बाढ़ अब देशवासियों की नियति बन चुकी है। सरकारें बाढ़ आने पर हर साल राहत का ढिंढोरा पीटकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर चैन की नींद सो जाती हैं। नदी प्रबंधन अब भी दूर की कौड़ी है। यही हाल रहा तो बाढ़ का शिकार होकर हर साल हजारों लोग अनचाहे मौत के मुंह में जाते रहेंगे, दर-दर भटकते रहेंगे और नेता-नौकरशाह राहत राशि से अपनी तिजोरियां भर मालामाल होते रहेंगे।
बाढ़ एक ऐसी आपदा है जिसमें हर साल करोड़ों रुपयों का नुकसान ही नहीं होता बल्कि हजारों-लाखों घर तबाह हो जाते हैं, लहलहाती खेती बर्बाद हो जाती है और अनगिनत मवेशियों के साथ इंसानी जिंदगियां साल भर में अनचाहे मौत के मुंह में चली जाती हैं। एक शोध से साबित हो चुका है कि पिछले तीन दशक में देश में चार-सवा चार अरब से भी ज्यादा लोग बाढ़ से प्रभावित हुए हैं। अक्सर देखने में आता है कि मानसून के आते ही नदियां उफान पर आने लगती हैं और देश के अधिकांश भू-भागों में तबाही का तांडव मचाने लगती हैं। वैसे तो आपदा, वह चाहे बाढ़ हो, भूकंप हो या कोई अन्य, का मानव सभ्यता से आदिकाल से रिश्ता रहा है।इसमें भी दोराय नहीं कि सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारे ही हुआ और जब-जब बाढ़ ने विकराल रूप धारण किया, नदियों के किनारे बसी बस्तियां बाढ़ के प्रकोप की शिकार हुई और नेस्तानाबूद हो गईं। यही नहीं नदियों के प्रभाव क्षेत्र में हरे-भरे खेत भी उसकी चपेट में आकर तबाह हो गए। नतीजतन मानव जीवन हर साल कमोबेश बाढ़ की विभीषिका सहने को बाध्य हो गया।
देखा गया है कि पिछले कुछ वर्षों से बाढ़ ने अपना विकराल रूप दिखाना शुरू कर दिया है। भले ही बीते दशकों की तुलना में पिछले कुछ वर्षों में बारिश की मात्रा में कमी आई है लेकिन बाढ़ से होने वाली तबाही लगातार तेजी से बढ़ती ही जा रही है। जबकि नदी विशेषज्ञ नदियों में जल की मात्रा घटते जाने से चिंतित हैं। एक समय सूखे की मार झेलता राजस्थान का मरू इलाका भी अब नदियों के कोप का शिकार हो रहा है। बीते बरस इसकी गवाही देते हैं। कहने का तात्पर्य यह कि जो इलाके कुछ समय पहले तक बाढ़ के प्रकोप से अछूते थे, आज वे भी वहां की नदियों में आ रहे उफान से तबाह हो रहे हैं।
असल में बाढ़ की समस्या वैसे तो सभी क्षेत्रों में है लेकिन मुख्य समस्या गंगा के उत्तरी किनारे वाले क्षेत्र में है। गंगा बेसिन के इलाके में गंगा के अलावा यमुना, घाघरा, गंडक, कोसी, सोन और महानंदा आदि प्रमुख नदियां हैं जो मुख्यतः उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, हिमाचल, हरियाणा, दिल्ली, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार सहित मध्य एवं दक्षिणी बंगाल में फैली हैं। इनके किनारे घनी आबादी वाले शहर बसे हैं। इस सारे इलाके की आबादी अब 40 करोड़ से भी ऊपर पहुंच गई है और यहां की आबादी का घनत्व 500 व्यक्ति प्रति किमी का आंकड़ा पार कर चुका है। उसका परिणाम है कि आज नदियों के प्रवाह क्षेत्र पर दबाव बेतहाशा बढ़ रहा है, उसके ‘बाढ़ पथ’ पर रिहायशी कॉलोनियों का जाल बिछता जा रहा है, नदी किनारे एक्सप्रेस वे व दिल्ली में यमुना किनारे खेलगांव का निर्माण इसका सबूत है कि सरकारें भी इस दिशा में कितनी संवेदनशील हैं। इसमें दोराय नहीं कि हिमालय से निकलने वाली वह चाहे गंगा हो, सिंध हो, ब्रह्मपुत्र हो या उसकी सहायक नदी, उनके उद्गम क्षेत्रों की पहाड़ी ढलानों की मिट्टी को बांधकर रखने वाले जंगल विकास के नाम पर जिस तेजी से काटे गए, वहां बहुमंजिली इमारतें रूपी कंक्रीट के जंगल, कारखाने और सड़कों के जाल बिछा दिए गए, विकास का यह रथ वहां आज भी निर्बाध गति से जारी है। नतीजतन, इन ढलानों पर बरसने वाला पानी बारहमासी झरनों के माध्यम से जहां बारह महीनों इन नदियों में बहता था, अब वह ढलानों की मिट्टी और अन्य मलबे आदि को लेकर मिनटों में ही बह जाता है और अपने साथ वहां बसायी बस्तियों को खेतों के साथ बहा ले जाता है। दरअसल इससे नदी घाटियों की ढलानें नंगी हो जाती है। उसके दुष्परिणाम स्वरूप भूस्खलन, भूक्षरण, बाढ़ आती है और बांधों में साद का जमाव दिन-ब-दिन बढ़ता जाता है। जंगलों के कटान के बाद बची झाड़ियां और घास-फूस चारे और जलावन के लिए काट ली जाती है। इसके बाद ढलानों को काट-काट कर बस्तियों, सड़कों का निर्माण व खेती के लिए जमीन को समतल किया जाता है। इससे झरने सूखे, नदियों का प्रवाह घटा और बाढ़ का खतरा बढ़ता चला गया। हर साल दिन-ब-दिन बढ़ता बाढ़ का प्रकोप इसी असंतुलन का नतीजा है।
इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता कि स्वार्थ की खातिर पहले अंग्रेजी हुकूमत के दौरान, फिर आजादी के बाद देश में विकास के नाम पर जिस तेजी से जंगलों का कटान किया गया, उसी के कारण नदी घाटी क्षेत्र की ढलानों की बरसात को झेलने की क्षमता अब खत्म हो चुकी है। यह भी सच है कि नदयों के जलागम क्षेत्रों के जंगलों से ढके होने से बाढ़ का प्रकोप किसी हद तक कम जरूर हो जाता है। सच यह भी है कि नदियों के जलागम क्षेत्र की जमीन जंगलों के कटान के चलते जब नंगी हो जाती है, तो उस हालत में मिट्टी साद के रूप में नदी की धारा में जमने लगती है। मैदानी इलाकों में यह साद नदियों की गहराई को पाट कर उनको उथला बना देती है। नतीजतन बरसात के पानी का प्रवाह नदी की धारा में समा नहीं पाया और वह आस-पास के इलाकों में फैलकर बाढ़ का रूप अख्तियार कर लेता है। जहां तक गंगा, यमुना और अन्य नदियों का प्रश्न है, अधिकांश का पानी मैदानी क्षेत्रों में खेती आदि के लिए सिंचाई की खातिर नहरों के जरिए निकाला जाता रहा है। इसके कारण नदियों में पानी न के बराबर रहता है जिसकी वजह से नदियां साद को समुद्र तक बहा ले जाने में नाकाम रहती है। नदी की धाराओं में मिट्टी के जमने और उनमें गहराई के अभाव में पानी कम रहने से वे सपाट हो जाती हैं। नदियों के किनारे अब न तो हरियाली बची है, न पेड़-पौधे। जब पेड़-पौधे रहेंगे ही नहीं तो उनकी जड़े मिट्टी कहां से बांधेंगी।
अभी तक हमारे यहां नदी प्रबंधन के नाम पर बांधों, बैराजों पुश्तों का निर्माण और सिंचाई के लिए नहरें निकालने का काम तीव्र गति से हुआ है। इसी को विकास की संज्ञा दी गई है। इस काम में हमारा देश चीन, पाकिस्तान आदि अन्य देशों के मुकाबले शीर्ष पर है। जहां तक नदी किनारे बंधान-तटबंधों के निर्माण का सवाल है, वह नदी की धारा को रोके रखने के मामले में नाकाम साबित हुए हैं। कोसी और केन के तटबंध, छोटे-छोटे बंध इसका ज्वलंत उदाहरण हैं। इसलिए अब जरूरी है कि मौसम के बदलाव को मद्देनजर रखकर नदियों की प्रकृति का सूक्ष्म रूप से विश्लेषण-अध्ययन किया जाए। उसी के तहत नदी प्रबंधन की तात्कालिक व्यवस्था की जाए। यह ध्यान में रखते हुए कि बाढ़ महज प्राकृतिक प्रकोप नहीं है, वह मानवजनित कारणों से उपजी एक भीषण त्रासदी है। इसके लिए प्रशासनिक तंत्र को चुस्त-दुरुस्त बनाना बेहद जरूरी है, तभी इस विभीषिका पर किसी हद तक अंकुश की बात सोची जा सकती है।
गौरतलब है कि तीन वर्ष पूर्व बिहार में कोसी नदी की प्रलयंकारी बाढ़ में तकरीबन डेढ़-पौने दो करोड़ लोग बेघर हुए, उनके खेत-खलिहान तबाह हुए और हजारों काल के गाल में समा गए, के बाद सरकार द्वारा बाढ़ की विभिषिका से बचने की दिशा में नदी प्रबंधन के काम को प्राथमिकता दिए जाने की जरूरत पर बल दिया गया था लेकिन आज तक इस दिशा में कुछ नहीं किया गया और देश फिर बाढ़ की विभीषका मना कर रहा है। हालात गवाह हैं कि बाढ़ अब देशवासियों की नियति बन चुकी है। बाढ़ के तांडव का हल साल सामना करने को जनता विवश है। सरकारें बाढ़ आने पर हर साल राहत का ढिंढोरा पीटकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर फिर चैन की नींद सो जाती हैं। नदी प्रबंधन अभी भी दूर की कौड़ी है। यही हाल रहा तो बाढ़ के दानव का शिकार होकर हर साल हजारों लोग अनचाहे मौत के मुंह में जाते रहेंगे, बेघरबार होकर दर-दर भटकते रहेंगे और नेता-नौकरशाह राहत राशि से अपनी तिजोरियां भर मालामाल होते रहेंगे। बाढ़ तो उनके विकास का जरिया बन गई है। इसमें कोई दो राय नहीं।
उप्र में बाढ़
उत्तर प्रदेश में बाढ़ की स्थिति कई स्थानों पर अब भी भयावह बनी हुई है। सैकड़ों गांवों की लाखों की आबादी बेहद दयनीय स्थिति में जीने को मजबूर है। कुछ स्थानों पर पानी घटने से कटाव के खतरे के रूप में नई मुसीबत सामने आ रही है। राष्ट्रीय प्राकृतिक आपदा राहत बल, बाढ़ पीएसी, सशस्त्र सीमा बल, पुलिस, राजस्वकर्मी और समाजसेवी संगठनों की मदद से राहत और बचाव कार्य तेजी से किया जा रहा है।
बहराइच से मिली रिपोर्ट के मुताबिक जिले के 220 गांवों के 1206 उपग्रामों की तीन लाख 80 हजार की आबादी बाढ़ से प्रभावित है। श्रावस्ती में भिनगा व इकौना तहसीलों में सौ से ज्यादा गांवों में करीब 60 हजार की आबादी बाढ़ से प्रभावित है। 28 हजार लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया गया है। लखीमपुर खीरी की निघासन तहसील में मोहाना नदी और धौरहरा से घाघरा नदी की बाढ़ का असर बना हुआ है। निघासन के तटवर्ती करीब एक दर्जन गांवों में पानी भरा हुआ है। बाढ़ की वजह से कई सड़कें टूट गई हैं जिससे आवागमन जल्द शुरू होने की उम्मीद नजर नहीं आती है।
नदियों का जलस्तर कम हुआ है। इससे कई स्थानों पर कटाव का खतरा पैदा हो गया है। नदी के तटों के पास बसे गांवों के कई घर कटान के कारण नदी में समाने की कगार पर हैं। धौरहरा तहसील में घाघरा की बाढ़ से कई गांवों में बाढ़ के हालात बने हुए हैं। दोनों तहसीलों में करीब 25 हजार की आबादी प्रभावित हुई है। सैकड़ों हेक्टेयर फसल डूब गई है। आजमगढ़ के उत्तरी छोर में बहने वाली घाघरा नदी कहर का रही है। इससे सगड़ी तहसील के करीब 80 गांवों की करीब 60 हजार की आबादी प्रभावित है। बाढ़ की वजह से तहसील के 23 प्राथमिक विद्यालयों को बंद कर दिया गया है। महुला-गढ़वाल बांध पर नदी का दबाव बढ़ता जा रहा है। परसियां गांव के पास बांध से रिसाव शुरू हो गया है। अधिशासी अभियंता बाढ़ खंड के अधिकारियों ने उसे फिलहाल दुरुस्त करा दिया है। लेकिन खतरा अभी टला नहीं है। बलरामपुर जिले के तुलसीपुर और बलरामपुर में बाढ़ का पानी घटा है। वहां का जल भौगोलिक स्थिति के अनुसार ढलान पर बसे होने की वजह से उतरौला में भर रहा है। उतरौला में 70 गांवों की करीब 60 हजार की आबादी प्रभावित है। बलरामपुर-तुलसीपुर और बलरामपुर-उतरौला मार्ग बाढ़ के पानी में डूबे होने के कारण बंद कर दिए गए हैं। बलरामपुर-बहराइच मार्ग खुल जाने से लोगों को कुछ राहत हुई है। उतरौला में बाढ़ के पानी में तीन लड़के डूब गए। उनमें से एक का शव बरामद कर लिया गया है। बाराबंकी में उफनाई घाघरा की बाढ़ से रामनगर, सिरौली गौसपुर और रामसनेहीघाट तहसीलों के कुल 118 गांवों की करीब 95 हजार की आबादी प्रभावित है। पीएसी के जवान बचाव व राहत कार्य में जुटे हैं। घाघरा नदी एल्गिनब्रिज पर अब भी खतरे के निशान से ऊपर बह रही है। जिलाधिकारी योगेश्वर राम मिश्र ने तटबंधों पर पानी के बढ़ते दबाव को देखते हुए उन पर बसे परिवारों की सुरक्षा के लिए सुबह से शाम तक पुलिस गश्त के निर्देश दिए हैं। बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में लोगों के इलाज के लिए 12 मेडिकल टीमें और चार एंबुलेंस तैनात की गई हैं।
केंद्री जल आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक राप्ती नदी का जलस्तर बलरामपुर में अब भी बाढ़ के उच्चतम स्तर से ऊपर बना हुआ है। भिनगा, बांसी, बर्डघाट और रिगौली में यह नदी खतरे के निशान से नीचे है लेकिन इसका जलस्तर लाल चिन्ह के नजदीक बना हुआ है। घाघरा नदी एल्गिनब्रिज और अयोध्या में बाढ़ के उच्चतम स्तर के करीब बह रही है। तुर्तीपार में भी यह खतरे के निशान से ऊपर बह रही है। बढ़ी राप्ती ककरही में व शारदा पलियाकलां में लाल निशान पार कर गई है।
असम में बाढ़
असम विधानसभा में चल रहे बजट सत्र में 2013-14 के लिए असम का आर्थिक सर्वेक्षण पेश किया गया। इस आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, असम में बाढ़ के कारण होने वाला वार्षिक नुकसान लगभग 200 करोड़ रुपए है और वर्ष 1998 में हुआ नुकसान लगभग 500 करोड़ रुपए था।
इस दस्तावेज में कहा गया कि वर्ष 2004 के दौरान यह नुकसान लगभग 771 करोड़ रुपए था। इस सर्वेक्षण में राज्य में बाढ़ के लिहाज से संवेदनशील इलाके राज्य की कुल जमीन का एक चौथाई है।
इसमें कहा गया कि राष्ट्रीय बाढ़ आयोग के आकलन के अनुसार, राज्य में बाढ़ के लिहाज से संवेदनशील क्षेत्र 31,500 वर्ग किलोमीटर है। यह क्षेत्र असम में जमीन का लगभग 39.58 प्रतिशत है। यह पूरे देश में बाढ़ के लिहाज से संवेदनशील कुल क्षेत्र का लगभग 9.4 प्रतिशत है।
बिहार में बाढ़
बिहार में बाढ़ से मरने वाले लोगों की संख्या 16 पहुंच चुकी है। प्रदेश सरकार राहत और बचाव कार्य में तेजी लाने के साथ ही केंद्र से सहायता प्राप्त करने के लिए बाढ़ से हुई क्षति के आंकलन में लगी है। आपदा प्रबंधन विभाग के प्रधान सचिव व्यास ने बताया कि नालंदा जिला में बाढ़ से दो लोगों के मरने की सूचना है जबकि प्रदेश के अन्य भागों में डूबने और मकान ध्वस्त होने से मरने के मामले प्रकाश में आए हैं।
मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने पटना में राज्य के बाढ़ प्रभावित जिलों के जिलाधिकारियों के साथ वीडियो कॉंफ्रेंसिंग के जरिए बाढ़ राहत, बचाव कार्यों की उच्चस्तरीय समीक्षा की। बैठक में मुख्यमंत्री ने बाढ़ प्रभावित जिलों के जिलाधिकारियों को निर्देश दिया कि जिला प्रशासन बाढ़ पीड़ितों की हरसंभव सहायता करें। उन्होंने कहा कि बाढ़ पीड़ित परिवारों को किसी तरह की कठिनाई न हो। मुख्यमंत्री ने जिलाधिकारियों को निर्देश दिया कि वे पूर्ण सतर्कता बरतें तथा जल संसाधन विभाग के साथ समन्वय बनाए रखें, ताकि तटबंध टूटने की नौबत न आए। उन्होंने कहा कि अगर जिला प्रशासन पूर्व से ही सतर्क रहेगा, तो बाढ़ आने पर लोगों को बाढ़ सहायता न राहत देने में कठिनाई नहीं होगी। बैठक के बाद जीतनराम मांझी ने कहा कि बाढ़ प्रभावित जिलों में एनडीआरएफ और एसडीआरएफ की टीम बचाव और राहत कार्य में लगी हुई है। उन्होंने सभी जिलाधिकारियों को बाढ़ पीड़ितों को हरसंभव सहायता देने के लिए जुट जाने का निर्देश दिया है। उन्होंने कहा कि पैसे की कमी नहीं है। प्रदेश सरकार ने राशि उपलब्ध करा दी है।
मुख्यमंत्री ने कहा कि बाढ़ प्रभावित इलाकों में राहत शिविर चलाए जा रहे हैं, जहां बाढ़ पीड़ितों के लिए भोजन की व्यवस्था, दवा तथा पशुचारा उपलब्ध कराया जा रहा है। उन्होंने कहा कि बाढ़ पीड़ितों को फूड पैकेट, चूड़ा, गूड़ एवं पॉलिथीन दिया गया है। मेडिकल टीम द्वारा बीमार पड़ने पर बाढ़ प्रभावितों को डॉक्टरी सुविधा मुहैया कराई जा रही है। बाढ़ का पानी निकलने पर ब्लीचिंग पाउडर का छिड़काव किया जा रहा है। मांझी ने बताया कि बिहार के कुल 38 जिलों में से 28 जिले बाढ़ प्रभावित हैं तथा 15 जिलों में इसकी भयावहता अधिक है। उन्होंने कहा कि बाढ़ में काफी लोगों की मृत्यु हुई है। बाढ़ से बचाव के लिए प्रदेश में की गई तैयारी होने का दावा करते हुए मांझी ने कहा कि इस बार बाढ़ की प्रवृत्ति विपरीत है। जिस जिले में बाढ़ आने की उम्मीद नहीं थी, उस जिले में बाढ़ की भयावहता अधिक है। उन्होंने शेखपुरा और नालंदा जिले में बाढ़ की स्थिति भयावह बताते हुए कहा कि शेखपुरा में विगत् 2004 के बाद बाढ़ नहीं आई थी।
मांझी ने कहा कि सबसे बड़ी बात है कि इस बाढ़ से काफी क्षति हुई है। काफी बड़ी संख्या में राष्ट्रीय राजमार्ग, राज्य उच्च पथ और ग्रामीण सड़क क्षतिग्रस्त ही है। मांझी ने बताया कि उनकी गृहमंत्री राजनाथ सिंह से बात हुई है।
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Post By: Shivendra