ब से बिहार, ब से बाढ़

बिहार और बाढ़ का रिश्ता काफी पुराना है। सन् 1869 तथा 1870 में कोसी नदी में प्रलयकारी बाढ़ आई थी। इससे पूर्णिया जिले में हजारों परिवार बर्बाद हो गए। इसके बाद 1878 में भारत के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों का सर्वेक्षण कराकर 1879 में गण्डक नदी पर तटबन्ध बनाया गया जिस पर 36 हजार रुपए खर्च किए गए।

बिहार में हर साल बरसात आती है और इसके साथ आती है बाढ़ की विनाश लीला। बाढ़ रोकने के लिए मानव ने तटबन्धों का निर्माण किया। लेकिन अब यह बहस का मुद्दा भी है कि ये बाँध बाढ़ को रोकने में कितने सफल या असफल हैं। इसके नाम पर भरपूर राजनीति भी चलती है। इंजीनियर एच.एन.सी. कलोएट ने 1897 में बंगाल सरकार के कमिश्नर को एक पत्र लिखकर कहा कि सुरसेला में कोसी नदी पर बन रहे पुल से बाढ़ की समस्या और बढ़ जाएगी। इंजीनियर की सोच सही साबित हुई तथा जनसाधारण को बाढ़ की मार झेलनी पड़ी। सन् 1897 में कलकत्ता में एक सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसका उद्देश्य बाढ़ रोकने पर विचार करना था। इस सम्मेलन के बाद तटबन्धों का विरोध शुरू हुआ। सन् 1889 में इंजीनियर एफ.सी. हर्स्ट ने कहा कि तटबन्धों का कार्य बाढ़ को आमन्त्रण देना है।

इसके बाद सन् 1937 में पटना में एक सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में भी तटबन्धों पर विचार किया गया। गवर्नर हैजेट ने इस सम्मेलन में चीन का उदाहरण देते हुए कहा कि चीन में भी तटबन्धों का निर्माण हो रहा है मगर इससे बाढ़ को रोकना सम्भव नहीं हो पा रहा है। इसी समय चीन के हवांग-हो नदी के तटबन्धों में दरार आ गई और तटबन्धों का विरोध और भी बढ़ गया। सम्मेलन में तत्कालीन लोक निर्माण व सिंचाई सचिव जीमूत बाहर सेन ने भी तटबन्ध के खिलाफ अपना मोर्चा खोला।

1938 में नेपाल से भारत आने वाली कोसी की पुरानी धाराओं का सर्वेक्षण किया गया। इसके बाद श्रीकृष्ण सिंह ने अंग्रेज सरकार को एक करोड़ की लागत से बनाए जाने वाले बाँध का प्रस्ताव भेजा। लेकिन राजनीति के चलते इस प्रस्ताव को रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया। सन् 1942 में राम बहादुर, पी.सी. घोष ने एक रपट सरकार को दी। सन् 1945 में दस करोड़ की लागत से बिहार विकास योजना बनी। इसमें कोसी के दोनों तरफ तटबन्ध बनाने का प्रस्ताव था, मगर सरकार ने इसे नकार कर 1937 वाली जीमूत बाहर सेन की सिफारिशों को मानने की वकालत की। सन् 1945 में तत्कालीन वायसराय लार्ड वैवेल, दरभंगा महाराज सर कामेश्वर सिंह व तत्कालीन गर्वनर रदरफोर्ड के आदेशानुसार नदियों का सर्वेक्षण किया गया। मगर एक बार फिर राजनीति के चलते कुछ नहीं हो सका। सन् 1940 के दशक में राज्य के तत्कालीन विकासमन्त्री अनुग्रह नारायण सिंह ने बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के नागरिकों को रामगढ़ भेजने की योजना बनाई, मगर मैदानी लोगों के विरोध के कारण यह योजना भी असफल हो गई।

नवम्बर 1946 को कोसी पीड़ितों का सम्मेलन राजेन्द्र मिश्र के नेतृत्व में आयोजित हुआ। मगर इस सम्मेलन से कोई लाभ नहीं हुआ। इसके बाद 6 अप्रैल, 1947 को निर्मली सम्मेलन का आयोजन हुआ। इसमें डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, सी.एच. भाभा, डॉ . श्रीकृष्ण सिंह आदि ने भाग लिया। इसमें सी.एच. भाभा ने कोसी योजना का नया प्रारूप तैयार किया। मगर इस योजना को भी टाल दिया गया। इसके बाद बेलका जलाशय योजना बनी, मगर यह योजना भी विरोध के चलते टल गई। आजादी मिलने के बाद 11 अगस्त, 1953 को हरिनाथ मिश्र, सत्येन्द्र मिश्र तथा सत्यनारायण अग्रवाल ने प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरु को बिहार की बाढ़ की समस्या से अवगत कराया जिसके बाद 31 दिसम्बर, 1955 को प्रधानमन्त्री ने बिहार के बाढ़ प्रभावित इलाकों का दौरा किया। इसके बाद 14 जनवरी, 1955 को निर्मली के मुनवा गाँव में कोसी परियोजना का शिलान्यास किया गया। मगर गाँवों के लोगों के विरोध के कारण यह योजना भी कारगर नहीं हो सकी। 3 सितम्बर, 1954 को तत्कालीन केन्द्रीय योजना व सिंचाई मन्त्री गुलजारी लाल नन्दा ने बाढ़ से निपटने का वादा किया। नन्दा के प्रयासों से ही तटबन्धों का विरोध कम हुआ तथा बाढ़ रोकने के लिए तटबन्धों को कारगर माना जाने लगा।

लेकिन इन सबके बावजूद कोसी नदी के किनारे बसी 2 लाख की आबादी के लिए बाढ़ आज भी एक भयंकर सत्य है और मधेपुरा, सहरसा, सुपौल, दरभंगा, मधुबनी के लोगों के लिए यह हर साल काल बनकर आता है।

सरकार ने अभी हाल ही में जल संसाधन विभाग के विशेषज्ञों की एक टीम बनाई है। इसकी रिपोर्ट के आधार पर बाढ़ से निपटने की रणनीति बनाई जाएगी।

बाढ़ तटबन्धों से नदी जोड़ों तक की कवायद


बिहार में हर साल बरसात आती है और इसके साथ आती है बाढ़ की विनाश लीला। बाढ़ रोकने के लिए मानव ने तटबन्धों का निर्माण किया। लेकिन अब यह बहस का मुद्दा भी है कि ये बाँध बाढ़ को रोकने में कितने सफल या असफल हैं। इसके नाम पर भरपूर राजनीति भी चलती है। प्रत्येक साल बाढ़ के साथ पानी, गाद, मिट्टी व बालू आकर नदी तल को ऊपर उठा देता है, इससे तटबन्ध छोटे हो जाते हैं जिससे बाढ़ को रोकने की उनकी क्षमता घटती है। तटबन्ध बनवाने का निर्णय सरकार लेती है और बनाने का काम इंजीनियर करते हैं। दोनों कभी एकमत नहीं रहते। इंजीनियर किसी और जगह तटबन्ध बनाना चाहते हैं और सरकार किसी और जगह। इस वजह से राजनीति भी चलती है। सन् 1938 में इंजीनियर एफ.सी. हर्स्ट ने कह दिया कि तटबन्ध बाढ़ रोकते नहीं लाने का कारण बनते हैं।

तत्कालीन लोक निर्माण व सिंचाई सचिव जीमूत बाहर सेन ने भी तटबन्ध के खिलाफ राय प्रकट की थी। सन् 1938 में चीफ इंजीनियर तिरहुत वाटरवेज डिवीजन ने कोसी की पुरानी धाराओं का सर्वेक्षण किया।

नेपाल सीमा से सटे सीतामढ़ी जिले में बाढ़ की विनाशलीला का कारण नेपाल के पहाड़ों से आती नदियाँ हैं। इनमें सबसे ज्यादा खतरनाक बागमती नदी है। बागमती की बाढ़ शिवहर, बेलसन्द, चन्दौली, रून्नीसैदपुर आदि क्षेत्रों पर विनाश ढाती है। अधवारा समूह की नदियाँ सुरसण्ड, पुपरी, बथनाहा, नानपुर, बाजपट्टी में तबाही लाती है।

कहना गलत न होगा कि भारत व नेपाल मिलकर जल-प्रबन्ध कर सकें तो शायद बाढ़ की विनाशलीला के प्रभाव से बचा जा सकता है, मगर अभी तक ऐसा सम्भव नहीं हो पाया है।

बूढ़ी गण्डक, कमला बलान, चन्द्रभागा आदि नदियों से बेगूसराय में 127.42 करोड़ रुपए की फसल का नुकसान हुआ। सहरसा जिले के 10 प्रखण्डों में से छह प्रखण्ड महिषी, नवहट्टा, सिमरी बख्तियारपुर, सलखुआ, बनपा, ईटहरी और सोनवर्षा हर वर्ष कोसी नदी के बाढ़ की भेंट चढ़ती है। पूर्वी चम्पारण में गण्डक सिकरहना, लालबकेया, बागमती, गाद बहुअरी, जियर आदि नदियाँ हैं। इन नदियों में आई बाढ़ से पिछले वर्ष 27 लाख की आबादी प्रभावित हुई।

सोन नदी के जल-स्तर में हो रहे लगातार वृद्धि के कारण इसके पूर्वी क्षेत्र में बसे गाँव के अस्तित्व पर संकट के बादल छाए हुए हैं। फिर बक्सर का दियरांजच का बड़ा हिस्सा हर वर्ष बाढ़ से जूझता है। बाढ़ से निजात पाने के लिए सरकार के पास देश की सभी नदियों को जोड़ने की योजना है। केन्द्र सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय जल विकास अभिकरण ने प्रस्ताव तैयार कर इसकी एक प्रति बिहार सरकार को भी भेजी है।

देश में सबसे ज्यादा बाढ़ पीड़ित क्षेत्र बिहार में ही हैं जो कुल क्षेत्रफल का 17 प्रतिशत है। उत्तर बिहार का लगभग आधा पूर्वी मैदानी भाग कोसी नदी के कारण हर साल बाढ़ से प्रभावित होता है। कोसी क्षेत्र में पूर्णिया, कटिहार, मधेपुरा, सहरसा जिले और खगड़िया व नौगछिया अनुमण्डल सम्मिलित हैं। इस पर सरकार ने लाल कमिटी गठित की। समिति की सिफारिश पर राज्य सरकार ने चिन्हित योजनाओं की विस्तृत परियोजना प्रतिवेदन का काम वाटर पावर कॉर्पोरेशन को दे दिया। राज्य की नदियों को जोड़ने की प्रस्तावित योजना को लेकर विशेषज्ञों का मानना है कि इससे बाढ़ या सुखाड़ से निपटने के अलावा और भी फायदे होंगे। राज्य की वह भूमि जो बंजर है, कृषि योग्य हो जाएगी। बिजली उत्पादन में वृद्धि होगी तथा नौपरिवहन को बल मिलेगा। नदी जोड़ो योजना पर राज्य सरकार ने काम तेज कर दिया है।

उत्तर बिहार का लगभग आधा पूर्वी मैदानी भाग कोसी नदी के कारण हर साल बाढ़ से प्रभावित होता है। कोसी क्षेत्र में पूर्णिया, कटिहार, मधेपुरा, सहरसा जिले और खगड़िया व नौगछिया अनुमण्डल सम्मिलित हैं। यहाँ के निवासी प्रति वर्ष बाढ़ से तबाह होते हैं। हालाँकि कोसी परियोजना बाढ़ नियन्त्रक आंशिक तौर पर काम करती है। गंगा नदी के दोनों किनारों के क्षेत्र को दियारा कहा जाता है और यह क्षेत्र भी कोसी की तरह प्रति वर्ष बाढ़ लाती है। कहा जाता है कि जब कोसी हंसती है तो बिहार रोता है। 18 अगस्त, 2008 को कोसी ने अपना मार्ग बदलते हुए पूर्व व दक्षिण की ओर 120 किलोमीटर तक अपना कहर ढाया। देश में सबसे ज्यादा बाढ़ पीड़ित क्षेत्र बिहार में ही हैं जो कुल क्षेत्रफल का 17 प्रतिशत है।

वर्ष 1954 से समझौते के अनुसार कोसी नदी का जल प्रबन्धन एवं तटबन्ध का खर्च भी भारत सरकार की जिम्मेवारी है। उस पर जो बराज बना है, उसका खर्च भी भारत के जिम्मे है। कोसी उच्चस्तरीय समिति देख-रेख का काम करती है। इसमें कुसहा तटबन्ध की व्यवस्था प्रमुख है। 18 अगस्त, 2008 को यही कुसहा तटबन्ध मात्र 1.45 लाख क्यूसेक पानी को झेल नहीं पाया और टूट गया जबकि इसकी क्षमता 9.5 लाख क्यूसेक पानी रोकने की है।

कोसी नदी के तटबन्धों की देख-रेख की जिम्मेवारी संयुक्त रूप से बिहार सरकार, भारत सरकार तथा नेपाल सरकार की है। लेकिन विकट परिस्थितियों में सभी अपने को छोड़ शेष पर दोष डालना अपना फर्ज समझते हैं। वर्ष 1997 में क्रिस्टोफर वी. हिज ने एक पुस्तक लिखी 'रिवर ऑफ सौरो' इसमें कोसी की विनाशलीला की चर्चा है।

नेपाल और भारत में कोसी पर एक सन्धि हुई है, जिसे पिछले 10 वर्षों में नेपाल द्वारा मजाक बना दिया गया है। तत्कालीन नेपाली प्रधानमन्त्री इस सन्धि को नेपाल की गलती मानते हैं। प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने बाढ़ पीड़ितों के लिए एक हजार करोड़ रुपए का राहत दिया है। लेकिन बाढ़ राहत में अफसरशाही दीवार बन गई है। अखिल भारतीय मजदूर सभा द्वारा आयोजित ‘जन सुनवाई’ में लोगों ने कहा कि 2008 की बाढ़ आई नहीं बल्कि लाई गई है। यह बाढ़ लापरवाही का नतीजा है।

(लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं)
ई-मेल : mukul.arvind@gmail.com

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