अवन्ति की शिप्रा

कथा हमें तो बिलकुल रोचक नहीं मालूम हुई। महाराष्ट्रीयों ने शिप्रा का क्षिप्रा कब का कर डाला है। मुझे यही नाम अच्छा लगता है। क्षिप्रा माने तेजी से दौड़ने वाली। नर्मदा नदी का असली नाम है रेवा।जिस नदी का भूगोल में कोई नाम या महत्त्व नहीं हो सकता, ऐसी नदी कभी-कभी इतिहास में अच्छा स्थान पाती है और हमारे आदरयुक्त स्मरण की अधिकारणी बनती है। महाराष्ट्र की इन्द्रायणी को लीजिये। लोणावला के पास पहाड़ के जन्म लेकर देहू-आलन्दी के रास्ते आगे जाकर वह भीमा से मिलती है। भीमा अपनी वक्र गति के कारण चन्द्रभागा नाम पाकर कृष्णा में जा गिरती है। और, कृष्णा ऐसी ही अनेकानेक नदियों का जलभार लेकर महाराष्ट्र और आंध्र को बींधती और मनुष्य और पशु-पक्षियों का कल्याण करती पूर्वी समुद्र को अपना जीवन-सर्वस्व अर्पण करती है। कहां सागरकामिनी कृष्णा और कहां छोटी-सी इन्द्रायणी! लेकिन तुकाराम और ज्ञानेश्वर जैसे लोकोत्तर सन्तों के कारण यह नदी इतिहास-प्रसिद्ध हुई है। उसकी पावनता तो निर्विवाद कबूल की जाती है।

ऐसी ही एक छोटी-सी नदी मालवा में पुराण-विश्रुत, इतिहास-प्रसिद्ध और काव्य गीत हुई है। उसका नाम है सिप्रा, शिप्रा या क्षिप्रा। पता नहीं कि यह नाम किस ऋषि की ओर से उसे मिला। हमारे पुराणकार किसी भी नाम का संस्कृत बनाने में चतुर होते हैं। इतना ही नहीं, उसके नाम को सिद्ध करने के लिए कोई टेढ़ी-मेढ़ी पौराणिक वार्ता भी बना देते हैं। शिप्रा के शि,प और र ये तीन अक्षर लेकर उन्होंने कहा, शिवजी की ओर से पातित रक्त से बनी हुई नदी है शिप्रा। शिवजी ने भगवान् विष्णु की उंगली में अपने त्रिशूल से छेद किया और उंगली से निकलने वाला खून अपने कमण्डल में ले लिया। कमण्डल को भरकर वह बहने लगा। वहीं है शिप्रा नदी। यह कथा हमें तो बिलकुल रोचक नहीं मालूम हुई। महाराष्ट्रीयों ने शिप्रा का क्षिप्रा कब का कर डाला है। मुझे यही नाम अच्छा लगता है। क्षिप्रा माने तेजी से दौड़ने वाली। नर्मदा नदी का असली नाम है रेवा। वह नर्म देती है, इस वास्ते उसेक गुणगान रूप नर्मदा नाम बाद में प्रचलित हुआ। रेवा के माने हैं कूदने वाली। जिसके प्रवाह में अनेक छोटे-छोटे प्रपात होते हैं, उसे रेवा ही कहना चाहिए। इसी तरह जो पहाड़ों से द्रुत गति से दौड़ती है, वह क्षिप्रा ही हो सकती है। कुछ भी हो, पुराणों में और काव्यों में क्षिप्रा नहीं, किन्तु सिप्रा या शिप्रा नाम पाया जाता है।

इस नदी का वर्णन करते हुए पुराणकार और कवि थकते ही नहीं। तपस्विता, ज्ञानोपासना, रसिकता और विलासिता-मनुष्य जीवन के इन सब पहलुओं का उत्कर्ष इस नदी के किनारे हुआ है। हिरण्यकशिपु के पुत्र भक्त प्रहलाद की बात हम छोड़ दें। प्रत्यक्ष श्रीकृष्ण और उनके बड़े भाई बलराम दोनों ने, जब तक वसुदेव-देव की दास्यमुक्त नहीं हुए थे। पढ़ाई के बात सोचने से इनकार किया। पितृऋण से इस तरह मुक्त होते ही उन्होंने मथुरा-वृन्दावन छोड़कर उज्जयिनी जाकर सांदीपनि ऋषि के आश्रम में विद्याध्यन करने की ठानी। आज भी सांदीपनी ऋषि का आश्रम उज्जयिनी के पास, क्षिप्रा नदी के किनारे बताया जाता है। नदी का दर्शन करते ही मन में कृष्ण, सुदामा आदि ब्रह्मचारी यहां पानी में कैसे नहाते होंगे, तैरते होंगे और एक-दूसरे के मुंह पर पानी उछाल-उछालकर साँस लेना भी कैसा मुश्किल करते होंगे, इसका चित्र अंतःचक्षु के सामने खड़ा होता है।

जब मैं पहली बार इन्दौर से उज्जैन गया था, तब शिप्रा का दर्शन महाकालेश्वर के पास ही प्रथम किया था। सुभग-सलिला शिप्रा क्षीणस्रोता थी महाकालेश्वर भारत के विख्यात द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है। इसलिए असंख्य यात्री यहां आते ही हैं। और कुम्भ मेले के चार स्थानों में से उज्जयिनी भी होने के कारण सारे भारत के असंख्य साधु समय-समय पर यहां आ जाते हैं। शिप्रा नदी का अपना निजी माहात्म्य नहीं होता, तो भी भारत के लक्षावधि सन्त-महन्तो के और भक्तों के स्नान-पान-दान से इस नदी को एक अपूर्व माहात्म्य मिलता।

अत्यन्त भक्ति-भाव से शिप्रा को प्रणाम करके हमने महाकाल के दर्शन किये थे। लेकिन, शिप्रा का विशेष स्मरण मन में रहा उज्जैन के पास के कालियादह के कारण। प्राकृतिक सुन्दरता और पुरुषार्थी राजाओं की विलासिता के कारण यह स्थान आकर्षक हुआ है। कहते हैं, पुराणों में इस स्थान को ब्रह्मकुण्ड कहते थे और एक सूर्य-मंदिर यहां पर बना हुआ था, जो किसी विलासी राजा ने तोड़कर उसके पत्थर नदी पर पुल बनाने के काम में लिए यहां पर एक विलासगृह बांधा।

असली बात यह है कि यहां पर नदी का स्रोत दुभंग होकर काफी दूर तक दो धारा में बहता है और फिर से दोनों धाराएं एकत्र होकर आगे बहती हैं। यही है बीच के द्वीप की प्राकृतिक सुन्दरता। इस द्वीप पर आनंद से रहने के लिए बादशाह ने दो महल बंधवा लिये। इतने ऊंचे की ऊपर चढ़ने से सारे बेट की, आस-पास के मुल्क की और नदी की दोनों धाराओं की शोभा नयनों को तृप्ति देती है।

बादशाहों को इतने से संतोष नहीं हुआ। उन्होंने पुल के नीचे आती हुई धारा-को बड़े-बड़े पत्थरों के अनेक कुण्डों में भर दिया और बहा दिया। कुण्डों के आस-पास बैठने के लिए अच्छे-अच्छे मण्डप बनाये, जहां गर्मी में दोपहर को भी अच्छी ठण्डक का अनुभव हो। इन कुण्डों में बादशाह और उनकी बेग में दोपहर को आकर स्नान करती थीं और आमोद-प्रमोद में आस-पास की गर्मी को भूल जाती थीं।

कहते हैं कि किसी बादशाह ने अपनी विलास-शक्ति बढ़ाने के लिए पारे की कुछ दवा खाई, जिसके कारण उसके शरीर में दाह होने लगा। उससे बचने के लिए वह इन कुण्डों में घंटों तक सोता था। एक दिन राजा इस कुण्ड में बेहोश हालत में पड़ा था तब एक नौकर ने घबराकर उसके जिस्म को कुण्ड से बाहर निकाला। जब राजा होश में आया, तब नौकर पर गुस्से होकर राजा के शरीर का स्पर्श करने के गुनाह की सजा के तौर पर उसके दोनों हाथ कटवाये। बाद में जब राजा सचमुच पानी में डूब गया, तब आस-पास के नौकर देखते ही रहे। किसी ने उसे बचाने की हिम्मत नहीं की। जब राजा की लाश पानी में ऊपर आकर तैरने लगी, तब लोगों ने उसे बाहर निकालने की हिम्मत की!

कहते हैं कि कालियादह के दो विलासगृह के बीच जो काफी अन्तर है, उसे काटने के लिए जमीन के अंदर से गुप्त रास्ता था। वहां रहने वाले राजा यजमान और मेंजबान गुप्त रीति से एक-दूसरे को इस रास्ते मिल सकते थे।

इस बार जब हम कालियादह देखने गये, तब शिप्रा में पानी बहुत था। बहुत से कुण्ड प्रवाह में डूब गये थे। रानियों को कपड़े बदलने के लिए जो दीवार से ढका हुआ कुण्ड था वहां तक हम जा भी नहीं सके।

अवन्ति का यह सारा प्रदेश प्राचीन राजाओं के शौर्य के कारण, संस्कारिता के कारण और विलासिता के कारण भी बड़ा ही मशहूर है। लेकिन, इस स्थान का असली महत्त्व इसलिए है कि पृथ्वी का मकरवृत्त साढ़े तेईस आक्षांश पर होता है, इसी उज्जैन से पसार होता है। गुजरात का कड़ीपाटण, मालवा की उज्जयिनी, रतलाम, भोपाल, जबलपुर, सोनहाट, रांची आदि सब स्थान इसी मकरवृत्त के नजदीक कहीं है और जिस तरह आज दुनिया के रेखांश लन्दन के पास ग्रीनविच में जो विश्वविख्यात वेधशाला है, वहीं से गिने जाने लगे हैं, उसी तरह प्राचीनकाल में भारत के विद्या-वैभव के दिनों में उज्जयिनी को ही शून्य रेखांश मानकर वहां से सब रेखांश गिने जाते थे। और, महाकालेश्वर भी काल-गणना के हिसाब से ही उज्जयिन में आकर बसे थे। महाकाल के मंदिर में एक ऐसा छेद है, जहां से अमुक तिथि को सूर्य की किरणे सीधे लिंग पर आ गिरती हैं। उज्जयिनी ज्योतिर्लिंग के कारण विख्यात थी ही, लेकिन ज्योतिर्विद्या की वेधशाला के कारण भी उज्जयिनी नगरी का भारत मे प्राधान्य है। यह वेधशाला भी शिप्रा नदी के किनारे ही राजा मानसिंह ने बंधवाई, जो आज भी अपना काम नियमित रूप से कर रही है।

इस नदी के किनारे किसी अनुकूल गुफा में राजा भर्तृहरि आदि अनेक योगी भी रहे हैं। काश! कोई भक्तहृदय इतिहास-संशोधक शिप्रा नदी का और उसके किनारे घटी हुई घटनाओं का अद्यतन इतिहास और शिप्रा से संलग्न दन्तकथाएं इकट्ठा कर देता।

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