तटबंधों के टूटने की घटनाओं में जानकारी के अभाव पर रिपोर्ट की बड़ी ही मायूसी भरी टिप्पणी है कि उसने जल-संसाधन विभाग से पिछले पचास से अधिक वर्षों में तटबंधों के टूटने की घटना की जानकारी मांगी थी जो उसे नहीं मिली। रिपोर्ट कहती है, ‘‘...बार-बार रिमाइंडर भेजने और खुद जाकर संपर्क करने के बावजूद किसी भी चीफ इंजीनियर ने यह आंकड़े उपलब्ध नहीं करवाये। ऐसा शायद इसलिए हुआ होगा कि इन विभागों में इस तरह की सूचना उपलब्ध ही न हो।’’
बिहार की नदी जोड़ योजना संबंधी विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट (2005) के आने के साथ-साथ राज्य सरकार ने 13 अप्रैल 2005 को एक तीसरी विशेषज्ञ समिति का गठन कर डाला। इस समिति की जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि 6 अप्रैल 2005 को मुख्यमंत्रियों के एक सम्मेलन में प्रस्ताव आया कि कोसी नदी की बाढ़ समस्या के निदान हेतु भारत-नेपाल सीमा पर बड़े-बड़े विभिन्न स्तरीय कुएं बना कर नदी के पानी को जमीन के अंदर भेज देने का कार्यक्रम हाथ में लिया जाए जिससे बाढ़ के पानी का काफी हिस्सा भूमिगत हो जाए और इस तरह से बाढ़ की समस्या का एक हद तक समाधान कर लिया जाय। ऐसा अनुमान किया गया था कि भूमिगत जल की समृद्धि से गरमा तक में सिंचाई की व्यवस्था हो सकेगी। बाद में इस अध्ययन में कमला और बागमती नदियों को भी जोड़ दिया गया। इस समिति की रिपोर्ट मई 2006 में आयी। बाढ़ के पानी को भूमिगत जल की सतह तक पहुँचाने की यह तकनीक परीक्षित तकनीक नहीं है और इसके परिणामों के प्रति इंजीनियरिंग तबका अभी तक आश्वस्त नहीं है। इसलिए समिति केवल यह सुझाव देकर रह गयी, ‘‘...जितने भी रिचार्ज ट्यूब वेल बनाने की संभावना हो उसके 10 से 15 प्रतिशत संख्या में इस तरह के कुएं पाइलट प्रोजेक्ट के तौर पर लगाये जाएं और इस तरह के कार्यक्रम की सफलता का अध्ययन करने के बाद ही आगे कोई काम हाथ में लिया जाय।’’13.5 बिहार की बाढ़ समस्या की तकनीकी समिति (2008)
2007 (अगस्त) में बिहार सरकार ने राज्य के भूतपूर्व अभियंता प्रमुख नीलेन्दु सान्याल की अध्यक्षता में एक तकनीकी समिति का गठन किया। इस समिति से यह अपेक्षा थी कि वह बाढ़ के समय बड़े पैमाने पर तटबंधों में पड़ने वाली दरारों के कारणों की जांच करेगी, बाढ़ के समय पैदा होने वाली आकस्मिक समस्याओं से निपटने के तौर-तरीके सुझायेगी, बाढ़ों के प्रबंधन की व्यवस्था का रास्ता बतायेगी, तटबंधों से मिलने वाली बाढ़ सुरक्षा की सफलता दर का निर्धारण करेगी, नदियों के व्यवहार को ध्यान में रखते हुए अल्पावधि और मध्यावधि वाले संरचनात्मक उपायों की व्यावहारिकता और उनके क्रियान्वयन पर राय देगी, बाढ़ से निपटने के दीर्घावधिक कायक्रमों में केन्द्रीय सरकार की भूमिका और इन सुझावों को पूरा करने के लिए धन के श्रोतों को खोजने में मदद करेगी, नदियों को गहरा करने के व्यावहारिक समाधान पर अपनी राय देगी और नदियों के भारतीय भाग में गाद के परिणाम को कम करने के तरीके सुझायेगी। बाद में इस अध्ययन में बाढ़ के दौरान तटबंधों में पड़ने वाली दरारों को पाटने के लिए आधुनिकतम उपायों की उपयोगिता पर समिति को अपनी राय देने के लिए भी कहा गया।
अपनी सिफारिशें देते हुए इस समिति की रिपोर्ट पहले तटबंधों में पड़ने वाली दरार की परिभाषा देती है। वह कहती है, ‘‘...टूटे तटबंध के बीच पड़े गैप से अगर नदी का पानी कन्ट्रीसाइड में चला जाता है तभी उसे दरार माना जायेगा। तटबंध के बाहर जमा पानी की निकासी के लिए अगर तटबंध को काट दिया जाता है तो वह दरार की परिभाषा के अन्तर्गत नहीं आयेगा।’’ तटबंधों के उन सारे गुण-दोषों का वर्णन करते हुए जो अध्याय-1 खंड 1.8 में दिये गए हैं उनके निर्माण की तकनीक को सुलभ तकनीक बताते हुए रिपोर्ट कहती है कि इसमें स्थानीय निर्माण सामग्री और मजदूरों का तुरंत उपयोग संभव है। रिपोर्ट यह जिक्र नहीं करती है कि स्थानीय निर्माण सामग्री केवल बालू ही होता है।
तटबंधों के टूटने की घटनाओं में जानकारी के अभाव पर रिपोर्ट की बड़ी ही मायूसी भरी टिप्पणी है कि उसने जल-संसाधन विभाग से पिछले पचास से अधिक वर्षों में तटबंधों के टूटने की घटना की जानकारी मांगी थी जो उसे नहीं मिली। रिपोर्ट कहती है, ‘‘...बार-बार रिमाइंडर भेजने और खुद जाकर संपर्क करने के बावजूद किसी भी चीफ इंजीनियर ने यह आंकड़े उपलब्ध नहीं करवाये। ऐसा शायद इसलिए हुआ होगा कि इन विभागों में इस तरह की सूचना उपलब्ध ही न हो।’’
इतना ही नहीं, तटबंधों के टूटने की घटनाओं को जल-संसाधन विभाग कितनी गंभीरता से लेता है, समिति की रिपोर्ट उस तरफ भी इशारा करती है। जिस विभाग पर तटबंधों के रख-रखाव की जिम्मेवारी है उसी के पास तटबंधों के टूटने की घटनाओं का रिकार्ड नहीं है। उसने अपनी समस्या और जिम्मेवारी दोनों को जड़ से ही काट दिया है। न कोई जानकारी मिलेगी, न आलोचना होगी और न कोई सुझाव ही कोई दे सकेगा। जो कुछ भी होगा वह अनुमान के आधार पर होगा और अनुमानों की न तो कोई मर्यादा होती है और न ही उसके सत्यापन पर कोई उंगली उठा सकता है। इस मुद्दे पर एक संभावना और भी बनती है कि विभाग के पास तटबंधों के टूटने की सारी सूचनाएं उपलब्ध हों और उसने सूचना छिपाने की अपनी आदत के मुताबिक समिति को इन्हें दिया ही न हो। यहाँ यह दुहराना जरूरी है कि तकनीकी समिति बिहार सरकार द्वारा नियुक्त समिति थी और उसके अध्यक्ष नीलेन्दु सान्याल कुछ वर्ष पहले इसी विभाग के सर्वे-सर्वा रह चुके थे। जब उनके विभाग द्वारा सूचना नहीं दी जाती है तो तमाम सूचना के अधिकार के बावजूद आम आदमी की क्या बिसात बनती है, इसपर किसी न किसी को चिंता जरूर करनी चाहिये।
इस सूचना के अभाव में समिति को यह निर्णय लेना पड़ा कि गंगा बाढ़ नियंत्रण आयोग ने कुछ तटबंधों का मूल्यांकन करवाया था और उसी को आधार मान कर समिति अपनी राय बनाये और सिफारिशें करे। मजबूरन सान्याल समिति को गंगा बाढ़ नियंत्रण आयोग द्वारा पहले से किये गए ऐसे 5 मूल्यांकनों को आधार पत्र के रूप में इसलिए स्वीकार करना पड़ा कि इनमें कोई भी मूल्यांकन रिपोर्ट ऐसी नदी के तटबंधों के बारे में नहीं थी जिसमें नदी की पेटी का ऊपर उठता हुआ तल चिंताजनक स्तर का हो और उसके प्रवाह में बेजा तरीके से बालू आता हो। ऐसा आधार बना कर तकनीकी समिति ने अपना और जल-संसाधन विभाग दोनों का काम आसान कर लिया था जिससे बाढ़ प्रभावितों की मुश्किलें बढ़ाने का इंतजाम खुद-ब-खुद हो गया था। ऐसा इसलिए कि उनकी सिफारिशें लोगों के लिए मायने रखती थीं।
जिन चार तटबंधों की मूल्यांकन रिपोर्ट का समिति हवाला देती है उनमें पहली योजना उत्तर प्रदेश की बढ़इया-कोठा तटबंध की है जो राप्ती नदी के किनारे बना हुआ है, दूसरी योजना लखनऊ शहर सुरक्षा बांध योजना, तीसरी योजना पश्चिम बंगाल में महानन्दा नदी पर बने तटबंध तथा चौथी योजना बिहार के कमला बलान तटबंधों की है। गंगा बाढ़ नियंत्रण आयोग द्वारा इन योजनाओं के मूल्यांकन के आधार पर समिति की रिपोर्ट इस नतीजे पर पहुँचती है, ‘‘...इन परियोजनाओं द्वारा जो लाभ हुआ है वह तटबंधों के निर्माण और रख-रखाव की लागत से अधिक है।’’ कमला-बलान के तटबंधों के मूल्यांकन के लिए गंगा बाढ़ नियंत्रण आयोग ने 1965 और 1989 में इस नदी की बाढ़ और तटबंधों की उपयोगिता को आधार माना है। हम यहाँ बता देना चाहेंगे कि 1965 में कमला-बलान का तटबंध केवल जयनगर से झंझारपुर तक बना था और उस साल इसके तटबंधों में 21 जगह दरारें पड़ी थीं जिनकी वजह से राज्य और केन्द्र में एक ही पार्टी की सरकार होने के बावजूद एक दूसरे पर बाढ़ की जिम्मेवारी को लेकर काफी कीचड़ उछली थी। झंझारपुर के रेल-सह-सड़क पुल की खामियों को लेकर केन्द्रीय रेल मंत्री डॉ. राम सुभग सिंह समेत उनके पूरे विभाग को बिहार सरकार ने कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की थी।
1989 का साल बिहार में सामान्य वर्षा का साल था और इस साल यहाँ की नदियों के तटबंधों में दरारें लगभग नहीं के बराबर थीं और कमला के तटबंध प्रायः सुरक्षित थे। अगर तकनीकी समिति अपने उद्देश्यों के प्रति इमानदार रही होती तो उसे कमला-बलान के तटबंधों का तुलनात्मक अध्ययन के लिए 2002 (दस दरारें), 2004 (26 दरारें) या 2007 (14 दरारें) के वर्षों में से किसी एक का चुनाव करना चाहिये था। ऐसा न कर के उसने पुरानी रिपोर्ट पर भरोसा किया और बिहार के जल-संसाधन विभाग के पाक-साफ होने के गुप्त एजेंडे पर अपनी मुहर लगा दी।
समिति ने पाँचवे उदाहरण के तौर पर योजना आयोग द्वारा कोसी तटबंधों के 1980 में किये गए एक मूल्यांकन का हवाला देकर सब कुछ ठीक होने का प्रमाण पत्र जारी कर दिया। समिति यह भूल गयी कि 1980 में ही पूर्वी तटबंध सहरसा के सलखुआ प्रखंड में बहुअरवा के पास टूटा था। इसके पहले वह डलवा (नेपाल) में 1963, जमालपुर-दरभंगा में 1968 और भटनियाँ में 1971 में टूट चुका था। 1980 के बाद यह तटबंध 1984 में नवहट्टा, 1987 में गण्डौल और समानी तथा 1991 में जोगिनियाँ में भी टूट चुका था। अगर हम इस नतीजे पर पहुँचें कि इस तकनीकी समिति को कथित विषयों पर राय देने के साथ-साथ यह भी अलिखित राय दी गयी थी कि वह किसी ऐसी सच्चाई को उजागर करने की कोशिश न करे जिससे व्यवस्था को कोई तकलीफ हो तो कोई गलती नहीं होगी।
नदियों की उड़ाही से परहेज किया जाय - बाढ़ समस्या से निपटने के लिए जनता तथा राजनीतिज्ञों द्वारा एक सुझाव बार-बार दिया जाता है कि नदियों को गहरा कर दिया जाए और उससे निकलने वाली गाद को तटबंधों पर डाल दिया जाय। कोई भी समझदार आदमी ऐसा प्रस्ताव करने से परहेज करेगा क्योंकि उत्तर बिहार की नदियों में गाद की जो मात्रा हर साल आती है उससे मौजूदा तटबंधों को कई गुना ऊँचा किया जा सकता है। तकनीकी समिति की रिपोर्ट कम से कम इस बात को जरूर स्वीकार करती है। रिपोर्ट कहती है, ‘‘...किसी नदी के अधिकतम जल-स्तर को 4 मीटर नीचे लाने के लिए नदी की खुदाई की जो लागत आयेगी उसकी दर 500 करोड़ रुपये प्रति किलोमीटर होगी। गंडक, कोसी और गंगा के मामले में तो इतनी ही लागत आयेगी। बिहार के मध्यम आकार की नदियों के अधिकतम जलस्तर को अगर 1 मीटर की गहराई से नीचे लाना हो तो उनकी पेटी को दो मीटर गहरा खंगालना पड़ेगा और उसकी लागत 20 करोड़ रुपये प्रति किलोमीटर आयेगी। बाढ़ नियंत्रण के दूसरे विकल्पों को खोजने में इससे कहीं कम खर्च होगा। कोसी या गंडक जैसी नदी की मात्रा 1 मीटर खुदाई करने में प्रति किलोमीटर 200 हेक्टेयर जमीन चाहिये जिस पर खोदी गई मिट्टी रखी जा सके।’’
रिपोर्ट अपनी सिफारिशों में आगे कहती है कि 1980 के दशक में गंगा बाढ़ नियंत्रण आयोग ने अपने अध्ययन मंन यह पाया कि गंगा की पेटी केवल हाथीदह रेल स्टेशन के पास ऊपर उठ रही है और बूढ़ी गंडक, कमला-बलान और बागमती जैसी नदियों में जो बाढ़ आती है उसमें भारत-नेपाल सीमा पर लगे हुये पानी के प्रवाह के माप-केन्द्रों के आंकड़ों से इस बात की पुष्टि नहीं होती है कि वहाँ नदियों की पेटी ऊपर उठ रही है। ...इसलिए उत्तरी बिहार के इन ऊपरी इलाकों में नदी की तलहटी की गहराई बढ़ाने की कोई जरूरत नहीं है।’’
तकनीकी समिति की इस सिफारिश का तो समर्थन किया जा सकता है कि नदी की गहराई बढ़ाने की कोई जरूरत नहीं है मगर इसके लिए जो कारण बताये गये हैं वह हास्यास्पद हैं। उत्तर बिहार की नदियों के किनारे पर बसा कोई भी आदमी इस बात पर ठहाका मार कर हँसेगा कि 1980 के दशक में कमला-बलान और बूढ़ी गंडक की पेटी की सतह में किसी तरह का कोई बदलाव नहीं आया और केवल गंगा नदी की पेटी हाथीदह में ऊपर उठ रही थी। अगर भारत-नेपाल सीमा पर नदी की पेटी ऊपर नहीं उठ रही थी तो इसकी वजह वहाँ बराज की मौजूदगी है जिससे पानी छोड़े जाने पर नदी की तलहटी का लेवेल सामान्य तौर पर कुछ दूरी तक गहरा होता है मगर उसके बाद तो यह लेवेल ऊपर उठता ही है। यह बात समिति की रिपोर्ट नहीं बताती है।
यह पूरी रिपोर्ट, जिस पर बिहार सरकार के जल-संसाधन विभाग के माध्यम से बिहार की जनता की गाढ़ी कमाई का लाखों रुपया खर्च हुआ होगा, केवल गुमराह करने वाली बातों का एक पुलिन्दा है। दुःख इस बात का है कि इस गुमराह करने वाले पुलिन्दे को भविष्य में तथ्यात्मक रिपोर्ट मान कर इसकी सिफारिशों और कथानकों का संज्ञान लिया जायेगा। इस बात को हम एक उदाहरण के साथ स्पष्ट करना चाहेंगे।
बिहार की बाढ़ के बारे में जब भी चर्चा होती है तब 1954, 1971, 1987, 2004 या 2007 की बाढ़ का नाम जरूर लिया जाता है। स्थानीय कारणों से 1965, 1966, 1968, 1978, 1998 या 2002 आदि वर्षों की चर्चा होती है। बागमती नदी की बाढ़ के बारे में जब भी बात उठती है तब 1993 की बाढ़ की चर्चा के बगैर कहानी पूरी नहीं होती। इस वर्ष की बाढ़ के बारे में हमने अध्याय-3 में चर्चा की है। बिहार राज्य द्वितीय सिंचाई आयोग (1994) तथा राज्य के जल-संसाधन विभाग की रिपोर्टों में इस बाढ़ की विस्तृत चर्चा मिलती है मगर तकनीकी समिति की यह रिपोर्ट भूल कर भी 1993 की बागमती की बाढ़ की चर्चा नहीं करती। यही हाल बिहार के जल-संसाधन विभाग की 2009-10 की वार्षिक रिपोर्ट का भी है। उसमें 1993 में बागमती/करेह के तटबंधों में किसी भी दरार का जिक्र नहीं है। इस तबाही को जब सरकार स्वीकार करने के लिए ही तैयार नहीं है या उसे अब यह दुर्घटनाएं याद ही नहीं हैं तब उससे किसी सुधार या बदलाव की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
मजे की बात यह है कि इस समिति द्वारा नदियों की गहराई बढ़ाने के सम्बंध में राज्य सरकार को चेताये जाने के बावजूद बिहार सरकार नदियों की गहराई बढ़ाने पर आमादा है। उसका कहना है, ‘‘...गाद जमा होने के कारण नदियों के उठते हुए तल की समस्या के निदान के लिये नदियों को गहरा करने की योजना चलायी जायेगी। प्रथम चरण में बागमती/अधवारा एवं कमला नदियों को गहरा किया जायेगा जिस पर अनुमानित व्यय 4228.00 करोड़ होगा। गहरा करने से जो मिट्टी निकलेगी उससे बांधों को ऊँचा तथा चौड़ा किया जायेगा तथा बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में बस्तियों को भी ऊँचा किया जायेगा।’’ काश! कोई बिहार सरकार को समझाता कि 1950 के दशक में देश में 4700 गाँवों को ऊंचा करने का प्रयोग असफल हो गया था और उसे हमेशा-हमेशा के लिए छोड़ दिया गया। यहाँ यह याद दिलाना सामयिक होगा कि राष्ट्रीय बाढ़ आयोग (1980) ने इस तरह के किसी कार्यक्रम को सिरे से खारिज कर दिया था।
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