यमुना में हरियाणा से पानी छोड़े जाने के कारण उसका जल स्तर खतरे के निशान को पार कर गया। इससे राजधानी के निचले इलाकों में बाढ़ का खतरा पैदा हो गया।
लेकिन जिन इलाकों में पानी आया है, वह तो यमुना का ही तट है। इस तरह यमुना घर-घर तक नहीं आ रही है, बल्कि हम यमुना तक गए हैं। हमने अपने दरवाजे और खिड़कियों को यमुना की जमीन पर खोल दिया है। अभी जिन क्षेत्रों में पानी आया है, वह पानी के अंदर ही का क्षेत्र रहा है जिसे हमने रिहायशी बना लिया है। अब जब यमुना अपनी जमीन पर लौट आई है तो उसे बाढ़ कहा जा रहा है।
बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिन्हा ने पचास के दशक में कहा था कि कोसी को हर प्रांत में भेज देना चाहिए। इससे दूसरे हिस्सों में रहने वाले लोग उस दर्द को समझ पाएंगे, जिनसे बिहार वालों को हर साल गुजरना पड़ता है। आज लगभग साठ साल बाद भी स्थिति बदली नहीं है। आज भी कोसी बिहार का शोक है। हाल में कुसहा बांध टूटने के बाद बिहार में आई तबाही को लोग भूले नहीं हैं। बिहार में बाढ़ की विभीषिका का आलम यह है कि कोसी अपना रास्ता बदल कर क्या रुख लेगी, यह बता पाना विशेषज्ञों के लिए भी मुश्किल है।
वैसे श्रीकृष्ण सिन्हा ने कोफ्त में कोसी के दूसरे राज्यों में यात्रा की जो बात कही थी, जिसका अर्थ बाढ़ की विभीषिका से था, आज उनकी बात सच में तब्दील होती दिख रही है। आज कोसी दूसरे राज्यों की यात्रा कर रही है। पंजाब, हरियाणा, आन्ध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान भी बाढ़ की चपेट में हैं। यहां प्रश्न उठता है कि यह बाढ़ प्राकृतिक आपदा के तौर पर आई है या मानव निर्मित आपदा है। यदि यह मानव निर्मित है तो उसके लिए कौन जिम्मेदार है? पहले यह जिम्मेदारी तय हो और उसके बाद सजा तय की जाए। 1984 की बाढ़ के बारे में शिवनन्दन सिंह ने बिहार में कहा था कि यह बाढ़ मुख्यमंत्री की लापरवाही की वजह से आई है, उन्हें सजा होनी चाहिए।
बाढ़ आने के ठीक बाद राहत सामग्री का वितरण होता है। बाढ़ पीडितों के लिए राहत किसी भी रूप में गलत नहीं है, लेकिन कई इलाकों में यह राहत सामग्री आज बाढ़ पीडितों के लिए आदत बना दी गई है जो गलत है। देश के कई इलाकों में हर साल बाढ़ आती है और हर साल राहत सामग्री बंटती है। जिन इलाकों में हर साल बाढ़ आनी है, वहां के लोगों को इससे निजात दिलाने की दिशा में सरकारें क्यों नहीं सोचतीं। सवाल है कि बाढ़ के बीच वे सरकारी राहत पर निर्भर ना रहें, इसके लिए सरकार ने अब तक क्या कदम उठाएं ?
कुछ लोगों को दिल्ली में अक्टूबर 1978 की बाढ़ याद होगी। उस साल सात लाख क्यूसेक पानी बैराज से छोड़ा गया था। इस साल वही स्थिति देखने को मिल रही है। इस साल आठ सितम्बर तक हथिनी कुंड बैराज से छह लाख क्यूसेक पानी छोड़ा जा चुका है। दिल्ली के निचले इलाकों में पानी भर गया है। लेकिन पानी छोड़ना बाढ़ से बचाव के लिए तैयार किए गए स्ट्रक्चर को बचाने के लिए जरूरी होता है। यदि एक बार वह टूट जाए तो बाढ़ का खतरा कई गुना बढ़ जाएगा।
यह सवाल भी समय-समय पर उठता है कि एक राज्य खुद को बाढ़ से बचाने के लिए दूसरे राज्य में बाढ़ का पानी झोक दें, क्या यह गलत नहीं है? लेकिन एक राज्य कितना पानी दूसरे राज्य के लिए अधिक से अधिक छोड़ सकता है, इससे संबंधित कोई दिशा निर्देश मेरी जानकारी में नहीं है। इसके लिए कुछ नीति निर्धारित की जा सकती है।
सरकार को यह जिम्मेदारी लेनी चाहिए कि सबसे पहले बाढ़ की चपेट में आने वाले लोगों को पहले से ही इस संबंध में जागरूक किया जाए। यदि यह काम सरकार बाढ़ आने से तीन महीना पहले कर ले तो कम से कम बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में रहने वाले लोग अपने लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था तो कर पाएंगे।
(श्री मिश्र बाढ़ मुक्ति अभियान के संयोजक हैं)
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