक्टेयर तथा उसके ऊपर 34,400 हेक्टेयर जमीन जल-जमाव से ग्रस्त है। साथ ही दोनों तटबन्धों के बीच 1,10,000 हेक्टेयर जमीन हमेशा के लिए बाढ़ में फँसी है। इस तरह कुल मिलाकर किसी-न-किसी तरह 4,20,400 हेक्टेयर जमीन पानी में गई। जल जमाव वाले क्षेत्रों में जल-निकासी की योजनाएँ बनती हैं, कहीं-कहीं कुछ काम भी होता है पर बाद में फिर वही ढाक के तीन पात! जब 1953 वाली कोसी परियोजना पर काम शुरू हुआ था तब यह कहा गया था कि कोसी तटबन्धों से 2,12,000 हेक्टेयर जमीन को बाढ़ से बचाया जाएगा।
नेपाल की अपनी परेशानियाँ
फिलहाल नेपाल में 30 बाँधों के निर्माण का तथा 60 ऐसी जल-विद्युत परियोजनाओं का प्रस्ताव है, जिनमें नदी को बिना बाँधे, उसके प्रवाह से ही बिजली पैदा की जाएगी। इन तीस बाँधों में से 7 बाँधों की ऊँचाई 50 से 100 मीटर के बीच है, 12 बाँधों की ऊँचाई 100 से 200 मीटर के बीच में और 11 बाँधों की ऊँचाई 200 मीटर से ज्यादा होगी। इन योजनाओं से 1,45,000 गीगावाट ऑवर बिजली पैदा हो सकेगी, जिससे दक्षिण एशिया में बसने वाले 70 करोड़ परिवारों की बिजली की जरूरतें पूरी हो सकेंगी। इस काम में 50 करोड़ टन लोहा, 10 करोड़ घनमीटर कंक्रीट और 100 करोड़ घनमीटर पत्थरों का इस्तेमाल होगा।
प्रस्तावित बाँध के कारण होने वाली विस्थापन और पुनर्वास की समस्या, यद्यपि इससे हमारा कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है, एक बड़ा ही पेचीदा मामला है। हमारे यहाँ ही नर्मदा घाटी के बाँधों, सुवर्णरेखा या टिहरी परियोजनाओं में विस्थापन के प्रश्न पर योजनाओं के कार्यान्वयन पर बुरा असर पड़ा है। इन परियोजनाओं की आर्थिक दक्षता और उनके पूरा होने में अनुमान से ज्यादा लगने वाला समय अपने आप में एक समस्या है। बिहार में हमारी खुद की सिंचाई और बाढ़ नियन्त्रण की परियोजनाओं की उपलब्धियाँ सभी के लिए चिन्ता का विषय बनी हुई हैं और केवल क्षीण-सी आशा है कि इस पूरे अकर्मण्य तन्त्र की छाया नेपाल में प्रस्तावित बाँधों पर नहीं पड़ेगी। इन बाँधों में प्रतिवर्ष 70 करोड़ टन रेत/मिट्टी हर साल जमा होगी और इनका जीवन काल 30 से 75 वर्ष का होगा। इन बाँधों में नेपाल की 2,200 वर्ग किलोमीटर जमीन डूबेगी जो कि नेपाल की कुल जमीन का 1.5 प्रतिशत है और इसमें वहाँ की 20 प्रतिशत सिंचित कृषि भूमि भी डूब जाएगी। डूब क्षेत्र में जंगल और गाँव भी शामिल हैं। इन बाँधों के निर्माण से करीब 6,00,000 लोग विस्थापित होंगे जो कि नेपाल की कुल आबादी का 3 प्रतिशत है। क्या इन कीमतों पर नेपाल अपने यहाँ बाँध निर्माण करवाएगा, यह एक यक्ष-प्रश्न है।
नेपाल में अरुण नदी पर बने अरूण-।।। बाँध का एक अनुभव हमारे पास है और उसके नतीजे कुछ उत्साहवर्धक नहीं हैं। कोसी की सहायक धारा पर बन रहे 115 मीटर लम्बे और 68 मीटर ऊँचे अरुण-III बाँध की प्राक्कलित राशि 108.2 करोड़ अमरीकी डॉलर थी और इस काम में विश्व बैंक, एशियन डेवलपमेंट बैंक, जर्मनी, फ्रांस तथा स्वीडेन की सरकारें मदद कर रही थीं। इस बाँध का काम जब 1992 में शुरू हुआ तब नेपाल में बुद्धिजीवियों तथा सक्रिय समूहों में बहस छिड़ गई कि इस परियोजना का औचित्य है भी या नहीं।
उन लोगों का मानना था कि इस परियोजना से नेपाल को फायदा नहीं होगा और दाता संस्थाएँ अपने-अपने व्यापारिक हितों का पोषण करने के लिए नेपाल को कर्ज के गर्त में ढकेल रही हैं। इन लोगों का यह भी मानना था कि नेपाल को रोजगार के क्षेत्र में भी कोई लाभ नहीं होने वाला है तथा योजना से पैदा होने वाली बिजली इतनी मँहगी होगी कि नेपाली उपभोक्ता उसका खर्च वहन ही नहीं कर पाएगा। उनकी आशंका थी कि इस बिजली की कीमत लगभग वही होगी जो कि एक अमरीकी उपभोक्ता अपने देश में अदा करता है और भारतीय उपभोक्ता जिस दर से बिजली का भुगतान करता है, यह बिजली उससे दोगुनी महँगी होगी। अगर ऐसा होता है तो भारत यह बिजली खरीदेगा ही नहीं जबकि बाँध इसी उम्मीद पर बन रहा था कि भारत यह बिजली ले लेगा।
अभी हम कहाँ हैं
नेपाल में प्रस्तावित इन बाँधों के बारे में भारत में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती। जो कुछ भी जानकारी मिलती है वह नेपाल से प्रकाशित होने वाली पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं और समाचार पत्रों से ही मिलती है। हमारे पास जो भी सूचनाएँ मिलती हैं वह इन योजना प्रस्तावों पर नेपाली जनता या बुद्धिजीवियों की टिप्पणी की शक्ल में ही मिलती हैं और इन योजनाओं पर जो कुछ भी बहस होनी चाहिए वह यहाँ हो ही नहीं पाती है। हमारी बाँध की सुरक्षा के प्रति दुश्चिन्ता हो सकती है, क्योंकि अकेले बराहक्षेत्र बाँध में इतना पानी संचित किया जा सकता है जिससे पूरे उत्तर बिहार पर एक फुट मोटी पानी की चादर बिछाई जा सके।
प्रस्तावित बाँध के कारण होने वाली विस्थापन और पुनर्वास की समस्या, यद्यपि इससे हमारा कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है, एक बड़ा ही पेचीदा मामला है। हमारे यहाँ ही नर्मदा घाटी के बाँधों, सुवर्णरेखा या टिहरी परियोजनाओं में विस्थापन के प्रश्न पर योजनाओं के कार्यान्वयन पर बुरा असर पड़ा है। इन परियोजनाओं की आर्थिक दक्षता और उनके पूरा होने में अनुमान से ज्यादा लगने वाला समय अपने आप में एक समस्या है। बिहार में हमारी खुद की सिंचाई और बाढ़ नियन्त्रण की परियोजनाओं की उपलब्धियाँ सभी के लिए चिन्ता का विषय बनी हुई हैं और केवल क्षीण-सी आशा है कि इस पूरे अकर्मण्य तन्त्र की छाया नेपाल में प्रस्तावित बाँधों पर नहीं पड़ेगी।
इसके अलावा, बाँध कितनी ही दक्षता और फुर्ती से बनाया जाए, इसके निर्माण में 12 से 15 वर्ष का समय अवश्य लग जाएगा। इस अन्तरिम समय में बाढ़ का मुकाबला करने की कोई योजना हमारे पास है क्या? या फिर यह समय बराहक्षेत्र बाँध के निर्मित हो जाने के आश्वासन पर ही कट जाएगा? इस इलाके में बाढ़ की समस्या के पीछे नदियों में आने वाली अत्यधिक गाद की मात्रा है और यह प्रस्तावित बाँध गाद को रोकने की दिशा में कुछ भी नहीं कर पाएगा। दिक्कत यह है कि इंजीनियरों को पानी के साथ क्या करना है यह तो मालूम है पर उसके साथ आने वाली मिट्टी का क्या करना है, इसका कोई सस्ता समाधान निकालने की विद्या उन्हें नहीं आती है।
बाढ़ वाले क्षेत्र के किसी भी ग्रामीण से पूछिए तो वह आप को बताएगा कि कैसे पहले बाढ़ का पानी आता था, चारों ओर फैलता था, खेतों पर नई मिट्टी पड़ती थी और ज्यादा-से-ज्यादा दो ढाई दिन के अन्दर बड़ी-से-बड़ी बाढ़ समाप्त हो जाती थी। अगर कभी असाधारण-सी बाढ़ आ गई और खरीफ की फसल पूरी तरह चौपट हो गई तो रबी की एक जबर्दस्त फसल इस नुकसान की भरपाई कर देती थी। बड़े इलाके पर गाद फैलने के कारण उसके लिए अलग से कोई व्यवस्था नहीं करनी पड़ती थी और नदी भूमि निर्माण का अपना काम बिना किसी रुकावट के पूरा करती थी।
बाढ़ का इंजीनियारिंग समाधान कर हमने नदियों को सही मायनों में विनाशकारी बना दिया है। अब वह अपने स्वाभाविक धर्म-जल-ग्रहण क्षेत्र के पानी की निकासी के बदले उसमें पानी फैलाने का काम कर रही हैं। तब क्या यह जरूरी नहीं है कि बाढ़ों पर एक नई दृष्टि डाली जाए। बड़े-बड़े बाँधों पर निर्भर करने के बदले क्या हम ऐसा नहीं कर सकते कि पानी को गाँवों तक आने दिया जाए और स्थानीय स्तर पर उनसे निबटा जाए और एक बार और हमेशा के लिए बड़े बाँधों और नदियों की बाढ़ के रिश्तों को समाप्त कर दिया जाए, क्योंकि ऐसे बाँधों की मदद से बाढ़ न तो पहले कभी रुकी है और न ही भविष्य में कभी रुक पाएगी। हमने बाढ़ों के साथ जीवन निर्वाह की विधा को अभी तक केवल बातचीत के स्तर तक ही सीमित रखा है।
जो कुछ भी हमारे सामने पड़ता है, क्या हम उसको अपने कब्जे में कर लेने की धींगा-मुश्ती से बाज आएँगे? क्या हम बाढ़-रोधी घरों के स्थान पर बाढ़ को बर्दाश्त कर लेने वाले घरों के बारे में सोच सकते हैं? क्या हम बाढ़-विरोधी फसलों के बदले बाढ़ बर्दाश्त करने वाली फसलों को उगाने का प्रयास करेंगे? अगर इन प्रश्नों का उत्तर सकारात्मक है तो प्रस्ताविक बाँध, जहाँ तक बाढ़ नियन्त्रण का प्रश्न है, अपने आप आम जनता द्वारा पुनरीक्षण के दायरे में आ जाएगा।
पूरे देश में सूखा प्रवण क्षेत्रों में विकास के बहुत-से सफल प्रयोग हुए हैं, मगर बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों को आज भी एक ‘मसीहा’ का इन्तजार है। अन्तर केवल इतना ही है कि सूखा-प्रभावित क्षेत्रों में दो-एक गाँवों को लेकर विकास का काम किया जा सकता है जबकि बाढ़ वाले क्षेत्रों में यही काम क्षेत्रीय स्तर पर या कुछ गाँवों के समूह को लेकर ही करना पड़ेगा। यह जरा महँगा है मगर इस पर काम होना चाहिए।
इसी तरह से क्या सिंचाई के लिए भी कुछ कर सकते हैं, कम-से-कम हम योजना काल के अपने सिंचाई प्रकल्पों का एक मूल्याँकन कर लें। पूर्वी कोसी मुख्य नहर से जितनी सिंचाई आज होती है उससे ज्यादा योजना बनने से पहले कोसी कमाण्ड में लोग भूमि पर सिंचाई अपने दम पर कर लिया करते थे। इससे क्या यह सबक नहीं मिलता कि देश के इस हिस्से में सिंचाई के क्षेत्र में किया गया निवेश न केवल बट्टे-खाते में चला गया वरन् काफी बड़ा क्षेत्र जल जमाव की भेंट चल गया।
दरअसल पहले से ही भूमिगत जल के ऊपर रहने वाले इलाके में नहरों से सिंचाई का प्रयोग ही नहीं होना चाहिए था। अब समय आ गया है कि हम अपने पारम्परिक सिंचाई के साधनों की पुनर्स्थापना आधुनिक मगर जनविज्ञान के जरिए करने का प्रयास करें, क्योंकि वह सुनिश्चित था और उसमें अपने संसाधनों को समाज अपने नियन्त्रण में रखता था। इसमें न तो बड़ी नहरों के टूटने का खतरा है और न ही मरम्मत न होने के कारण उनसे सिंचाई बन्द होने का डर रहता है। इस स्रोत से खेतों पर बालू भी नहीं पड़ता है और न ही ऐन मौके पर इंजीनियरों के हड़ताल पर जाने का खतरा रहता जबकि सिंचाई की माँग चरम पर हो।
अगर यह बाँध केवल बिजली की जरूरतों को पूरा करने के लिए बनाए जा रहे हैं, तब इस बात की जरूरत है कि अपनी बिजली की माँग का अध्ययन कर लें। अपने मौजूदा बिजली घरों की कार्य क्षमता बढ़ाना, बिजली पैदा करने की सारी सम्भावनाओं को तलाश करना और उसका दुरुपयोग रोकना आदि कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन पर गम्भीरता से विचार होना चाहिए और जिस तरह के बाँध को बनाने की बात चल रही है वह तभी बनें, जब उसके अलावा कोई चारा न बचा हो। पिछले दो वर्षों में बिहार में तीन बड़े ताप बिजली घरों के शिलान्यास हुए हैं। इस दरम्यान बाढ़ और चतरा बिजली घर (दोनों की अलग-अलग क्षमता 2,000 मेगावाट) और पुसौली ताप बिजली घर (क्षमता 500 मेगावाट) की नींव रखी गई है।
इन तीन बिजली घरों से कुल मिलाकर 4,500 मेगावाट बिजली उपलब्ध हो सकेगी, जबकि राज्य की सन् 2025 की बिजली की माँग 2750 मेगावाट होने का अनुमान है। अगर ये बिजली घर काम करने लगें और अगर हम अपनी वर्तमान क्षमता को सुधार सकें तो विद्युत उत्पादन के लिए भी बराहक्षेत्र बाँध की जरूरत नहीं पड़ेगी। अधिकांश बड़े बाँध विद्युत उत्पादन के उद्देश्य से बनते हैं। हाँ, इनका प्रचार-प्रसार सिंचाई या बाढ़ नियन्त्रण के नाम पर अवश्य होता है। यह बाँध गरीबों और उनके विकास की दुहाई देकर बनते हैं। मगर बाँध बनने के बाद की प्राथमिकताओं का अगर अध्ययन किया जाए तो वे गरीब ही होते हैं, जो पीछे छूट जाते हैं।
नेपाल में प्रस्तावित बाँधों पर एक राष्ट्रव्यापी बहस की जरूरत है जो कि पर्यावरण, संरचनात्मक सुरक्षा, लागत, निर्माण पूरा करने का समय, विस्थापन या पुनर्वास-यद्यपि यह मुद्दा सीधे हमको प्रभावित नहीं करता है, मगर निर्माण कार्य को बहुत प्रभावित कर सकता है और भारतीय उपभोक्ता को मिलने वाली बिजली और उसकी कीमत आदि विषयों को समेटे बहस अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं की भूमिका पर भी होनी चाहिए और बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ क्यों इन योजनाओं में इतनी ज्यादा रूचि ले रही हैं, वह भी सार्वजनिक किया जाना चाहिए। जरूरी है कि वर्तमान कोसी परियोजना का भी मूल्यांकन उसके कथित उद्देश्यों की पृष्ठभूमि में किया जाए। लोगों के पास योजना बनाने वालों की बातों पर विश्वास करने का समुचित कारण होना चाहिए, क्योंकि जिन योजनाओं की बात चल रही है वह बहुत ही महँगी है।
बाढ़ नीति
ब्रिटिश शासन काल में सरकार, प्रशासक तथा उसके इंजीनियर बाढ़ नियन्त्रण की जगह जल-निकासी पर ज्यादा जोर दे रहे थे, क्योंकि उनका मानना था कि बाढ़ नियन्त्रण पर किया गया कोई भी काम पानी की निकासी में बाधा पहुँचाता है। इसके साथ ही बाढ़ नियन्त्रण परियोजनाओं की असफलता की स्थिति में जो राहत और पुनर्वास का खर्च सरकार को उठाना पड़ता है, उसके प्रति भी वे काफी सतर्क थे।
मैदानी इलाकों में बाढ़ नियन्त्रण परम्परागत रूप से काफी महत्वपूर्ण नहीं था। नदी की बाढ़ से बचाव के लिए गाँवों में टीलानुमा जगह बना दी जाती थी, जहाँ लोग बाढ़ के समय शरण ले लेते थे। अगर गाँव पास-पास में हों, तो यह टीले भी पास-पास बन जाते थे। वह कभी भी नदी के प्रवाह को रोकने के लिए या नदी की पूरी लम्बाई में नहीं बनाए जाते थे। उनको इस तरह निर्मित किया जाता था कि नदी का पानी गाँव के रिहाइशी इलाकों को कम-से-कम नुकसान पर पहुँचा सके। कुल मिलाकर प्रयास पानी को ज्यादा-से-ज्यादा इलाकों पर फैलाने का था, जिससे वर्षा के समय खेतों को पानी मिले, नई मिट्टी पड़ने के कारण जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़े और ज्यादा क्षेत्र पर पानी फैलने के कारण बाढ़ का प्रकोप सीमित हो।
बाढ़ का पानी फैलने के कारण जमीन की नमी बनी रहती थी और रबी की जबरदस्त फसल होती थी। फसलों के सही चुनाव से असाधारण परिस्थितियों में भी अन्न की कमी नहीं रहती थी। अंग्रेज मैदानी क्षेत्रों की बाढ़ देखकर घबरा गए थे और जन-साधारण की बाढ़ों से निपटने की तैयारी और तरीकों को समझने में उन्हें काफी समय लग गया। शुरू-शुरू में तो उन्होंने बाढ़ से बचाव के लिए बनाए गए टीलों या बाँधों को नदी के किनारे बनाए गए तटबन्ध ही समझ लिया। परिणामतः उन्होंने उनका उसी तरह से विस्तार किया और उन्हें मजबूत बनाने का प्रयास किया। इन तटबन्धों का रख-रखाव बड़ा मुश्किल था और यह अक्सर टूटा करते थे। उनकी नजर में लोगों को इनसे कभी सुरक्षा मिलती थी तो कभी नहीं मिलती थी।
अपने बाद के शासन काल में अंग्रेजों ने जल-निकासी के रास्ते में अड़चनें न पैदा करने का प्रयास किया और राहत तथा पुनर्वास के कामों से बचने का भरसक प्रयास किया। कटक के कमिश्नर ए जे मोफेट (1847) की इन तटबन्धों पर एक बड़ी अनोखी टिप्पणी उपलब्ध है। उनका कहना था कि, ‘... मेरे लिये यह कह पाना बड़ा मुश्किल है कि तटबन्धों को हटा देने से सरकार को फायदा होगा या नुकसान। कुछ इलाकों में मिट्टी पड़ने से सुधार की सम्भावना है, परन्तु मैं यह भी सोचता हूँ कि जितना फायदा होगा उतना ही नुकसान दूसरी जगहों पर बालू पड़ने से हो जाएगा। कटक में बहने वाली नदियाँ अक्सर ऐसा करती हैं।’
उनके रेवेन्यू अफसरों और मिलिट्री इंजीनियरों के बीच बड़ा तीव्र विवाद था। रेवेन्यू अफसरों की माँग रहती थी कि खेती की जमीन को बाढ़ से सुरक्षा मिलती रहे ताकि उन्हें लगान वसूल करने में दिक्कत न हो। इंजीनियरों के साथ परेशानी थी कि वह नदी के पानी से बचाव के लिए बने तटबन्धों को चुस्त-दुरुस्त हालत में रख पाने में असमर्थ थे और वह भी उस हालत में जब यह काम कम-से-कम खर्च पर होना हो।
धीरे-धीरे तटबन्धों का रखरखाव इंजीनियरों के लिए बड़ा भारी सिरदर्द बन गया, क्योंकि वर्षा वाले महीनों में उनका फर्ज था कि वह तटबन्ध को सही-सलामत रखने के लिए काम करते रहें और पूरी बरसात भर न केवल तटबन्धों की नदी की बाढ़ से, बल्कि ग्रामीणों के हमलों से भी हिफाजत करें। सूखे के समय तो हालत और भी बदतर थी, क्योंकि तब तटबन्धों पर रात-दिन नजर रखनी पड़ती थी। नदी के पानी को खेतों तक पहुँचाने के लिए लोग चोरी-छिपे इन तटबन्धों को काट दिया करते थे, जिससे कुछ इलाके को भले ही फायदा हो जाए, मगर एक बड़े क्षेत्र को नुकसान पहुँचता था।
तटबन्ध टूटने की स्थिति में सरकार को लगान माफ कर देना पड़ता था और तकावी ऋण की व्यवस्था करनी पड़ती थी। कुल मिलाकर सरकार के लिए यह घाटे का सौदा था।
अब जो हालात पैदा हो रहे थे, उनकी वजह से उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में दामोदर परियोजना को हाथ में लेकर छोड़ दिया गया और इसी आधार पर जब लाट साहब के पास उत्तर बिहार में गण्डक सिंचाई परियोजना का प्रस्ताव भेजा गया तब उन्होंने उसे स्वीकृति देने से साफ मना कर दिया।
आजादी के बाद राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार तत्कालीन केन्द्रीय योजना और सिंचाई मन्त्री श्री गुलजारी लाल नन्दा ने 3 सितम्बर 1954 को लोकसभा में बाढ़ जनित समस्याओं और उनके निदान के स्वरूप पर एक वक्तव्य दिया। जिसे सम्भवतः बाढ़ नीति सम्बन्धी स्वतन्त्र भारत का पहला वक्तव्य कहा जा सकता है। 1953 तथा 1954 की प्रचण्ड बाढ़ों ने देश में काफी चिन्ताजनक परिस्थिति पैदा कर दी थी। श्री नन्दा ने अपने बयान में कहा था कि ‘बहरहाल, बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में लोगों की सुरक्षा का इतना अधिक महत्व है कि हमें उन तरीकों को चुनना पड़ेगा, जो उद्देश्य को प्राप्त करने के साथ-साथ शीघ्रतापूर्वक अपनाया जा सके, इन अर्थों में एक कार्यक्रम को अपनाने पर विचार किया जा रहा है। यह तीन चरणों में विभाजित है।’
(क) तात्कालिक - पहला चरण दो वर्षों की अवधि तक का होगा। इस अवधि को गहन अन्वेषणों और आँकड़े एकत्रित करने में लगाया जाएगा। बाढ़ नियन्त्रण के लिए अल्पकालीन उपायों के लिए विस्तृत योजनाएँ बनाई जाएँगी तथा अभिकल्पों एवं अनुमानों को तैयार किया जाएगा। निवेशों, स्परों और यहाँ तक कि तटबन्धों के निर्माण के उपाय चुने हुए स्थलों में तत्काल लागू किए जाएँगे।
(ख) अल्पावधिक - दूसरे चरण के दौरान, जो दूसरे वर्ष से आरम्भ होकर 6 वें अथवा 7 वें वर्ष तक का होगा, तटबन्धों और चैनल सुधारों जैसे बाढ़ नियन्त्रण के उपाय किए जाएँगे। इस प्रकार की सुरक्षा को इस समय बाढ़ से प्रभावित क्षेत्रों में वृहत् भाग पर लागू किया जाएगा।
(ग) दीर्घावधिक - तीसरा चरण, जहाँ आवश्यक हो, कुछ नदियों की सहायक नदियों पर भण्डारण जलाशयों तथा अतिरिक्त तटबन्धों के निर्माण जैसे चुने हुए दीर्घावधि उपायों से सम्बन्धित होगा। इनमें तीन से पांच वर्ष का और समय लग सकता है।
किसी एक उपाय में बाढ़ों की समस्या का कोई पूर्ण समाधान नहीं मिल सकता। यदि कोई उचित हल ढूँढ़ना है तो प्रत्येक मामले पर इसके गुणावगुणों के आधार पर विचार करना पड़ेगा तथा कोई उपाय अथवा अनेकों उपाय के एक समूह को अपनाना पड़ेगा।
इस प्रकार 1954 में शुरू हुए बाढ़ नियन्त्रण कार्यक्रमों में आने वाले 14-15 वर्षों में प्रभावी रूप से बाढ़ पर काबू पा लेने का इरादा जाहिर किया गया था। इस नीति के पालन करने के ध्येय से केन्द्र तथा राज्य सरकार की तरफ से आँकड़ों के संकलन की दिशा में काफी काम किया गया, कई तटबन्ध बनाए गए तथा चैनल सुधार और नगर रक्षा का काम भी हाथ में लिया गया और पूरा किया गया। आँकड़ों का संग्रह एक लम्बी प्रक्रिया है। जब तक सन्तोषजनक आँकड़े न हों तब तक किसी प्रकल्प को हाथ में लेना सहज् नहीं होता। आजादी के ठीक बाद वाले दौर में विकास का जादू सिर चढ़ कर बोलता था और किसी भी बड़ी योजना में नेताओं और आम जनता को ‘विकास के मन्दिर’ का दर्शन होता था।
इन ‘मंदिरों’ के निर्माण के लिए विपुल धनराशि की जरूरत थी जो कि देश के पास नहीं थी। आँकड़ों का अभाव तो सचमुच था, मगर उससे ज्यादा संसाधन जुटाने के लिए समय की जरूरत थी। सरकार आज की ही तरह बड़े बाँधों को बाढ़ की समस्या का स्थायी समाधान मानती थी। दामोदर घाटी निगम, भाखड़ा परियोजना तथा हीराकुण्ड बाँध पर काम चल रहा था। मगर अन्य प्रकल्पों के लिए धन की कमी बनी हुई थी। अतः बाढ़ नियन्त्रण पर अब जो कुछ भी होना था वह अस्थायी स्तर का काम होना था और इसके लिए भी आँकड़ों की कमी का बहाना काफी काम आया होगा। बाद का घटना क्रम इस सन्देह की पुष्टि करता है।
सरकार ने संसाधनों के अभाव में बाढ़ के लिए तटबन्धों के निर्माण जैसे अल्पकालिक कामों को ही स्थायी रूप दे दिया और जिसे वह दीर्घकालिक समाधान मानती थी उन बड़े बाँधों पर काम हुआ ही नहीं। मगर इसका यह तात्पर्य कतई नहीं है कि बड़े बाँधों में बाढ़ समस्या का समाधान छिपा हुआ है।
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Post By: Shivendra