हर साल आने वाली बाढ़ में लोगों के सपने और घर दोनों ही डूब जाते हैं। जनजीवन बुरी तरह प्रभावित होता है। सैंकड़ो लोगों और जीव-जंतुओं की डूबने से मौत हो जाती है। अरबों रुपये की संपत्ति का नुकसान होता है। इस वर्ष भी यही हुआ। महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड, तमिलनाडु सहित देश के विभिन्न राज्यों में बाढ़ तबाही का एक अलग मंज़र लिख गयी। कई लोग अपने प्रियजनों से हमेशा के लिए बिछड़ गए। खुशहाली से जीवन व्यतीत करने वाले परिवार बिना छत के दर दर की ठोकरें खा रहे हैं और दो वक्त की रोटी के लिए परेशान हैं। सरकारें और मीडिया बाढ़ को भयावह आपदा घोषित कर चुके हैं और समाधान से ज्यादा इसकी समस्या के बारे में अधिक प्रचार किया जाता है, लेकिन वास्तव में जैसा हम बाढ़ के बारे में सोचते हैं, वास्तविकता इसके बिल्कुल विपरीत है।
बाढ़ कोई नई चीज़ या प्रक्रिया नहीं है। ये तो हज़ारों वर्षों से आ रही है। स्पष्ट रूप से कहें तो नदी के जीवनचक्र का हिस्सा है बाढ़। एक ऐसा हिस्सा जिसके बिना नदी का जीवन पूर्ण नहीं कहा जा सकता और ये बाढ़ खेती के लिए नए आयाम तथा धरती की कोख (गर्भ) के लिए जल लेकर आती है। दरअसल बाढ़ का पानी अपने साथ पहाड़ों से उपजाऊ गाद (मिट्टी) मैदानों की तरफ लाता है। ये गाद (मिट्टी) काफी उपजाऊ होती है। बाढ़ के पानी के साथ बहकर आने से मैदानी इलाकों में इस उपजाऊ मिट्टी की एक लेयर (परत) बन जाती है। जिससे खेतों में मिट्टी की उर्वरता बढ़ती है और फसल काफी अच्छी होती है। साथ ही रेत-पत्थर, सेड़ीमेट आदि के जमा होने से संकरी हो चुकी नदी के चैनलों को बाढ़ साफ कर देती है, जिससे नदी का फैलाव होने से नदी फिर से अपने पुराने स्वरूप में आ जाती है। बाढ़ से भूजल भी रिचार्ज होता है, लेकिन पिछले 3 से 4 दशकों में बाढ़ को हमने आपदा की संज्ञा दे दी है और आपदा की तरह ही इसके साथ व्यवहार करने लगे हैं, जिसमें जान-माल का भारी नुकसान होता है। युद्ध स्तर पर राहत अभियान चलाए जाते हैं। मंत्री हेलीकाप्टर से बाढ़ प्रभावित इलाके का जायज़ा लेते हैं और अधिकारी जनता से हौंसला रखने की उम्मीद। फिर एक साल बीतने पर मानसून के दौरान बाढ़ आती है और यही सब पुनः दोहराया जाता है, लेकिन बाढ़ आने और इसके द्वारा आपदा का रूप धारण करने की कहानी के पीछे के सच का कोई ज़िक्र नही करता।
वर्षों पहले इतनी जनसंख्या नही थी। कम आबादी होने के साथ ही घर/भवनों की संख्या काफी कम थी। नदी स्वतंत्र थी और नदी के प्राकृतिक मार्ग पर कोई अवरोध नहीं था। इसलिए बाढ़ आने पर इतना त्राहिमाम नहीं मचता था। वर्षों के अन्तराल में एक बार बाढ़ आया करती थी और नदी के जीवनचक्र में अपना कर्तव्य निभा कर चली जाती थी, लेकिन बदलते वक्त ने सब परिवर्तित कर दिया। वक्त के साथ विज्ञान ने बड़े बड़े आविष्कार किये। 90 के दशक के बाद वैश्वीकरण आया तो आधुनिकता ने रफ़्तार पकड़ी। बढ़ती आबादी को आशियाना देने के लिए जंगल काटे गए। नदियों के किनारों को उजाड़ कर अतिक्रमण किया गया। जिससे नदी संकरी हो गयी। खनन माफियाओं ने नदी की गोद को गहराइयों तक खोद डाला, इससे नदी उथली ओ गयी। भूजल रिचार्ज और बाढ़ के पानी को नियंत्रित करने वाले तालाबों पर भी विशालकाय भवन और कॉलोनियां बना दी गयी। इस कारण कई वर्ष पहले जहां नदी बहती थी, वहाँ आज बड़ी आबादी बस्ती है। नतीजतन, हर साल जब बारिश होती है, तो पहाड़ों से तेज रफ्तार पानी को अपने मार्ग पर व्यवधान के रूप में भवन आदि मिलते हैं, तो उन्हें वह बहा ले जाता है। बड़ी संख्या में लोग मरते हैं। बाढ़ के इस सैलाब में केवल जानमाल की ही हानि नही होती, बल्कि उम्मीदों की कश्ती में ताश के पत्तों की तरह बह जाती है,बाढ़ के पानी को यदि मार्ग पर व्यवधान मिलता है तो वह मार्ग परिवर्तित करता है, जिससे बहुत बड़े क्षेत्र में पानी भर जाता है और इसको बाढ़ की भयावहता मान लिया जाता है, लेकिन फिर भी हम ये बात नही समझते हैं कि बाढ़ कभी हमारे रास्ते पर नहीं आती बल्कि हम बाढ़ के रास्ते पर बसे हैं। इसलिए कोसी नदी में आई बाढ़ के बाद अनुपम मिश्र ने कहा था कि "तैरने वाला समाज डूब रहा है"।
वास्तव में, एक समय पर प्रकृति के साथ तालमेल बैठा कर बहने (चलने) वाला समाज आज अपनी जीवनशैली व गतिविधियों में बदलाव के कारण प्राकृतिक घटनाओं में ही डूब रहा है। इसका केवल एक ही समाधान है कि इंसान प्रकृति के समक्ष कोई व्यवधान उत्पन्न न करे और प्रकृति को उसके वास्तविक रूप में स्वतंत्र रहने दे। इससे धरती पर संतुलन बना रहेगा और बाढ़ आपदा का रूप नही लेगी। ऐसे में लोगों के समक्ष अभिशाप बन चुकी बाढ़ खेती और भूजल के लिए वरदान साबित होगी।
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