बाबा महारिया की चिट्ठी सीएम के नाम


नर्मदा आंदोलन के 25 साल पूरे हो गये लेकिन लड़ाई अब भी जारी है। बाबा आमटे, मेधा पाटकर, स्व। आशीष, आलोक, चितरुपा, कमलू जीजी, कैलाश भाई जैसे नेतृत्वकारी साथियों के अलावा इस लड़ाई की असली ताक़त वे हज़ारों लोग हैं, जो अपनी-अपनी समझ और क्षमता के अनुसार उस लड़ाई का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। मध्यप्रदेश के झाबुआ के जलसिंधी गाँव के निवासी बाबा महारिया ऐसे ही लड़ाकों में से हैं। सालों पहले निरक्षर बाबा महारिया ने अपने साथियों को बोलकर तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के नाम एक चिट्ठी लिखवाई थी। गांव, विकास और असल में पूरे जीवन को देखने का जो तरीका होता है, यह पुरानी चिट्ठी उन्हीं से जुड़े सवालों से मुठभेड़ करती है।

आदरणीय श्री दिग्विजय सिंह,
हम झाबुआ जिले की अलीराजपुर तहसील के जंलसिंधी गांव के ग्रामीण आज आपको मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री होने के नाते यह प्रत्र लिख रहे हैं।

हम नदी किनारे के वाशिन्दे हैं। विशाल नर्मदा के तट पर रहते हैं हम। इस साल सरदार सरोवर बांध से मध्य प्रदेश का डूबने वाला पहला गांव है हमारा जलसिंधी। साथ में कई और गांव सकरजा, काकड़सीला, आकडिया, आदि भी डूबने वाले हैं। इसके चलते हमारे जंगल कट रहे हैं, रोड बन रही है। वैसे तो हम बरसात में डूबते, लेकिन गुजरात सरकार बांध के दरवाजे (जलद्वार) अभी से बंद कर रही है- इसलिए हम सब गर्मी में ही डूब जाएंगे। इतने दिन से आप सुन रहे हैं कि महाराष्ट्र के मणीबेली और गुजरात के बडगांव के लोग डूबने के लिए तैयार हैं। ऐसे ही इस साल मध्यप्रदेश में सरदार सरोवर की पहली डूब में हम भी अपनी जिन्दगी समर्पित करने वाले हैं, लेकिन अपने गांव से हटेंगे नहीं। हमारे गांव में पानी आएगा, घर और खेत डूबेंगे तो इनके साथ हम भी डूब जाएंगे, ये हमारा पक्का इरादा है।

हम ये चिट्ठी आपको सूचित करने के लिए लिख रहे हैं कि सरदार सरोवर की डूब में आने वाले आदिवासी व किसान जलसिंधी में डूबने की तैयारी क्यों कर रहे हैं ?

सरकारी और तमाम शहरी लोग यह मानते हैं कि हम जंगल में रहने वाले, गरीब-गुरबा पिछड़े और बन्दरों की तरह बसर करने वाले लोग हैं। आप लोग हमें समझाते रहते हैं कि तुम लोग गुजरात की मैदानी जमीन पर जाओ, वहां तुम्हारा भला हो जाएगा, तुम्हारा विकास हो जाएगा। पर हम आठ साल से लड़ रहे हैं, लाठी–गोली झेल रहे हैं, कई बार जेल जा चुके हैं। आंजनवाड़ा गांव में पुलिस ने पिछले साल गोलीबारी भी कर दी थी, हमारे घर–बार तोड़ दिए थे। लेकिन हम लोग– ‘मर जाएंगे पर हटेंगे नहीं’ का नारा लगाते हुए आज भी उसी जगह पर बैठे हुए हैं। क्यों? सरकार हमें उजाड़ने के लिए पैसा भी लगा रही है और डन्डे भी मार रही है। ‘फिर भी हम हम नहीं हटेंगे’ कह कर इतनी ताकत क्यों लगा रहे हैं ? अगर गुजरात में हमारा भला होने की बात सच होती तो अभी भी इतने सारे लोग गुजरात जाने के लिए तैयार क्यों नहीं हैं?

आप सरकारी और शहरी लोगों को हमारा इलाका सिर्फ पहाड़ी ही दिखाई देता है, लेकिन नर्मदा माता के तट पर जंगल व जमीनों के साथ हम लोग इसी पहाड़ी इलाके में सुख से जी रहे हैं। इसी इलाके में हमारी पीढि़यां भी जीती रही हैं। बरसों पहले हमारे पूर्वजों ने जंगलों को साफ करके, देवी–देवताओं का आव्हान करके, जमीनों को सुधारकर और जंगली जानवरों का खतरा मोल लेते हुए गांव को बसाया था। इन्हीं जमीनों पर आज हम लोग खेती कर रहे हैं।

आप सोचते हैं कि हम गरीब हैं। हम गरीब नहीं हैं। मिल-जुलकर अपने घरों को बांध कर हम यहां बसे हुए हैं। हम किसान हैं। हमारे यहां अच्छी फसलें पकती हैं। धरती माता पर हल चलाकर हम फसल पकाते हैं। बरसात में मेघ पानी देते हैं, उससे हम कमाई करके जीते हैं। कन्हीर (जुवार) माता पकती है। हमारी कुछ जमीन पट्टे की है और बाकी नेवाड़ (विवादित जंगल जमीन) है। इन जमीनों में हम बाजरा, जुआर, मक्का, भादी, भट्टी, सांवी, कुद्री, चना, मोठ, उड़द, तुवर, तिल, मुंगफली, आदि सभी पकाते हैं। हमारे यहां तरह-तरह की फसलें हैं। इन्हें हम बदल–बदलकर खाते हैं। इससे भोजन स्वादिष्ट भी लगता है और इसके दूसरे फायदे भी हैं। बरसात आते-जाते हमारा अन्न खतम हो जाता है। खाने की बहुत कठिनाई होती है। तब भादी-भट्टी सरीखी फसलें हम दो महीने में ही पका लेते हैं। इससे हमें खाने को मिल जाता है। बाकी फसलें तीन-चार महीनों में पके तो भी हमारी गुजर हो जाती है।

गुजरात में क्या पकता है? गेहूं और दादरा जुआर (जाड़े की जुआर), तुअर और थोड़ा-बहुत कपास। ये फसलें खाने की कम, बेचने की ज्यादा होती हैं। हम तो खाने के लिए ही उगाते हैं। यदि उससे अधिक मिलता है तो हम इसे कपड़े–लत्ते खरीदने के लिए बेचते हैं। बाजार में कीमतें कम हों या ज्यादा, हमें तो खाने को मिल ही जाता है।

हम कई तरह के अन्न पका लेते हैं पर सब अपनी मेहनत से ही। पैसे का क्या काम? घर का बीज उपयोग करते हैं, जानवरों का गोबर डालते हैं और इसी से हमारी फसलें अच्छी हो जाती हैं। गुजरात में तो जमीनों को ब्यीसन हो गया है। संकर बीज, सरकारी, रासायनिक खाद व सरकारी दवाईयों के बिना वहां अन्न पकता ही नहीं है। इन सबके लिए बहुत पैसे चाहिए। इतने पैसे हम कहां से लाएंगे, वहां हमें कौन पहचानता है, कौन साहूकार पैसा देगा। यदि फसल अच्छी नहीं होगी और पैसा भी हाथ में नहीं होगा– तो खेती कैसे होगी? जमीन गिरवी रखनी पडे़गी।

यहां खुदी नाले (छोटी नदियां) से ‘पाट’ (नहर) काटकर हम दूर-दूर से पानी लाकर सिंचाई करते हैं। बचे हुए खेतों में सिर्फ बरसात में ही खेती करते हैं। जमीन में नमी रह जाए तो जाड़े में चना-गेहूँ भी बो देते हैं। नदी के तट पर ही तो रहते हैं हम। यदि यहां बिजली होती तो हम भी बड़ी नदी (नर्मदा) का पानी उठाकर जाड़े में फसल पका सकते थे। सा‍हबों (अंग्रेजों) का राज गए चालीस–पचास साल हो गए लेकिन आज तक नदी किनारे के गांव में बिजली नहीं पहुँची– न उजाले के लिए और न ही नदी का पानी उठाकर सिंचाई करने के लिए।

यह तो हमारी खेती की बात हुई। लेकिन हम तो पहाड़ के लोग हैं। नदी तट के निवासी है। हमारे पास साल भर–गर्मी और जाड़े में भी बहता हुआ पानी है, पहाड़ पर बेहतरीन चारा है। हम सिर्फ फसलों के भरोसे नहीं जीते, हमारा जीवन जानवरों पर भी आश्रित है। हम मुर्गी, बकरी, गाय, भैंस, सभी पालते हैं। किसी के पास दो-चार भैंसे होती हैं तो किसी के पास आठ-दस। बीस–चालीस, साठ, बकरियां तो सभी के पास होती हैं और मुर्गियों की तो गिनती ही नहीं। हम अपने जानवर तो पालते ही हैं। सगे-संबंधियों और दूर–दराज के साथी ग्रामीणों के जानवरों की देख-भाल भी करते हैं। गुजरात तक से हमारे पहाड़ों में लोग अपने जानवरों को चराई के लिए लाते हैं। इतनी अच्छीं है हमारी चारे–पानी की व्यवस्था।

जानवरों और दूध-घी बेचकर हमारा एक-एक परिवार सालाना तीन-चार हजार रूपये कमा लेता है, कोई-कोई छह-सात हजार और कुछ लोग तो आठ-दस हजार तक कमा लेते हैं। आज यदि हम पर कोई आपदा टूट पडे़ और पैसे की जरूरत हो, तो हाट में एक बकरी बेचने से पांच–छह सौ रूपये तुरन्त हाथ में आ जाते हैं। तुअर, तिल और मूंगफली बेचने से जो आय होती है उससे अधिक तो हमें जानवरों से मिल जाती है। झाबुआ जिले के बहुत से लोग हर साल जाड़े में दाल-रोटी की खतिर सूरत-नवसारी आदि शहरों में मजदूरी के लिए जाते हैं, लेकिन हम नदी किनारे के लोग मजदूरी के लिए कहीं नहीं जाते हैं। फसल कम पड़े तो जानवर बेचकर काम चला लेते हैं।

सरकार लोगों को उजाड़कर गुजरात ले जा रही है। जमीन भी दे रही है, लेकिन वहां चारागाह की जमीन नही देती हैं। वहां चारे की बहुत समस्या है। घास-पत्ते कुछ भी नही हैं। लोग सिर्फ एक जोड़ी बैल रखते हैं– उन्हें खेत की मेड़ पर चराते या फिर जुआर का भूसा खिलाते हैं। यदि आज हमारा बैल मर जाता है तो गाय माता हमें दूसरा बैल दे देती है। लेकिन गुजरात में गाय कैसे रखेंगे? नया बैल मोल देकर लेना पड़ेगा–पैसा नही होगा तो पाटीदार का बैल लेंगे और हमारी कमाई का हिस्सा उन्हें देना पडे़गा। अपनी जमीन पर हम खुद मजदूर बन जाएंगे।

पीढि़यों से हम जंगलों में रहते आए हैं। जंगल ही हमारा साहूकार और बैंक है। संकट के दिनों में हम उसी के पास जाते हैं। जंगल और बांस से हम अपना घर बांधते हैं। निगौड़ी और हियाली की झाडि़यों से हम अपने घर की दीवारों को बुनते हैं। जंगल से ही हमारे घरों की टोकनी, खाट, हल, बक्खर और हर एक सामान बनाते है। जंगल–पहाड़ में चारा मिलता है जिससे हमारे जानवर पुसते हैं। तरह-तरह का चारा मिलता है, गर्मी में घास सूख जाती है पर झाड़ की पत्तियाँ तो रहती हैं।

झाड़ के पत्ते हम भी खाते हैं। हेगवा की भाजी, मुरवा की भाजी, आमली की भाजी, गोईन्दील की भाजी, फाज की भाजी–कितनी तरह–तरह की भाजियां खाते हैं हम। अकाल पड़ता है तो कन्दी–मूल खाकर जीते हैं। बीमार हो जाते हैं तो गांव के बुढवा जंगल की जड़ी–बूटी देकर ठीक कर देते हैं। जंगल से गोंद, तेन्दू पत्ते, बहेडा, चिरौंजी, महुआ, डोली, आदि बीनकर हम बेचते हैं, जिससे गर्मी से हमारी आमदनी होती है। जंगल हमारी मां की तरह है। इसकी गोद में हम बडे हुए हैं। इसका दूध पीकर हमें जीना आता है। इसके एक-एक झाड़-पत्ती-कंद का नाम और उसका उपयोग हमें मालूम है। बिना जंगल के देश में रहना पड़े तो यह पूरी जानकारी, जिसे हम पीढि़यों से संजोकर रखे हैं, उपयोग नहीं होगी और धीरे-धीरे बिसर जाएगी। जंगल से दूर मैदानी इलाकों या शहरों में हम किस तरह जी पाएंगे।

यह धरती माता जब से गढी़–गुथी है, तब से हमारे पूर्वजों ने बिजली नहीं देखी। हम तो पहाड़ से लकड़ी लाकर उजाला कर लेते हैं। सूखी लकड़ी लाकर हमारी औरतें रोटी-राबड़ी रांधती हैं। रोटी पकाना भी वहां बड़ी समस्यां है। यहां हमारा जंगल तो हमारी गोदड़ी कहलाता है। उसकी लकड़ी से रोटी रांधना, उसकी लकड़ी से उजाला करना और उसी की लकड़ी से जाड़े की रातों में तापते हुए सो जाना। ठंड लगती है तो रात में उठाकर फिर से आग सुलगा लेते हैं। जंगल हमें पालता-पोसता है तो हम भी उसे संभालते हैं। बरसात में घास व फसल जब घुटने–घुटने हो जाती है तो हम नीलपी पुजते हैं। तब तक हम हंसिया से घास नहीं काट सकते, घास का पूला नहीं बांध सकते, सागौन के कोमल पत्ते नहीं तोड़ सकते यहां तक कि नई घास को खाने वाले जानवरों का दूध तक नहीं पीते।

इस तरह से हम जंगल की गोद और मोटली माई नर्मदा के पेट में रहते हैं। मोटी नदी के गीत गाकर हम देव पूजते हैं। ये गीत नवाई और दिवासा के त्योहारों पर गाये जाते हैं। यह हमें बताती है कि किस तरह से दुनिया बनी, मानव जाति कैसे पैदा हुई और मोटी नर्मदा कहां से आई।

नर्मदा, उसके पेट में रहने वालों को बहुत सुख देती है। उसके पानी में ढेरों मछलियां हैं। खारही, मोइणी, घाघरा, लगन, टुकुन, तुमेण, तेपरो व अन्य तरह की मछलियां। चिवला की भाजी मोटी नर्मदा से मिलती है। ये मछलियां और भाजी खाकर हम जीते हैं। हफ्ते दो-तीन दिन हम मछली खाते हैं। हमारे घर में कभी मेहमान आते हैं तो हम चट से नदी जाकरी मछली पकड़कर लाते हैं। दूसरी क्या सब्जी है, मछली की तरकारी ही रांध देते हैं। बरसात में नदी खुद ही हमारे घरों तक लकड़ी पहुँचाती है। पीछे से नदी के साथ मिट्टी बहकर आती है जो रेत पर जम जाती है। जाड़े में इसी मिट्टी पर हम मक्का दादरा-जुआर और गेहूँ पकाते हैं। तरबूज और खरबूज की बाड़ी लगाते हैं। उसकी रेत पर हमारे बच्चे खेलते हैं-उसके पानी में नहाते, तैरते हैं। हमारे जानवर नर्मदा का पानी पीते हैं। सारे खन्ती, नाले गर्मी में सूख जाते हैं। लेकिन नर्मदा कभी नहीं सूखती। हमारी औरतें नदी से पानी भरकर लाती हैं।

पीढि़यों से यहां रहने वाले हम लोगों का इस मोटली नदी नर्मदा और उसके पास के जंगलों पर कोई हक है या नहीं? उन हकों को आप सरकारी लोग पहचानते हो या नहीं? आप शहरी लोग शहर में अलग-अलग घरों में रहते हो। एक-दूसरे के सुख-दु:ख देखते तक नहीं हो लेकिन हम तो सगे संबंधियों के आधार पर ही जीते हैं । हम सब मिलकर (लाह) सामूहिक श्रम करके एक दिन में घर खड़ा कर देते हैं, खेत की निंदाई कर देते हैं, कोई भी बड़ा–छोटा काम पूरा कर देते हैं। लाह में एक घर खिलाता है तो बाकी लोग मिलकर उसका काम कर देते हैं। पड़जीया की रीति में हम भोजन नहीं खिलाते बल्कि आपसी समझ से काम होता है। आज मेरे घर पड़जीया है तो कल तुम्हारे यहां पड़जीया। एक साल में हम कम से कम सौ दिन का सामूहिक श्रम करते हैं। हम लाह बुलाएंगे तो कौन आएगा। क्या बड़े-बड़े पाटीदार आकर हमारे खेत, नदियां या हमारे घर खड़े करेंगे?

हमारे यहां शादी और श्राद्ध में सब मिलकर खर्चा उठाते हैं– दहेज इकटठा करते है, भेंट देते हैं, लकड़ी-पत्तल लाते हैं। हमारे गांव में लडा़ई-झगड़े होते हैं तो पडो़सी गांव के बुजुर्ग पंचायत बैठाकर झगडा़ तोड़ देते हैं। हम उजड़कर जाएंगे तो हमारे ब्याह और श्राद्ध कैसे होंगे? झगड़े तोड़कर मेल कराने के लिए भी कौन आएगा। हमारे यहां यदि बीज खतम हो जाए, बैल मर जाए या कोई विपदा आ जाए तो सब सगे संबंधी हमें मदद करते हैं। जो कि पूरे परगना में फैले हुए हैं। लेकिन वहां एक साल भी बरसात न हो या बीज खतम हो जाए या बैल मर जाए तो हमको दूसरा बैल या थोडा़–बहुत बीज कौन देने वाला है?

हमारी लड़कियों और बहनों के ससुराल पास ही हैं, हमारी पत्नियों का पीहर भी पास में है। हम उजड़कर जाएंगे तो इनसे दुबारा कभी भेंट नहीं होगी। वे हमारे लिए एक तरह से मर जाएंगे। हमारे गांव की औरतें तो हमें धमकी देती हैं कि पति तो हम छोड़ने के लिए तैयार हैं। पति तो दूसरा भी मिल जाएगा। लेकिन दूसरे मां-बाप कहां से मिलेंगे? हम यहां से जाने के लिए तैयार नहीं हैं। वहां हमारे साथ कोई दु:ख-दमन हो तो किसको बताएंगे? मोटर किराया देकर आप तो हमें यहां भेजने से रहे।

हमारे यहां गांव में इतना मेल–जोल कैसे है? क्योंकि हमारी आपस की समझ है। एक दूसरे को मदद करते हैं और सभी लगभग बराबर की स्थिति में हैं। बगैर जमीन वाला कोई इक्का–दुक्का हो तो वरना सभी के पास जमीन है। कोई ज्यादा जमीन वाला नहीं है, सभी के पास थोडी़-थोडी़ जमीन है। हम गुजरात जाऐंगे तो हमें बड़े-बड़े जमीन वाले पाटीदार और बनियों के साथ रहना होगा। वे हमें दबाएंगे भी।

गुजरात में तो वहीं रहने वाले आदिवासियों की जमीनें वहां के बड़े लोगों ने तीस-चालीस साल से छीन ली थी। आज भी छीन रहे हैं। पहले तो वहां भी आदिवासियों की बस्ती ही थी। फिर हम तो अनजाने लोग हैं। हमें न तो वहां की बोली आती है, न कायदा-कानून। संपर्क और राज भी उन्हीं बड़े लोगों का है। इतनी लागत की खेती यदि हमसे न हो तो पैसे के लिए हमें उनके पास अपनी जमीन गिरवी रखना होगी। और धीरे– धीरे हमारी जमीनें छीन लेंगे। वहां के खास रहने वालों की छीन ली है तो हमारी कैसी छोड़ेंगे?

फिर हम अहमदाबाद या गांधीनगर के चक्कर लगाते रहेंगे पर दूसरी जमीन कौन देने वाला? यह बात जान लो कि यहां हमारे बाप-दादा की जमीन है जिस पर हमारा हक है। यह छूट जाए तो हमारे हाथ गैंती-फावडा़-तगाडी ही लगेगा, दूसरा कुछ नही।

जनम हमारा इसी में हुआ है- हमारा ‘नरा’ यहीं गड़ा है। समझो, हम यहीं से उपजे हैं। हमारे गांव की हद, देव–धामी सभी यही हैं। हमारे पूर्वजों के ‘पालिया’ ‘गाता’, ‘हिंडला’ सभी यहां हैं। हम काला राणो, राजा फान्टो, वेला, ठाकुर, इंदी राजा पूजने वाले लोग हैं। आई-खेड़ा खेडू बाई सभी को हम पूजते हैं। हमारी बड़ी देवी है राणी काजल। उनका तथा कुंबाई व कुंडू राणे का देवस्थल पास के मथवाड़ गांव में है। इन्हें छोडकर जाएंगे तो हमें नए देवता कहां से मिलेंगे? हमारे त्योहार में इंदल, दिवासा, दिवाली, में समूचे परगना के लोग आते हैं। वहां कौन आएगा? भगोरिया में हम सभी हाट में जाते हैं-वहां हमारे लड़के-लड़कियां आपस में जोड़ी बनाते हैं। गुजरात में ऐसा होगा क्या?

आप कहते हैं कि‍ गुजरात की जमीन ले लो। नेता तुमको भड़का रहे हैं। उनके पीछे मत पड़ो। हम उनके पीछे नहीं पड़ रहे हैं। हम तो अपनी जमीन, अपने जंगल, अपनी नदी और अपने ढोर-डांगर के पीछे पड़ रहे हैं।

आप कहते हैं कि मुआवजा ले लो। सरकार किस चीज का मुआवजा दे रही है? हमारे घर का, हमारे खेत का और खेत के मेड़ पर उगे झाड़ का। लेकिन हम सिर्फ इसी से तो नहीं जीते। आप क्या हमें हमारे जंगल का मुआवजा देने वाले हो? उसमें सागोन-बांस- तेन्दू सालाई-महुआ-आंजन–खाखरा आदि कई तरीके के झाड़ हैं। उसकी पत्तल, लकडी़, तना और फल का हम उपयोग करते और बेचते भी हैं। इसका कितना मुआवजा होगा। या हमारी मोटी माई नर्मदा का मुआवजा देने वाले हो। उसकी मछली, पानी, उसमें आने वाली भाजी, उसके तट पर रहने वाले सुख-इनका क्या मोल है? क्या हमारे जानवर और उनके लिए यहां उपलब्ध चारे-पानी का भी मुआवजा दोगे? हमारे खेतों का मुआवजा तुम किस तरह से आंकते हो? ये जमीन हमने खरीदी नहीं है। इसे तो हमारे पूर्वजों ने जंगल साफ करके बनाया है। इसका क्या भाव लगाओगे, हमारे देव, जात, सगे-सम्बंधियों के साथ-सहारे का क्या मोल होगा? हम आदिवासी लोगों की जिंदगी की आपके सामने क्या कीमत है?

आप कहते हैं कि गुजरात जाओ–वहां तुम्हारा भला होगा–विकास होगा। पाठशाला होगी तो तुम्हारे बच्चे पढ़-लिख जाएंगे। सड़क होगी, तो बस में बैठकर घूमना आसान हो जाएगा। वहां बिजली होगी। बीमारी में डॉक्टर मिलेगा। हमारा कहना है कि हमें भी यह सब चाहिये पर गांव में। अपने गांव से उजड़ने की कीमत पर नहीं। हमारी औरतें, मुर्गा बोलते ही घट्टी पीसना शुरू कर देती है। बिजली आएगी तो मोटर-चक्कीं से पिसवाएंगे। हैंड पम्प होगा तो बरसात में नदी का लाल पानी नहीं पीना पडेगा। पाठशाला होगी तो हमारे बच्चे भी पढ़–लिख लेंगे। बिजली होगी तो नदी का पानी लाकर जाड़े में भी फसल लेंगे। यदि आपको सिंचाई के लिए मोटर देना है, बिजली देनी है, पाठशाला देनी है तो हमारे इसी गांव क्यों नही देते?

चालीस–पचास साल हो गए हमारा राज आया है, लेकिन अब तक हमें यह सब क्यों नहीं दिया गया? इसे पाने के लिए हमें गुजरात क्यों जाना पड़ेगा? दूसरे गांव के हमारे भई–बंद हर साल जाड़े में मजदूरी करने गुजरात के सूरत-नवसारी जाते हैं। क्या उनके बच्चों को कभी पढ़ने को मिलता है? क्या उनको बिजली मिलती है? वे तो बिल्डिंग बांधते हैं और खुद सड़क पर सोते हैं। सब जगह आदिवासियों का यही हाल हो रहा है। बरगी बांध में भी हमने देखा है कि अभी तक सभी भटक रहे हैं। सरकार ने हमसे न पूछा न ताछा और भोपाल–दिल्ली –अहमदाबाद में बैठकर हमारी जिंदगी का निर्णय ले लिया। क्या हम किसान–आदिवासियों–भील–भीलाला नायक-मांकर को मनुष्यों में नही गिना जाता?

हम तो नहीं उजड़ेंगे, तय करके लड़ रहे हैं लेकिन जो चन्द लोग उजड़ने को तैयार हैं, उन्हें भी आप जबरदस्ती गुजरात भेज रहे हो। आज तक आपने मध्य प्रदेश में उन्हें एक इंच जमीन भी नही दिखाई। कहते हैं कि यहां की पुनर्वास नीति गुजरात से कमजोर है। इसीलिए गुजरात जाओ। ये लोग मध्य प्रदेश की प्रजा कहलाते हैं कि गुजरात की?

हम जानते हैं कि आप अपने–तरीके से ही विचार करके निर्णय लेने वाले हैं। आप हमारे प्रदेश के नए मुख्यमंत्री हैं, इसीलिए आपको हमने ये सारी बात बताई। वैसे तो हमने भी अपना निर्णय लिया है। इस साल मध्येप्रदेश में पहली बार डूब में आने वाली है, गांव डूबने वाले हैं। हम सब आदिवासी लोग जलसिंधी गांव में डूबने वाले हैं।

आपकी गुजरात की जमीनें हमें मंजूर नहीं है। आपका मुआवजा हमें मंजूर नहीं है। इस नर्मदा के पेट में हम पैदा हुए हैं, इसकी गोद में मरने में हमें क्या डर? आप देखिएगा–अब तो गुजरात ने बाँध के दरवाजे बंद कर दिए हैं। बरसात के पहले गर्मी में ही हमारे गांव में पानी भर जाएगा। तो हम अभी ही पानी में अपना जीवन समर्पण करेंगे।

डूब जाएंगे पर हटेंगे नहीं। हमें आशा है कि आप हमारी बातों पर ध्यान देंगे।

बाबा महारिया , गांव- जलसिंधी , तहसील-अलीराजपुर , जिला- झाबुआ म।प्र। 457 887
 
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