उत्तरकाशी जिले में 84 प्रतिशत क्षेत्र सुरक्षित वन का है और इस जिले में तीन वन प्रभाग है। उत्तर प्रदेश वन निगम से प्राप्त नवीनतम आंकड़ों के अनुसार टौंस वन प्रभाग से सन् 1985-86 में व्यापार के लिए 37,844,739 घन मीटर लकड़ी निकाली गई लेकिन गांव वालों की लघु मांग को दी गई 1004.44184 घन मीटर लकड़ी ही। टिहरी वन प्रभाग में जहां कार्य योजना के अनुसार गांव के लोगों को 10,088 घन मीटर लकड़ी निःशुल्क दी जानी थी, ।। वर्षों में प्रति वर्ष औसत्तन केवल 2045 घन मीटर ही दी गई।
वन विनाश के सबसे अधिक शिकार पर्वतीय लोग थे, क्योंकि यह उनके लिए भू-स्खलन और दूसरी विपदाएं लेकर आता था। उत्तराखण्ड क्षेत्र में तो उन्होंने सत्तर के दशक में ऐतिहासिक चिपको आन्दोलन चलाया। महिलाओं ने, जो इस आन्दोलन में अग्रणी थीं, कहा, 'जंगल हमारा मायका है।' उन्होंने वनों के तथा कथित वैज्ञानिक प्रबन्धकों के, जो वास्तव में वनों के व्यापारी थे, इस परम्परागत नारे को चुनौती दी 'क्या है जंगल के उपकार ? लीसा, लकड़ी और व्यापार।' महिलाओं का वैज्ञानिक उत्तर था-'क्या हैं जंगल के उपकार ? मिट्टी, पानी और बयार। मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार।
लोगों के नौ वर्षों के संघर्ष की परिणति 1000 मीटर से अधिक ऊंचाई के क्षेत्र में हरे पेड़ों की व्यापारिक कटाई पर प्रतिबन्ध में हुई। पर्वतीय क्षेत्र में वनों के प्रबन्ध के लिए भारत सरकार ने अपने 3 जून 1983 के पत्र द्वारा कुछ मार्ग-दर्शक मुद्दे दिए। इनमें प्राथमिकता के आधार पर इमारती व जलाऊ लकड़ी की स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति करना, गांवों के आस-पास लोगों की मदद से ईंधन व चारा प्रदान करने वाली चौड़ी पत्तियों के पेड़ों वाली प्रजातियों का रोपण आदि था। इस समझदारी की राय पर यदि अमल किया जाता तो वन और जन के बीच की खाइयां पट जातीं। लेकिन सरकार ने तो अपने प्रतिष्ठान उत्तर प्रदेश वन निगम द्वारा व्यापारिक दोहन को सर्वोच्च प्राथमिकता दी। हालांकि अब तक बीमार, मृत और मरने वाले पेड़ों की संख्या, जिनका निगम व्यापार करता है, घट जानी चाहिए थी और लोगों को निःशुल्क एवं रियायती मूल्य पर मिलने वाली लकड़ी का परिणाम बढ़ जाना चाहिए था पर हुआ इसके बिल्कुल विपरीत ।
उत्तरकाशी जिले में 84 प्रतिशत क्षेत्र सुरक्षित वन का है और इस जिले में तीन वन प्रभाग हैं। उत्तर प्रदेश वन-निगम से प्राप्त नवीनतम आंकड़ों के अनुसार टौंस वन प्रभाग से सन् 1985-86 में व्यापार के लिए 37,844.739 घन मीटर लकड़ी निकाली गई लेकिन गांव वालों की लघु मांग को दी गई 1004.44184 घन मीटर लकड़ी ही। टिहरी वन प्रभाग में जहां कार्य योजना के अनुसार गांव के लोगों को 10,088 घन मीटर लकड़ी निःशुल्क दी जानी थी, 11 वर्षों में प्रति वर्ष औसतन केवल 2045 घन मीटर ही दी गई। सन् 1995-96 में जिस वर्ष व्यापार के लिए 18,976.2559 घन मीटर लकड़ी का निर्यात किया गया, गांव वालों को केवल 1703.03 घन मीटर लकड़ी दी गई।
दूरस्थ पर्वतीय गांवों में ठंडी जलवायु के कारण और भूकम्प से बचाव के लिए लोग यूरोप की तरह लकड़ी के मकानों में रहते हैं। राज्य के वनों से अधिक से अधिक धन कमाने के कारण लोगों को निःशुल्क और रियायती मूल्य पर लकड़ी देने के लिए हतोत्साहित किया जाता रहा। यहां तक कि निःशुल्क लकड़ी भी सन् 1951 की जनगणना के परिवारों के आधार पर दी जाती है। अब तो परिवारों की संख्या कई गुना बढ़ गई है। पड़ोसी हिमाचल प्रदेश में इसके उदार नियम है। इस दिशा में डोडारा क्वार (हिमाचल प्रदेश) के लोग, उनसे ही सटे हुए उत्तर प्रदेश के सेवा और दोणी गांवों के मुकाबले बहुत अच्छी स्थिति में हैं। जम्मू-कश्मीर में दूरस्थ क्षेत्रों में खोले गए सरकारी गोदामों से जनता को रियायती मूल्य पर लकड़ी दी जाती है। उत्तर प्रदेश वन निगम पर्वतीय लोगों को अभाव में रखकर नीचे मैदानों में लकड़ी का निर्यात करता है।
वैज्ञानिक मध्य हिमालय में और खासतौर से उत्तराखण्ड में सम्भावित भूकम्प की चेतावनी बार-बार दे रहे हैं। 20 अक्टूबर 1991 को उत्तरकाशी में रिक्टर पैमाने पर 6.5 बिन्दु के भूकम्प का भयंकर अनुभव पहले ही लोगों को हो चुका है। सीमेंट, मिट्टी और पत्थर के मकान तो भूकम्प से ढह गए और इनमें कई जानें गईं। लेकिन लकड़ी के मकान भूकम्प के झटकों को सह सकें। भूकम्प विरोधी मकानों को बनाने की यह तकनीकी सामान्य लोगों के पीढ़ियों के अनुभवों के बाद विकसित हुई है। यह बुद्धिमानी का नमूना है। तंत्रज्ञ सीमेंट के मकान बनाने की सलाह देते हैं, जो पर्वतीय परिस्थितियों के अनुरूप नहीं हैं। इसलिए व्यापारिक दोहन से अधिक प्राथमिकता निःशुल्क लकड़ी का कोटा बढ़ाने और रियायती कीमत पर लघु मांग की पूर्ति पुनर्विचार को मिलनी चाहिए। पर्वतों में वन विनाश के लिए सरकार और वन-नियमों का वनों से अधिक से अधिक कमाने का लालच जिम्मेदार है।
वन-निगम ने छोटे श्रम ठेकेदारों की एक फौज खड़ी कर दी है जिसके अधिक धन कमाने के स्वार्थ की पूर्ति अधिकाधिक पेड़ों को काटने से ही हो सकती है। उत्तर प्रदेश में वन ठेकेदारों को हटाकर वन-निगम की स्थापना का उद्देश्य बिचौलियों को समाप्त कर स्थानीय श्रमिकों को अधिक लाभ पहुंचाने का था। बड़े ठेकेदार केवल पूंजी निवेश करते थे और इसलिए स्थानीय लोग उन्हें मालदार कहते थे। वे कई छोटे-छोटे ठेकेदारों के माध्यम से काम करते थे। अब वन-निगम ने मालदारों का स्थान ले लिया है और कई ठेकेदार खड़े कर दिए हैं, जिनमें गांवों के प्रधान या राजनैतिक कार्यकर्त्ता हैं। वे स्थानीय मजदूरों को काम पर नहीं लगाते, क्योंकि उनसे अवैध कटाई की शिकायत का खतरा रहता है। वन श्रमिक, खासतौर से पेड़ काटने और आराकाशी वाले सुदूर जम्मू-कश्मीर से लाए जाते हैं। इसलिए सबका स्वार्थ एक ही है-अधिक से अधिक पेड़ गिराना। पहाड़ों में निरन्तर वन दोहन का एक कारण यह भी है। इस अपवित्र गठबंधन को तोड़ने के लिए सारी प्रक्रिया में बुनियादी परिवर्तन तो यह है कि लकड़ी की स्थानीय आवश्यकता, जिसमें गांवों के अलावा ब्लाक, तहसील व जिला मुख्यालय भी शामिल हैं, पूरी होने के बाद लकड़ी की निकासी विभागीय ढंग से होनी चाहिए। पूर्व टिहरी रियासत में यह पद्धति प्रचलित थी।
इस समय पर्वतीय क्षेत्रों में वन माफिया में मुख्यतः सम्पन्न परिवारों के पढ़ाई अधूरी छोड़े हुए युवक और वन एवं माल विभाग के भ्रष्ट अधिकारी शामिल हैं। ये संगठित गिरोह ईमानदार अधिकारियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को दबाने के लिए धन और बाहुबल का उपयोग करते हैं। वे अपने प्रभाव का उपयोग भ्रष्ट अधिकारियों के तबादले रोकने के लिए करते हैं, जिससे अवैध कटाई बिना किसी रोक-टोक के चल सके। 4870 किलोमीटर लम्बी कश्मीर-कोहिमा चिपको पैदल यात्रा में हमने सारे हिमालय क्षेत्र में एक ही नमूना पाया। वे इतने शक्तिशाली हो गए हैं कि उन्होंने टिहरी और उत्तरकाशी जिलों में चिपको कार्यकर्ताओं को मारा-पीटा। एक लम्बे आन्दोलन और हल्ला-गुल्ला के बाद ही उत्तरकाशी और यमुना वन प्रभागों के प्रभागीय वनाधिकारियों, वन निगम के प्रबंधकों और उनके कर्मचारियों को, जिन्होंने भागीरथी और यमुना के अति संवेदनशील उच्च जल ग्रहण क्षेत्र में हजारों हरे पेड़ कटवाए थे, पकड़ा जा सका और हाल ही में खाली कराया गया। सीधे-साधे पर्वतीय लोग कहते हैं, 'बाड़ ही उजाड़ (खेत) खा रही है तो बचाएगा कौन ?'
वन संरक्षण अधिनियम 1980 और सन् 1988 की वन नीति के पवित्र इरादों पर तभी सफलतापूर्वक अमल किया जा सकता है, यदि वनों को लकड़ी की खान और राजकोष के घाटे को पूरा करने के लिए संरक्षित निधि मानना छोड़ दें। जब नई वन नीति पर बहस चल रही थी तो चिपको आन्दोलनकारियों ने उसमें एक वाक्य जोड़ने के लिए जोर डाला 'वनों की मुख्य पैदावार जल है।' इसे स्वीकार नहीं किया गया। अब तो हमारे भाग्यविधाताओं को सर्वव्यापी जल संकट को देखकर, यह सूझ आनी चाहिए। यह वैज्ञानिक सत्य कि 'वन नदियों की मां है' सदैव नजरअंदाज किया जाता रहा है। अब हम बड़े-बड़े बांध बनाने के पीछे पागल हैं। लेकिन बांध जल की स्थायी समस्या का अल्पकालीन हल है। पर्वतीय ढालों पर हरियाली का सघन कवच जिसमें विविध प्रजाति के पेड़, झाड़ियां, घास और जड़ी-बूटियां शामिल हैं (वास्तव में यही वन की सही परिभाषा है न कि एक प्रजाति के पेड़ जो इमारती लकड़ी की खान है) स्थायी बांध हैं। ये नदियों के बहाव का नियमनकरते हैं और उन्हें हमेशा बहने देते रहते हैं।
गांधीजी की अंग्रेज शिष्या मीरा बहन ने सन् 1949 में ही बांज (ओक) के मिश्रित वनों को एकल प्रजाति के शंकुधारी वनों में बदलने के बारे में चेतावनी देते हुए कहा था, 'हिमालय में कुछ गड़बड़ी है और वह केवल पेड़ गिराने की नहीं, बल्कि बांध (ओक) के वनों को चीड़ के वनो में बदलने की है।' पहाड़ों में 45 प्रतिशत से अधिक जलस्रोत गर्मियों में सूख जाते हैं। गढ़वाल की पहाड़ियों के दो गांवों में हुए एक अध्ययन का निष्कर्ष हाल ही में वैज्ञानिक पत्रिका 'करंट साइंस' में प्रकाशित हुआ है। दक्षिणी पूर्वी ढाल पर एक चश्मे में पानी में 36.4 प्रतिशत की कमी पाई गई। उसके जल समेत क्षेत्र में खेती और सामान्य रूप से चराई होती थी, पर पर्याप्त मात्रा में झाड़ियां थीं, लेकिन देसरे में जो पश्चिम उत्तर पश्चिम ढाल पर था, जहां खेती, सामान्य चराई, पुराने चीड़ के पेड़ और बहुत कम झाड़ियां थीं 100 प्रतिशत कमी पाई गई। इन चश्मों से ही शक्तिशाली गंगा और यमुना ने अभयारण्य बनाए हैं। इससे निश्चत ही जल-संरक्षण में सहायता मिली है, जैसा कि श्री नगर (कश्मीर) की जलपूर्ति योजना के जल समेत क्षेत्र में स्थित 'हांगूल पार्क' से स्पष्ट है। अब समय आ गया है कि सारे देश के पर्वतीय क्षेत्र में 'जल अभयारण्य' स्थापित किए जाएं यदि हम सचमुच आसन्न जल संकट के प्रति गम्भीर हैं।
स्रोत :- जनसत्ता, 21 फरवरी, 1997
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