बाढ़ के साथ राजनीति का खेल

एक कारण तो यह समझ में आता है कि अभी तक जो तकनीक विकसित हुई है उसके अनुसार नेपाल में पैदा होने वाली बिजली का अकेला खरीदार भारत है। अगर हिमालय पार करके नेपाल अपनी बिजली चीन को निर्यात कर सके तब परिस्थितियाँ एकदम बदल जायेंगी। ऐसी हालत में जो बाजार सजता है उसमें बिजली का एक ही विक्रेता है और वह है नेपाल, और वहाँ एक ही खरीदार है और वह है भारत।

जहाँ तक राज्य का सवाल है सरकार को नदियों की शरारत के साथ-साथ जन-भावनाओं का भी मुकाबला करना पड़ता है। राज्य सरकार आम तौर पर जो लाइन लेती है वह यह कि सरकार लोगों की तकलीफों और अपनी जिम्मेवारियों को पूरी तरह समझती है लेकिन बाढ़ की समस्या का अंतिम समाधान नेपाल में बांधों का निर्माण है। राज्य सरकार कुछ भी कर सकने में मजबूर है क्योंकि तब यह मसला अंतर्राष्ट्रीय हो जाता है जिस पर पहल केन्द्र सरकार ही कर सकती है। उधर केन्द्र सरकार यह इशारा करती है कि बाढ़ समेत पानी का हर प्रबन्धन राज्य सरकार के कार्यक्षेत्र में आता है इसलिए यह राज्य सरकार की जिम्मेवारी बनती है कि वह बाढ़ पीड़ितों का ध्यान रखे। दोनों सरकारें यही कोशिश करती हैं कि गेंद दूसरे के पाले में ही रहे तो अच्छा है। प्रसंग तब काफी रोचक हो जाता है जब केन्द्र और राज्य में सरकारें एक दूसरे के विपरीत मत वाली हों।

आजादी के बाद केन्द्र सरकार और राज्य में एक साथ कांग्रेस पार्टी ने कोई 40 साल राज किया होगा और बाकी का समय उसके विपक्ष के हाथ में रहा। कांग्रेस की बात छोड़ भी दें तो विपक्षी पार्टियाँ भी अगर राज्य में बाढ़ और नेपाल में प्रस्तावित बांधों के बारे में गंभीर होतीं तो भी नेपाल से सौदा पट गया होता। तत्कालीन प्रधानमंत्री देवेगौड़ा (1 जून 1996 से 12 अप्रैल 1997 तक) ने तो 1996 में फरक्का बराज को लेकर बांग्लादेश के साथ पहल भी की थी जिसके फलस्वरूप फरक्का संधि पर दस्तखत हो सके थे। बिहार में लालू प्रसाद 10 मार्च 1990 से लेकर 25 जुलाई 1997 तक मुख्यमंत्री थे और दिल्ली में इन्द्रकुमार गुजराल (12 अप्रैल 1997 से 19 मार्च 1998 तक) की प्रधानमंत्री की हैसियत से मौजूदगी इस बात के लिए काफी होनी चाहिये थी कि भारत-नेपाल के बीच में बांधों को लेकर कोई न कोई समझौता हो जाता। मगर ऐसा नहीं हुआ।

इस बीच कुछ हुआ भी तो वह महाकाली सन्धि थी, जहाँ प्रमुखता विद्युत उत्पादन की थी-बाढ़ नियंत्रण की नहीं? क्या इससे पता नहीं लगता कि सरकार की प्राथमिकताएं क्या हैं और कहाँ हैं? इसके अलावा यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि भारत और नेपाल के बीच बांधों को लेकर कुछ न कुछ ऐसी बात जरूर है जिसकी वजह से सरकार बदलने और केन्द्र तथा राज्य में मित्र या एक ही पार्टी की सरकार होने के बावजूद कोई कार्यवाही नहीं हो पाती है। एक कारण तो यह समझ में आता है कि अभी तक जो तकनीक विकसित हुई है उसके अनुसार नेपाल में पैदा होने वाली बिजली का अकेला खरीदार भारत है। अगर हिमालय पार करके नेपाल अपनी बिजली चीन को निर्यात कर सके तब परिस्थितियाँ एकदम बदल जायेंगी। ऐसी हालत में जो बाजार सजता है उसमें बिजली का एक ही विक्रेता है और वह है नेपाल, और वहाँ एक ही खरीदार है और वह है भारत।

व्यावहारिक कारणों से व्यापारी और खरीदार दोनों ही एक दूसरे से सशंकित रहते हैं। यह भी हो सकता है कि भारत सरकार नेपाल में प्रस्तावति बांधों की खुद की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त न हो और यह भी मुमकिन है कि बिजली और पानी के लिए नेपाल पर निर्भरता उसे न सुहाती हो। प्रस्तावित बांधों की खुद की सुरक्षा एक ऐसा मसला है जिस पर विभिन्न कारणों से सार्वजनिक बहस न तो हो सकती है और न होनी ही चाहिये। यह वह चीजें हैं जिसके आगे सारी राजनैतिक पार्टियाँ मजबूर हैं। नेताओं की यह मजबूरी है कि अपनी खुद की रोटी सेंकने के लिए इतनी सी बात महफिल में नहीं कह सकते। यह बात इसलिए भी कहना जरूरी है क्योंकि देवेगौड़ा और गुजराल तथा उनके पहले मोरार जी देसाई, चैध्री चरण सिंह और विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसी सभी गैर-कांग्रेसी सरकारों के शासनकाल के बीच बरसात का मौसम आया था और बांधों पर चर्चा गरम हुई थी।

राजनेता वैसे भी बाढ़ और उससे जनता को होने वाली कठिनाइयों को कोई तवज्जो नहीं देते। हमने अध्याय-4 में देखा है कि किस तरह डॉ. के. एल. राव 1968 वाली प्रलयंकर बाढ़ के ठीक बाद सेमिनार में भाग लेने अमेरिका चले गये थे। हाल के वर्षों में 1998 में बिहार में भयंकर बाढ़ आई थी और उसी समय राज्य की शासक पार्टी ने पटना में एकजुटता रैली का आयोजन किया ताकि साम्प्रदायिक शक्तियों को काबू में रखा जा सके। इस अनुष्ठान को कुछ दिनों के बाद के लिए टाला जा सकता था क्योंकि हफ्ते दो हफ्ते में साम्प्रदायिकता का कोई पहाड़ टूटने नहीं जा रहा था। रंजीत सिन्हा लिखते हैं, “...श्री लालू प्रसाद यादव ने बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में न जाने का निर्णय शायद इसलिए लिया कि ऐसा करने से लोगों का ध्यान प्राकृतिक विपदा पर चला जाता और इसकी वजह से पटना रैली में भाग लेने वालों की संख्या पर असर पड़ता। श्री लालू प्रसाद यादव ने बिहार की ‘बहादुर’ जनता का आह्वान किया कि वह छोटी-मोटी असुविधाओं को दरकिनार कर दे क्योंकि देश पर मूल्यवृद्धि और साम्प्रदायिकता के घने बादल छाये हुये हैं।’’

बाढ़ पूर्व तैयारी के मंत्र-जाप के बावजूद परिस्थितियों में कोई बदलाव नहीं आया है। बिहार में 2003 की बाढ़ के समय बचाव और राहत कार्यों के लिए सेना को पटना के दानापुर अनुमण्डल में उतारना पड़ा। राज्य सरकार राहत कार्य में लगी मोटर नौकाओं को समय से डीजल मुहैया नहीं करवा पाई और जो ट्रक पटना से राहत सामग्री लेकर दानापुर जाते थे वह भी अपना काम मस्ती से करते थे। नतीजा यह हुआ कि जितनी राहत सामग्री वायु सेना के हेलिकॉप्टर उड़ान केन्द्रों से आगे जाने वाली थी उसकी मात्रा आधी रसद उन तक पहुँच पाई।

बाढ़ के समय राहत और बचाव कार्यों के लिए अक्सर सेना को बुलाना पड़ता है। सेना के अधिकारी आमतौर पर बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों से अनजान रहते हैं और उन्हें अपनी आवाजाही बनाये रखने के लिए स्थानीय नागरिक अधिकारियों पर काफी हद तक निर्भर रहना पड़ता है। उड़ीसा की 1982 की बाढ़ के समय की एक रिपोर्ट के अनुसार, “... भुवनेश्वर प्रक्षेत्र की सैनिक इकाइयों को प्रायः प्रत्येक दिन लम्बे समय तक हर सुबह टेरिटोरियल आर्मी के बाढ़ नियंत्रण कक्ष में नागरिक अधिकारियों का इन्तजार करना पड़ता था जो कि वहाँ खरामां-खरामां पहुँचते थे। बाद में पता लगा कि राज्य सरकार ने ऐसे स्थानीय अधिकारियों की सूची तक तैयार कर के नहीं रखी है जो कि नागरिक गाइड की तरह सेना की मदद में जायेंगे। अतिरिक्त जिला मजिस्टेªट, जिसकी सेना और नागरिक प्रशासन के बीच कड़ी बनने की जिम्मेवारी थी, हर सुबह घर-घर जाकर अफसरों को इस काम के लिए तैयार करता था। इस तरह से अगर कोई आदमी मान भी जाता था तो वह तैयार होने में अपने तरीके से समय लेता था और तब कहीं सेना के नियंत्रण कक्ष में पहुँचता था। जब तक सेना के जवान और नागरिक गाइड उस स्थान पर पहुँचते जहाँ से मोटर नौकाएं चलती थीं, तब तक काफी दिन चढ़ जाता था और यह लोग केवल कुछ ही गाँवों तक पहुँच पाते थे।’’

बाढ़ पूर्व तैयारी के मंत्र-जाप के बावजूद परिस्थितियों में कोई बदलाव नहीं आया है। बिहार में 2003 की बाढ़ के समय बचाव और राहत कार्यों के लिए सेना को पटना के दानापुर अनुमण्डल में उतारना पड़ा। राज्य सरकार राहत कार्य में लगी मोटर नौकाओं को समय से डीजल मुहैया नहीं करवा पाई और जो ट्रक पटना से राहत सामग्री लेकर दानापुर जाते थे वह भी अपना काम मस्ती से करते थे। नतीजा यह हुआ कि जितनी राहत सामग्री वायु सेना के हेलिकॉप्टर उड़ान केन्द्रों से आगे जाने वाली थी उसकी मात्रा आधी रसद उन तक पहुँच पाई। यह सब कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिनसे पता लगता है कि जिस तंत्र से आम जनता अपनी रक्षा की उम्मीद करती है वह खुद कितना संवेदनहीन है। जहाँ तक हवाई जहाज या हेलिकॉप्टर से गिराई गई राहत सामग्री का सवाल है, यह मान कर चला जाता है कि हवाई जहाज या हेलिकॉप्टर से गिराई गई राहत सामग्री का लगभग 40 प्रतिशत बाढ़ के पानी की भेंट चढ़ जाता है। यहाँ यह भी याद दिलाना जरूरी है कि अगर किसी नेता जी को हेलिकॉप्टर से बाढ़-दर्शन की इच्छा हो गई तो एक क्विंटल के करीब खाद्य सामग्री हेलिकॉप्टर से उतार देनी पड़ती है।

प्राकृतिक आपदाओं के समय प्रभावित जनता को राहत पहुँचाने का काम मूलतः सम्बद्ध राज्य सरकारों के दायरे में आता है। भारत सरकार इस मुहिम में राज्य सरकारों के प्रयास के लिए आवश्यक पूरक व्यवस्था में यातायात और आर्थिक सहायता देकर उसकी मदद करती है। इस काम के लिए राज्य सरकारों का एक आपदा राहत कोष होता है जिसमें भारत सरकार और राज्य सरकारें 3:1 के अनुपात में धन की व्यवस्था करती हैं। अगर आपदा असाधारण हो तो राज्य सरकारों को निर्दिष्ट प्रक्रियाओं का पालन करने के बाद अतिरिक्त राशि नेशनल कैलेमिटी कन्टिंजेसी फण्ड से भी दी जा सकती है।

बिहार राज्य सरकार की उपलब्ध रिपोर्टों के अनुसार राज्य सरकार के पास अगस्त 2003 में आपदा राहत कोष के पास 108.97 करोड़ रुपये थाती कोष के रूप में उपलब्ध थे। इस कोष से उस वर्ष अगस्त माह तक राहत कार्य चलाने के लिए केवल 19 करोड़ रुपये निकाले गये। उसके बावजूद राज्य की राबड़ी देवी की सरकार ने केन्द्र सरकार पर यह आरोप लगाया कि वह राज्य को राहत कार्य चलाने के लिए आवश्यक निधि की व्यवस्था नहीं कर रही है। अनिर्बान गुहा राय लिखते हैं, “...राज्य सरकार को 2002-03 में आवंटित केन्द्रीय सहायता मद में 112 करोड़ रुपया मिलना बाकी है। यह रकम जिलों में राहत सामग्री के वितरण के विशेष पैकेज के अधीन है। केन्द्र सरकार ने यह पैसा अभी तक निर्गत नहीं किया है क्योंकि उसका कहना है कि राज्य सरकार पहले आपदा राहत कोष में उपलब्ध राशि को खर्च करे और तब केन्द्रीय सहायता की मांग करे।’’ जाहिर है कि राज्य सरकार पिछले वर्ष किये गये खर्च का ब्यौरा देने में असमर्थ थी मगर यह जरूर चाहती थी कि उसे नया अनुदान उपलब्ध करवा दिया जाये और साथ ही बाढ़ पीड़ितों को यह भी बताया जा सके कि उनकी तकलीफों की जिम्मेवार केन्द्र सरकार है।

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Post By: tridmin
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