'मध्यप्रदेश में खेती लगातार घाटे का सौदा बनती जा रही है। इसकी वजह से यहाँ के किसानों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। बीते दिनों मंदसौर में किसानों के प्रदर्शन में हुए गोलीकांड के दौरान प्रदेश की सरकार तथा किसानों के बीच दूरी यकायक खासी बढ़ गई है। किसानों के हक़ में फैसले लेने में प्रदेश सरकार नाकाम रही है। प्रदेश की सरकार से किसी भी तरह का सम्मान लेना किसानों के हित में आन्दोलन कर रहे किसानों तथा गोलीकांड में शहीद हुए किसानों के साथ एक प्रकार से धोखा होगा।'
यह कहना है सतना जिले में पिथोराबाद गाँव के एक किसान बाबूलाल दाहिया का। उन्हें 10 सितंबर 2017 को चित्रकूट में आयोजित प्रदेश किसान कार्यसमिति के समापन पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के हाथों कृषि अवार्ड लेने के लिये सतना जिले के कृषि विभाग ने चयनित किया था। लेकिन उन्होंने यह कहकर सबको चौंका दिया कि किसानों के हितों की अनदेखी करने वाली सरकार से मिलने वाले सम्मान को वे ग्रहण नहीं करेंगे। उन्होंने पुरस्कार ठुकरा दिया है।
सतना जिले के उचेहरा विकासखंड के पिथोराबाद गाँव के किसान बाबूलाल दाहिया बीते दस–बारह सालों से देसी बीजों के संग्रहण और संवर्धन-संरक्षण में जुटे हुए हैं। उन्होंने गाँव में अपनी दस एकड़ की जमीन में से दो एकड़ का खेत देसी धान की प्रजातियों के प्रयोग के लिये रखा हुआ है और वे अब तक सवा सौ धान की प्रजातियाँ चिन्हित कर उनके संवर्धन की दिशा में काम कर चुके हैं। इसके लिये उन्होंने अपने आस-पास के सीधी, शहडोल सतना और रीवा जिले के गाँव–गाँव जाकर धान की अलग–अलग किस्मों के बीज सहेजे और उनकी खुद खेती कर उनके गुणधर्म को पहचाना। उन्होंने इस काम में बहुत मेहनत की है।
यह बड़ी बात है कि बारिश के कम–ज्यादा होने, भौगोलिक परिस्थितियों में अंतर होने तथा कई बार प्रतिकूल स्थितियों के बाद भी अब तक विलुप्तप्राय 125 किस्मों के धान को वे अपने खेतों में सफलतापूर्वक उगाकर अपनी तरह का अनूठा काम कर चुके हैं। बीते मई–जून माह में उन्होंने जैव विविधता बोर्ड की 'बीज बचाओ–खेती बचाओ' यात्रा में प्रदेश के 35 जिलों के गाँवों में 55 दिनों की लंबी यात्रा कर अनाज तथा सब्जियों के एक हजार से ज़्यादा बीज संग्रहित कर संरक्षण और संवर्धन के लिये प्रदेश के जैव विविधता बोर्ड को सौंप चुके हैं। दूर–दूर से किसान तथा किसानों के लिये काम करने वाली संस्थाओं के कार्यकर्ता उनके खेत पर किसी धान तीर्थ की तरह अवलोकन तथा अध्ययन करने आते रहते हैं। इस साल कम बारिश के बाद भी उनके खेतों में धान लहलहा रही है।
इसके अलावा 6 एकड़ जमीन में वे जैविक खेती करते हैं। इसमें देसी बीजों का इस्तेमाल करने के साथ ही बिना किसी रासायनिक खादों और कीटनाशक दवाओं के इस्तेमाल किए हुए वे बेहतर उत्पादन कर रहे हैं। इतना ही नहीं उन्होंने अपने आस-पास उचेहरा विकासखंड के करीब 30 गाँवों के किसानों को भी अपने खेतों में धान और कोदो, कुटकी, ज्वार, बाजरा आदि मोटे अनाज की खेती के लिये प्रेरित कर उन्हें हरसंभव मदद करते हैं इससे क्षेत्र में जैविक खेती का अच्छा वातावरण बन गया है। दाहिया उस क्षेत्र के पहले ऐसे किसान हैं, जिन्होंने जैविक खेती को अपने खेतों में कर दिखाया और उनकी प्रेरणा से अब कई किसान सामने आ पाए हैं।
वे बताते हैं कि 'अंचल के लोक साहित्य में लगातार काम करते हुए महसूस हुआ कि विस्मृत होकर विलुप्त होने का खतरा सिर्फ़ साहित्य पर ही नहीं है, बल्कि हमारे लोक के अनाज भी इनसे अछूते नहीं हैं। अंचल में अनाज की परम्परागत किस्में तेज़ी से विलुप्त हो रही है। ये वे महत्त्वपूर्ण प्रजातियाँ हैं, जिन्हें हमारे पुरखों ने लंबे अध्ययन और हमारी भौगोलिक स्थितियों के मुताबिक तैयार किया था। इन किस्मों की वजह से ही दुर्भिक्ष अकाल के बुरे दिनों में भी हमारे पुरखों को जीवन दान दिया। हमें बचपन में कई बीमारियों से बचाया। हमें सहारा दिया, अब वे बाज़ार की कुछ नई किस्मों के कारण भुला दी जा रही हैं।'
अपने नवाचार के सम्बंध में श्री दाहिया बताते हैं– 'उन्हें लगा कि खेती को बचाना है तो भेड़चाल से बाहर आना पड़ेगा। वे बीज जो हमारे पूर्वज सदियों से बोते रहे हैं तथा जिनकी जाँच पड़ताल और फायदों को उन्होंने अपने हजारों सालों के विकासक्रम में खोजा और वापरा, उनके इस्तेमाल पर जोर देना होगा। हम परम्परागत ज्ञान की लंबे समय तक अनदेखी नहीं कर सकते। इस उपेक्षा और उत्पादन बढ़ाने के लिये अंधाधुंध रासायनिक खादों, जहरीले कीटनाशकों तथा भूजल भंडार के बेशकीमती खजाने को लगातार उलीचते रहने से आज खेती घाटे का सौदा बनकर रह गई है। नई पीढ़ी के लिये अब खेती बेचने और लकदक जीवन शैली का आकर्षण खेती को कमजोर करता जा रहा है। खेत बेचकर उनपर फेक्ट्रियाँ लग रही हैं। इससे बचने और खेती को फायदे का सौदा बनाना है तो देसी बीजों के उपयोग और जैविक खेती के तौर–तरीकों पर जोर देना होगा।'
उनके पास उपलब्ध सवा सौ धान की किस्मों में से कुछ तो महज 70 से 90 दिनों में ही पक जाती है और कुछ सौ से सवा सौ दिनों में। हालाँकि 30 से 40 प्रजातियाँ ऐसी भी हैं जो 130 से 140 दिनों में पकती हैं। ये सभी सुगंधित और पतले चावल की किस्में हैं।
वे हर तरह की धान की किस्मों पर धारा-प्रवाह जानकारी देते हैं। उन्हें इनकी खासी जानकारी है। उनके मुताबिक देश में आज़ादी के वक्त धान की करीब एक लाख दस हजार किस्में हुआ करती थी जो अब घटकर कुछ सौ के आंकड़े में ही सिमट गई है। हरित क्रान्ति की चाह में हमने अपने परम्परागत खेती और पानी के जमीनी भंडार का बहुत नुकसान किया है। मोटे अनाजों की उपेक्षा ने कुपोषण और गंभीर बीमारियों का खतरा बढ़ा दिया है। वे अब भी लगातार अपने इस काम में जुटे हुए हैं। वे अन्य किसानों को भी सलाह देते हैं और उन्हें धान की किस्मों के जैविक खेती के बारे में बताते हैं। उनसे प्रेरित होकर क्षेत्र के कई किसान अब जैविक खेती और परम्परागत बीजों की फसल ले रहे हैं। उनके काम पर कुछ विश्वविद्यालयों में शोध भी हो रहा है। उनके काम को कृषि क्षेत्र में काम करने वाली कई संस्थाओं ने सराहा है।
सतना जिले के कृषि विभाग के उप संचालक रामाशिरोमणि शर्मा इस मसले पर कहते हैं– 'यह सही है कि कृषि क्षेत्र में श्री दाहिया के नवाचार को मान देने के लिये उनके नाम का चयन किया गया था। चित्रकूट में हम उनका इंतज़ार करते रहे पर वे वहाँ नहीं पहुँचे। किसानों की दुर्दशा को लेकर उन्होंने अवार्ड लेने से मना कर दिया है, ऐसी कोई जानकारी हमारे पास नहीं है।'
उधर बाबूलाल दाहिया ने प्रदेश में किसानों की दुर्दशा और उनके लगातार कर्ज में डूबते जाने के लिये सरकार को जिम्मेदार माना है। उन्होंने बताया कि सतना जिले के कृषि उपसंचालक ने उन्हें 9 सितंबर की रात में दो बजे नींद से जगाकर इस पुरस्कार के बारे में जानकारी दी। सुबह कुछ देर सोचने के बाद मैंने किसान आन्दोलनों में शहीद हुए किसानों की स्मृति का सम्मान करते हुए मध्यप्रदेश सरकार से इस पुरस्कार को न लेने का निर्णय लिया है। उन्होंने यह भी बताया कि अपनी अस्वीकृति से सम्बंधित अधिकारियों को लिखित रूप से अवगत करा दिया है।
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