बाढ़ प्रभावित क्षेत्र और शौच व्यवस्था

बाढ़ या जल-जमाव वाले इलाकों में ऐसे लोगों को एक बहाना भी मिल जाया करता है क्योंकि बच्चों को, मुमकिन है, कई छोटी-मोटी धाराएं पार करते हुये नाव से स्कूल जाना पड़े। उनकी सुरक्षा का ध्यान रखते हुये माँ-बाप इस तरह का जोखिम उठाना पसन्द नहीं करते। इन इलाकों में बहुत से अध्यापक तटबन्धों के बाहर वाले क्षेत्र के हैं और स्कूलों की दुर्गमता की समस्या उनकी भी है। उनको भी उन्हीं रास्तों और साधनों से स्कूल पहुँचना पड़ता है जहाँ विद्यार्थी और उनके अभिभावक जाने से कतराते हैं। उत्तर बिहार के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में वर्षा के समय शौच क्रिया किसी सर्कस से कम नहीं होती। इसके लिए लोगों को पेड़ों पर चढ़ना पड़ सकता है, पानी में ही बैठ कर शौच क्रिया करनी पड़ सकती है या फिर नाव के एक सिरे बैठ कर पानी के ऊपर निकली किसी झाड़ी या जलकुम्भी के पीछे परदा कर के काम चलाना पड़ता है। ऐसे में महिलाओं को किन मुसीबतों का सामना करना पड़ता होगा उसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। बाढ़ के समय तो उनके लिए ऐसी कोई जगह खोजना ही मुश्किल हो जाता है जहाँ उन्हें कोई परदा मिल सके। अक्सर बाढ़ पीड़ितों को तटबन्ध, नहर, रेल लाइन, गाँव के आस-पास के ऊँचे स्थल या टीलों पर (घनी आबादी और जमीन का तल एकदम सपाट होने के कारण ऐसी जगहों की संख्या उत्तर बिहार में प्रायः नगण्य है) शरण लेनी पड़ती है और ऐसी किसी भी जगह को गन्दा होते देर नहीं लगती।

हमारे देश के उत्तर-पूर्वी राज्यों में कुछ इलाकों में खम्भों पर बने मकानों में प्रथम तल पर शौचालयों की व्यवस्था रहती है। ऐसे शौचालयों से मानव-मल सीधे जमीन पर सूअरों के बाड़े में जाता है और इस तरह सफाई हो जाया करती है। असम के अधिकांश घरों में केले के खम्भों को जोड़ कर एक प्लेटफॉर्म तैयार कर लिया जाता है इस प्लेटफॉर्म के बीच में एक 5’’-6’’ व्यास का छेद कर लेते हैं और खाद-बीज के बोरों से अथवा पॉलीथीन या जूट के बोरों से परदा तैयार कर लिया जाता है। घर के बाहर किसी सुविधाजनक खम्भे से बंधा यह प्लेटफॉर्म बढ़ते पानी के साथ ऊपर उठता है। घर से बंधा होने के कारण यह बह कर नहीं जाता और शौचालय के रूप में उपयोग में लाया जाता है। मानव-मल से निपटने का यह तरीका उपयुक्त जगह की कमी और परदे की समस्या का तो जरूर निराकरण करता है मगर इससे पानी के प्रदूषण की समस्या हल नहीं होती। इस पूरी समस्या पर गंभीर शोध की आवश्यकता है।



बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों में शौच क्रिया के विभिन्न रूप

शिक्षा


तटबन्धों के बीच और उनके बाहर जल-जमाव वाले क्षेत्रों में प्राथमिक शिक्षा की दुर्दशा चैंकाने वाली है। हम पहले बता आये हैं कि सहरसा जिले में, साक्षरता की दर मात्रा 39.28 (2001 जन-गणना) प्रतिशत है जिसमें पुरुष साक्षरता 52.04 प्रतिशत और महिला साक्षरता 25.31 प्रतिशत है। राज्य स्तर पर यह आँकड़े क्रमशः 47.53 प्रतिशत, 60.32 प्रतिशत और 33.57 प्रतिशत है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह उपलब्धि 65.38 प्रतिशत, 75.85 प्रतिशत और 54.16 प्रतिशत है। बिहार देश का अकेला राज्य है जहाँ साक्षरता का प्रतिशत 50 से नीचे है और साक्षरता के पैमाने पर बिहार देश का सबसे पिछड़ा हुआ राज्य है। बिहार के अन्दर भी कोसी-क्षेत्र के सभी जिले निचले अर्धांश में है। इनमें नीचे से सुपौल का स्थान सातवाँ, सहरसा का स्थान नवाँ, मधुबनी का तेरहवाँ और दरभंगा का स्थान सोलहवाँ है।

इस क्षेत्र की इतनी बड़ी अशिक्षा की दर का कारण अशिक्षा खुद है, ऐसा सरकारी रिपोर्टों में देखने को मिलता है। लोग शिक्षा का महत्व नहीं समझते और अपने बच्चों को स्कूल भेजने से कतराते हैं। बाढ़ या जल-जमाव वाले इलाकों में ऐसे लोगों को एक बहाना भी मिल जाया करता है क्योंकि बच्चों को, मुमकिन है, कई छोटी-मोटी धाराएं पार करते हुये नाव से स्कूल जाना पड़े। उनकी सुरक्षा का ध्यान रखते हुये माँ-बाप इस तरह का जोखिम उठाना पसन्द नहीं करते। इन इलाकों में बहुत से अध्यापक तटबन्धों के बाहर वाले क्षेत्र के हैं और स्कूलों की दुर्गमता की समस्या उनकी भी है। उनको भी उन्हीं रास्तों और साधनों से स्कूल पहुँचना पड़ता है जहाँ विद्यार्थी और उनके अभिभावक जाने से कतराते हैं। नतीजा यह होता है कि बरसात और बाढ़ के मौसम में कोई स्कूल नहीं चल पाता है और इस दौरान जून से लेकर नवम्बर तक का समय बड़ी आसानी से बीत जाता है। इसलिए किसी एक शैक्षणिक वर्ष में जो कुछ भी पाठ्यक्रम पूरा करना है, परीक्षा लेनी है और छुट्टियाँ होनी हैं, उसके लिए बाकी का लगभग आधे वर्ष का ही समय बचता है।

सच यह है कि अगर कोई अपने बच्चों को पढ़ाना-लिखाना चाहे तो भी बच्चों की पढ़ाई-लिखाई की सुविधाएं ही इस क्षेत्र में उपलब्ध नहीं हैं और राज्य सरकार लोगों के शिक्षा के स्तर को सुधारने के प्रति पूरी तरह से उदासीन है अन्यथा इस बात का कोई उत्तर किसी के भी पास मौजूद नहीं है कि इस इलाके में जगह-जगह अंग्रेजी माध्यम के स्कूल कैसे खुलते हैं। बच्चे अगर इन स्कूलों में जाते हैं तो इसका मतलब है कि अभिभावक उन्हें अपने लिहाज से ऊँची फीस देकर भी पढ़ाना चाहते हैं। इसके बाद अध्यापकों की शिक्षण कार्यों में अरुचि, उनकी जन-गणना, चुनाव या ऐसे ही गैर-शैक्षणिक कार्यों में होने वाली नियुक्ति, स्कूल में उपकरणों तथा सुविधाओं का अभाव, स्कूल भवन का न होना- अपर्याप्त या असुरक्षित होना तथा जहाँ स्कूल का भवन हो भी वहाँ स्थानीय रंगदारों आदि का दखल और शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार आदि ऐसी कई समस्याएँ हैं जिनसे जूझना बाकी रहता है। कई गाँव ऐसे हैं जहाँ अध्यापकों और स्कूल प्रबन्धन के बीच साठ-गाँठ के कारण ऐसे हालात बन जाते हैं कि अध्यापक अपनी ड्यूटी से गायब रहते हैं, ऐसा गाँव वालों का मानना है। सरकार ने बच्चों को स्कूल तक आने को प्रोत्साहित करने के लिए एक योजना चलाई जिसके तहत लगातार स्कूल आने वाले बच्चों को 20 रुपये प्रतिमाह का वजीफा और दोपहर में भोजन की व्यवस्था का प्रावधान था। यह सुविधा उन स्कूलों को उपलब्ध थी जो लगातार 75 प्रतिशत छात्रों की उपस्थिति का दावा कर सकें। बहुत से गाँवों के अभिभावक शिकायत करते हैं कि प्रति छात्रा प्रतिदिन 100 ग्राम चावल की दर से सामग्री स्टोर से उठा ली जाती है भले ही छात्रा स्कूल में आते हों या नहीं। इस चावल का कभी वितरण नहीं होता और गाँव वाले मानते हैं कि ऐसा स्कूल की प्रबन्धन समिति के सदस्यों की मिली भगत से होता है।

सहरसा जिले के सिमरी बख्तियारपुर प्रखण्ड की बेलवारा ग्राम पंचायत में दो माध्यमिक और एक प्राथमिक विद्यालय है। बेलवारा और बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों में शौच क्रिया के विभिन्न रूप कनेरिया में स्थिति मिडिल स्कूलों के अपने-अपने भवन हैं मगर हसुलिया के प्राथमिक विद्यालय का अपना भवन नहीं है और यह इधर-उधर की व्यवस्था पर आश्रित है। इनमें से एक प्राइमरी स्कूल में दो अध्यापक हैं और वह कभी-कभार ही स्कूल आते हैं। बेलवारा पंचायत के मुखिया की शिकायत है कि अध्यापक बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के प्रति गंभीर नहीं हैं। स्कूलों के लिए गठित एक शिक्षा समिति का यह कर्तव्य है कि वह यह सुनिश्चित करे कि स्कूल ठीक से चलते रहें मगर बहुत से स्कूलों की यह समितियाँ ही काम नही करती तब स्कूल क्या चलेगा?

प्राथमिक शिक्षा यही से शुरू होती हैप्राथमिक शिक्षा यही से शुरू होती हैजिला शिक्षा अधिकारी सहरसा की एक रिपोर्ट (2003) के अनुसार जिले में 6-11 वर्ष के आयु समूह में 2,77,873 बच्चे हैं और इनमें से 1,58,436 बच्चे स्कूलों में नामित हैं। इन स्कूलों में सरकारी और प्राइवेट सभी तरह के स्कूल शामिल हैं। करीब 1,19,437 बच्चे (पूरे समूह का 42.98 प्रतिशत) स्कूल नहीं जाते हैं। स्कूल न जाने वाले बच्चों में 54,724 (45.82 प्रतिशत) लड़के हैं जबकि 64,713 लड़कियाँ (54. 18 प्रतिशत) स्कूल नहीं जातीं। इसी तरह से 11-14 वर्ष के आयु समूह में जिले में 1,03,936 बच्चे हैं। इनमें से 81.4 प्रतिशत लड़कियों और 69.31 प्रतिशत लड़कों को जिन्हें स्कूल में होना चाहिये था, वह स्कूल नहीं जाते। इनकी सम्मिलित संख्या 76,728 (इस आयु समूह के कुल सदस्यों का 73.82 प्रतिशत) है। इस तरह से 6 से 14 वर्ष के बच्चों की जिनकी कुल संख्या 3,81,809 है, इनमें से 1,96,165 (कुल का 51. 37 प्रतिशत) किसी न किसी कारण से स्कूल नहीं जाते। इस शिक्षा रिपोर्ट का यह मानना है कि अधिकांश लड़के मजदूरों के रूप में कार्यरत हैं और लड़कियाँ घरेलू कामों में व्यस्त रहती हैं और इस तरह से उन्हें स्कूल जाने का मौका ही नहीं मिलता है। “... इसका मूल कारण यह है कि जिले में बड़ी संख्या में लोग गरीबी और बेरोजगारी के कारण दिल्ली-पंजाब आदि बड़े शहरों में वर्ष के अधिकांश महीनों में मजदूरी करने चले जाते हैं। महिलाएं और कार्य करने योग्य बच्चियाँ भी अपनी माताओं के साथ खेती आदि अल्प आय के काम में साथ हो जाती हैं। घरेलू मवेशी तथा नौनिहाल बच्चों की विद्यालय जाने योग्य बच्चे देख रेख करते हैं। ... अधिक दूरी के कारण विद्यालय नहीं जाने वाले अधिकांश बच्चे सिमरी बख्तियारपुर, सलखुआ, महिषी, सोनवर्षा एवं नवहट्टा प्रखण्ड में है। यहाँ कोसी नदी की विभीषिका के कारण गाँव/टोले की दूरी अपेक्षाकृत अधिक है। कुछ प्रखण्डों में अविकसित यातायात सुविधा के कारण भी टोलों की दूरी अधिक है। ... सामाजिक स्थिति के कारण विद्यालय नहीं जाने वालों में अधिक 11-14 आयु वर्ग के सामान्य वर्गों की बच्चियाँ हैं। सह-शिक्षा की व्यवस्था के कारण भी यह बच्चियाँ विद्यालय नहीं जा पाती हैं।’’

फिर भी यह कहना सही नहीं होगा कि इस इलाके में घोर अशिक्षा के पीछे बच्चों के अभिभावकों की रोजगार संभावनाओं की बदहाली, उनका दूर-दराज इलाकों में रोजगार के लिए पलायन या अपने बच्चों को पढ़ाने लिखाने के प्रश्न पर उनकी उदासीनता ही दोषी है। सच यह है कि अगर कोई अपने बच्चों को पढ़ाना-लिखाना चाहे तो भी बच्चों की पढ़ाई-लिखाई की सुविधाएं ही इस क्षेत्र में उपलब्ध नहीं हैं और राज्य सरकार लोगों के शिक्षा के स्तर को सुधारने के प्रति पूरी तरह से उदासीन है अन्यथा इस बात का कोई उत्तर किसी के भी पास मौजूद नहीं है कि इस इलाके में जगह-जगह अंग्रेजी माध्यम के स्कूल कैसे खुलते हैं। बच्चे अगर इन स्कूलों में जाते हैं तो इसका मतलब है कि अभिभावक उन्हें अपने लिहाज से ऊँची फीस देकर भी पढ़ाना चाहते हैं। यह एक अलग बात है कि इस तरह के स्कूल ज्यादा दिन तक चल नहीं पाते हैं और बन्द होते रहना ही उनकी नियति है लेकिन वह सरकारी विद्यालय जहां अध्यापकों को समय से वेतन मिलता है और जिला तथा राज्य स्तर पर एक बड़ा अमला इन स्कूलों को चलाने के लिए पलता है, वहां पढ़ाई क्यों नहीं होती?

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Post By: tridmin
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