आज देश का अधिकांश भाग-सूखा-अकाल की चपेट में है । देश का बड़ा भाग जहां एक ओर सूखाग्रस्त है, वहीं दूसरी ओर कुछ भाग में बाढ़ एवं तूफान ने तबाही मचाई हुई है । विशेषज्ञों का मत है कि किसी भी भू-भाग का पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने के लिए कम से कम एक तिहाई भू-भाग पर वन होने चाहिए । पहाड़ी क्षेत्र में तो ६० प्रतिशत भू-भाग पर ही जंगल हैं । वैज्ञानिकों का मत है कि जिस क्षेत्र का वन क्षेत्र १० प्रतिशत से कम हो जाता है वहां का पर्यावरण विनाश की कगार पर पहुंच जाता है । विकास के नाम पर वृक्षों की अंधाधुंध कटाई से देश में प्रतिवर्ष १५ लाख हैक्टर क्षेत्र में वनों का विनाश हो रहा है जिसमें प्रति मिनट एक हैक्टर भूमि बंजर हो रही है ।
आशंका है कि यदि पर्यावरण संतुलन पर ध्यान नहीं दिया गया तो पृथ्वी का तापमान बढ़ जाने से प्रलय की स्थिति पैदा हो सकती है और कई समुद्र तटीय क्षेत्र जलमग्न हो सकते हैं । बढ़ते तापमान का सबसे बड़ा असर यह होगा कि हिम शिखर व ग्लेशियर पिघलकर समुद्र में गिरने लगेंगे । इससे समुद्र का जल स्तर बढ़ेगा व भूभाग उसमें डूब जाएगा । आज सबसे बड़ी चुनौती जनसंख्या विस्फोट, तीव्र औद्योगिकरण तथा प्रदूषण की है । वैज्ञानिक उपलब्धियों की जगमगाहट में हम आज पृथ्वी की जीवनदायी व्यवस्था में व्यवधान उपस्थित करने पर इतने उजारू हैं कि स्वयं अपनी मौत को निमंत्रण दे रहे हैं ।
अपनी सुख-सुविधा के लिए उन्हीं प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट कर रहे हैं, जो प्रकृति ने एक स्वचालित व्यवस्था के रूप में हमें दिए थे। मनुष्य ने इस स्वचालित व्यवस्था के रूप में इतनी गड़बड़ी फैला दी है कि पूरी जीवनदायी व्यवस्था डगमगा रही है । जीवन चक्र कहीं से भी टूटे, पुरी श्रृंखला बिखर जाएगी और प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ने के लिए सर्वाधिक ज़िम्मेदार मानव स्वयं भी इसका शिकार होगा । औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप विषैली गैसों और अवशिष्ट पदार्थ के कारण जन स्वास्थ्य प्रभावित हुआ है । कैडमियम, मरकरी, आर्सेनिक, सल्फ्यूरिक अम्ल, लेड आदि विषैले पदार्थ निरंतर वातावरण और जल स्त्रोतों में छोड़े जा रहे हैं । एक अध्ययन के अनुसार लेड से कैंसर तथा लकवे की शिकायत और निरंतर धुएं युक्त वातावरण में सांस लेने से फेफड़ों के विभिन्न रोग होते हैं । ८० प्रतिशत पारा-वाष्प सांस द्वारा शरीर के अंदर जाकर स्नायु मंडल के रोग उत्पन्न करती है । १९७१ मेंइराक में पारा युक्त कीटनाशक मिश्रण से साफ किए गए अनाज की रोटी खाने के बाद ६ हजार व्यक्ति बीमार हो गए तथा ५०० से अधिक मौत के शिकार हुए । मैंगनीज़ डाईऑक्साइड से पार्किंसन रोग तथा मनोविकार देखे गए हैं ।
इस्पात उद्योगों में उपयोग में लाए जाने वाले निकल मिश्रण से निकल कार्बेनल के द्वारा ज़िगर, नाक तथा कैंसर की बीमारियां बढ़ गई हैं । वेनेडियम, जो इस्पात निर्माण में महत्वपूर्ण है, के सांस द्वारा शरीर में जाने से अत्यधिक सूखी खांसी, आंख व गले में जलन तथा दमा जैसे रोग होते हैं । मथुरा के पास तेल शोधक कारखाने के दुष्प्रभाव भरतपुर के पक्षी अभयारण्य की वीरानी एवं विश्व प्रसिद्ध ताजमहल पर धब्बों के रूप में देखने को मिलते हैं । प्रकृति में वनस्पति, जंतु, जल स्त्रोत एवं वायुमंडल एक स्वस्थ पर्यावरण का निर्माण करते हैं । यदि इनमें से किसी एक इकाई में असंतुलन पैदा हो तो इसका प्रभाव पूरी श्रृंखला पर पड़ता है ।
आज भू क्षरण इतनी तीव्र गति से हो रहा है कि यदि क्षरित मिट्टी को मालगाड़ी के डिब्बों में भर दिया जाए तो वह दिल्ली से लेकर कन्याकुमारी तक लंबी होगी । एक अनुमान के अनुसार प्रति वर्ष ६० अरब टन उपजाऊ मिट्टी भू क्षरण से प्रभावित होती है । फसलों के मूल्य के रूप में यह हानि ३०० करोड़ तथा उर्वरक के रूप में यह हानि १२०० करोड़ रूपए प्रति वर्ष आंकी गई है । कुल मिलाकर वार्षिक हानि १५०० करोड़ रूपए प्रति वर्ष होती है । भूमि उर्वरता घटने के साथ नदियों, तालाबों में मिट्टी भर जाने से बाढ़े आती हैं, वहीं कंकरीली मिट्टी उपजाऊ क्षेत्रों में फैलकर उसे कृषि के लिए अनुउपजाऊ भी बनाती है ।
वन क्षेत्रों में तेज़ी से कमी आती जा रही है । इंर्धन, घर बनाने एवं कृषि यंत्रों के लिए, वनोपज पर आधारित उद्योग धंधे जैसे कागज़, प्लाईवुड आदि शहरी आवास व्यवस्था, विस्थापितों को बसाने तथा कृषि क्षेत्र की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए वन निरंतर काटे जा रहे हैं। वन क्षेत्रों पर जनसंख्या विस्फोट एवं पशु संख्या में बढ़ोतरी के कारण दबाव निरंतर बढ़ रहा है । भारत में प्रतिवर्ष १३ करोड़ टन लकड़ी काटी जा रही हैं । वायुमंडल में विभिन्न प्रकार के परिवर्तन दिखाई पड़ने लगे हैं, खास तौर से नगरीय एवं औद्योगिक क्षेत्रों में । वर्तमान वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा ३५० पीपीएम है जो कि औद्योगीकरण से पूर्व के समय से १४ प्रतिशत अधिक है । जीवाश्म इंर्धन की वर्तमान खपत की दर से सन् २०२० तक वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर दुगना हो जाएगा, जिससे विश्व तापमान तीन डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा, जिसके कारण ध्रुवीय बर्फ पिघलेगी तथा तटवर्ती क्षेत्र डूब जाएंगे ।
चावल की खेती कम हो जाएगी । थल क्षेत्रों में कमी के कारण जनसंख्या का दबाव और अधिक बढ़ जाएगा और खाद्यान्न की कमी होगी। भूमिगत कोयले के जलने तथा सीमेंट उत्पादन हेतु चूना पत्थर के गत १५० वर्षों के उपयोग के कारण वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा १५० अरब टन बढ़ी है । एक हज़ार मेगावॉट वाला बिजली केंद्र प्रति मिनट १६ टन कार्बन डाईऑक्साइड गैस उगलता है । ऊर्जा केन्द्रों में कोयले के दहन से वायुमंडल मं १० पाउंड प्रति सेकंड की दर से सल्फर डाईऑक्साइड छोड़ी जाती हैं । कोयले के ज़हरीले धुएं से अनगिनत लोग सांस की बीमारियों से पीड़ित हैं, मौत के शिकार हो रहे हैं । कोयले के महीन कण सांस नली में जम जाते हैं । परमाणु बिजली घरों से निकले अवशिष्ट रेडियोधर्मी पदार्थ के कारण गंभीर स्थिति उत्पन्न हो रही है । भूमिगत अथवा वायुमंडलीय परमाणु विस्फोट से उपजी ऊष्मा वायुमंडल में नाइट्रोजन ऑक्साइड का निर्माण करती है, जिससे पृथ्वी के वातावरण को सुरक्षित रखने वाली ओज़ोन गैस की परत नष्ट होती जा रही है ।
वायुयान भी ओज़ोन परत को नष्ट करने में सहायक हो रहे हैं । ओज़ोन परत के पतन का मतलब है तापक्रम में वृद्धि तथा जीव समूहों पर कैंसर का प्रकोप तथा फसलों का विनाश । अवशिष्ट पदार्थों को पानी में बेखटके छोड़ने से जल स्त्रोत प्रदूषित हो रहे हैं । जलीय जीव नष्ट हो रहे हैं । समुद्र तटों पर लगे तेल शोधक कारखानों के अवशिष्ट समुद्र में छोड़े जाने से एक तैलीय परत जल सतह पर फैली जाती है जिसके कारण सामान्य वाष्पीकरण न होने से वर्षा में कमी एवं सूखे की स्थिति पैदा होती है । वन सौर ऊर्जा को संग्रह करने के सबसे बड़े साधन हैं । पहाड़ी क्षेत्रों में आधुनिक तकनीक के द्वारा शीघ्र उगने वाले वृक्षों को लगाकर प्रति हैक्टयर सर्वाधिक आय प्राप्त की जा सकती है, जिससे न केवल लोगों को रोज़गार मिलेगा बल्कि बढ़ती हुई जनसंख्या की आवश्यकता की पूर्ति भी होगी ।
अत: आवश्यक है कि प्रत्येक आबादी के पास नए-नए उपवन, बाग-बगीचे लगाए जाएं जो शुद्ध वायु प्रदान कर सकें । औद्योगिक प्रतिष्ठानों एवं मुख्य मार्गों के निकट तो वृक्ष लगाना बहुत आवश्यक है । भारत में स्तनपायी जीवों की पांच सौ, चिड़ियों की ३ हज़ार एवं कीट आदि की ३० हज़ार प्रजातियां पाई जाती हैं । तरह-तरह की मछलियां, सरिसृप तथा उभयचर भी पाए जाते हैं । पर्याप्त वन क्षेत्र न रहने से या वायु एवं जल प्रदूषण के कारण ये मृत्यु के शिकार हो रहे हैं । चिड़िया नहीं होगी तो विभिन्न कीड़ों से फसलों की रक्षा कौन करेगा ? सर्प चूहों को खाकर बचाता है । मांसाहारी जीव शाकाहारी जीवों को खाकर कृषि की रक्षा करते हैं । विकास के नाम पर हो रहे हृास के कारण भावी पीढ़ी के लिए छोड़ रहे हैं ज़हरीली वायु, दूषित जल, बंजर ज़मीन, नंगे पहाड़, मौसम में घातक परिवर्तन, तेजाबी वर्षा एव बिगड़ता पर्यावरण ।
मध्यप्रदेश के वन आवरण क्षेत्र में पिछले चार साल में १६८७ वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है । प्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक ए.के. दुबे ने भारतीय वन सर्वेक्षण संस्थान देहरादून के वर्ष २००९ के प्रतिवेदन के हवाले से यह जानकारी देते हुए बताया कि वर्ष २००५ में जारी प्रतिवेदन में मध्यप्रदेश का वनावरण ७६०१३ वर्ग कि.मी. बताया गया था जो बढ़कर ७७,७०० वर्ग कि.मी. हो गया है । प्रदेश में वनों के बाहर वृक्ष आवरण क्षेत्र में भी वर्ष २००५ की तुलना में वर्ष २००९ तक ६०४ वर्ग कि.मी. की बढ़ोतरी हुई है । प्रतिवेदन में पूरे देश के लिए यह आंकड़ा ११०३ वर्ग कि.मी. बताया गया है । इसमें अकेले मध्यप्रदेश की ५० प्रतिशत से ज्यादा भागीदारी रही है । श्री दुबे ने बताया कि इसी प्रकार देश में झाड़ी वन क्षेत्र में ३०५० वर्ग कि.मी. की शुद्ध वृद्धि प्रतिवेदन में बताई गई है । इसमें भी प्रतिवेदन अवधि में मध्यप्रदेश के झाड़ी वन क्षेत्र में ४२२९ वर्ग कि.मी. वृद्धि हुई है । उन्होंने बताया कि झाड़ी वन को वन आवरण अथवा वन के बाहर वृक्ष आवरण क्षेत्र में शामिल नहीं किया गया है । प्रदेश में वन आवरण वृद्धि का कारण वन विभाग द्वारा किए गए वन संवर्द्धन और वन सुरक्षा के उपायों के साथ ही विभाग तथा वन विकास निगम द्वारा किया गया वृक्षा रोपण शामिल है ।
आशंका है कि यदि पर्यावरण संतुलन पर ध्यान नहीं दिया गया तो पृथ्वी का तापमान बढ़ जाने से प्रलय की स्थिति पैदा हो सकती है और कई समुद्र तटीय क्षेत्र जलमग्न हो सकते हैं । बढ़ते तापमान का सबसे बड़ा असर यह होगा कि हिम शिखर व ग्लेशियर पिघलकर समुद्र में गिरने लगेंगे । इससे समुद्र का जल स्तर बढ़ेगा व भूभाग उसमें डूब जाएगा । आज सबसे बड़ी चुनौती जनसंख्या विस्फोट, तीव्र औद्योगिकरण तथा प्रदूषण की है । वैज्ञानिक उपलब्धियों की जगमगाहट में हम आज पृथ्वी की जीवनदायी व्यवस्था में व्यवधान उपस्थित करने पर इतने उजारू हैं कि स्वयं अपनी मौत को निमंत्रण दे रहे हैं ।
अपनी सुख-सुविधा के लिए उन्हीं प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट कर रहे हैं, जो प्रकृति ने एक स्वचालित व्यवस्था के रूप में हमें दिए थे। मनुष्य ने इस स्वचालित व्यवस्था के रूप में इतनी गड़बड़ी फैला दी है कि पूरी जीवनदायी व्यवस्था डगमगा रही है । जीवन चक्र कहीं से भी टूटे, पुरी श्रृंखला बिखर जाएगी और प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ने के लिए सर्वाधिक ज़िम्मेदार मानव स्वयं भी इसका शिकार होगा । औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप विषैली गैसों और अवशिष्ट पदार्थ के कारण जन स्वास्थ्य प्रभावित हुआ है । कैडमियम, मरकरी, आर्सेनिक, सल्फ्यूरिक अम्ल, लेड आदि विषैले पदार्थ निरंतर वातावरण और जल स्त्रोतों में छोड़े जा रहे हैं । एक अध्ययन के अनुसार लेड से कैंसर तथा लकवे की शिकायत और निरंतर धुएं युक्त वातावरण में सांस लेने से फेफड़ों के विभिन्न रोग होते हैं । ८० प्रतिशत पारा-वाष्प सांस द्वारा शरीर के अंदर जाकर स्नायु मंडल के रोग उत्पन्न करती है । १९७१ मेंइराक में पारा युक्त कीटनाशक मिश्रण से साफ किए गए अनाज की रोटी खाने के बाद ६ हजार व्यक्ति बीमार हो गए तथा ५०० से अधिक मौत के शिकार हुए । मैंगनीज़ डाईऑक्साइड से पार्किंसन रोग तथा मनोविकार देखे गए हैं ।
इस्पात उद्योगों में उपयोग में लाए जाने वाले निकल मिश्रण से निकल कार्बेनल के द्वारा ज़िगर, नाक तथा कैंसर की बीमारियां बढ़ गई हैं । वेनेडियम, जो इस्पात निर्माण में महत्वपूर्ण है, के सांस द्वारा शरीर में जाने से अत्यधिक सूखी खांसी, आंख व गले में जलन तथा दमा जैसे रोग होते हैं । मथुरा के पास तेल शोधक कारखाने के दुष्प्रभाव भरतपुर के पक्षी अभयारण्य की वीरानी एवं विश्व प्रसिद्ध ताजमहल पर धब्बों के रूप में देखने को मिलते हैं । प्रकृति में वनस्पति, जंतु, जल स्त्रोत एवं वायुमंडल एक स्वस्थ पर्यावरण का निर्माण करते हैं । यदि इनमें से किसी एक इकाई में असंतुलन पैदा हो तो इसका प्रभाव पूरी श्रृंखला पर पड़ता है ।
आज भू क्षरण इतनी तीव्र गति से हो रहा है कि यदि क्षरित मिट्टी को मालगाड़ी के डिब्बों में भर दिया जाए तो वह दिल्ली से लेकर कन्याकुमारी तक लंबी होगी । एक अनुमान के अनुसार प्रति वर्ष ६० अरब टन उपजाऊ मिट्टी भू क्षरण से प्रभावित होती है । फसलों के मूल्य के रूप में यह हानि ३०० करोड़ तथा उर्वरक के रूप में यह हानि १२०० करोड़ रूपए प्रति वर्ष आंकी गई है । कुल मिलाकर वार्षिक हानि १५०० करोड़ रूपए प्रति वर्ष होती है । भूमि उर्वरता घटने के साथ नदियों, तालाबों में मिट्टी भर जाने से बाढ़े आती हैं, वहीं कंकरीली मिट्टी उपजाऊ क्षेत्रों में फैलकर उसे कृषि के लिए अनुउपजाऊ भी बनाती है ।
वन क्षेत्रों में तेज़ी से कमी आती जा रही है । इंर्धन, घर बनाने एवं कृषि यंत्रों के लिए, वनोपज पर आधारित उद्योग धंधे जैसे कागज़, प्लाईवुड आदि शहरी आवास व्यवस्था, विस्थापितों को बसाने तथा कृषि क्षेत्र की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए वन निरंतर काटे जा रहे हैं। वन क्षेत्रों पर जनसंख्या विस्फोट एवं पशु संख्या में बढ़ोतरी के कारण दबाव निरंतर बढ़ रहा है । भारत में प्रतिवर्ष १३ करोड़ टन लकड़ी काटी जा रही हैं । वायुमंडल में विभिन्न प्रकार के परिवर्तन दिखाई पड़ने लगे हैं, खास तौर से नगरीय एवं औद्योगिक क्षेत्रों में । वर्तमान वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा ३५० पीपीएम है जो कि औद्योगीकरण से पूर्व के समय से १४ प्रतिशत अधिक है । जीवाश्म इंर्धन की वर्तमान खपत की दर से सन् २०२० तक वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर दुगना हो जाएगा, जिससे विश्व तापमान तीन डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा, जिसके कारण ध्रुवीय बर्फ पिघलेगी तथा तटवर्ती क्षेत्र डूब जाएंगे ।
चावल की खेती कम हो जाएगी । थल क्षेत्रों में कमी के कारण जनसंख्या का दबाव और अधिक बढ़ जाएगा और खाद्यान्न की कमी होगी। भूमिगत कोयले के जलने तथा सीमेंट उत्पादन हेतु चूना पत्थर के गत १५० वर्षों के उपयोग के कारण वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा १५० अरब टन बढ़ी है । एक हज़ार मेगावॉट वाला बिजली केंद्र प्रति मिनट १६ टन कार्बन डाईऑक्साइड गैस उगलता है । ऊर्जा केन्द्रों में कोयले के दहन से वायुमंडल मं १० पाउंड प्रति सेकंड की दर से सल्फर डाईऑक्साइड छोड़ी जाती हैं । कोयले के ज़हरीले धुएं से अनगिनत लोग सांस की बीमारियों से पीड़ित हैं, मौत के शिकार हो रहे हैं । कोयले के महीन कण सांस नली में जम जाते हैं । परमाणु बिजली घरों से निकले अवशिष्ट रेडियोधर्मी पदार्थ के कारण गंभीर स्थिति उत्पन्न हो रही है । भूमिगत अथवा वायुमंडलीय परमाणु विस्फोट से उपजी ऊष्मा वायुमंडल में नाइट्रोजन ऑक्साइड का निर्माण करती है, जिससे पृथ्वी के वातावरण को सुरक्षित रखने वाली ओज़ोन गैस की परत नष्ट होती जा रही है ।
वायुयान भी ओज़ोन परत को नष्ट करने में सहायक हो रहे हैं । ओज़ोन परत के पतन का मतलब है तापक्रम में वृद्धि तथा जीव समूहों पर कैंसर का प्रकोप तथा फसलों का विनाश । अवशिष्ट पदार्थों को पानी में बेखटके छोड़ने से जल स्त्रोत प्रदूषित हो रहे हैं । जलीय जीव नष्ट हो रहे हैं । समुद्र तटों पर लगे तेल शोधक कारखानों के अवशिष्ट समुद्र में छोड़े जाने से एक तैलीय परत जल सतह पर फैली जाती है जिसके कारण सामान्य वाष्पीकरण न होने से वर्षा में कमी एवं सूखे की स्थिति पैदा होती है । वन सौर ऊर्जा को संग्रह करने के सबसे बड़े साधन हैं । पहाड़ी क्षेत्रों में आधुनिक तकनीक के द्वारा शीघ्र उगने वाले वृक्षों को लगाकर प्रति हैक्टयर सर्वाधिक आय प्राप्त की जा सकती है, जिससे न केवल लोगों को रोज़गार मिलेगा बल्कि बढ़ती हुई जनसंख्या की आवश्यकता की पूर्ति भी होगी ।
अत: आवश्यक है कि प्रत्येक आबादी के पास नए-नए उपवन, बाग-बगीचे लगाए जाएं जो शुद्ध वायु प्रदान कर सकें । औद्योगिक प्रतिष्ठानों एवं मुख्य मार्गों के निकट तो वृक्ष लगाना बहुत आवश्यक है । भारत में स्तनपायी जीवों की पांच सौ, चिड़ियों की ३ हज़ार एवं कीट आदि की ३० हज़ार प्रजातियां पाई जाती हैं । तरह-तरह की मछलियां, सरिसृप तथा उभयचर भी पाए जाते हैं । पर्याप्त वन क्षेत्र न रहने से या वायु एवं जल प्रदूषण के कारण ये मृत्यु के शिकार हो रहे हैं । चिड़िया नहीं होगी तो विभिन्न कीड़ों से फसलों की रक्षा कौन करेगा ? सर्प चूहों को खाकर बचाता है । मांसाहारी जीव शाकाहारी जीवों को खाकर कृषि की रक्षा करते हैं । विकास के नाम पर हो रहे हृास के कारण भावी पीढ़ी के लिए छोड़ रहे हैं ज़हरीली वायु, दूषित जल, बंजर ज़मीन, नंगे पहाड़, मौसम में घातक परिवर्तन, तेजाबी वर्षा एव बिगड़ता पर्यावरण ।
मध्यप्रदेश में वन आवरण १६८७ वर्ग किमी बढ़ा
मध्यप्रदेश के वन आवरण क्षेत्र में पिछले चार साल में १६८७ वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है । प्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक ए.के. दुबे ने भारतीय वन सर्वेक्षण संस्थान देहरादून के वर्ष २००९ के प्रतिवेदन के हवाले से यह जानकारी देते हुए बताया कि वर्ष २००५ में जारी प्रतिवेदन में मध्यप्रदेश का वनावरण ७६०१३ वर्ग कि.मी. बताया गया था जो बढ़कर ७७,७०० वर्ग कि.मी. हो गया है । प्रदेश में वनों के बाहर वृक्ष आवरण क्षेत्र में भी वर्ष २००५ की तुलना में वर्ष २००९ तक ६०४ वर्ग कि.मी. की बढ़ोतरी हुई है । प्रतिवेदन में पूरे देश के लिए यह आंकड़ा ११०३ वर्ग कि.मी. बताया गया है । इसमें अकेले मध्यप्रदेश की ५० प्रतिशत से ज्यादा भागीदारी रही है । श्री दुबे ने बताया कि इसी प्रकार देश में झाड़ी वन क्षेत्र में ३०५० वर्ग कि.मी. की शुद्ध वृद्धि प्रतिवेदन में बताई गई है । इसमें भी प्रतिवेदन अवधि में मध्यप्रदेश के झाड़ी वन क्षेत्र में ४२२९ वर्ग कि.मी. वृद्धि हुई है । उन्होंने बताया कि झाड़ी वन को वन आवरण अथवा वन के बाहर वृक्ष आवरण क्षेत्र में शामिल नहीं किया गया है । प्रदेश में वन आवरण वृद्धि का कारण वन विभाग द्वारा किए गए वन संवर्द्धन और वन सुरक्षा के उपायों के साथ ही विभाग तथा वन विकास निगम द्वारा किया गया वृक्षा रोपण शामिल है ।
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