औरत की दुनिया का सच

जब हम दुनिया की बात करते हैं, तो हमारी चेतना में एक व्यापक परिदृश्य उभरता है, लेकिन जब बहुत कुछ जानने की कोशिश में सूक्ष्मता से उस पर नजर डालते हैं तो लगता है जैसे इस एक दुनिया में भी कई-कई दुनियाएं शामिल हैं। इन्हीं कई-कई दुनियाओं में से एक दुनिया आदिवासी औरतों की भी है।

यों तो अन्य भारतीय समाज की तरह आदिवासी समाज भी महिलाओं और पुरुषों की सहभागिता से बना है, लेकिन इसमें जो एक सबसे बड़ी बात रेखांकित करने लायक है, वह है आदिवासी समाज की संरचना में आदिवासी महिलाओं का पुरुषों से चौगुना योगदान। सम्भव है, यह बात उस समाज के परम्परावादी पुरुष सत्ता के हिमायती लोगों के गले न उतरे, लेकिन मैं पूरे दावे के साथ कह सकती हूँ कि यह पूरी तरह व्यावहारिक कसौटी पर खरा उतरा है और सौ फीसदी सच है।

आदिवासी औरतें, जो आदिवासी समाज की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, उन्हें खेत-खलिहान, जंगलों-पहाड़ों ही नहीं, हाट-बाजारों तक में मेहनत-मजदूरी करते हुए देखा जा सकता है। अनाज के एक-एक दाने उसके पसीने से पुष्ट हुए हैं। उसके घर की बाहरी-भीतरी चिकनी दीवारों और उन पर अंकित अनेक चित्रों से उसकी मेहनत, रुचि और कल्पनाशीलता का अन्दाजा लगाया जा सकता है। वे भले ही तन की काली हो, पर दिल की बहुत भोली-भाली होती हैं। दीन-हीन अनपढ़ होकर भी बहुत समझदार और मेहनती होती हैं। झरने-सी उन्मुक्त निश्छल फेनिल हंसी और पुटुस के फूलों-सा उनके नैसर्गिक स्वभाव के क्या कहने! वे जंगलों से प्रेम करती हैं, नदियों-पहाडों से प्रेम करती हैं। मिट्टी से, गीतों से, फसलों से प्रेम करती हैं। उसके नाते-रिश्ते की परिधि में सिर्फ लोग-बाग नहीं आते, गाय, बकरी, सुअर भी आते हैं। घर की परिधि से बाहर दूर क्षितिज तक फैली होती हैं उनकी दुनिया। जहाँ होता है पहाड़-सा दुख! पहाड़-सा धीरज! जंगल की-सी वीरानियाँ...

वे अक्सर चुप रहकर सब कुछ सहती है। चौका-बर्तन, झाड़ू-बहाड़ू तो करती हीं हैं, खतरों से खेल जंगल-पहाड़ों में भटकती कन्द-मूल, फल, लकड़ी-झूरी, दातून-पत्तियाँ भी चुन-बिछ कर लाती हैं। हाट-बाजार जा-जाकर दोना-पत्तल, चटाई, झाड़ू, पंखा भी बेचती हैं, तो ईंट पाथती, मिट्टी काटती, पत्थर तोड़ती हुई मेहनत-मजदूरी भी करती हैं। दिन-दिन भर पानी में भीगकर धान रोपती हुई खुशी के गीत भी गाती हैं, और लीपती-पोतती घर की दीवारों के मन की दरारें भी पाटती हैं, घर का खर्चा-पानी भी चलाती हैं, तो अपने काहिल-निकम्मे पुरुषों के लिए दारू-ताड़ी, हड़िया भी जुटाती हैं। रोज मीलो पैदल चलकर पानी भी लाती हैं, और नशे में धुत लड़खड़ाते मर्दों को कन्धे का सहारा भी देती हैं। भूख, प्यास, थकान से पस्त रोज लात्त-घूसे भी सहती हैं और देर रात गए अनुत्साहित देह पर पाश्विक ताण्डव भी।

सब कुछ सुनती, मन ही मन गुनती और भीतर ही भीतर लकड़ी-सी धुनतीं निरन्तर ये महिलाएँ भला क्या जाने कि उनकी आँखों की पहुँच तक ही सीमित नहीं है उनकी दुनिया! उनकी दुनिया जैसी कई-कई दुनियाएं शामिल हैं इस दुनिया में। वे नहीं जानती कि इतनी महत्वपूर्ण भूमिकाओं और त्याग-बलिदानों के बावजूद उन्हें उनके समाज ने उचित मान-सम्मान और कहीं कोई जगह क्यों नहीं दिया? क्यों सम्पूर्ण चल-अचल सम्पति पर अपना अधिकार जमा छल, प्रपंच और परम्परा के नाम पर मकड़ी के जाले-सा उलझा कर रख दिया गया है उनका जीवन?

सचमुच बड़ी त्रासदीपूर्ण कथा है, हम आदिवासी महिलाओं की। शरीर के विभिन्न अंगों पर गुदे असंख्य गोदने विडम्बनाएं हैं उनके जीवन में। वे किसी पंचायत में नहीं बैठ सकती। किसी नीति-निर्धारण में उनकी पूछ नहीं होती। यहाँ तक कि जातीय देवालयों में उनके प्रवेश की कई सीमाएं और शर्ते हैं। कई बन्दिशें और वर्जनाएं भी हैं उनके लिए। जैसे वह हल नहीं छू सकती, चाहे लाख खेती का काम बिगड़ जाए। अगर भूल से कभी मजबूरी में छू तक लें तो प्रलय मच जाएगा। पुश्तैनी प्रधान की कुर्सी पर बैठे मगजहीन माझी हाड़ाम की पगड़ी नहीं गिर जाएगी। माझीथान में बैठे देवता का सिंहासन डोल उठेगा और फिर सजोनी किस्कू की तरह हल में बैल बनाकर जोतने जैसी अमानवीय घटनाओ को अंजाम देने से भी वे नहीं चुकेंगे। हल की तरह तीर-धनुष छूना भी उनके लिए अपराध है।

इसके लिए भी कुछ ऐसी ही निर्धारित हैं। जीवन में सिर्फ एक बार शादी के समय लग्न मण्डप में उन्हें तीर-धनुष छूने का मौका मिलता है, उसके बाद फिर कभी नहीं। लेकिन इतिहास साक्षी है, सन्ताल विद्रोह के समय आदिवासी औरतों ने 'फूलों-झानों' के रूप में जमकर अंग्रेज़ सिपाहियों का मुकाबला किया था और दर्जनों को मौत के घाट उतार दिया था। क्या यह काम उसने आंचा मारकर किया था? मगर मगजहीन ग्राम प्रधान और अन्धे सन्ताली पिछड़े समाज को क्या मालूम कि किस तरह एक सोची-समझी साजिश के तहत अंग्रेजी प्रपंच ने सन्तालों की आधी आबादी को निःशस्त्र बना दिया। और भी कई चीजें वर्जित है, जैसे वो छप्पर-छोनी नहीं कर सकती। चाहे घर चू रहा हो या छप्पर टूट कर गिर गया हो। इस अपराध के लिए भी वैसी ही सजा है। ऐसा करने पर नाक-कान काट घर से धकिया निकाल फेंकेगा दकियानूसी समाज! इतना ही नहीं, वे देव स्थलों में जाकर कोई पूजा-पाठ भी नहीं कर सकती। ऐसी मान्यता है कि उनके हाथ का बढ़ावा स्वीकार नहीं है उनके देवताओं को। इसलिए सिर्फ वहाँ नीपा-बोड़ी तक ही सीमित रखा गया है महिलाओं को। ‘जाहेर-वृक्ष' पर चढ़ना या उसकी डालियाँ तोड़ना भी महिलाओं के लिए वर्जित है। सन्तालों की मान्यता है कि 'जाहेर-वृक्ष' पर बोंगा निवास करते है। महिलाओं के उस पर चढ़ने से वह अपवित्र हो जाता है, जिससे बोंगा नाराज हो जाते हैं और वर्षा को रोक देते है, जिससे अकाल पड़ जाता है। किसी व्यक्ति का बाल काटना भी सन्ताल महिलाओं के लिए वर्जित है। ऐसी गलती करने पर माझी हाड़ाम के समक्ष उपासना स्वरूप उसे भेंट चढ़ानी पड़ती है। किसी कारणवश यदि सन्ताल महिलाओं को दुबारा शादी करनी हो तो पहले की तरह धूमधाम से विवाह करने की सख्त पाबन्दियां है जबकि पुरुषों के लिए ऐसा कोई बन्धन नहीं है। वह चाहे जितनी बार शादी करे, मन मुताबिक धूम-धड़ाका कर सकता है।

आज आजादी के इतने सालों बाद भी जबकि भारतीय संविधान में कितने संशोधन हुए, सन्ताली प्रथागत कानून में अब तक कोई संशोधन नहीं हुआ। 1956 में जब हिन्दू औरतों को पारिवारिक सम्पत्ति में हिस्सा देने के लिए हिन्दू उत्तराधिकारी अधिनियम बना तो उसी समय आदिवासी औरतों को उस बिरादरी से अलग छोड़ दिया गया, प्रथागत कानून के सामन्ती शिकंजे में घुट-घुटकर जीने और तिल-तिल मरने के लिए।

इन बन्दिशों और वर्जनाओं की तरह ही कई प्रथागत नियम और ऐसे कानून भी हैं जिनके मकड़जाल में उलझी ये औरतें घुट-घुट कर अभिशप्त जीवन जीने को मजबूर हैं। ऐसे ही प्रथागत कानूनों का दुष्परिणाम है कि आज सन्ताली समाज में प्रभुत्व और सम्पूर्ण चल-अचल सम्पत्ति का हकदार केवल पुरुष है। आदिवासी औरतों का अपने पिता की सम्पति पर कोई अधिकार नहीं बताता। जब तक उनकी शादी नहीं होती, उनके नाम से जमीन का एक टुकडा अलग रखा जाता है जिसकी उपज से उनका भरण-पोषण और शादी-ब्याह किया जाता है। शादी के बाद वह जमीन उनके भाइयों में बंट जाती है। अगर उनके पिता किसी को गोद लेकर घर-जंवाई बना लेता है तो ऐसी हालत में उनकी सम्पत्ति का हकदार उनका पति होता है। किसी कारणवश अगर लड़की को कुँवारी छोड़कर उनके पिता मर जाते हैं तो ऐसे में भी पिता की सम्पत्ति पर उनका कोई हक नहीं होता, बल्कि उनके पिता के भाइयों में वह बंट जाती है। इस मामले को लेकर अपने मौलिक धर्म के तहत सन्ताल आदिवासी समाज की मान्यता है कि उनके पूर्वजों की प्रेतात्माओं को अपने उत्तराधिकारियों से अन्न-जल मिलता है। लड़की तो पराया धन है, वह शादी के बाद जब चली जाएगी तो उन प्रेतात्माओं को अन्न-जल कौन देगा? लेकिन अफसोस जब शादी के बाद वो ससुराल जाती है तो वहाँ भी उन्हें अपने पति की सम्पत्ति पर कोई वैधानिक अधिकार नहीं मिलता। और अगर कहीं वह बीच में विधवा हो गई तो बस पूछिए मत।

जमीन-जायदाद हड़पने की नीयत से उनके गोतिया भाई एक षड्यंत्र के तहत तुरन्त उन पर 'डायन' का आरोप लगा देंगे। सन्ताल आदिवासी समाज में भूत-प्रेत, जादू-टोना आदि के प्रति भी गहरा अन्धविश्वास है। अगर गाँव व समाज में कहीं कोई बीमार पड़ा तो ऐसी स्थिति में भी झट से डायन का आरोप लगाकर उन्हें भरी सभा में अपमानित किया जाता है। खुलेआम नंगा नचाने से लेकर मारपीट और हत्या तक की नौबत आ जाती है। बस इसके लिए केवल ओझा-गुणी की सहमति जरूरी है। और ऐसी सहमति प्राप्त करना परम्परावादी पुरुष सत्ता के इस सन्ताली समाज में कोई ज्यादा कठिन कार्य नहीं है। अगर किसी तरह वे जिन्दा भी रही तो घर-घरकना में चाकरी के लिए दासी बना ली जाती है। मन से पवित्र और दिल में गहरी आस्था के बावजूद न जातीय देवालयों में उनका प्रवेश हो पाता है और न ही किसी शुभ कार्य में उनकी भागीदारी।

जमीन सहित समस्त प्राकृतिक साधनों पर सामूहिक स्वामित्व की बात झूठी है। पहले कभी रहा होगा, लेकिन अब यह बीते जमाने की बात हो गई। जब खतियान बना, सरकार को मालगुजारी दी जाने लगी तो खतियान में पुरुषों का नाम चढ़ा। इस तरह प्रथागत कानून के तहत समस्त शक्तियों का मालिक वह बना। उसे पूरा अधिकार है, वह एक को छोड़कर दूसरी औरत को अपने घर लाकर बिठा सकता है। दूसरी छोड़कर, तीसरी भी। जरूरत सिर्फ मन भर जाने का है और दो-तीन बच्चों के बाद मन भर जाना कोई कठिन काम नहीं है। इस समाज में तलाक की कोई व्यवस्था नहीं है, पूरी तरह निरंकुश और जंगली कानून है इसका।

कुँवारी लड़कियों के साथ भी अजीब विडम्बना है, कभी हाट-बाजार, मेला घूमने गई तो वहाँ भी जिसको जो पसन्द आया भगाकर ले गया। और साल-छह महीना पास रखकर मन हुआ तो शादी की, नहीं तो छोड़ दिया। भले ही लड़की उसे पसन्द करे न करें। ऐसे मामले में भी समाज का रवैया औरतों के पक्ष में सकारात्मक नहीं होता। पहले समुदाय में थोडी-बहुत नैतिकता और मानवीय भावना बची हुई थी। इस वजह से संयुक्त परिवार था। लोगों में सामुदायिकता और सामूहिकता थी। घर-गाँव की बहु-बेटियों के प्रति इज्जत और मान-सम्मान था, लेकिन आज ग्राम प्रधान की लोलुपता और पंचकुलीनों की चाटुकारिता ने सब कुछ तहस-नहस कर दिया है। परिणामत: आज सन्ताली समाज की औरतें न घर की है न घाट की।

इस तरह सन्ताली औरतों के लिए कहीं कोई व्यावहारिक व्यवस्था नहीं है, आदिवासी प्रथागत नियम-कानून में। विकासोन्मुख आदिवासियों का आदि सामुदायिक स्वरूप और सम्बन्ध आज पूरी तरह टूटकर बिखर चुका है। कल जो गाँवभर की बहन-बेटियां मानी जाती थीं आज उन्हें लूट-खसोट कर नोच लेना चाहते हैं। ऐसे मे, संवैधानिक व्यवस्था को भी लकवा मार गया है। वह भी आदिवासी पुरुष सत्ता और प्रधानी व्यवस्था को बनाए रखने के पक्ष में खड़ी दिखाई देती है। अंग्रेज गैंजर की रिपोर्ट ने भी सन्ताली प्रथागत कानून को वैध ठहराया और आदिवासी औरतों को जमीन पर अधिकार से वंचित कर दिया। आज आजादी के इतने सालों बाद भी जबकि भारतीय संविधान में कितने संशोधन हुए, सन्ताली प्रथागत कानून में अब तक कोई संशोधन नहीं हुआ। 1956 में जब हिन्दू औरतों को पारिवारिक सम्पत्ति में हिस्सा देने के लिए हिन्दू उत्तराधिकारी अधिनियम बना तो उसी समय आदिवासी औरतों को उस बिरादरी से अलग छोड़ दिया गया, प्रथागत कानून के सामन्ती शिकंजे में घुट-घुटकर जीने और तिल-तिल मरने के लिए।

आज जबकि पूरी दुनिया तेजी से उत्तरोत्तर विकास कर रही है, वैज्ञानिक मान्यताओं और तर्कसंगत आधुनिक सिद्धान्तों के सहारे कई परम्परागत समाज ऊपर उठ रहे हैं, वहीं पूर्णत: जंगली, आदिकालीन और अन्धविश्वासों पर आधारित सन्ताली समाज पूरी तरह आज भी प्रथागत कानून की गिरफ्त में है जिसका अधिक खमियाजा सन्ताल आदिवासी औरतों को भुगतना पड़ता है। उसी पर गिरती है गाज, उसी को सहनी पड़ती है विडम्बनाओं की मार।

आज जबकि अपने चारो ओर बदलती दुनिया को देखकर ये अपने अभिशप्त जीवन के खिलाफ जोर-शोर से आवाज उठा रही है, छोटी-छोटी जमातों से जुड़कर पढ़ना-लिखना और मुंह खोलना सीख रही हैं, अपने हक और अधिकारों के लिए मिल-बैठ कर बतियाने लगी हैं, प्रथागत कानून के लौह किवाडों को धकियाने लगी हैं, वर्तमान शिक्षा-संस्कृति और विभिन्न आर्थिक पहलुओं से जुड़कर बेटियों का जमीन पर अधिकार का मामला उठाने लगी हैं, तो उनकी प्रधानी व्यवस्था की दीमक लगी दीवारें हिलने लगी हैं और आज वे ऐसे-ऐसे कुतर्क गढ़ने में लगे हैं, जो बिना सिर-पैर की तरह बेबुनियाद और निराधार हैं।

आज वे लोग तर्क गढ़ रहे हैं कि अगर आदिवासी बेटियों का जमीन पर अधिकार हो गया तो अधिकू लोग जमीन हथियाने की नीयत से उसे बहला-फुसला लेंगें और इस तरह उनकी जमीनों का नुकसान होगा। ऐसे कुतर्क गढ़ने वाले लोग पूरे आंकड़े के साथ बताएं कि आजतक कितनी जमीनें इस तरह आदिवासी महिलाओं को बहला-फुसला कर दिकुओं ने हासिल की है? उनकी अधिकांश जमीनो का नुकसान उनकी महिलाओं से हुआ या फिर हड़िया-दारू-ताड़ी के चक्कर में पड़कर उनके पीने-खाने से?

अगर सचमुच आदिवासी समाज में इस मुद्दे को लेकर थोड़ी भी मानवता बाकी है, अपनी बहन-बहु-बेटियों के लिए मान-मर्यादा और इज्जत-प्रतिष्ठा बची है, तो वे तमाम पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर अपने परम्परागत रीति-रिवाजों और प्रथागत कानूनों की पुनर्व्याख्या करें। देशकाल परिस्थिति की कसौटी पर उसे जाँचे-परखे तथा वैज्ञानिक मान्यताओं और विकास के आधुनिक सिद्धान्तों के अनुरूप उसमें सन्तुलन बनाए। यहाँ सरकार की भी यह भूमिका होगी कि वह इस मामले में अपनी धृतराष्ट्री मुद्रा त्याग सही-सार्थक दिशा में उनके साथ मिलाकर कदम बढ़ाएं। नहीं तो महिला सशक्तिकरण वर्ष से जुड़े मुद्दे ही नहीं, तथाकथित महिला विकास की तमाम नीतियों और आजाद भारत की आजाद नारी जैसे खोखले नारों पर प्रश्नचिह्न लगता रहेगा।

सन्ताली से अनुवाद : अशोक सिंह

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