इस धरा पर जैविक विकास की शुरुआत जल से हुई और इस सुन्दर सृष्टि का अन्त भी जल की कमी के कारण होगा।
जल प्रकृति का मानव के लिये अनमोल तोहफा है जो जीवन का आधार है। पृथ्वी का लगभग तीन चौथाई भाग जल से ढका है तथा एक चौथाई भाग पर धरातल है। सात महासागर पानी से भरे होने के बावजूद हमें पीने के पानी के भारी संकट का सामना करना पड़ रहा है। पृथ्वी का एक प्रतिशत जल ही उपयोग हेतु उपलब्ध है जिसमें से 70 प्रतिशत से अधिक सिंचित कृषि में ही प्रयोग हो रहा है। उद्योगों में 20 प्रतिशत और घरेलू उपयोग में केवल 8 प्रतिशत पानी उपयोग में लाया जाता है, जो बहुत ही कम है जबकि पृथ्वी का लगभग 97 प्रतिशत जल समुद्र में है जिसे शुद्ध करके उपयोग में लाना बहुत ही महँगा है। अतः लोगों में अच्छा स्वास्थ्य सुनिश्चित करने के लिये कम से कम 100 लीटर पानी प्रतिव्यक्ति को प्रतिदिन पीने, खाने एवं अन्य कार्यों हेतु आवश्यक है।
विकसित देशों में प्रतिव्यक्ति 450 लीटर पानी का उपयोग प्रतिदिन करते हैं। सूखे एवं पानी की कमी वाले क्षेत्रों में तो 20 लीटर, जबकि विकासशील देशों में यह मात्रा 20 लीटर पानी प्रति व्यक्ति उपलब्ध नहीं है। वास्तविकता तो यह है कि अफ्रीका, पश्चिमी एशिया, दक्षिणी एशिया, उत्तरी अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका तथा आस्ट्रेलिया पहले से ही पानी की कमी महसूस कर रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार सन 2025 तक 65 से अधिक देशों के 3 बिलियन से अधिक लोग पानी की समस्या से प्रभावित होंगे। जिनमें भारत भी पानी की कमी वाले देशों में से एक होगा। संयुक्त राष्ट्र द्वारा किये गये आकलन के अनुसार भारत में प्रतिव्यक्ति जल की उपलब्धता 1.760 घनमीटर प्रतिवर्ष है। 180 देशों में इसका दर्जा 133वां है तथा जल संसाधनों के गुणवत्ता आकलन में 120वां स्थान है। भारत की आबादी जहाँ विश्व की 16 प्रतिशत है वहीं जल संसाधन मात्र 2.45 प्रतिशत है। जनसंख्या के निरंतर बढ़ते दबाव के कारण एवं जल स्रोतों के असीमित दोहन से आगामी कुछ दशकों में जल संकट इतना अधिक गहरा जाएगा कि पेयजल की आपूर्ति विकराल समस्या का रूप धारण कर लेगी।
राजस्थान देश का सर्वाधिक सूखा प्रांत होने के साथ-साथ क्षेत्रफल की दृष्टि से सबसे बड़ा राज्य है, जिसका क्षेत्रफल देश के क्षेत्रफल का 10.4 प्रतिशत है। राज्य की आबादी 5.4 प्रतिशत एवं पशुधन 1.87 प्रतिशत है, परंतु सतही जल उपलब्धता मात्र 1.16 प्रतिशत है एवं भूजल उपलब्धता भी 1.7 प्रतिशत है। वर्षा का राष्ट्रीय औसत जहाँ 1200 मि.मी. प्रतिवर्ष है वहीं राज्य का औसत मात्र 531 मि.मी. है। वर्षा अनिश्चित एवं अल्प है। पिछले 50 वर्षों में 43 बार राज्य में कहीं-न-कहीं अकाल हुआ है। इसकी अधिकांश नदियाँ और प्राकृतिक झीलें धीरे-धीरे विलुप्त हो रही हैं। कृषिमय क्षेत्र में केवल 25 प्रतिशत भाग ही सिंचित है। जो लगातार घट रहा है। राजस्थान का पश्चिमी क्षेत्र जिसका कुल भू-क्षेत्र 208751 वर्ग कि.मी. राज्य के लगभग 12 जिलों में फैला हुआ विकराल मरुस्थल जल की कमी से त्राहि-त्राहि करता, जनमानस हमेशा सूखे से ग्रसित रहता है।
यहाँ पर अल्प समय में होने वाली बहुत कम वर्षा (100 से 400 मि.मी.), अधिक तापमान (28 डिग्री - 48 डिग्री सेल्सियस) तीव्र वायु वेग 835 से 40 कि.मी. प्रतिघंटा) भरपूर वाष्पोत्सर्जन (1500-2000 मि.मी./वर्ष) धरती की कोख के साथ-साथ वहाँ पर निवास करने वाले बाशिंदों को भी सुखा देता है। दूर-दूर तक फैली मरुस्थलीय बंजर भूमि जिसमें कार्बनिक पदार्थ एवं पोषक तत्वों की कमी तथा 65 से 90 प्रतिशत तक बालू पानी रोकने में पूर्ण असमर्थ, अधिकांश वर्षा जल अपधावन द्वारा व्यर्थ बह जाता है। अभी तक हम वर्षा जल का केवल एक प्रतिशत भाग ही पूर्ण सुरक्षित रखने में समर्थ हो पाये हैं। यह क्षमता हमारे विकास की कहानी कहती है। तीव्र वेग से घटता हुआ जलस्तर एवं बढ़ता हुआ मरुस्थल हमें हर रोज विनाश के चेतावनी दे रहा है। अधिकांश गहरा भूमि जल गुणवत्ता में बहुत खराब है, 80 प्रतिशत से भी अधिक पानी का ई.सी. मान 2.2 डी.एस. प्रति मीटर (लवण युक्त) से भी अधिक है।
पूर्वी राजस्थान के आंकड़े कहते हैं कि 2001 के पहले तक पानी के मामले में हमारी स्थिति ठीक थी। धरती की कोख से जितना हम निकालते थे, उससे कहीं ज्यादा उसे वापस दे देते थे। 2001 और उसके बाद हम पानी का दोहन तो ज्यादा कर रहे हैं लेकिन पुनः संग्रहण की तरफ से मुँह मोड़ लिया है और यह अरुचि साल-दर-साल बढ़ती जा रही है। फिलहाल हम धरती से 1299 करोड़ क्यूबिक मीटर पानी निकाल रहे हैं तथा 1038 करोड़ क्यूबिक मीटर का पुनः भरण कर रही है। परिणामस्वरूप प्रतिवर्ष जलस्तर 0.10-1.0 मीटर गिर रहा है। अजमेर, अलवर, दौसा, जयपुर, जालौर, झुंझनू, जोधपुर, नागौर, पाली और सीकर जिलोें में .40-.60 मीटर, बांरा, भीलवाड़ा, बूंदी, चित्तौड़गढ़, करोली, धौलपुर, कोटा, राजसमंद, सवाईमाधोपुर, सिरोही और टोंक में 0.20 से 0.40 मीटर, बाड़मेर, भरतपुर, झालावाड़ और उदयपुर में 0.10 से 0.20 मीटर तथा बांसवाड़ा, डुंगरपुर, चुरू और जैसलमेर जिलों में 0.10 मीटर से कम गिरावट हो रही है।
आज पानी के दोषपूर्ण दोहन से राज्य की 237 पंचायत समितियों में से 220 पंचायत समितियों में भूजल स्तर लगातार गिर रहा है। वर्तमान में जलस्तर की दृष्टि से केवल 32 पंचायत समितियाँ ही सुरक्षित कही जा सकती हैं। यह सभी नहरों, बाँधों व समस्याग्रस्त क्षेत्रों के ब्लॉक हैं। आज भी हमें देखने को मिल रहा है कि पश्चिमी क्षेत्रों के लोग संरक्षण के तरीकों को ज्यादा अच्छी तरह से अपना रहे हैं। विगत सालों में वर्षा में कमी और तापमान में वृद्धि के कारण भी जल की उपलब्धता घट रही है, साथ ही आबादी के बढ़ते बोझ के कारण मांग भी निरंतर बढ़ती जा रही है, जिससे भूजल का दोहन भी बढ़ रहा है तथा आज भी हम लोगों के दैनिक जीवन में जल संरक्षण के उपाय नजर नहीं आते हैं, परिणामस्वरूप इसके स्तर में चिंताजनक गिरावट आ रही है।
21वीं सदी में पानी की कमी से प्रभावित होने वाले क्षेत्रों में उचित प्रबंध द्वारा पानी की उपलब्धता, गुणवत्ता तथा प्रचुरता की ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। जिसमें क्षेत्रीय जल भागीदारी के माध्यम से समन्वित जल ग्रहण प्रबंध ही एकमात्र उपाय है जिसे सामाजिक गतिशीलता के द्वारा महत्वपूर्ण साबित किया जा सकता है। अतः आज राज्य की जनता के लिये आवश्यक है कि वह जल की बूँद-बूँद का सदुपयोग करे एवं भूजल पुनर्भरण की ओर सक्रिय हो जाए और हम सब मिलकर इस प्राकृतिक अमूल्य धरोहर को अक्षुण्ण बनाये रखने के प्रयासों में जुट जायें। जल संरक्षण व समुचित उपयोग की विधियों व संरचनाओं को पुनः याद करके उपयोग करें जिससे हम अगली पीढ़ी को गौरव के साथ प्रचुर जल संसाधन की बहुमूल्य विरासत सौंप सकें।
(क) उचित प्रबंधन:- किसी भी वस्तु का संरक्षण करने में सबसे महत्त्वपूर्ण बात है कि उस वस्तु विशेष का उपयोग बहुत ही मितव्यता के साथ आवश्यकता के अनुसार ही करें। उपलब्ध उपयोगी जल की 70 प्रतिशत मात्रा का प्रयोग कृषि कार्यों एवं खाद्यान्न उत्पादन में किया जाता है। वर्तमान समय तक भी हमारी कृषि पद्धति जल संरक्षण के संपूर्ण उपायों को नहीं उपयोगी बना पायी बल्कि प्रयोग किये गये जल की अधिकांश मात्रा व्यर्थ ही बहा दी जाती है। अधिकांश वर्षाजल भूमि की भौतिक दशा ठीक नहीं होने के कारण अपधावन के रूप में व्यर्थ बह जाता है। वर्तमान समय में अधिक मात्रा में प्रयोग किये जाने वाले उर्वरकों के कारण भी फसलों की जल मांग में बढ़ोत्तरी होती है। मृदा में जैसे-जैसे जैविक अंश की कमी आई है, वैसे-वैसे जल धारण रखने की क्षमता में कमी आ रही है। इस प्रकार की स्थिति में हमें उपयोगी जल का बहुत मितव्ययता के साथ उपयोग करना चाहिए।
(I) उन्नत सिंचाई तकनीकी का प्रयोग: परंपरागत सिंचाई विधियों के उपयोग से प्रति इकाई क्षेत्र में ज्यादा पानी देना पड़ता है। अतः वर्तमान समय में बहुत आवश्यक है कि सिंचाई की उन्नत विधियों का प्रयोग करें जैसे: -
(1) फव्वारा सिंचाई पद्धति का प्रयोग:- सिंचाई के विभिन्न पद्धतियों में फव्वारा सिंचाई को अपनाकर जल प्रबंधन को सुनिश्चित किया जा सकता है और जल संरक्षण के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। इस विधि से सिंचाई में जल का अपव्यय नहीं होता है। अतः क्यारी विधि की अपेक्षा फव्वारा सिंचाई पद्धति उन्नत एवं आधुनिक होने के साथ-साथ प्रत्येक दृष्टिकोण से अत्यंत किफायती भी है। इस विधि में सिंचाई क्यारियों में न करके पाइपों एवं नोजलों के माध्यम से वर्षा के रूप में की जाती है। इस पद्धति में प्लास्टिक अथवा एल्युमीनियम पाइपों का खेत में जाल बिछाकर ऊँचे-नीचे, रेतीले, पहाड़ी व पथरीली सभी प्रकार की जमीन में सहजता से सिंचाई की जा सकती है। यह विधि जल संरक्षण के साथ-साथ मृदा अपरदन रोकने तथा भू-संरक्षण में भी सहायक है, क्योंकि इस विधि से सिंचाई करते समय जल बहकर बाहर नहीं जाता है। इस विधि द्वारा सिंचाई करने से क्यारियों में की गई सिंचाई तुलना में 30-40 प्रतिशत पानी की बचत होती है। इस बचत का उपयोग सिंचित क्षेत्र बढ़ाने भूमिगत जलस्तर सुदृढ़ करने, अधिक जल दोहन के कारणों से होने वाली हानि को रोकने में किया जा सकता है।
(2) बूँद-बूँद (ड्रिप) सिंचाई पद्धति का प्रयोगः- पानी की कमी देखते हुए इस अमूल्य संसाधन को आने वाली पीढ़ियों के लिये सुरक्षित रखने के लिये अति आवश्यक है कि उपलब्ध उपयोगी जल की दक्षता को बढ़ायें तथा बूँद-बूँद सिंचाई तकनीक को समय रहते अपनायें। जल प्रबंधन एवं उपलब्ध संसाधनों का भरपूर उपयोग के लिये ड्रिप प्रणाली एक अच्छा सिंचाई का साधन है। यह सिंचाई की नवीन पद्धति है, जिसके द्वारा पौधों को उसकी आवश्यकता के अनुसार मृदा के प्रकार, जलवायु, फसल की मांग, फसल की उम्र, फसल की प्रकृति को ध्यान रखते हुए बूँद-बूँद करके पौधों की जड़ों के पास जल उपलब्ध कराया जाता है। बूँद-बूँद विधि को अपनाने से लगभग 60-70 प्रतिशत पानी की बचत होती है। यह पद्धति रेतीली मिट्टी एवं ऊबड़-खाबड़ भूमि के लिये भी बहुत उपयोगी है। इसके साथ ही श्रम व आर्थिक बचत के साथ फसल की गुणवत्ता भी प्राप्त होती है। इस विधि से पौधे में सिंचाई जल का धीमा किंतु सतत प्रयोग करते हुए इसे पौधों को जड़ में ड्रिपर की मदद से सुगमतापूर्वक पहुँचाया जाता है। इस प्रकार मृदा में सिंचाई जल की गहराई में प्रवेश होने पर जल वाष्पीकरण तथा बहाव जैसे कारणों से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है। इससे पानी की 60-70 प्रतिशत मात्रा की बचत होती है।
(3) घड़ा सिंचाई पद्धति:- जहाँ पानी की ज्यादा कमी एवं भूमिगत जल लवणीय या क्षारीय प्रकृति के हों तथा क्षेत्र में सतही सिंचाई संभव नहीं हो वहाँ मिट्टी के घड़ों का प्रयोग करके फसल उत्पादन एवं फल उद्यान विकसित किये जा सकते हैं। इस पद्धति में 50-80 प्रतिशत तक पानी की बचत होती है। फसल की आवश्यकता के अनुसार घड़ों की संख्या 100-5000 प्रति हेक्टेयर होती है। इनको मृदा-सतह तक भूमि में दबा दिया जाता तथा आवश्यक अंतराल पर उसमें पानी डालते रहते हैं। जल की आवश्यकता प्रति हेक्टेयर क्षेत्र में लगाये गये घड़ों की संख्या, उगाई जाने वाली फसल, जल की गुणवत्ता एवं पानी भरने के अंतराल आदि कारणों पर निर्भर है। अधिकांश सब्जी वाली फसलों में इस पद्धति के उपयोग द्वारा लवणीय जल का प्रयोग भी किया जा सकता है। सतही सिंचाई विधि से अधिकांश सब्ज़ियाँ 2-3 डेसी सी./मी. की लवणता वाले जल से ही उगाई जा सकती है। घड़ा सिंचाई विधि द्वारा अत्यधिक लवणीय जल का सफलतापूर्वक उपयोग करके अच्छे जल के बराबर पैदावार प्राप्त कर सकते हैं।
(II) फसलों को आवश्यकतानुसार पानी दें:- जिन क्षेत्रों में अभी पानी की थोड़ी बहुत उपलब्धता है उन क्षेत्रों में आज भी फसल की माँग से कई गुना पानी का प्रयोग कर देते हैं। जिससे फसल की उपज में भी कमी आ जाती है। फसल उत्पादन में सिंचाई के समय का जितना महत्त्व है उतना ही फसल की आवश्यकतानुसार जल की मात्रा का भी है। जल संरक्षण एवं उसके उचित प्रयोग के लिये आवश्यक है कि किसी फसल में कितनी सिंचाई और एक सिंचाई में कितने जल की मात्रा दी जाय, यह जानना भी अति आवश्यक है कि किसी फसल के लिये जल की मात्रा आवश्यकता विभिन्न कारकों पर निर्भर करती है। इनमें फसल की किस्म, भूमि की किस्म, बुवाई का समय, जलवायु आदि प्रमुख हैं। विभिन्न फसलों के लिये सिंचाई की जल मांग एवं क्रांतिक अवस्थाएँ अलग-अलग होती है। अतः कम पानी उपलब्धता वाले क्षेत्रों के लिये आवश्यक है कि सिंचाई मात्रा क्रांतिक अवस्थाओं में करे तथा अतिरिक्त मात्रा में जल नहीं देकर केवल जल मांग के अनुसार ही सिंचाई करें।
फसल की जल आवश्यकता=वाष्पोत्सर्जन+वाष्पीकरण+सिंचाई के जल की हानि+विशेष आवश्यकतायें
सारणी-1. सिंचाई के लिये फसलों की क्रांतिक अवस्थायें |
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गेहूँ |
क्राउन जड़ निकलते समय (21 दिन बाद), कल्ले निकलते समय दानों में दूध बनाते समय। |
जौ |
कल्ले शुरू होते समय, दाने भरते समय। |
चना |
फूल आने से पहले, फली बनते समय। |
सरसों |
फूल आने से पहले, फली बनते समय। |
अलसी |
फूल आने से पहले, फलियाँ लगने के समय। |
आलू |
भूस्तानी, आलू बनते समय, आलू बढ़ते समय। |
गन्ना |
अंकुरण कल्ले निकलते समय, बढ़ने के समय। |
कपास |
डोडे वाली शाखायें बनते समय, फूल आते समय व डोडे बनते समय। |
तम्बाकू |
चुँटाई के समय। |
मूंगफली |
सुइयाँ बनने से मूंगफली बनना शुरू होने तक। |
धान |
कल्ले निकलते समय, फूल आने से पहले व फूल आते समय। |
बाजरा |
फूल आते समय। |
ज्वार |
पौधे की देर वाली अवस्था, फूल आते समय। |
मक्का |
नरमन्जरी आते समय, भुट्टे के बनते समय। |
(III) फसल योजना तैयार करना:- पानी की उपलब्धता के अनुसार फसल योजना तैयार करनी चाहिए। पर्याप्त सिंचाई की सुविधा उपलब्ध होने पर मक्का-गेहूँ या बाजरा-गेहूँ फसल चक्र उपयुक्त होता है। जब एक ही सिंचाई उपलब्ध हो तो चना, तारामिरा, दो सिंचाई उपलब्ध हो तो सरसों, धनिया अधिक लाभप्रद रहता है। तीन या तीन से अधिक सिंचाई मिलने पर गेहूँ की खेती करनी चाहिए। खरीफ में वर्षा न होने या देरी से होने की स्थिति में फरीफ में बुवाई नहीं करनी चाहिए तथा नमी संचय कर चना, तोरिया या सरसों की बुवाई करनी चाहिए, जिससे वर्षा की नमी का लाभ लेते हुए एक सिंचाई से भी इन फसलों से अधिक लाभ लिया जा सकता है।
(IV) फसलों एवं किस्मों का चुनाव:- पानी की कमी वाले क्षेत्रों में सूखा सहने वाली, कम अवधि में पकने वाली फसलों का चयन किया जाना चाहिए। जैसे ज्वार, बाजरा, अरंडी, मोठ, मूंग, तिल तारामीरा, कुसुम व चंवला आदि। फसल विशेष के चयन के बाद उनकी ऐसी किस्मों का चुनाव करें जो कम समय में पककर तैयार हो जाती हों तथा अधिक उपज भी देती हों।
(ख) वर्षा जल का संग्रहण:- राजस्थान में संपूर्ण वर्षा जल की लगभग 70-80 प्रतिशत मात्रा मात्र 2-7 दिनों में बरस जाती है। कम समय में बरसा अधिक पानी न केवल अपधावन के रूप में व्यर्थ जाता है, बल्कि अपने साथ उपजाऊ मिट्टी भी बहा ले जाता है। यदि उचित जल प्रबंधन विधियों द्वारा वर्षा के जल संग्रहीत करके उससे वैज्ञानिक विधियों, द्वारा खेती की जाए तो भूमि कटाव रोकने के अतिरिक्त, फसल उत्पादन में स्थायित्व प्राप्त किया जा सकता है और आज तेजी से गिरते हुए भूजल स्तर को काफी हद तक रोका जा सकता है।
(1) खडीन का निर्माण:- वर्षाजल को संग्रहित रखने क लिये ढालू खेतों में ढलान वाले क्षेत्र में वर्षाजल की उपलब्धता के अनुसार जल आगोर (कैचमेंट क्षेत्र) से उन्नत तकनीक द्वारा जल संग्रहण रखने आकृति (खडीन) में वर्षा के पानी को एकत्रित कर लिया जाता है। वर्षाजल को लंबे समय तक संग्रहीत रखने के लिये खडीन की पेंदी में चिकनी मृदा की एक पस्त या पॉलीथीन शीट डाल दी जाती है। जिससे अपक्षालन द्वारा पानी का नुकसान रुक जाता है। खडीन में संग्रहित पानी का उपयोग फसल उत्पादन के लिये किया जा सकता है। साथ ही खडीन क्षेत्र में रबी मौसम में अच्छी फसल प्राप्त की जा सकती है।
(2) सोख्ता गड्ढा:- सोख्ता गड्ढे का उपयोग भूजलस्तर को स्थाई रखने हेतु प्रयुक्त किया जाता है। इन गड्ढों के माध्यम से अपवाह के रूप में बहने वाले फालतू जल का मृदा में पुनः भरण करके जलस्तर को स्थायित्व दिया जा सकता है। बरसाती पानी बहकर निकलने वाले मार्गों पर सोख्ता गड्ढा बनाना चाहिए। इस गड्ढे का आकार स्थानीय परिस्थिति के अनुरूप गोल, चौकोर या किसी भी आकार का हो सकता है। इस गड्ढे की लंबाई, चौड़ाई और गहराई वर्षाजल के वेग और उससे मिलने वाली संभावित मात्रा पर निर्भर करती है। साधारणतया तीन मीटर गहरे सोख्ता गड्ढे में 1.5 मीटर मोटी बोल्डर की परत चढ़ायें। इसके ऊपर बजरी की परत तथा मोटी रेत की लगभग 0.5 मीटर मोटी परत चढ़ायें। इसके बाद बारीक रेत से भरकर ऊपर जाली या खजूर की पत्तियाँ डाल दें। जिससे इसमें पानी गाद या कचरा प्रवेश न कर सके। इसे हैंडपम्प के बहने वाले पानी के स्थान पर भी बनाया जा सकता है।
(3) टांका:- यह जल संग्रहण का पारंपरिक तरीका है। इसका उपयोग मुख्यतया पश्चिमी राजस्थान में बहुत होता है। इसका उद्देश्य बरसात के पानी को एक पक्के कुंड या हौज में एकत्रित करना होता है, जिसको जरूरत के मुताबिक उपयोग में लिया जा सकता है। घरों की छतों पर बरसने वाले पानी को जमीन के नीचे बनाए गए टांकों में भरा जाता है और इसे अच्छी तरह ढक कर रखा जाता है। इसे टांकों का आकार जल ग्रहण क्षेत्र अर्थात छतों में वर्षाजल एकत्रित करने की क्षमता पर निर्भर करता है। टांका सभी तरफ से पक्का बनाया जाता है। ताकि पानी कहीं से भी रिसकर न बहे।
(4) तलाइयों का निर्माण:- अधिक ढलान एवं बड़े खेतों के मध्य भाग में भी ढलानकर गड्ढे बनाए जा सकते हैं। जिससे इसमें चारों तरफ का बहने वाला बरसाती पानी आकर जमा हो सके। इसे पानी को लंबे समय तक सुरक्षित रखने के लिये तलाई के पेंदे में प्राकृतिक रूप से बनी तलाई की मृदा या पहाड़ों से निकाली गई मोहरम (चिकनी लेह) डाल सकते हैं। पानी सतह से वाष्प के रूप में होने वाली हानि को रोकने के लिये वाष्परोधी रसायनों का छिड़काव किया जा सकता है।
(5) कंटूर खेती:- तीव्र ढलानदार क्षेत्रों में संपूर्ण वर्षाजल बहुत शीघ्रता के साथ बह जाता है तथा उपजाऊ मृदा की ऊपरी परत को भारी नुकसान होता है। इन क्षेत्रों में खेतों की ढलान के समांतर छोटे-छोटे भागों में बाँटकर सीढ़ीनुमा संरचना प्रदान की जाती है जिससे पानी का बहाव तीव्र नहीं हो पाता है और प्रत्येक खेत का पानी उसी क्षेत्र में रुक जाता है। खेत में एकत्रित होने वाले पानी को खडीन एवं टांका बनाकर भर लिया जाता है अथवा एनीकट द्वारा सुरक्षित तरीकों से निकाल दिया जाता है।
(ग) मृदा की जलधारण क्षमता में वृद्धि एवं प्रबंधन:- राजस्थान के सर्वाधिक क्षेत्र में रेतीली मृदा पाई जाती है। इनमें कार्बनिक पदार्थ की मात्रा 1 प्रतिशत से भी कम पाई जाती है। मृदाओं की जलधारण क्षमता बहुत कम है। इससे वर्षा व सिंचाई जल का पूर्ण उपयोग नहीं हो पाता है। मृदा की सिंचाई जलधारण क्षमता में वृद्धि करने के लिये उचित भू-परिस्करण खेतों की मेड़बंदी, कृषि वानिकी, कृषि उद्यानिकी के साथ ही प्रत्येक तीन वर्ष बाद 10-15 टन कार्बनिक खाद प्रति हेक्टेयर का प्रयोग करना चाहिए।
(1) उचित भू-परिष्करण:- उचित भू-परिस्करण के द्वारा खेत में उगने वाले खरपतवारों को नियंत्रित करने के अतिरिक्त भूमि में वर्षाजल को धारण करने की क्षमता बढ़ती है। जिसके परिणामस्वरूप वर्षाजल की अपधावन द्वारा क्षति कम होती है तथा खेत में नमी अधिक समय तक संग्रहीत रहती है। चिकनी मृदाओं में ग्रीष्म कालीन जोत और बालू मृदा में वर्षा के तुरंत पूर्व की गई जोत बहुत प्रभावी रहती है।
(2) खेतों की मेड़ बंदी:- खेत का पानी खेत में रोकने के लिये खेत के चारों ओर मजबूत मेड़बंदी आवश्यक है। क्षति ग्रस्त मेड़ों की मरम्मत वर्षा से पूर्व कर लेनी चाहिए। आजकल सामान्य रूप से देखने को मिलता है कि दोनों ओर के खेत मालिक मेड़ को काटते हैं परंतु उन्हें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि मेड़बंदी पानी रोकने के अतिरिक्त मृदा एवं पोषक तत्वों को खेत से बाहर जाने से रोकती है जिससे हमारे खेती की उर्वरा क्षमता में वृद्धि होती है।
(3) जैविक खादों का प्रयोग:- भूमि में लगातार अधिक मात्रा में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग करने से मृदा की जल धारण करने की क्षमता में कमी आती है तथा सिंचाई एवं वर्षाजल की अधिकांश मात्रा खेत से फालतू बह जाती है। अतः भूमि की उर्वराशक्ति बनाये रखने व अधिक पैदावार प्राप्त करेन के लिये आवश्यक है कि भूमि में अधिक मात्रा में जैविक खादों का प्रयोग करना चाहिए जिससे भूमि की उर्वरता के साथ-साथ अधिक नमी संग्रहण में महत्त्वपूर्ण योगदान मिलेगा। कार्बनिक खादों में गोबर की खाद, कंपोस्ट खाद, हरी खाद, नीम खली तथा वर्मी कंपोस्ट के प्रयोग से मृदा जल संग्रहण की क्षमता में बहुत वृद्धि होती है तथा लंबे समय तक नमी बनी रहती है।
(4) कृषि वानिकी:- शुष्क खेत में नमी व भूमि संरक्षण के लिये कृषि वानिकी बहुत महत्त्वपूर्ण है। वृक्ष भूमि को हवा व पानी द्वारा होने वाले कटाव से बचाते हैं। भूमि में पत्तियाँ मिलने से कार्बनिक पदार्थ बढ़ता है जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति तथा पानी ग्रहण करने की क्षमता बढ़ती है। पेड़ अपधावन द्वारा बहने वाले पानी की गति में अवरोध उत्पन्न कर भूमि कटाव को कम करते हैं। जिन क्षेत्रों में सघन वन होते हैं, वहाँ वातावरण में नमी अधिक पाई जाती है जिससे ठंडक पैदा होती है और वर्षा का आवागमन भी बढ़ता है। इसके अतिरिक्त वृक्षों से चारा, जलाऊ लकड़ी, गोंद, फल व अन्य उत्पाद भी प्राप्त होते हैं। वृक्षों के साथ फसल उगाने से फसलों को अधिक नमी व पोषक तत्व प्राप्त होते हैं। कृषि वानिकी में खेजड़ी, देशी बबूल, रोहिडा के पौधे लगाने चाहिए, खेजड़ी, के वृक्षों के साथ बाजरा, मूंग, मोठ, ग्वार, गेहूँ, जौ, चना व सरसों फसलें सामान्य से अधिक पैदावार देती हैं।
(5) कृषि उद्यानिकी:- कृषि उद्यानिकी पद्धति में फलदार पौधों की दो पंक्तियों के मध्य शीघ्र पकने वाली फसलें उगायी जा सकती हैं। शुष्क क्षेत्र में सफलता पूर्वक उत्पादन देने वाले फल वृक्ष बेर, लसोहडा, बेलपत्र, आंवला, फल उत्पादन के साथ-साथ जलस्तर को गिरने से रोकने में महत्त्वपूर्ण भागीदारी निभाते हैं। इन वृक्षों के लगे रहने से मृदा कटाव में कमी तथा मृदा की जलधारण क्षमता में बढ़ोत्तरी होती है। इस पद्धति में फल की पैदावार के अतिरिक्त फसल उत्पादन भी प्राप्त कर आमदनी बढ़ाई जा सकती है। इन सभी फल वृक्षों को पानी की अधिक आवश्यकता भी नहीं होती जिससे पानी की आवश्यकता में भी कमी आयेगी।
(I) मृदा जल हानि में कमी:- राजस्थान के कृषिमय क्षेत्र में केवल 25 प्रतिशत क्षेत्र में सिंचाई सुविधा उपलब्ध है। इन तथ्यों से स्पष्ट है कि राजस्थान के संदर्भ में मृदा में नमी के संरक्षण का कार्य महत्त्वपूर्ण है क्योंकि मई एवं जून माह के दिनों तापक्रम 40 से 45 डिग्री सेंटीग्रेड हो जाता है। इन क्षेत्रों में वायु की गति भी तेज रहती है। अधिक तापमान व गतिशील वायु की वजह से वाष्पीकरण एवं उत्संवेदन की गति तेज हो जाती है। अत्यधिक वाष्पीकरण के कारण जल का ह्रास तीव्र गति से होता है तथा मृदा नमी में कमी हो जाती है। असिंचित क्षेत्रों में नमी संरक्षण हेतु निम्न उपाय किये जाने चाहिए:-
(1) खेतों की सतह पर पलवार का प्रयोग:- शुष्क कृषि क्षेत्रों में वाष्पीकरण द्वारा भूमि से नमी की अधिक हानि होती है जिसके कारण वर्षा रहित दिनों में पौधे नमी के अभाव में सूखते रहते हैं। संचित नमी के वाष्पीकरण द्वारा होने वाली हानि को रोकने के लिये मृदा सतह पर फसलों के अवशेष, गन्ना, अरहर की सूखी पत्तियाँ, सूखी घास, गोबर की खाद, कम्पोस्ट खाद, लकड़ी का बुरादा व पॉलीथीन की चादर पलवार के रूप में भूमि की सतह पर प्रयोग करनी चाहिए। वर्षा एवं सिंचाई के बाद कुदाली चलाकर भूमि की सतह पर ढीली मिट्टी की लगभग 5 सेमी, मोटी परत बनाकर भी मृदा नमी को संरक्षित किया जा सकता है।
(2) वाष्पोत्सर्जन हानि कम करना:- जिन स्थानों पर वातावरण गर्म एवं शुष्क होता है वहाँ पौधों में उपस्थित पानी की अधिकांश मात्रा पौधों की सतह एवं पत्तियों द्वारा वाष्पोत्सर्जन के रूप में बाहर निकल जाती है। वाष्पोत्सर्जन कम करने के लिये वाष्पोत्सर्जन विरोधी पदार्थ जैसे केओलिनाइट, सक्सीनिक अम्ल, एबसेसिस अम्ल, चूना पानी का प्रयोग पौधों की पत्तियों एवं तने पर करना चाहिए जिससे पौधे की सतह से होने वाली पानी की हानि को काफी हद तक रोका जा सकता है।
(3) खरपतवार नियंत्रण:- खरपतवार पोषक तत्व, नमी, स्थान तथा प्रकाश आदि के लिये प्रतियोगिता कर फसल की वृद्धि, उपज व गुणों में ह्रास करते रहते हैं। खरपतवार का जड़ तंत्र फसलों की अपेक्षा ज्यादा विकसित होने के कारण भूमि की गहराई से नमी का अवशोषण करते हैं। अतः मृदा में नमी को बचाए रखने के लिये आवश्यक है कि खरपतवार प्रारंभिक अवस्था से ही नियंत्रित होने चाहिए, खरपतवारों को भू-परिष्करण गुड़ाई और खरपतवारनाशी सभी के समन्वित प्रयोग द्वारा प्रभावी रूप से नियंत्रित किया जा सकता है।
‘‘जल एक अमूल्य नष्ट होने वाली निधि है। प्रकृति ने हमें यह उपहार स्वरूप भेंट की है। इस पर हमारा नैतिक दायित्व बनता है कि इस अमृत को आने वाली पीढ़ियों के लिये संजोकर रखें, इस सुंदरतम सृष्टि का अस्तित्व लंबे समय तक बनाये रखने के लिये हमें जल की प्रत्येक बूँद को मितव्ययता के साथ प्रयोग में लेकर आने वाली नई पीढ़ी को भी जल की उपयोगिता समझानी होगी। कहीं ऐसा न हो कि यह अमृत समय से पहले ही नष्ट हो जाय।
आज आवश्यकता है एक जल क्रांति की जिसमें किसानों और वैज्ञानिकों को एक चुनौती स्वीकार करनी होगी और खोजने होंगे नये-नये तरीके जिससे इस विलीन होती अमृत तुल्य विरासत को हमेशा-हमेशा के लिये बनाए रखा जा सके। वर्षा के पानी का संग्रह अवश्य करें ताकि जल संकट का सामना किया जा सके। प्रकृति के इस अनमोल उपहार को व्यर्थ न होने दें। वर्षा का पानी पेयजल के एक बड़े हिस्से को पूरा करने में सक्षम है तथा सिंचाई के लिये सर्वोत्तम है।’’
उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखकर कृषि में प्रयुक्त 70 प्रतिशत जल संपदा को संरक्षित रखते हुए खेती की जाये तो कृषि उत्पादन में टिकाऊपन लाया जा सकता है तथा आये दिन पड़ने वाले सूखे व अकाल से मुकाबला किया जा सकता है।
‘‘आओ सब मिलकर पेड़ लगाएँ, ये अमृत वर्षा करवाते हैं।’’
जिससे -
जीवन धारा बहती है।
जल धारा बहती है।
अमृत धारा बहती है।
‘‘जल ही जीवन है, आओ जीवन को बचाएँ’’
लेखक परिचय
डॉ. राम राज मीणा
उद्यान विशेषज्ञ, कृषि विज्ञान केन्द्र झालावाड़
डॉ. राजू लाल भारद्वाज
उद्यान विशेषज्ञ, कृषि विज्ञान केन्द्र, सिरोही-37001
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