पहले पानी 45 फीट पर आता था, आज 60 फीट पर मिलता है। उसमें गंध रहता है और थोड़ी देर रखने पर पानी के उपर एक परत नजर आती है। कुल्हड़िया में पहले पानी 20 फीट पर था, अब 60 फीट पर है। कपड़े धोने पर पीले पड़ जाते हैं, पानी को स्थिर रखने पर ऊपर एक परत जम जाती है। पेयजल के माध्यम से मानव शरीर में एकत्र लौहतत्वों की अधिकता से कई बीमारियाँ होती हैं। जिनमें बाल गिरने से लेकर किडनी-लीवर की बीमारी के अलावा चिड़चिड़ापन व मस्तिष्क की बीमारियाँ भी शामिल हैं। भूजल घटने से पूरा देश, बल्कि दुनिया के अधिकतर देश चिन्तित हैं। फिर भी बाढ़ग्रस्त कोसी क्षेत्र के भूगर्भीय जल भण्डार घटने और दूषित होने की खबरें चौंकाती हैं, सचेत करती हैं। 18 गाँवों के सर्वेक्षण में पता चला कि पहले जहाँ 10-15 फीट गहराई पर पानी था, अब 70-80-100 फीट नीचे चला गया है।
लोग हर काम के लिये भूजल पर निर्भर हैं। पेयजल के लिये चापाकल और सिंचाई के लिये नलकूप का प्रयोग लगातार बढ़ता गया है। करीब 79 प्रतिशत सिंचाई नलकूपों से होती है। वर्षाजल की हिस्सेदारी महज 15 प्रतिशत है। नदी और तालाब की हिस्सेदारी महज 5-6 प्रतिशत है।
यह बाढ़ ग्रस्त क्षेत्र हैं। बाढ़ में आई पतली मिट्टी (सिल्ट या विभिन्न जैविक उर्वरकों से युक्त गाद) -बालू के कारण क्षेत्र की मिट्टी बलुआही है। उसकी जलधारण क्षमता कम है। इसलिये बरसात में जलनिकासी की समस्या भी उत्पन्न होती है और जल-जमाव होता है। कोसी तटबन्ध बनने के बाद बाढ़ विकराल हुई। उसका रूप बदला, वह विध्वंसक हो गई।
बालू भर जाने से पानी के परम्परागत स्रोत-पोखर, तालाब, डबरा, कुँआ नष्ट हो गए। उनके उपेक्षित होने के दूसरे सामाजिक-राजनीतिक कारण भी थे। सामन्ती व्यवस्था की विकृति के दौर में जलस्रोतों के उपभोग के अधिकार में भी भेदभाव बरता जाने लगा था, रोक-टोक होने लगी थी। इसलिये जल स्रोत खासकर पेयजल का स्रोत अपना और अपने निकट हो-इसकी आकांक्षा बलवती होती गई।
नलकूप या चापाकल की तकनीक आने के बाद धरती के भीतर से पानी निकालना आसान हो गया था। इस प्रकार आज़ादी के बाद हर टोले और हर घर में चापाकल लगने लगे। कुएँ और तालाब का उपभोग पूरा समुदाय सामूहिक तौर पर करता था, इसलिये उनकी देखरेख भी समुदाय करता था। पर अब देखरेख करने वाला कोई नहीं रहा।
इससे भी चापाकलों का प्रचलन बढ़ा। सिंचाई के लिये नलकूपों का सहारा मजबूरी बन गई। फसलों की सिंचाई में भूजल का उपयोग बढ़ने का कारण ऐसे फसल चक्र को अपना लेना भी था जिसमें अधिक पानी की जरूरत होती है। पानी की कमी सहने की क्षमता नहीं होती।
भूजल का खर्च बढ़ने से न केवल उसके भण्डार का स्तर घटा है और उसकी संरचना भी बदल रही है। पानी में घूले विभिन्न खनिज तत्वों की मात्रा बढ़ गई। पहले लोग कुओं का पानी पीते थे। वह पानी साफ और सुरक्षित होता था। पर अब चापाकलों के पानी से गन्ध आता है। कपड़ा साफ नहीं होता। कुछ देर रखने पर पानी का रंग बदल जाता है।
बर्तन में पीला दाग पड़ जाता है। जाँच में पता चला कि इधर के भूजल में लौह तत्व (आयरन) की मात्रा बहुत अधिक (मान्य सीमा से सौ गुना) है जिससे कई बीमारियाँ होती हैं। कुएँ और तालाबों के नष्ट होने से मवेशियों की भी संख्या घट गई। उनके पीने-नहाने के पानी की कमी हो गई। बेहतरीन चारागाह-तालाबों के घाट खत्म हो गए।
उल्लेखनीय है कि पेयजल में जिन खनिजों का रहना वांक्षनीय होता है, उनमें लौहतत्व भी है। पर उसकी अधिकता जानलेवा हो सकती है। इसलिये विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसकी मात्रा निर्धारित की है। उसके अनुसार प्रति लीटर पानी में लौह तत्वों की मात्रा 0.03 मिलीग्राम होना चाहिए। भारतीय परिस्थितियों के आधार पर भारतीय मानक ब्यूरों ने प्रति लीटर एक मिलीग्राम की सीमा स्वीकार कर लिया है। पर इन गाँवों के भूजल में यह मात्रा 3 मिलीग्राम है।
जाँच में आर्सेनिक और फ्लोराइड की उपस्थिति का पता भी चला। पर उनकी मात्रा मान्य सीमा (0.05 पीपीएम) से अधिक नहीं थी। लेकिन 177 नमूनों में से आठ में आर्सेनिक का पता चला जो बसुआरी और बेलही गाँव से आये नमूने थे। यह खतरे की घंटी जरूर है। अर्थात भूजल में आर्सेनिक और फलोराइड की मात्रा मान्य सीमा के भीतर बना रहे, इसके लिये फौरन कार्रवाई की जरूरत है। मगर सरकारी एजेंडे में अभी यह मामला नहीं है। वह समस्या उत्पन्न होने के बाद समाधान लेकर उपस्थित होगी।
भूजल में लौहतत्व की अधिकता समूचे कोसी क्षेत्र के सभी नौ जिलों होने की आशंका है। सरकार ने उन इलाकों में परिशोधन संयंत्रों के साथ पाइपलाइनों से जलापूर्ति करने की योजना तैयार की है। पर सरकारी योजनाओं के लागू होने में धन की कमी, भ्रष्टाचार और संचालनगत कमजोरियों के कारण इस क्षेत्र के लोगों को इन योजनाओं के भरोसे पेयजल में लौहतत्वों की अधिकता से छुटकारा मिलता नहीं दिखता।
सरकारी आँकड़ों के अनुसार कोसी प्रक्षेत्र के 9 जिलों में 10,844 बसावटों के भूजल में लौह की मात्रा मान्य मात्रा से अधिक है, पर सरकार ने वर्ष 2012-2013 में आयरन प्रभावित गाँवों के लिये 185 मिनी जलापूर्ति योजनाएँ चालू की। उस साल लक्ष्य आयरन प्रभावित 3807 बसावटों का था।विभिन्न शोध अध्ययनों से यह बारबार प्रमाणित हुआ है कि समस्या भूजल के अत्यधिक दोहन होने और वर्षाजल का संचयन नहीं होने से उत्पन्न हुई हैं। तालाब और कुएँ ऐसे जलस्रोत होते हैं जो भूगर्भीय जलभण्डार से सम्पर्कित होते है और वर्षाजल का संग्रह करते हैं। उनमें संग्रहित पानी हवा और धूप के निरन्तर सम्पर्क के कारण इस तरह की समस्याओं से मुक्त होता हैं।
अगर उस जगह की धरती के विभिन्न सोपानों में किसी खनिज की अधिकता हो, तब भी वर्षाजल संग्रह उसके निराकरण की व्यवस्था करता है। परन्तु भूगर्भीय जल भण्डार को समृद्ध और शुद्ध रखने के लिये वर्षाजल संचयन की समझ विकास के दौड़ में खो गई। इस ओर बीते वर्षों में घोर उदासीनता बरती गई है। परन्तु वर्तमान गाँवों में वर्षाजल संचयन की कोई संरचना नहीं है, या फिर नगण्य संख्या में हैं। जबकि भूजल का उपयोग तेजी से बढ़ता गया है।
इन गाँवों में कुल मिलाकर 18 पोखरें और पाँच कुएँ मौजूद हैं जबकि चापाकलों की संख्या करीब आठ हजार हो गई है। नलकूपों की संख्या अधिक नहीं, तब भी ढाई सौ से कम नहीं है। हर घर को पानी और हर खेत को सिंचाई देने में भूजल का दोहन बढ़ने ही वाला है, घटने नहीं जा रहा है। जबकि गाँवों में पानी की स्थिति बिगड़ती जा रही है।
सर्वेक्षण में वर्तमान और तीस वर्ष पहले की स्थिति के बारे में तुलनात्मक आँकड़े जुटाए गए। मधुबनी जिला के घोघरडीहा प्रखण्ड में स्थित परसा गाँव में तीस साल पहले 22 तालाब और 60 कुएँ थे। लोग कुएँ का पानी ही पीते थे। वर्तमान में भी चार कुएँ हैं, पर किसी काम में नहीं हैं। लेकिन हर घर में चापाकल है। उनकी संख्या 156 हो गई है और गाँव में 28 नलकूप लगे हैं।
भारतीय परिस्थितियों के आधार पर भारतीय मानक ब्यूरों ने प्रति लीटर एक मिलीग्राम की सीमा स्वीकार कर लिया है। पर इन गाँवों के भूजल में यह मात्रा 3 मिलीग्राम है। जाँच में आर्सेनिक और फ्लोराइड की उपस्थिति का पता भी चला। पर उनकी मात्रा मान्य सीमा (0.05 पीपीएम) से अधिक नहीं थी। लेकिन 177 नमूनों में से आठ में आर्सेनिक का पता चला जो बसुआरी और बेलही गाँव से आये नमूने थे। यह खतरे की घंटी जरूर है।मवेशियों को पानी पिलाने का काम भी चापाकलों से ही किया जाता है। केवल एक सरकारी तालाब बचा है जिसकी हाल में खुदाई-सफाई हुई है। पहले तालाबों का उपयोग सारे गाँव के लोग सामूहिक रूप से नहाने-धोने, सिंचाई करने और मवेशियों को पानी पिलाने, नहलाने आदि में करते थे। निजी तालाबों के जल का उपयोग करने के लिये सभी आज़ाद थे।
तालाबों और कुओं के घटने का असर है कि पहले भूजल 60 फीट गहराई पर था, अब 80 फीट पर मिलता है। यह बड़ा गाँव है और उपरोक्त आँकड़ा केवल दो वार्डों- नबर 1 एवं 2 का है। वार्ड 3 व 4 में तीस साल पहले 8 तलाब थे, आज केवल एक रह गया है। वह भी खर-पतवार से भरा होने से किसी काम लायक नहीं है। पहले 18 कुएँ थे जिसका पानी पिया जाता था।
आज एक कुँआ तो है, पर किसी काम में नहीं। पहले पानी 30 फीट पर मिलता था, अब 80 फीट पर मिलता है। इसी पंचायत के गिधा गाँव में चार कुएँ, दो सरकारी और चार निजी तालाब थे। पहले 15 फीट पर पानी मिल जाता था, अब पानी का स्तर 80 फीट गहरा हो गया है। पानी का रंग और गंध ठीक नहीं है। छह तालाबों में केवल एक बचा है। कुएँ बेकार हैं।
जहलीपट्टी में तीस वर्ष पहले गाँव में 14 तालाब, सात कुएँ और चार चापाकल थे। बलान नदी थी। अधिकतर लोग कुएँ का पानी पीते थे। तालाब निजी थे, पर ग्रामीणों और मवेशियों के उपयोग के लिये खुले थे। अब अधिकतर घरों में चापाकल है, जिन अत्यन्त गरीबों के घर चापाकल नहीं है, वे भी कुँआ या तालाब का उपयोग नहीं करते क्योंकि गाँव में केवल एक डबरा है।
उसका पानी कीचड़ युक्त होता है, पीने या दूसरे घरेलू कामों में नहीं आ सकता। मवेशी भी उसका पानी नहीं पीते। हर गाँव की कहानी एक जैसी मिलती-जुलती हैं। सुपौल जिले के मुरौना प्रखण्ड के गाँवों की हालत भी दूसरी नहीं। गम्हरिया में सात निजी पोखर और एक कुँआ था, आज कोई नहीं है।
पहले पानी 45 फीट पर आता था, आज 60 फीट पर मिलता है। उसमें गंध रहता है और थोड़ी देर रखने पर पानी के उपर एक परत नजर आती है। कुल्हड़िया में पहले पानी 20 फीट पर था, अब 60 फीट पर है। कपड़े धोने पर पीले पड़ जाते हैं, पानी को स्थिर रखने पर ऊपर एक परत जम जाती है।
पेयजल के माध्यम से मानव शरीर में एकत्र लौहतत्वों की अधिकता से कई बीमारियाँ होती हैं। जिनमें बाल गिरने से लेकर किडनी-लीवर की बीमारी के अलावा चिड़चिड़ापन व मस्तिष्क की बीमारियाँ भी शामिल हैं। समेकित जल प्रबन्धन कार्यक्रम के अन्तर्गत घोघरडीहा प्रखंड विकास स्वराज्य विकास संघ, जगतपुर ने जर्मनी की वेल्टहंगरहिल्फे के सहयोग से पेयजल में लौहतत्वों से मुक्त करने के लिये मटका फिल्टर का सफल प्रयोग किया है।
देशी संसाधनों से बनी यह संरचना प्रचलित हो रहा है। पर भूजल में लौहतत्वों की अधिकता का असर मवेशियों और फसल पर भी होता है जिसका उपचार मटका फिल्टर जैसे इन्तजाम नहीं कर सकते। स्पष्ट है कि भूजल में विभिन्न तत्वों की बढ़ोत्तरी के कारणों की पड़ताल तो करनी पड़ेगी और ऐसे इन्तजाम भी करने पड़ेंगे कि इस समस्या से निपटा जा सके।
पटना और कलकत्ता के वैज्ञानिकों-डॉ पीपी घोष और दिपंकर भट्टाचार्य ने साफ-साफ बताया है कि भूगर्भीय जलभण्डार का अतिशय दोहन इसका कारण है और उस भण्डार को समृद्ध करने-रखने के माध्यम से ही इसका स्थायी समाधान हो सकता है। परिशोधन संयंत्रों ( मटका फिल्टर भी वैसा ही है।) से फौरी उपचार होता है, कारण दूर नहीं होता। इस प्रकार, तालाबों की संख्या बढ़ाना इस जल समस्या का उपयुक्त समाधान ठहरता है। इस ओर ध्यान देने की जरूरत है।
लोग हर काम के लिये भूजल पर निर्भर हैं। पेयजल के लिये चापाकल और सिंचाई के लिये नलकूप का प्रयोग लगातार बढ़ता गया है। करीब 79 प्रतिशत सिंचाई नलकूपों से होती है। वर्षाजल की हिस्सेदारी महज 15 प्रतिशत है। नदी और तालाब की हिस्सेदारी महज 5-6 प्रतिशत है।
यह बाढ़ ग्रस्त क्षेत्र हैं। बाढ़ में आई पतली मिट्टी (सिल्ट या विभिन्न जैविक उर्वरकों से युक्त गाद) -बालू के कारण क्षेत्र की मिट्टी बलुआही है। उसकी जलधारण क्षमता कम है। इसलिये बरसात में जलनिकासी की समस्या भी उत्पन्न होती है और जल-जमाव होता है। कोसी तटबन्ध बनने के बाद बाढ़ विकराल हुई। उसका रूप बदला, वह विध्वंसक हो गई।
बालू भर जाने से पानी के परम्परागत स्रोत-पोखर, तालाब, डबरा, कुँआ नष्ट हो गए। उनके उपेक्षित होने के दूसरे सामाजिक-राजनीतिक कारण भी थे। सामन्ती व्यवस्था की विकृति के दौर में जलस्रोतों के उपभोग के अधिकार में भी भेदभाव बरता जाने लगा था, रोक-टोक होने लगी थी। इसलिये जल स्रोत खासकर पेयजल का स्रोत अपना और अपने निकट हो-इसकी आकांक्षा बलवती होती गई।
नलकूप या चापाकल की तकनीक आने के बाद धरती के भीतर से पानी निकालना आसान हो गया था। इस प्रकार आज़ादी के बाद हर टोले और हर घर में चापाकल लगने लगे। कुएँ और तालाब का उपभोग पूरा समुदाय सामूहिक तौर पर करता था, इसलिये उनकी देखरेख भी समुदाय करता था। पर अब देखरेख करने वाला कोई नहीं रहा।
इससे भी चापाकलों का प्रचलन बढ़ा। सिंचाई के लिये नलकूपों का सहारा मजबूरी बन गई। फसलों की सिंचाई में भूजल का उपयोग बढ़ने का कारण ऐसे फसल चक्र को अपना लेना भी था जिसमें अधिक पानी की जरूरत होती है। पानी की कमी सहने की क्षमता नहीं होती।
भूजल का खर्च बढ़ने से न केवल उसके भण्डार का स्तर घटा है और उसकी संरचना भी बदल रही है। पानी में घूले विभिन्न खनिज तत्वों की मात्रा बढ़ गई। पहले लोग कुओं का पानी पीते थे। वह पानी साफ और सुरक्षित होता था। पर अब चापाकलों के पानी से गन्ध आता है। कपड़ा साफ नहीं होता। कुछ देर रखने पर पानी का रंग बदल जाता है।
बर्तन में पीला दाग पड़ जाता है। जाँच में पता चला कि इधर के भूजल में लौह तत्व (आयरन) की मात्रा बहुत अधिक (मान्य सीमा से सौ गुना) है जिससे कई बीमारियाँ होती हैं। कुएँ और तालाबों के नष्ट होने से मवेशियों की भी संख्या घट गई। उनके पीने-नहाने के पानी की कमी हो गई। बेहतरीन चारागाह-तालाबों के घाट खत्म हो गए।
उल्लेखनीय है कि पेयजल में जिन खनिजों का रहना वांक्षनीय होता है, उनमें लौहतत्व भी है। पर उसकी अधिकता जानलेवा हो सकती है। इसलिये विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसकी मात्रा निर्धारित की है। उसके अनुसार प्रति लीटर पानी में लौह तत्वों की मात्रा 0.03 मिलीग्राम होना चाहिए। भारतीय परिस्थितियों के आधार पर भारतीय मानक ब्यूरों ने प्रति लीटर एक मिलीग्राम की सीमा स्वीकार कर लिया है। पर इन गाँवों के भूजल में यह मात्रा 3 मिलीग्राम है।
जाँच में आर्सेनिक और फ्लोराइड की उपस्थिति का पता भी चला। पर उनकी मात्रा मान्य सीमा (0.05 पीपीएम) से अधिक नहीं थी। लेकिन 177 नमूनों में से आठ में आर्सेनिक का पता चला जो बसुआरी और बेलही गाँव से आये नमूने थे। यह खतरे की घंटी जरूर है। अर्थात भूजल में आर्सेनिक और फलोराइड की मात्रा मान्य सीमा के भीतर बना रहे, इसके लिये फौरन कार्रवाई की जरूरत है। मगर सरकारी एजेंडे में अभी यह मामला नहीं है। वह समस्या उत्पन्न होने के बाद समाधान लेकर उपस्थित होगी।
भूजल में लौहतत्व की अधिकता समूचे कोसी क्षेत्र के सभी नौ जिलों होने की आशंका है। सरकार ने उन इलाकों में परिशोधन संयंत्रों के साथ पाइपलाइनों से जलापूर्ति करने की योजना तैयार की है। पर सरकारी योजनाओं के लागू होने में धन की कमी, भ्रष्टाचार और संचालनगत कमजोरियों के कारण इस क्षेत्र के लोगों को इन योजनाओं के भरोसे पेयजल में लौहतत्वों की अधिकता से छुटकारा मिलता नहीं दिखता।
सरकारी आँकड़ों के अनुसार कोसी प्रक्षेत्र के 9 जिलों में 10,844 बसावटों के भूजल में लौह की मात्रा मान्य मात्रा से अधिक है, पर सरकार ने वर्ष 2012-2013 में आयरन प्रभावित गाँवों के लिये 185 मिनी जलापूर्ति योजनाएँ चालू की। उस साल लक्ष्य आयरन प्रभावित 3807 बसावटों का था।विभिन्न शोध अध्ययनों से यह बारबार प्रमाणित हुआ है कि समस्या भूजल के अत्यधिक दोहन होने और वर्षाजल का संचयन नहीं होने से उत्पन्न हुई हैं। तालाब और कुएँ ऐसे जलस्रोत होते हैं जो भूगर्भीय जलभण्डार से सम्पर्कित होते है और वर्षाजल का संग्रह करते हैं। उनमें संग्रहित पानी हवा और धूप के निरन्तर सम्पर्क के कारण इस तरह की समस्याओं से मुक्त होता हैं।
अगर उस जगह की धरती के विभिन्न सोपानों में किसी खनिज की अधिकता हो, तब भी वर्षाजल संग्रह उसके निराकरण की व्यवस्था करता है। परन्तु भूगर्भीय जल भण्डार को समृद्ध और शुद्ध रखने के लिये वर्षाजल संचयन की समझ विकास के दौड़ में खो गई। इस ओर बीते वर्षों में घोर उदासीनता बरती गई है। परन्तु वर्तमान गाँवों में वर्षाजल संचयन की कोई संरचना नहीं है, या फिर नगण्य संख्या में हैं। जबकि भूजल का उपयोग तेजी से बढ़ता गया है।
इन गाँवों में कुल मिलाकर 18 पोखरें और पाँच कुएँ मौजूद हैं जबकि चापाकलों की संख्या करीब आठ हजार हो गई है। नलकूपों की संख्या अधिक नहीं, तब भी ढाई सौ से कम नहीं है। हर घर को पानी और हर खेत को सिंचाई देने में भूजल का दोहन बढ़ने ही वाला है, घटने नहीं जा रहा है। जबकि गाँवों में पानी की स्थिति बिगड़ती जा रही है।
सर्वेक्षण में वर्तमान और तीस वर्ष पहले की स्थिति के बारे में तुलनात्मक आँकड़े जुटाए गए। मधुबनी जिला के घोघरडीहा प्रखण्ड में स्थित परसा गाँव में तीस साल पहले 22 तालाब और 60 कुएँ थे। लोग कुएँ का पानी ही पीते थे। वर्तमान में भी चार कुएँ हैं, पर किसी काम में नहीं हैं। लेकिन हर घर में चापाकल है। उनकी संख्या 156 हो गई है और गाँव में 28 नलकूप लगे हैं।
भारतीय परिस्थितियों के आधार पर भारतीय मानक ब्यूरों ने प्रति लीटर एक मिलीग्राम की सीमा स्वीकार कर लिया है। पर इन गाँवों के भूजल में यह मात्रा 3 मिलीग्राम है। जाँच में आर्सेनिक और फ्लोराइड की उपस्थिति का पता भी चला। पर उनकी मात्रा मान्य सीमा (0.05 पीपीएम) से अधिक नहीं थी। लेकिन 177 नमूनों में से आठ में आर्सेनिक का पता चला जो बसुआरी और बेलही गाँव से आये नमूने थे। यह खतरे की घंटी जरूर है।मवेशियों को पानी पिलाने का काम भी चापाकलों से ही किया जाता है। केवल एक सरकारी तालाब बचा है जिसकी हाल में खुदाई-सफाई हुई है। पहले तालाबों का उपयोग सारे गाँव के लोग सामूहिक रूप से नहाने-धोने, सिंचाई करने और मवेशियों को पानी पिलाने, नहलाने आदि में करते थे। निजी तालाबों के जल का उपयोग करने के लिये सभी आज़ाद थे।
तालाबों और कुओं के घटने का असर है कि पहले भूजल 60 फीट गहराई पर था, अब 80 फीट पर मिलता है। यह बड़ा गाँव है और उपरोक्त आँकड़ा केवल दो वार्डों- नबर 1 एवं 2 का है। वार्ड 3 व 4 में तीस साल पहले 8 तलाब थे, आज केवल एक रह गया है। वह भी खर-पतवार से भरा होने से किसी काम लायक नहीं है। पहले 18 कुएँ थे जिसका पानी पिया जाता था।
आज एक कुँआ तो है, पर किसी काम में नहीं। पहले पानी 30 फीट पर मिलता था, अब 80 फीट पर मिलता है। इसी पंचायत के गिधा गाँव में चार कुएँ, दो सरकारी और चार निजी तालाब थे। पहले 15 फीट पर पानी मिल जाता था, अब पानी का स्तर 80 फीट गहरा हो गया है। पानी का रंग और गंध ठीक नहीं है। छह तालाबों में केवल एक बचा है। कुएँ बेकार हैं।
जहलीपट्टी में तीस वर्ष पहले गाँव में 14 तालाब, सात कुएँ और चार चापाकल थे। बलान नदी थी। अधिकतर लोग कुएँ का पानी पीते थे। तालाब निजी थे, पर ग्रामीणों और मवेशियों के उपयोग के लिये खुले थे। अब अधिकतर घरों में चापाकल है, जिन अत्यन्त गरीबों के घर चापाकल नहीं है, वे भी कुँआ या तालाब का उपयोग नहीं करते क्योंकि गाँव में केवल एक डबरा है।
उसका पानी कीचड़ युक्त होता है, पीने या दूसरे घरेलू कामों में नहीं आ सकता। मवेशी भी उसका पानी नहीं पीते। हर गाँव की कहानी एक जैसी मिलती-जुलती हैं। सुपौल जिले के मुरौना प्रखण्ड के गाँवों की हालत भी दूसरी नहीं। गम्हरिया में सात निजी पोखर और एक कुँआ था, आज कोई नहीं है।
पहले पानी 45 फीट पर आता था, आज 60 फीट पर मिलता है। उसमें गंध रहता है और थोड़ी देर रखने पर पानी के उपर एक परत नजर आती है। कुल्हड़िया में पहले पानी 20 फीट पर था, अब 60 फीट पर है। कपड़े धोने पर पीले पड़ जाते हैं, पानी को स्थिर रखने पर ऊपर एक परत जम जाती है।
पेयजल के माध्यम से मानव शरीर में एकत्र लौहतत्वों की अधिकता से कई बीमारियाँ होती हैं। जिनमें बाल गिरने से लेकर किडनी-लीवर की बीमारी के अलावा चिड़चिड़ापन व मस्तिष्क की बीमारियाँ भी शामिल हैं। समेकित जल प्रबन्धन कार्यक्रम के अन्तर्गत घोघरडीहा प्रखंड विकास स्वराज्य विकास संघ, जगतपुर ने जर्मनी की वेल्टहंगरहिल्फे के सहयोग से पेयजल में लौहतत्वों से मुक्त करने के लिये मटका फिल्टर का सफल प्रयोग किया है।
देशी संसाधनों से बनी यह संरचना प्रचलित हो रहा है। पर भूजल में लौहतत्वों की अधिकता का असर मवेशियों और फसल पर भी होता है जिसका उपचार मटका फिल्टर जैसे इन्तजाम नहीं कर सकते। स्पष्ट है कि भूजल में विभिन्न तत्वों की बढ़ोत्तरी के कारणों की पड़ताल तो करनी पड़ेगी और ऐसे इन्तजाम भी करने पड़ेंगे कि इस समस्या से निपटा जा सके।
पटना और कलकत्ता के वैज्ञानिकों-डॉ पीपी घोष और दिपंकर भट्टाचार्य ने साफ-साफ बताया है कि भूगर्भीय जलभण्डार का अतिशय दोहन इसका कारण है और उस भण्डार को समृद्ध करने-रखने के माध्यम से ही इसका स्थायी समाधान हो सकता है। परिशोधन संयंत्रों ( मटका फिल्टर भी वैसा ही है।) से फौरी उपचार होता है, कारण दूर नहीं होता। इस प्रकार, तालाबों की संख्या बढ़ाना इस जल समस्या का उपयुक्त समाधान ठहरता है। इस ओर ध्यान देने की जरूरत है।
क्र. | गाँव/टोला | घर | जनसंख्या | प्राथमिक विद्यालय | मध्य विद्यालय | तालाब | नदी | कुआँ | चापाकल |
1. | बेलही टोला | 230 | 1200 | 1 |
| 2 |
| 1 | 200 |
| बेलही मुशहरी | 50 | 260 | 1 |
|
| बिहुल |
| 22 |
| बेलही पूर्वी | 125 | 1000 | 1 |
| 2 |
|
| 110 |
| बेलही पश्चिम | 570 | 2800 |
| 1 | 3 |
|
| 520 |
2. | महेशपुर | 90 | 450 |
|
|
| बिहुल |
| 60 |
3. | गम्हरिया | 540 | 3000 | 1 |
| 5 | बिहुल |
| 500 |
4. | मौआही | 900 | 5000 |
| 1 | 1 |
|
| 800 |
5. | कुल्हरिया | 400 | 2000 | 1 | 1 | 4 |
|
| 360 |
6. | बसुआरी | 1200 | 6500 | 5 | 2 |
|
| 4 | 1160 |
7. | बगराहा | 1100 | 6000 | 1 |
|
|
|
| 1040 |
8. | पिपरा कमलपुर | 220 | 1000 | 1 |
|
|
|
| 180 |
9. | परसा नवटोली | 1200 | 7500 | 2 | 1 |
|
|
| 1140 |
10. | जहली पट्टी | 550 | 3000 | 1 |
|
|
|
| 510 |
11. | गिधा | 560 | 3000 | 1 |
|
|
|
| 500 |
12. | इनरवा | 80 | 600 | 1 | 1 |
| 2 |
| 60 |
13. | मौलूटोली | 150 | 1100 |
| 1 |
|
|
| 120 |
| पूर्वी बेलहा | 200 | 1200 |
|
|
|
|
| 180 |
14. | मैनही | 250 | 2000 | 2 | 1 | 1 | बिहुल |
| 230 |
Path Alias
/articles/baadha-kae-ilaakae-maen-bhauujala-kaa-akaala
Post By: RuralWater