इस साल महाराष्ट्र सहित कई राज्यों में भयंकर सूखे के हालात हैं। ऐसे में आईपीएल मैचों को लेकर सवाल उठ रहे हैं। लेकिन बड़ा मुद्दा यह है कि दूसरे खेलों समेत स्वीमिंग पूल और अन्य चीजों में जिस तरह पानी की बर्बादी हो रही है, उस पर बात क्यों नहीं होती? पानी का मुद्दा हर विलासिता से ऊपर होना चाहिए और हर तरह से पानी बचाने पर जोर होना चाहिए। जमीन पर चौड़ी होती दरारें। चेहरे पर दिखाई देता उन दरारों का अक्स। उस अक्स में खत्म होती जिन्दगी का डर। आसमान की ओर ताकती आँखें। दुआ माँगते हाथ- ‘कि हे प्रभु! अब तो आँखों का पानी भी सूखता जा रहा है। अब तो जल बरसा दो।’ वह इन्तजार, जिसमें उम्मीदों के सारे तार ‘ऊपरवाले’ के साथ ही जुड़े दिखाई देते हैं। इस तरह की तस्वीर हम सभी ने देखी है और साल-दर-साल देखते आ रहे हैं।
इस साल उस तस्वीर के साथ एक और तस्वीर है। दूसरी तस्वीर में हरा-भरा मैदान है। पाइप से पानी देता हुआ माली है, जिसे अंग्रेजी या खेलों की भाषा में ग्राउंड्समैन कहते हैं। इन दोनों तस्वीरों के साथ यह सवाल उठता है कि जब जीने के लिये पानी नहीं है, तो खेल के लिये पानी का ऐसा इस्तेमाल क्या बर्बादी नहीं है?
यकीनन, यह बात सही है कि परिवार में अगर कोई मौत हो जाये, तो जश्न नहीं मनाया जाता। जब आपको रोज किसानों के मरने की खबर मिल रही हो, तो खेल का मैदान कहीं पीछे छूट जाता है। जिन्दगी होगी, तो खेल होते रहेंगे। पहले जिन्दगी की बात करनी चाहिए, लेकिन सवाल यही है कि क्या खेल ही इस हालात के लिये जिम्मेदार हैं, जो महाराष्ट्र से लेकर कई राज्यों में दिखाई दे रहे हैं। क्या खेलों और खासतौर पर क्रिकेट को हर मुद्दे का जिम्मेदार मान लेना ही हल है।
याद कीजिए, जब खेलों में भ्रष्टाचार की बात होती है, तो आमतौर पर यही सुनने को मिलता है कि आईपीएल बन्द कर दीजिए। जब भारत में कोई आतंकी हमला होता है, तो शुरुआती बातचीत इसी पर रहती है कि हम उस मुल्क के साथ क्रिकेट कैसे खेल सकते हैं, जो हमारे देश पर हमले करा रहा हो।
यह अलग बात है कि उसी वक्त देश के तमाम शहरों में बिजनेसमैन से लेकर संगीत से जुड़े लोग और यहाँ तक कि तमाम खिलाड़ी भी खेल रहे होते हैं, लेकिन नजर क्रिकेट पर होती है। इसकी चमक-दमक में लोगों को हर विपत्ति में पब्लिसिटी से लेकर तमाम सम्भावनाएँ दिखने लगती हैं। विपत्ति है… भीषण और राष्ट्रीय विपत्ति है। ऐसे में बन्द करना है, तो मनोरंजन से जुड़ी वे तमाम चीजें बन्द करनी चाहिए, जिनमें पानी खर्च होता है।
एक बात पर और गौर करना पड़ेगा कि तमाम मामलों में ऐसा क्यों होता है कि इवेंट शुरू होने के चन्द रोज पहले कोई-न-कोई कोर्ट की शरण ले लेता है। जो लोग पानी के लिये चिन्तित हैं, उनकी सोच पर कोई शक नहीं, लेकिन देश के कई राज्यों में सूखा पड़ा है, क्या यह बात मार्च से पहले किसी को पता नहीं थी? क्या उस वक्त यह पता नहीं था कि पहले टी 20 वर्ल्ड कप और फिर आईपीएल होना है? उसी वक्त कोर्ट जाने या सरकार से गुहार क्यों नहीं लगाई जाती? पहले भी होता आया है कि ऐसे समय कोर्ट का रुख किया जाये, जब इवेंट रद्द करने की गुंजाइश न बचे। उम्मीद है कि किसी को सूखे में इस तरह का व्यापार न दिखाई दिया हो।
हमको यह देखना पड़ेगा कि क्या महाराष्ट्र और बाकी सूखा प्रभावित राज्यों के सभी होटल्स में स्वीमिंग पूल और शॉवर पर रोक लगाई गई है? क्या सूखा प्रभावित राज्यों में पाइप से रिसते पानी को रोकने के लिये कदम उठाया गया है? अगर खेलों से ही पानी की बर्बादी पर फोकस रखें, तो क्या गोल्फ कोर्स की हरियाली बरकरार रखने के लिये इस्तेमाल हो रहे पानी पर किसी ने बात की? क्या किसी ने बताना चाहा कि क्रिकेट ही नहीं फुटबॉल मैच भी हो, तो स्टेडियम तैयार करने के लिये पानी की जरूरत होती है? जैसा मुम्बई में ही हुए आई लीग मैच में हुआ। हॉकी में तो बगैर पानी के टर्फ खेलने लायक नहीं होता। इन सब पर बात क्यों नहीं होती?
टीवी चैनल के प्राइम टाइम में चीखने के लिये यह यकीनन बहुत अच्छी लाइन है कि लोग मर रहे हैं और आप क्रिकेट खेलना चाहते हैं, लेकिन हमें यह ध्यान देना पड़ेगा कि क्या क्रिकेट ही वह वजह है, जिसे खेलने से लोग मर रहे हैं? एक रिपोर्ट के मुताबिक आईपीएल मैचों के लिये महाराष्ट्र में करीब साठ से सत्तर लाख लीटर पानी की जरूरत पड़ेगी। यकीनन काफी बड़ी मात्रा है, लेकिन यह भी जानना जरूरी है कि सूखाग्रस्त महाराष्ट्र में जितने पानी की जरूरत है, यह उसका महज 0.002 फीसद है।
इसमें कोई शक नहीं है कि इस बार पानी का संकट काफी गहरा है। 2014 में दक्षिण पश्चिम मानसून 12 फीसदी कम बरसात लेकर आया था। पिछले साल, यानी 2015 में बारिश दो फीसदी और कम हुई, यानी 14 फीसदी बारिश कम हुई। देश के 302 जिलों में 20 या उससे ज्यादा फीसदी बारिश की कमी हुई।
महाराष्ट्र, तेलंगाना, ओडिशा, मध्य प्रदेश, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश और कर्नाटक सूखाग्रस्त राज्य घोषित हुए हैं, यानी आईपीएल के दस में से छह शहर ऐसे हैं, जो सूखाग्रस्त राज्यों में हैं। ऐसे में सिर्फ महाराष्ट्र से ही आईपीएल मैच हटाने की बात क्यों की गई? भले ही सबसे ज्यादा प्रभावित यही राज्य है, लेकिन पानी की जरूरत बाकी राज्यों को भी है।
समस्या यही है कि हम असली समस्या पर बात नहीं करते। अगर एक साल सूखा था और दूसरे साल भी मॉनसून कमजोर होना तय हो चुका था, तो पिछले छह महीने में किस तरह के कदम उठाए गए? मराठवाड़ा के इलाके में गन्ने की खेती का मुद्दा तमाम लोग पिछले कुछ समय में उठाते रहे हैं। कम बारिश वाले इलाके में जिस तरह की फसलें उगाई जाती हैं, उन्हें कम करके गन्ने की खेती कैसे बढ़ती गई? कहा जाता है कि एक किलो चीनी बनने के लिये दो हजार लीटर पानी की जरूरत होती है। इससे समझा जा सकता है कि उस इलाके में पानी और गन्ने की खेती का क्या सम्बन्ध है?
क्रिकेट पर पानी बर्बाद होना यकीनन मुद्दा है, लेकिन वह एकमात्र मुद्दा नहीं है। न ही वह सबसे बड़ा मुद्दा है। सबसे बड़ा मुद्दा पानी बचाने का है। पानी के ऐसे इस्तेमाल का है कि सूखा पड़ने की सूरत में भी ऐसे भयावह हालात न हों, जैसे अभी दिखाई दे रहे हैं। यह सही है कि आईपीएल में देश की टीमें नहीं खेल रहीं। यह क्लबों का प्राइवेट टूर्नामेंट है।
ऐसे में प्राइवेट टूर्नामेंट पर मेहरबानी क्यों की जाये? बिल्कुल मत कीजिए, लेकिन टूर्नामेंट रोकने या मैच शिफ्ट करने के बजाय इन फ्रेंचाइजी को क्या कुछ गाँवों में पानी पहुँचाने की जिम्मेदारी नहीं दी जा सकती थी? क्या इन्हें नहीं कहा जा सकता था कि आपकी हर टीम दस गाँवों को पानी पहुँचाए। ऐसे में आठ फ्रेंचाइजी के मार्फत 80 गाँवों तक पानी पहुँच सकता था। यह तो न्यूनतम है।
अगर आईपीएल के पूर्व चेयरमैन ललित मोदी की बात को सच मानें तो टीवी प्रसारण अधिकार से भारत में उसे 812 करोड़ रुपए मिलते हैं। विदेश में प्रसारण, डिजिटल, मोबाइल-जैसी बातों को और जोड़ लिया जाये, तो रकम हजार करोड़ पार कर जाती है। मोदी के दावे की सच्चाई तो नहीं पता, लेकिन यह कोई भी बता सकता है कि आईपीएल से बीसीसीआई को बड़ी रकम मिलती है। उसे भी कुछ गाँवों की जिम्मेदारी लेने का आदेश दिया जा सकता है। कुछ हिस्सेदारी बड़े उद्योगपतियों की भी हो सकती है।
रेडीमेड या रेडी टू ईट खाने की तरह किसी भी समस्या को आधे घंटे की टीवी डिबेट से हल नहीं किया जा सकता। अगर वह हल होगा तो इसी तरह कि आईपीएल बन्द कर दीजिए, पानी की समस्या सुधर जाएगी। दिल्ली या मुम्बई-जैसे महानगरों के टीवी स्टूडियो में बैठे लोग अभी यह अन्दाजा लगाने में नाकाम हैं कि कुछ समय में ऐसे हालात बड़े शहरों तक भी पहुँचेंगे। वे वॉटर बॉडीज, यानी पानी इकट्ठा करने की जमीन को लेकर बात नहीं करते।
कंक्रीट के उस निर्माण पर बैन की बात नहीं करते, जिनकी वजह से वाटरबॉडीज कम होती जा रही हैं। जलस्तर कैसे हर साल और घटता जा रहा है इस पर कुछ नहीं होता। यह बात नहीं होती कि शहर से कस्बों और कस्बों से गाँवों तक समस्या कितनी गहरी है? न ही, गम्भीरता से यह बात होती है कि क्या वाकई गन्ने की खेती ने मराठवाड़ा को पानी के मामले में सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाया है। जमीन के मुद्दों के लिये जमीन पर आने की जरूरत होती है। समस्या यही है कि यहाँ भी जमीन सूखती जा रही है। दरारें गहराती जा रही हैं।… और आँखों का पानी भी सूखता जा रहा है।
(लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार हैं)
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Post By: RuralWater