भारत में बाढ़ को नियंत्रित करने एवं उसका प्रबंध करने की शुरुआत 1954 की प्रलयंकारी बाढ़ के बाद से हुई है। सन 1954 के नीतिगत वक्तव्य के उपरांत 1957 में उच्च स्तरीय कमेटी का गठन हुआ। बाढ़ नियंत्रण, बाढ़ राहत इत्यादि के लिए समय-समय पर अनेक समितियों का गठन किया गया, फिर सन 1980 में राष्ट्रीय बाढ़ आयोग का गठन किया गया। राष्ट्रीय जल नीति ने बाढ़ों के नियंत्रण और प्रबंध के लिए महत्वपूर्ण सुझाव दिए हैं। बरसात कुदरत की नियामत है। बाढ़ और सूखा इसके दो पहलू हैं और मानवीय त्रासदी इन दोनों पहलुओं का प्रतिफल है। पूरी दुनिया इस प्रतिफल से अछूती नहीं है। किसी न किसी कालखंड में हर देश ने प्रलयंकारी बाढ़ और अभूतपूर्व सूखे को झेला है।
अमेरिका की मिसिसिपी और मिसौरी नदी की सन 1993 की बाढ़ को आधुनिक अमेरिका के इतिहास की सबसे अधिक नुकसान पहुंचाने वाली बाढ़ माना जाता है क्योंकि इस बाढ़ ने बरसात की मात्रा, कैचमेंट के रन-आफ (प्रवाह), बाढ़ग्रस्त नदी के अधिकतम जलस्तर, बाढ़ की अवधि, बाढ़ग्रस्त इलाके के क्षेत्रफल और आर्थिक नुकसान के जो रिकार्ड स्थापित किए हैं, वे अभूतपूर्व हैं। यूरोप की राईन नदी की सन 1995 की अभूतपूर्व बाढ़ ने अकेले नीदरलैंड में 2.5 लाख लोगों को प्रभावित किया था। जर्मनी में हुआ नुकसान लगभग दस अरब अमेरिकी डालर के बराबर था।
विदेशों की बड़ी बाढ़ों में ब्राजील की अमेजान, सोवियत रूस की येनसी एवं लीना, चीन की यंगत्से-कियांग, कम्बोडिया की मीकांग और म्यांमार की इरावती नदी की बाढ़ें उल्लेखनीय हैं। इन बाढ़ों में एक सेकंड में लगभग 50,000 क्यूबिक मीटर पानी का प्रवाह रिकार्ड किया गया था। भारत में भी उदाहरणों की कमी नहीं है इसलिए चंद उदाहरणों के उल्लेख के बाद भारत की बाढ़ नीति की बात करना अधिक उपयोगी है। यह नीति और उससे जुड़े प्रावधान बाढ़ प्रभावित लोगों के योगक्षेम, देश की अर्थव्यवस्था तथा टैक्स चुकाने वाली जनता के योगदान से मिले धन के खर्च के औचित्य से जुड़ा है।
सबसे पहले देश की जल नीति में बाढ़ से निपटने की समझ का अवलोकन करना उचित होगा। जलनीति के पैरा 1.5 के अनुसार देश में लगभग 40 लाख हेक्टेयर इलाका बाढ़ संभावित इलाके की श्रेणी में आता है। और हर साल लगभग 9 लाख हेक्टेयर इलाके पर बाढ़ का असर होता है।
अनुमान है कि देश का एक तिहाई इलाका सूखा संभावित इलाके की श्रेणी में है। जलनीति, बाढ़ और सूखे के प्रबंध के लिए राष्ट्रीय स्तर से समन्वय और मार्गदर्शन का वायदा करती है। पैरा 17.1 से 17.6 में बाढ़ के प्रबंध के लिए मास्टर प्लान, बाढ़ संभावित इलाकों के जलाशयों में बाढ़ के पानी को एकत्रित करने की व्यवस्था, तटबंधों के साथ-साथ अनुपूरक कार्यों को करने, बाढ़ संभावित इलाके में बसाहट एवं आर्थिक गतिविधियों पर रोक लगाने और जलग्रहण से जुड़े उपचार कार्यों को करने का उल्लेख है।
जलनीति में सूखे के प्रबंध के लिए राष्ट्रीय स्तर से समन्वय और मार्गदर्शन का उल्लेख है। पैरा 19.1 एवं 19.2 में सूखे के प्रबंध के लिए कहा गया है कि सूखा प्रवण इलाकों में मिट्टी और नमी का संरक्षण, जल संरक्षण उपाय, वाष्पीकरण की हानि को कम करने, भूजल उपलब्धता का विकास, भूजल रीचार्ज, चारागाह विकास, वनीकरण और अन्य विकास जिसमें कम पानी का उपयोग होता है, को प्रोत्साहित किया जाए। योजनाओं की प्लानिंग में सूखा प्रवण इलाकों को वरीयता दी जाए और राहत कार्यों में सूखे से बचाव के लिए काम हाथ में लिए जाएं।
भारत सरकार के जल संसाधन मंत्रालय के प्रकाशन विजन फॉर इंटीग्रेटेड वाटर रिसोर्सेज डेवलपमेंट एंड मैनेजमेंट (फरवरी, 2003, पेज 20, 21) के अनुसार सन 1954 में शुरू किए राष्ट्रीय बाढ़ प्रबंध कार्यक्रम ने बाढ़ों के प्रभाव को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
सन 1954 के बाद से 16,000 किलोमीटर तटबंध और 32,000 किलोमीटर ड्रेनेज चैनल का निर्माण किया है। इसके अलावा 906 शहरों की बाढ़ से सुरक्षा की व्यवस्था की गई और 4,706 ग्रामों को बाढ़ के संभावित अधिकतम स्तर के ऊपर बसाया गया है। इन प्रयासों ने बाढ़ संभावित 40 मिलियन हेक्टेयर इलाके में 400 अरब रुपयों की लागत से 14 मिलियन हेक्टेयर इलाके को पर्याप्त मात्रा में सुरक्षा उपलब्ध कराई है। इन प्रयासों के अलावा अनुपूरक गतिविधियों के अंतर्गत बाढ़ की पूर्व सूचना एवं चेतावनी देने की व्यवस्था की मदद से बाढ़ जनित कष्ट कम किए हैं।
सेन्ट्रल वाटर कमीशन (सीडब्ल्यूसी) का बाढ़ सूचना तंत्र देश की अधिकांश अंतरराष्ट्रीय नदी घाटियों में कार्यरत है। सीडब्ल्यूसी के 157 पूर्व सूचना केन्द्र बांधों के संचालन की जानकारी प्रदान करते हैं। इनमें से सबसे अधिक सूचना केन्द्र 109 गंगा, ब्रह्मपुत्र एवं मेघना नदी घाटी में हैं। पश्चिम की ओर बहने वाली नदी घाटियों में 15, गोदावरी नदी घाटी में 13, कृष्णा नदी घाटी में 8, महानदी घाटी में 3 और पूर्वी नदी घाटियों में 9 सूचना केन्द्र मौजूद हैं। चंबल और महानदी घाटी में सूचना प्रदान करने के लिए वीसेट की आधुनिक व्यवस्था की गई है।
विजन फार इंटीग्रटेड वाटर रिसोर्सेज डेवलपमेंट एंड मैनेजमेंट (फरवरी, 2003, पेज 20) के अनुसार देश के 13 राज्यों के 74 जिले सूखा प्रवण इलाके हैं। सूखा प्रवण इलाकों का कुल क्षेत्रफल 51.1 मिलियन हेक्टेयर है। इस इलाके में जल संसाधन विभाग ने आठवीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक 57 बड़े और 320 मध्यम तथा अनेक लघु सिंचाई योजनाओं को पूरा किया है। नवमी पंचवर्षीय योजना के प्रारंभ में 93 बड़ी और 99 मध्यम सिंचाई योजनाएं निर्माणाधीन थीं। इन प्रयासों के कारण सूखे की विभीषिका कम हुई है और भूजल रीचार्ज तथा वर्षाजल संरक्षण कार्यों को बड़े पैमाने पर शुरू करने का प्रयास किए जा रहे हैं।
भारत में बाढ़ को नियंत्रित करने एवं उसका प्रबंध करने की शुरुआत 1954 की प्रलयंकारी बाढ़ के बाद से हुई है। सन 1954 के नीतिगत वक्तव्य के उपरांत 1957 में उच्च स्तरीय कमेटी का गठन हुआ। बाढ़ नियंत्रण, बाढ़ राहत इत्यादि के लिए समय-समय पर अनेक समितियों का गठन किया गया, फिर सन 1980 में राष्ट्रीय बाढ़ आयोग का गठन किया गया। राष्ट्रीय जल नीति ने बाढ़ों के नियंत्रण और प्रबंध के लिए महत्वपूर्ण सुझाव दिए हैं।
राष्ट्रीय कमीशन फॉर इंटीग्रेटेड वाटर रिसोर्स डेवलपमेंट प्लान (1999) ने अपनी रिपोर्ट में माना है कि बाढ़ प्रभावित इलाकों को बाढ़ से पूरी सुरक्षा उपलब्ध कराना संभव नहीं है, इसलिए देश को बेहतर बाढ़ सुरक्षा के स्थान पर बाढ़ प्रबंध की नीति पर काम करना चाहिए। तटबंधों से पर्याप्त बाढ़ सुरक्षा मिलती है पर तटबंधों के प्रदर्शन का आकलन कर बेहतर परिणाम प्राप्त करने के लिए उनकी डिजाइन, निर्माण और रखरखाव में उपयुक्त सुधार करना चाहिए। बाढ़ों की पूर्व सूचना और चेतावनी देने के लिए सूचना केन्द्रों के नेटवर्क को पूरे बाढ़ संभावित इलाके में स्थापित करना चाहिए।
पाठक जानना चाहेंगे कि बाढ़ नियंत्रण एवं बाढ़ सुरक्षा के लिए सरकार क्या करती है। नदी तट के आसपास बसे इलाके में जहां बाढ़ का पानी अक्सर तबाही फैलाता है, उन इलाकों में जन धन की हानि को रोकने और बाढ़ के पानी को अतिरिक्त जगह प्रदान करने के लिए नदी तट के समानांतर, पर्याप्त ऊंचाई की मिट्टी की दीवार (तटबंध) बनाई जाती है। नोडल विभाग का मानना है कि इस दीवार के बनने से नदी का पाट चौड़ा हो जाता है और उसके किनारों की ऊंचाई बढ़ जाती है, इसलिए अधिकतम बाढ़ की स्थिति में भी पानी दीवार को लांघकर आसपास के इलाकों में नहीं फैल पाता। इस प्रकार दीवार या तटबंध बनाकर बाढ़ संभावित इलाके को बाढ़ से सुरक्षा प्रदान कराई जाती है।
इंडियन वाटर रिसोर्सेज सोसाइटी (आईडब्ल्यूआरएस) के बाढ़ और सूखे पर प्रकाशित थीम पेपर (2001, पेज 22 से 30) के अनुसार बाढ़ प्रबंध के समस्त उपायों को संरचनात्मक उपाय और गैर-संरचनात्मक उपायों में वगीकृत किया जा सकता है। संरचनात्मक उपायों के अंतर्गत तटबंध (मिट्टी की दीवार) और या बाढ़ से सुरक्षा के लिए पक्की दीवार बनाना, नदी के रास्ते में बांध और जलाशय बनाना, गड्ढे वाली जमीन में बाढ़ के पानी से संरक्षण का इंतजाम करना, नदी की बाढ़ क्षमता में सुधार के लिए आवश्यक इंतजाम करना, नदी पथ में सुधार करना और बाढ़ के पानी को अन्य रास्ते से सुरक्षित निकालने जैसे (निर्माण) कार्य सम्मिलित हैं।
गैर-संरचनात्मक उपायों में बाढ़ क्षेत्र की भूमि को न्यूनतम हानि पहुंचाने वाला उपयोग तय करना (जोनिंग), बाढ़ के प्रभाव से सुरक्षा संबंधी उपाय करना, बाढ़ की पूर्व सूचना देना और समय रहते चेतावनी देना, आपदा से बचने की तैयारी, सहायता और पुनर्वास, बाढ़ से बचाव के कदम/प्रबंध तथा सभी संभावित मदद एवं बाढ़ से हुए नुकसान का बीमा सम्मिलित हैं।
बाढ़ के दौरान गैर-संरचनात्मक उपायों की भूमिका सबसे अधिक महत्वपूर्ण है और इस भूमिका का जिला प्रशासन, राज्य एवं केन्द्र सरकार निर्वाह करते हैं। भारत में बाढ़ संभावित इलाकों में लाखों लोग निवास करते हैं और उन इलाकों में अनेक गतिविधियों का संचालन किया जाता है, इसलिए गैर-संरचनात्मक उपायों की भूमिका दिन प्रतिदिन अधिक महत्वपूर्ण होती जा रही है।
ब्रह्मपुत्र, मेघना, गंगा, यमुना, सोन, गंडक, कोसी, राप्ती, महानंदा, झेलम, नर्मदा, ताप्ती, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी इत्यादि नदियों में अक्सर बाढ़ आती है। बाढ़ के कारण उनके किनारे के बाढ़ प्रभावित इलाकों और डेल्टा क्षेत्रों में भारी तबाही मचती है। इसी तरह मोकामा के पास का तस्तरी के आकार का प्राकृतिक इलाका अक्सर बाढ़ की चपेट में रहता है। अधिकांश बाढ़ें जुलाई से सितंबर के बीच दक्षिण पश्चिम मानसून के असर से आती हैं।
हर साल बाढ़ में औसतन 1600 लोग और लगभग 94000 जानवर मरते हैं। यह सही है कि नुकसान के आंकड़े यद्यपि हर साल बदलते रहते हैं पर त्रासदी की कहानी देश के किसी न किसी भाग में हर साल दुहराई जाती है। पिछला अनुभव बताता है कि दक्षिण भारत की तुलना में उत्तरी भारत में अपेक्षाकृत अधिक बाढ़ें आती हैं और जन-धन की हानि भी अधिक होती है।
कोसी नदी में नियमित अंतराल पर बाढ़ें आती हैं। बाढ़ के दौरान वह अक्सर तटबंध तोड़ती है, अपना मार्ग बदलती है और बड़ी मात्रा में सिल्ट लाती है। कुछ लोग उसे बिहार का शोक भी कहते हैं। कोसी की सबसे ताजी तबाही सन 2008 में 18 अगस्त को नेपाल के सुनसारी जिले में कोसी के पूर्वी तटबंध के टूटने से उत्तरी बिहार में हुई। कुसहा स्थित इस तटबंध के टूटने से आई प्रलयंकारी बाढ़ ने बिहार के पांच जिलों (मधेपुरा, अररिया, सहरसा, पूर्णिया और सुपौल) के 34 विकास खंडों में बसे 979 ग्रामों के 30 लाख लोगों को बुरी तरह प्रभावित किया है,10 लाख पशुओं की मौत हुई है।
तीन लाख दस हजार से अधिक मकानों को नुकसान हुआ है और लगभग 1,25,000 हेक्टेयर में खड़ी फसल तबाह हुई है। कोसी के टूटे तटबंध से निकले बाढ़ के पानी का फैलाव लगभग 150 किलोमीटर लंबे और 30 किलोमीटर चौड़े इलाके में था। इन इलाकों में पानी की गहराई 6 से 10 फुट के बीच थी और उसने लगभग 15 दिन तक अपना असर दिखाया था। अनुमान है कि इस बाढ़ के कारण बिहार का विकास पांच साल पीछे चला गया है। बाढ़ प्रभावित इलाके के पुनर्निर्माण पर कम से कम 5,000 करोड़ रुपए खर्च करने होंगे।
केंट स्टेट विश्वविद्यालय अमेरिका के नील वेल्स ने कोसी नदी का अध्ययन किया हैं उनके अनुसार, 1730 के आसपास कोसी नदी पूर्णिया के पूर्व से बहती थी। बाढ़ के साथ बहकर आने वाले रेत, बजरी और मिट्टी के दबाव के कारण अठारहवीं सदी के मध्यकाल में उसने पश्चिम की ओर मुड़ना प्रारंभ किया। सन 1950 में कुसहा तटबंध के बनने के बाद नदी का मार्ग कैद हो गया।
बाढ़ प्रभावित इलाकों में लोगों को सुरक्षित निकालने और पीड़ितों तक राहत सामग्री पहुंचाने के लिए अधिक नावों की व्यवस्था करने और मछुआरों को प्रशिक्षण देने की है। बाढ़ों के संबंध में यह बात याद रखने योग्य है कि बाढ़ नियंत्रण का एक तरीका जो किसी नदी के किसी खास स्थान पर बहुत सफल सिद्ध हुआ है, जरूरी नहीं है कि वही तरीका उसी नदी के किसी अन्य स्थान पर या किसी अन्य नदी के किसी स्थान पर या पूरी नदी पर उतना ही सफल हो।सन 1976, 1999 और 2008 के सेटेलाइट चित्रों को देखने से पता चलता है कि कुसहा तटबंध के पास के इलाके में कोसी नदी का जल मार्ग पूर्व की ओर खिसक रहा है। सन 1963 के बाद से कोसी पर विभिन्न स्थानों पर बने तटबंधों के टूटने की घटनाएं सन 1963, 1968, 1971, 1980, 1984, 1987 और 1991 में हुई हैं। अर्थात औसतन, हर चार साल में एक बार तटबंध टूटे हैं। इतने कम अंतराल पर तटबंधों के टूटने से लगता है कि बाढ़ के पानी और गाद, मिट्टी, कंकड़, पत्थर इत्यादि के दबाव को झेलने में तटबंध पूरी तरह सक्षम नहीं हैं। दूसरे शब्दों में, बाढ़ के नियंत्रण में उनकी उपयोगिता संदिग्ध है।
सन् 1962 में बिहार में 25 लाख हेक्टेयर क्षेत्र ही बाढ़ संभावित क्षेत्र की श्रेणी में आता था। उस दौरान बिहार में तटबंधों की कुल लंबाई 160 किलोमीटर थी। सन् 2002 में तटबंधों की कुल लंबाई 3,340 किलोमीटर हो गई है और बाढ़ संभावित क्षेत्र बढ़कर 69 लाख हेक्टेयर हो गया है। अर्थात मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की।
स्वतंत्र दल जिसमें डीके मिश्रा, सुधिरेन्द्र शर्मा, पांडुरंग हेगड़े, गोपाल कृष्णा, राकेश जायसवाल और लक्ष्मण सिंह सम्मिलित थे, ने हाल ही में बिहार की बाढ़ का अध्ययन किया है। इस दल की राय में बिहार की बाढ़ का हल तटबंध नहीं हैं। इस दल के सदस्यों के अनुसार तटबंधों ने हर साल बाढ़ के साथ आने वाली लगभग 925 लाख क्यूबिक मीटर मिट्टी, गाद इत्यादि को खेतों तक पहुंचने से रोक दिया है।
गाद जमा होने के कारण नदी तल की ऊंचाई लगभग 4 मीटर तक ऊपर उठ गई है। नदी तल के ऊपर उठने के कारण लगभग 8,360 वर्ग किलोमीटर इलाके में वाटरलागिंग की समस्या पैदा हो गई। तटबंधों के बनने के कारण बिहार में बाढ़ संभावित इलाका 25 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 69 लाख हेक्टेयर हो गया है। इस दल के सदस्य जाने माने विद्वान हैं और वे विकास, पर्यावरण, इकोलॉजी, नदी विज्ञान और वास्तुशास्त्र के ज्ञाता हैं। इन विद्वानों के अनुसार, कोसी नदी भविष्य में भी तटबंधों को तोड़कर अपना रास्ता बदलती रहेगी।
अनुपम मिश्र के अनुसार बाढ़ प्रभावित इलाकों में लोगों को सुरक्षित निकालने और पीड़ितों तक राहत सामग्री पहुंचाने के लिए अधिक नावों की व्यवस्था करने और मछुआरों को प्रशिक्षण देने की है।
बाढ़ों के संबंध में यह बात याद रखने योग्य है कि बाढ़ नियंत्रण का एक तरीका जो किसी नदी के किसी खास स्थान पर बहुत सफल सिद्ध हुआ है, जरूरी नहीं है कि वही तरीका उसी नदी के किसी अन्य स्थान पर या किसी अन्य नदी के किसी स्थान पर या पूरी नदी पर उतना ही सफल हो। बाढ़ नियंत्रण और बाढ़ के प्रबंध के सरकारी सोच की दिशा को चार वर्गों में बांटा जा सकता है-
1. बाढ़ से सुरक्षा जिसके अंतर्गत तटबंधों, नदी के रास्ते में बाढ़ के पानी को सहेजने के लिए जलाशयों का निर्माण, नदी की बाढ़ क्षमता का विकास इत्यादि निर्माण कार्य किए जाते हैं।
2. नदी के बाढ़ क्षेत्र में संपति एवं विकास कार्यों की सुरक्षा के लिए प्रयास किए जाते हैं।
3. नुकसान को कम करने के लिए कार्यवाही की जाती है और
4. बाढ़ की विभीषिका के साथ तालमेल कर जिंदगी बसर की जाती है।
भारत सरकार ने तटबंधों को बाढ़ सुरक्षा के कारगर हथियार के रूप में मान्यता प्रदान की इसीलिए हिमालयी नदियों के संवेदनशील बिंदुओं पर मुख्य रूप से तटबंधों का निर्माण किया गया है। तटबंधों की खामियां निम्नानुसार है-
1. वे बाढ़ के साथ आने वाली सिल्ट को खेतों में जमा होने से रोकते हैं खेतों में सिल्ट जमा नहीं होने के कारण खेतों को उपजाऊ मिट्टी और पोषक तत्व नहीं मिल पाते, उपयोग में लाए तत्वों की क्षतिपूर्ति नहीं हो पाती, उनकी प्राकृतिक उत्पादन क्षमता घटती है और खेती की लागत बढ़ती है।
2. तटबंधों की लक्ष्मण रेखा को लांघकर फैले बाढ़ के पानी के कारण अस्थायी वाटरलागिंग की परिस्थितियां पैदा होती हैं, फसलें खराब/नष्ट होती हैं, जनजीवन प्रभावित होता है, प्रभावित लोगों की माली हालत ठीक होने और व्यक्तिगत नुकसान की भरपाई में बहुत समय लगता है। पानी से संबंधित बीमारियां फैलती हैं।
3. तटबंधों के टूटने के कारण बाढ़ से होने वाला नुकसान कई गुना अधिक बढ़ जाता है। खेतों में रेत, बजरी और पत्थर भरने से खेतों की उत्पादकता घट जाती है। नदी के पाट और तटबंध के बीच के इलाके में रेत, बजरी और पत्थर इत्यादि जमा होने के कारण नदी के पाट की ऊंचाई बढ़ जाती है।
4. नदी के पाट की ऊंचाई बढ़ने से नदी घाटी का प्राकृतिक भूमि कटाव चक्र (बेस लाइन आफ इरोजन) असंतुलित हो जाता है। प्राकृतिक भूमि कटाव चक्र असंतुलित होने से नदी की मार्फालाजी बदलती है और नए-नए इलाकों में बाढ़ का प्रकोप प्रारंभ हो जाता है।
5. तटबंधों के टूटने से मकान, स्कूल, सड़कें और विकास कार्य इत्यादि को क्षति पहुंचती है। उनको फिर से बनाने पर धन खर्च करने के कारण सामान्य विकास के कामों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
तटबंधों के समय-समय पर टूटने और ऊपर उल्लिखित खामियों के अनुक्रम में तटबंधों की उपयोगिता और औचित्य पर बहस करना जनहित में है। नदी विज्ञानियों और पर्यावरणविदों की नजर में बाढ़ का पानी केवल बहता पानी नहीं है। उसके साथ बड़ी मात्रा में महीन मिट्टी, कंकड़, पत्थर, मिट्टी, बोल्डर और अनेक प्रकार की वनस्पतियों के अवशेष भी बहते हैं।
नदी विज्ञान को समझने वाले जानते हैं कि उद्गम से लेकर समुद्र में मिलने तक का नदी का सफर, कुम्हार के चाक पर रखी गीली मिट्टी की नवनिर्माण यात्रा की तरह है। नदी के इस सफर में प्रकृति रूपी कुम्हार उसके मार्ग, उसकी देह और उसके दायित्वों को दिशा प्रदान करता है। प्रकृति ही बाढ़ के साथ आने वाले भारी पदार्थों (कंकड़, पत्थर और बोल्डर इत्यादि) को उसके पाट के अंदर और महीन उपजाऊ मिट्टी को उसके प्रभाव क्षेत्र में जमा करती है।
हर साल महीन मिट्टी की परत पर दूसरी परत चढ़ाती है, धरती को शस्य श्यामला बनाती है। नदी मार्ग में जमा भारी सामग्री को विखंडित करती है, उनका आकार कम करती है और फिर उन्हें महीन कणों में बदलकर डेल्टा के माध्यम से समुद्र को सौंप देती है। प्रकृति ने नदी को यही काम सौंपा है इसलिए जब तक नदी अपना आंगन (घाटी) नहीं संवारती, अपने आंगन को अंतिम स्वरूप नहीं देती, तब तक उसका काम अधूरा रहता है। यही नदी का काम है और यही काम उसे तमाम जिंदगी करना होता है। नदी घाटी की यह कहानी, उसके जन्म से लेकर विसर्जन की कहानी है।
नदी को बांधकर या उसके रास्ते के समानांतर तटबंध बनाकर या जलाशय बनाकर हम नदी के प्राकृतिक बहाव और उसके दायित्वों में व्यवधान पैदा करते हैं तो कई स्थानों पर उसकी प्राकृतिक भूमिका को ही समाप्त कर देते हैं। इसलिए जब ऐसा होता है तो नदी असामान्य व्यवहार करने लगती है। उसका असामान्य व्यवहार नए-नए इलाकों में बाढ़, पूर्व मार्ग में असामान्य परिवर्तन, अपने कछार के खेतों में उपजाऊ मिट्टी और गाद की जगह रेत, बजरी और डेल्टा की भूमिका को किसी हद तक बदल देता है।
ऐसा लगता है कि लोगों को नदी के चरित्र और उसकी कल्याणकारी एवं जन हितैषी भूमिका से परिचित होने की और अधिक जरूरत है। हमें बाढ़ के पानी और लोहे के बंद पाइप में बहने वाले पानी में अंतर को बेहतर तरीके से समझना होगा। इसी तरह कछार में जमा होती सिल्ट और खेतों के बीच के जीवंत रिश्ते को अहमियत देनी होगी। इसके अलावा, वाटरलागिंग और हानि रहित भूजल रीचार्ज (नमी की उपलब्धता सहित) के अंतर और रिश्ते को और बारीकी से समझना होगा।
नदी के प्राकृतिक बेस लाइन आफ इरोजन के असंतुलन के कारण होने वाले परिवर्तनों को समझने की आवश्यकता है। नदी के असामान्य व्यवहार के कारणों को समझने के लिए नदी विज्ञान के नए क्षितिज खोजने होंगे और उनसे तालमेल बैठाकर ही धरातल पर निर्माण से जुड़े काम करने होंगे।
कहा जाता है कि कोसी नदी की बाढ़ में हर साल बहकर आने वाली सिल्ट और कंकड़ पत्थर का आयतन 94,000 एकड़ फीट है। अर्थात बाढ़ प्रभावित इलाकों में हर साल 94,000 एकड़ जमीन के ऊपर एक फुट मोटी रेत, मिट्टी और बजरी की परत बिछ जाती है।
दूसरे शब्दों में, यदि जलमार्ग में तटबंध और बांध नहीं बनें तो पूरे कछार के खेतों को महीन उपजाऊ मिट्टी मिल जाएगी और बड़े कंकड़ पत्थर नदी के पाट की लक्ष्मण रेखा के अंदर रहेंगे और साल-दर-साल छोटे होते हुए समुद्र में समा जाएंगे। इससे मिलती जुलती कहानी हर नदी घाटी की है इसलिए समस्या भले ही जुदा-जुदा हो पर फिलासफी एक ही है।
जलवायु परिवर्तन के कारण बरसात की मात्रा, उसकी तीव्रता और निरंतरता में आ रहे बदलावों को लोग स्वीकारने लगे हैं। उनके प्रभाव और खतरों से परिचित होने लगे हैं। ऐसे हालात में हिमालय की हजारों फुट ऊंची पहाड़ियों से सरपट उतरती वेगवती नदियों के मार्ग में रुकावट (बांध और तटबंध) खड़ी कर कहीं हम टाइम बम पर बैठकर तबाही का इंतजार तो नहीं कर रहे हैं? सन 2008 की कोसी की बाढ़ ने तो एक ही बांध से पानी छोड़ने और एक ही तटबंध के टूटने का कहर दिखाया है।
ईश्वर न करे, यदि कहीं नदी जोड़ योजना के अधीन प्रस्तावित हिमालयीन बांधों और जल मार्गों पर जलवायु परिवर्तन के कारण हुई असामान्य बरसात ने कहर ढाया तो उत्तर भारत का क्या होगा? नदी की प्राकृतिक भूमिका में आमूलचूल बदलाव लाकर कहीं हम सीरियल बम ब्लास्ट स्थापित करने की जुगत तो नहीं कर रहे हैं?
सन 2004 की जुलाई के पहले पखवाड़े में उत्तर बिहार में भयानक बाढ़ आई थी। बिहार की बाढ़ों के बारे में अक्सर कहा जाता है कि नेपाल ने पानी छोड़ इसलिए बिहार बह गया। अनुपम मिश्र के अनुसार नेपाल एक छोटा-सा पहाड़ी देश है। उस देश के पास पानी को सहेजने के लिए क्षमता और साधन नहीं हैं। अगर वह पानी नहीं छोड़ेगा तो खुद तबाह हो जाएगा इसलिए पानी छोड़ने के अलावा उसके पास अन्य कोई विकल्प नहीं हैं।
नेपाल के पास यदि पानी सहेजने के अनेक साधन विकसित कर दिए जाएं तो भविष्य में हमें एक से अधिक स्थानों पर और बड़ी बाढ़ों से बचने की तैयारी करनी पड़ेगी। भूविज्ञान बताता है कि नेपाल क्षेत्र की चट्टानें कमजोर और कच्ची हैं इसलिए पूरी सावधानी और ईमानदारी से बनाए जलाशय, जलमार्ग और बांध, भविष्य में, कभी भी, किसी न किसी प्राकृतिक हलचल से टूट सकते हैं। यह दुर्घटना भले ही बीसों साल तक नहीं हो पर जिस दिन होगी, निश्चय ही वह कयामत का दिन होगा।
अनुपम मिश्र कहते हैं कि उत्तर बिहार में हिमालय से उतरने वाली नदियों की संख्या अनंत है। तेज गति से बहने वाली इन नदियों के साथ बड़ी मात्रा में गाद आती है। कोसी के बारे में कहा जाता है कि उसने पिछले कुछ सौ सालों में 148 किलोमीटर के क्षेत्र में अपनी धारा बदली है। उत्तर बिहार के दो जिलों की इंच भर जमीन भी कोसी ने नहीं छोड़ी है जहां से वह नहीं बही हो। कहा जाता है कि पूरा का पूरा दरभंगा खेती योग्य हो सका है तो इन्हीं नदियों द्वारा हिमालय से बहाकर लाई मिट्टी के कारण। इस क्षेत्र की दलदली जमीन को खेती योग्य बनाने का पूरा श्रेय हिमालय से आने वाली गाद और नदियों के धारा बदलने के स्वभाव को जाता है। इसलिए कहा जा सकता है कि समाज और सरकार को नदियों के स्वभाव के अनुसार जीवनशैली अपनाने और तकनीकों को लागू करने आवश्यकता है।
नए नियोजकों के मन में यह आया कि इतनी जलराशि से भरे बड़े-बड़े तालाब बेकार की जगह घेरते हैं। इनका पानी सुखाकर जमीन लोगों को खेती के लिए उपलब्ध करा दें। इस तरह हमने दो-चार खेत जरूर बढ़ा लिए कुछ लोगों को प्रसन्न कर लिया, लेकिन दूसरी तरफ शायद सौ-दो-सौ खेत बाढ़ को भेंट चढ़ा दिए। ये बड़े-बड़े तालाब और नदियों का निर्बाध गति से बहता पानी, बाढ़ को काबू में रखता था।अनुपम बताते हैं कि बिहार के समाज ने इन नदियों के पानी को बड़े-बड़े तालाबों में डालकर बाढ़ का वेग कम किया था। एक और जुगत अपनाई गई थी। इस जुगत के कुछ निशान चंपारण में मिलते हैं। ऐसा कहते हैं कि पूरे हिमालय की तराई में चार कोस (लगभग 12 और 13 किलोमीटर) की चौड़ाई के घने जंगल की पट्टी थी। जंगल की यह पट्टी, पूर्व से पश्चिम, पूरे बिहार में थी और इसका पश्चिमी शिरा पूर्वी उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र तक फैला था। केवल इसी जंगल को बचाने की जुगत मात्र से बाढ़ के वेग को कम करने और सिल्ट को खेतों तक फैलने का अवसर मिल जाता था। इसलिए आज जितनी बरसात होने के बावजूद पुराने समय की बाढ़ की मारक क्षमता निश्चय ही कम होती होगी और उसका कहर आज जैसा नहीं होगा।
उत्तर बिहार में बड़े-बड़े तालाब बनाने की परंपरा थी। अनुपम मिश्र के अनुसार उन्नीसवीं शताब्दी तक इस इलाके में अनेक बड़े-बड़े तालाब थे। इन तालाबों को हृद और चौरा नाम से पुकारा जाता था। दरभंगा, परिहारपुर, भरवाहा और आलापुर के तालाब दो से तीन मील लंबे-चौड़े थे। इस तरह के तालाबों में बरसात के पानी को सहेजने का चलन था।
अनुपम मिश्र कहते हैं कि नए नियोजकों के मन में यह आया कि इतनी जलराशि से भरे बड़े-बड़े तालाब बेकार की जगह घेरते हैं। इनका पानी सुखाकर जमीन लोगों को खेती के लिए उपलब्ध करा दें। इस तरह हमने दो-चार खेत जरूर बढ़ा लिए कुछ लोगों को प्रसन्न कर लिया, लेकिन दूसरी तरफ शायद सौ-दो-सौ खेत बाढ़ को भेंट चढ़ा दिए। ये बड़े-बड़े तालाब और नदियों का निर्बाध गति से बहता पानी, बाढ़ को काबू में रखता था। अनुपम कहते हैं कि उत्तर बिहार में रेन वाटर हारवेस्टिंग की जगह फ्लड वाटर हारवेस्टिंग करना चाहिए, और नदी के पानी से भरने वाले बहुत सारे तालाब बनाना चाहिए।
उत्तर बिहार में आने वाली बाढ़ पर दो अलग-अलग अभिमतों को जानने के बाद आवश्यक है कि सबसे पहले वस्तुस्थिति, फिर समीक्षा और अंत में रणनीति की फिलासफी पर चर्चा की जाए। पाठक सहमत होंगे कि हिमालय क्षेत्र में होने वाली बरसात ही बाढ़ के लिए पानी जुटाती है।
नेपाल के पहाड़ी इलाकों का तीखा ढाल उस पानी को गति प्रदान करता है और गाद उसे संहारक ताकत प्रदान करती है। जब बाढ़ का पानी अपनी पूरी ताकत से हजारों जल प्रणालियों के मार्फत नीचे उतरता है तो उत्तर बिहार के मैदानी इलाकों की धरती ही पानी और गाद के वेग का समाना करती है। चूंकि धरती के गुणधर्म ही नदी के मार्ग और उसकी घाटी को आकृति प्रदान करते हैं इसलिए हजारों लाखों सालों से बाढ़ के हाथों गढ़ी नदियां उस पानी को समेटकर गंगा में पहुंचा देती है।
उत्तर बिहार की बाढ़ को प्रभावित करने वाले मुख्य घटक हैं-
1. हिमालय क्षेत्र की भारी बरसात,
2. नेपाल के पहाड़ी इलाकों का तीखा ढाल,
3. बाढ़ के पानी के साथ आने वाली गाद की भारी मात्रा,
4. मैदानी इलाके की मिट्टी की प्रवृति तथा
5. बाढ़ के पानी का सुरक्षित निकास।
पाठक सहमत होंगे कि बरसात के पानी के प्रबंध को सही तरीके से करने के बाद ही बाढ़ का इलाज किया जा सकता है। उत्तर बिहार की बाढ़ का कारण पहले चार घटक हैं। पहले चार घटकों का नियंत्रण पूरी तरह प्रकृति के हाथ में है। अंतिम घटक - बाढ़ के पानी के सुरक्षित निकास को ही मानवीय गतिविधियों की मदद से किसी हद तक प्रभावित किया जा सकता है।
उपरोक्त प्रमुख बिंदुओं के परिप्रेक्ष्य में, हिमालयीन नदियों की बाढ़ के नियंत्रण पर विचार करने के लिए बनाए जाने वाले तटबंधों की उपादेयता को समझने का प्रयास करना उपयोगी होगा। विजन फॉर इंटीग्रेटेड वाटर रिसोर्सेज डेवलपमेंट एंड मैनेजमेंट (फरवरी, 2003) भारत सरकार के द्वारा कराए कामों में तटबंधों के निर्माण को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है। तटबंधों के बाद जलाशयों का निर्माण दूसरे पायदान पर है। भारत सरकार के जल संसाधन विभाग द्वारा पूरे देश में उपरोक्त सोच के आधार पर कार्य लिए जाते हैं।
गौरतलब है कि बाढ़ पैदा करने में बरसात के गुणधर्म (मात्रा, तीव्रता और समयावधि), क्षेत्र की टोपोग्राफी, चट्टानों के गुणधर्म, पानी की गति और उसकी भूमि कटाव क्षमता, बाढ़ प्रभावित इलाके की मिट्टी के गुणधर्म, बाढ़ की मिट्टी काटने की ताकत, बहकर आने वाली मिट्टी के परिवहन की व्यवस्था, नदी पथ का ढाल और उसकी पानी को बहाने की ताकत जैसे अनेक घटकों की महत्वपूर्ण भूमिका है। घटकों की यही भूमिका बाढ़ को प्रभावित करती है। यही घटक बाढ़ नियंत्रण के प्रबंध की समग्र सोच के अभिन्न अंग हैं।
लेखक का मानना है कि हमें बाढ़ को चुनौती का दर्जा देना चाहिए क्योंकि चुनौती ही नए सोच को अवसर देती है, रास्ते सुझाती है और लक्ष्य तक पहुंचाती है, इसलिए बाढ़ को भौतिक और सरल अंकगणितीय तरीके से समझने के स्थान पर उसकी पूरी समग्रता में समझना होगा।
सब जानते हैं कि हर बाढ़ की अपनी पृथक पहचान होती है और वही पृथक पहचान, समझ आधारित नियंत्रण और प्रबंधन के तौर तरीके तय करती है। दूसरे शब्दों में, बाढ़ की उत्पति से लेकर उसके नियंत्रण का पूरा परिदृश्य अत्यंत जटिल एवं डायनमिक है और उसका निदान बहुआयामी है। प्राकृतिक परिवेश, जलवायु परिवर्तन और स्थानीय इकोलॉजी से जुड़े सभी बिंदुओं की समीक्षा और चिंतन के आधार पर लगातार परिमार्जित होने वाली स्थानीय तकनीकें विकसित करनी होंगी।
अभी तक का अनुभव, प्रयासों को दिशा देगा और कई पुरानी मान्यताओं, कमजोर कड़ियों और तकनीकों को परिमार्जित कर नए आयाम देगा। यह सतत चलने वाली प्रक्रिया है। इसी परिप्रेक्ष्य में लेखक का मानना है कि बाढ़ों पर समग्र चिंतन की आवश्यकता है। इस समग्र चिंतन और देशव्यापी बहस में समाज की भागीदारी को सुनिश्चित करने से बाढ़ प्रबंध और उसके नियंत्रण के कामों में कसावट आएगी और बेहतर परिणाम सुनिश्चित होंगे। इन सब पर विचार कर ही सकारात्मक रणनीति तय की जा सकती है और आवश्यक गतिविधियों का चयन किया जा सकता है।
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