हर साल की तरह इस बार भी बिहार के कुछ इलाके में बाढ़ की विपदा आई हुई है। लेकिन इस बार बागमती और लखनदेई नदियों के तटबंध टूटने से बाढ़ आई है। बागमती नदी में सीतामढ़ी जिले के रूनीसैदपपुर ब्लाॅक के तिलक ताजपुर के पास 200 मीटर तटबंध टूटा है, जबकि बागमती की ही सहायक नदी लखनदेई में दो जगह दरार आई है, जिससे मुजफरपुर जिले के कई गांव प्रभावित हुए हैं। सरकारी सूत्रों के अनुसार इस साल अब तक 75 गांवों के 3 लाख लोगों के घर बार डूब चुके हैं।
इस साल भी प्रभावित लोगों के लिए राहत फिर आरोप प्रत्यारोप का दौर चलेगा, इसके बाद तटबंधों के मरम्मत में रकम खर्च किया जाएगा। यानी फिर से इंजिनियरों एवं ठेकेदारों की चांदी हो जाएगी। लेकिन जिन गरीबों के जान माल की क्षति हुई उनके लिए कोई स्थायी राहत की व्यवस्था तो फिलहाल हाल नहीं दिखती है। इस तरह पिछले पचास सालों से यह सिलसिला जारी है। बात बड़ी अजीब है कि नदियां तो सदियों से मौजूद हैं, बाढ़ भी सदियों से आती रही हैं तो फिर यह सिलसिला पचास साल से ही क्यों?
हां बात बिल्कुल सही है कि बिहार में पचास के दशक के पहले आने वाली बाढ़ों का स्वरूप ऐसा नहीं होता था। जब पहले बाढ़ आती थी तो स्थानीय लोग पहले से ही अपने घर बार छोड़कर सुरक्षित जगहों पर शरण ले लेते थे और पानी उतरते ही अपने स्थानों में वापस लौट जाते थे। वैसे भी पहले बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में लोग स्थाई निर्माण बहुत ही कम करते थे। लेकिन आजादी के बाद पूरे देश के लिए बाढ़ का स्थायी हल खोजने की कवायद शुरू हुई। भारत सरकार ने सन 1954 में पहली बाढ़ नियंत्रण नीति बनाई और उस समय देश भर में तमाम नदियों के किनारे कुल 33928.64 किमी लंबे तटबंध बनाने की योजना बनी। इसके पीछे लक्ष्य था देश भर के 2458 शहरों व कस्बों एवं 4716 गांवों को बाढ़ की तबाही से मुक्त करना। लेकिन हुआ क्या? सन 1954 में जहां पूरे देश में बाढ़ प्रवण इलाका 74.90 लाख हेक्टेअर था वहीं सन 2004 में बढ़कर करीब 22 गुना हो गया। जबकि नौंवी पंचवर्षीय योजना की समाप्ति तक (2002 तक) भारत सरकार इस कार्य के लिए 8113.11 करोड़ खर्च कर चुकी थी। बिहार में सन 1952 में राज्य में नदियों के किनारे बने तटबंधों की लंबाई 160 किमी थी तब उस समय बाढ़ प्रवण क्षेत्र 25 लाख हेक्टेअर था। जबकि पचास साल बाद सन 2002 के आंकड़ों के अनुसार नदियों के किनारे बने तटबंधों की लम्बाई 3,430 किमी हो चुकी है लेकिन फिर भी बाढ़ प्रवण क्षेत्र बढ़कर 68.8 लाख हेक्टेअर हो गई है। आपको बताते चलें कि ये आकंड़े किसी निजी संगठन के नहीं बल्कि केन्द्रीय जल संसाधन विभाग एवं योजना आयोग कै हैं। तो सवाल उठता है कि बाढ़ के लिए इंजिनियरिंग हल कितना जायज है?
बिहार स्थित ‘बाढ़ मुक्ति अभियान’ के संयोजक डा. दिनेश कुमार मिश्र को बिहार के बाढ़ के मामले में सबसे बड़े विशेषज्ञों में गिना जाता है। उनका मानना है कि बाढ़ की ये व्यापकता इंजिनियरिंग हल के ही परिणाम हैं। सन 2008 में जब कोसी नदी का तटबंध नेपाल में कुशहा के पास बीरपुर बराज से 12.9 किमी ऊपर टूटा था तो करीब 40 लाख लोग प्रभावित हुए थे। कोसी का तटबंध अब तक कुल आठ बार टूटा है। मजेदार बात यह है कि उत्तरी बिहार में आने वाले बाढ़ के लिए नेपाल को जिम्मेदार ठहराया जाता है। क्या सच में ऐसा है? यह स्वाभाविक बात है कि उत्तरी बिहार में आने वाली नदियां जैसे गंडक, बुढ़ी गंडक, बागमती, आधवारा, धाउस, कमला, बलान, कोसी आदि सभी नेपाल से होकर ही आती हैं। जबकि नेपाल के पास ऐसा कोई भी ढांचा नहीं है जिससे कि नदियों को नियंत्रित किया जा सके। तो फिर नेपाल जिम्मेदार कैसे हुआ? जहां तटबंध टूटा था वह इलाका नेपाल में है लेकिन उस पर नियंत्रण तो भारत का ही है। 2008 में 1.44 लाख क्यूसेक प्रवाह में तटबंध टूटा था, जबकि तटबंध और बराज की डिजाइन 9.5 लाख क्यूसेक क्षमता के अनुरूप बना है। इतने कम प्रवाह पर तटबंध का टूटना यह साबित करता है कि कोसी नदी की पेटी में गाद जमाव काफी ज्यादा है और तटबंध का रखरखाव बहुत बुरी अवस्था में है। तटबंध के दरार वाले हिस्से से बाहर जाने वाला पानी कोसी नदी में फिर से प्रवेश नहीं कर सका क्योंकि नदी पर दरार वाली जगह से 125 किमी आगे तक तटबंध बना हुआ है। इससे यह बात साबित होती है कि तटबंधों की वजह से नदी के स्वाभाविक जलग्रहण की प्रक्रिया बाधित होती है। बारिश का पानी भी तटबंध के बाहर जमा हो जाता है। इससे छोटी नदियों का संगम भी बाधित हो जाता है। स्लुइस गेट बनाकर इसके हल की कोशिश की गई, लेकिन वह भी सफल नहीं हो सका। ऐसा इसलिए क्योंकि यदि मुख्य नदी में ज्यादा प्रवाह हो और सहायक नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में ज्यादा बारिश हो तो भी उसका पानी नदी में नहीं जा पाएगा। और फिर धीरे-धीरे नदी के पेटी में गाद भर जाता है और नदी का तल ऊपर उठ जाता है और तटबंध काम करना बंद कर देते हैं। इसके अलावा तटबंध की भी एक निर्धारित उम्र होती है।
उत्तरी बिहार की भौगोलिक परिस्थिति की मांग है कि गाद और पानी को प्राकृतिक रूप से फैलने देना चाहिए और स्थानीय स्तर पर उसका मुकाबला करना चाहिए। जिससे जमीन की ऊर्वरा शक्ति बढ़ेगी और भूजल का स्तर भी कायम रहेगा। साथ ही विभिन्न ढांचागत निर्माण के दौरान नदियों की प्राकृतिक ड्रेनेज को कायम रखना चाहिए। लेकिन जो हो आखिर इसी इंजिनियरिंग हल ने बिहार के जीवनदाई बाढ़ को आपदा का स्वरूप दे दिया है।
/articles/baadha-tao-phaira-bhai-aegai