आतंक बनाम आकर्षण

नदी बांधने की आकर्षक अनिवार्यता का परिणाम यह है कि आज यह सवाल भी गौण हो गया है कि युद्ध का वही एकांगी स्वरूप “आवश्यक” क्यों है? वह भी तब जबकि आज भारत के इतिहास में इस युद्ध के 43 वर्षों के परिणाम और अनुभव दर्ज हैं। इस युद्ध की संचालक सरकार द्वारा पेश दावों एवं आंकड़ों के रूप में और भुक्तभोगी जनता की हंसी व आंसुओं के रूप में भी। उनसे इस निष्कर्ष पर पहुँचना भी कठिन नहीं कि “प्रकृति के खिलाफ महायुद्ध” रूपी इन बड़ी-बड़ी परियोजनाओं से कुल फायदा अधिक हुआ या कि नुकसान? कौन-सी परियोजना सफल रही और कौन विफल?

बिहार में नदियों को बांधने के जारी ‘महायुद्ध’ के कारण लाखों की आबादी विस्थापन की पीड़ा झेल रही है, अरबों रुपये पानी में जा रहे हैं, करोड़ों की लूट हो रही है। परिणाम के रूप में कहीं बाढ़ का विराट रूप प्रकट हो रहा है और कहीं सुखाड़ का। नदी बांधने का उन्माद आज इस बुलंदी पर है कि समाज संचालकों की स्मृति से उस महत्वपूर्ण और भावी पीढ़ी को दिशा निर्देश देने वाली ‘बहस’ की याद भी लगभग मिट गयी है, जो गुलाम भारत में शुरू हुई थी। ऐसे में नदी को मुक्त करने की तकनीक कैसे विकसित हो सकती है? इसके लिए वर्तमान संस्कृति की मूल अवधारणा पर ही प्रहार होने का खतरा आ जायेगा। बिहार में छोटी-बड़ी कई-कई नदियों को बांधने का सिलसिला युद्धस्तर पर जारी है। कहीं लंबे-ऊंचे तटबंध, कहीं बड़े-बड़े बांध और बराज। नदियों को बांधने की बड़ी-बड़ी परियोजनाएं जैसे एक “महायुद्ध” की विविध कड़ियां हैं। यह महायुद्ध प्रकृति के खिलाफ लड़ा जा रहा है। कहीं इसका लक्ष्य बाढ़ पर नियंत्रण है और कहीं सुखाड़ पर विजय।

इन वृहद परियोजनाओं की निरंतर बढ़ती संख्या और वर्षों से जारी सिलसिला जैसे इस मान्यता की पुष्टि है कि यह महायुद्ध “अनिवार्य” है। इस पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं लग सकता। किसी भी युद्ध के लिए यह मान्य है कि लोग कटते-मरते हैं, बस्तियां, लुटती-उजड़ती हैं और अपहरण-बलात्कार होता है। इतिहास गवाह है कि इन परिणामों को संभावना और पूर्व अनुभव के बावजूद युद्ध नहीं टलता। अक्सर इन “सामान्य परिणामों” की धुंध में युद्ध के “महान” लक्ष्य खो जाते हैं। इसके बावजूद युद्ध रुकता नहीं है और इतिहास इस क्रूर तथ्य का भी साक्षी है कि ये सामान्य परिणाम युद्धोन्माद को बढ़ाते हैं।

बिहार में बड़ी परियोजनाओं के नाम पर जारी नदियों को बांधने का “महायुद्ध” भी आज ऐसे ही मुकाम पर है। लाखों की आबादी विस्थापन की पीड़ा झेल रही है। अरबों रुपये पानी में जा रहे हैं। करोड़ो की लूट हो रही है। परिणाम के रूप में कहीं बाढ़ का विराट रूप प्रकट हो रहा है और कहीं सुखाड़ का। भुक्तभोगी स्थानीय जनता की पीड़ा कहीं-कहीं आक्रोश में बदल रही है। इसके बावजूद परियोजनाओं के क्रियान्वयन की रफ्तार और नई-नई परियोजनाओं की मंजूरी इस बात का प्रमाण देती-सी लगती है कि प्रकृति के खिलाफ यह युद्ध “आकर्षक” है।

बहस भी बेमानी


नदी बांधने की आकर्षक अनिवार्यता का परिणाम यह है कि आज यह सवाल भी गौण हो गया है कि युद्ध का वही एकांगी स्वरूप “आवश्यक” क्यों है? वह भी तब जबकि आज भारत के इतिहास में इस युद्ध के 43 वर्षों के परिणाम और अनुभव दर्ज हैं। इस युद्ध की संचालक सरकार द्वारा पेश दावों एवं आंकड़ों के रूप में और भुक्तभोगी जनता की हंसी व आंसुओं के रूप में भी। उनसे इस निष्कर्ष पर पहुँचना भी कठिन नहीं कि “प्रकृति के खिलाफ महायुद्ध” रूपी इन बड़ी-बड़ी परियोजनाओं से कुल फायदा अधिक हुआ या कि नुकसान? कौन-सी परियोजना सफल रही और कौन विफल? अगर कहीं फायदा हुआ तो वह किसकी झोली में गया और नुकसान हुआ तो वह किस के सिर का बोझ बना? ये परियोजनाएं जनता की आर्थिक-सामाजिक आवश्यकता का परिणाम हैं या राजनेताओं की आकांक्षा।

लेकिन आज बड़ी परियोजनाएं आधुनिक विकास के पैमाने बनकर जैसे किसी भी तरह की बहस के दायरे से बाहर हो चुकी है। उनको आज “सब मर्जों की एक दवा” के रूप में इस तरह से पेश किया जा रहा है कि उन पर प्रश्नचिह्न लगाना या बहस की मांग करना सिर्फ “मरीज का प्रलाप” मानकर नकार दिया जा सके।

इन परियोजनाओं से जुड़े “वैज्ञानिक चिंतन” और “सत्ता-स्वार्थ” की ताकत इस कदर बढ़ चुकी है कि अब उनके खिलाफ आशंका एवं आक्रोश जाहिर करने वालों को अवैज्ञानिक या तेज रफ्तार विकास के दुश्मन करार देना, विरोध करने वालों का मुंह मुआवज़े से बंद करना अथवा विद्रोह को गोली-बंदूक के बल पर कुचलना किसी अन्य “विकल्प” की तलाश की तुलना में ज्यादा आसान माना जाने लगा है।

नदी बांधने का उन्माद आज इस बुलंदी पर है कि समाज के संचालकों की स्मृति से उस महत्वपूर्ण और भावी पीढ़ी को दिशा निर्देश देना वाली “बहस” की याद भी लगभग मिट गयी है, जो गुलाम भारत में शुरू हुई थी। आजाद भारत में तो दामोदर घाटी परियोजना और कोसी परियोजना के शुरू होते ही ऐसी हर बहस बेमानी ठहरा दी गयी।

बाढ़ नियंत्रण कि बाढ़ विभीषिका पर नियंत्रण


53 वर्ष पूर्व 1937 में 10 से 12 नवंबर तक पटना स्थित सिन्हा लाइब्रेरी से एक सम्मेलन हुआ। डॉ. राजेंद्र प्रसाद की पहल पर तत्कालीन गर्वनर श्री हैलेट द्वारा आयोजित उस सम्मेलन में बाढ़ प्रकोप के मूल कारण और नियंत्रण के वैकल्पिक उपायों पर लंबी और तीखी बहस हुई।

उस सम्मेलन में शामिल अधिकांश अभियंताओं, अंग्रेज प्रशासकों से लेकर भारतीय राजनेताओं तक की राय थी कि बाढ़ विभीषिका पर नियंत्रण के लिए नदियों को “बांधना” नहीं बल्कि उनको “मुक्त” करना अधिक कारगर विकल्प साबित होगा।

इस राय के मूल में यह अवधारणा निहित थी कि बिहार के कृषि क्षेत्र को बाढ़ की जरूरत है। असल सवाल “बाढ़ नियंत्रण” का नहीं बल्कि “बाढ़ विभीषिका के नियंत्रण” का है। नदियों के प्रवाह को मुक्त कर उसे जल्द से जल्द समुद्र में समाने के लिए प्रेरित करना “बाढ़” से होने वाले फायदे को कायम रखते हुए “बाढ़ विभीषिका” को कम करने का सही उपाय हो सकता है।

इसके लिए सम्मेलन में नदियों के प्रवाह को हर प्रकार के अवरोध से मुक्त करने के उपायों की वकालत करते हुए नदियों को तटबंधों से बांधने की तकनीक का पुरजोर तरीके से विरोध किया गया। उस वक्त तत्कालीन गवर्नर श्री हैलेट ने सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए 78 वर्षों के तकनीकी रिकार्डों का उल्लेख किया और यह साबित करने का प्रयास किया कि बिहार-बंगाल के नदी घाटी क्षेत्रों में सिर्फ 50 वर्ष के अंतराल में एक खतरनाक बाढ़ आती है। उसके लिए नदियों को तटबंधों से घेरना उचित नहीं है। श्री हैलेट ने तटबंधों के विरोध में यहां तक कहां “चीन की भी यही समस्या है। अमरीका में, जहां श्रेष्ठ तकनीकी जानकारी उपलब्ध है, वहां भी नदियों पर काबू पाने में तटबंध सफल नहीं हो पाये हैं। बाढ़ की समस्या के मामले में खुला दिमाग रखता हूं लेकिन दिल से मैं यह स्वीकार करता हूं कि तटबंध लाभ के मुकाबले अधिक नुकसान पहुँचाते हैं।”

बंगाल के तत्कालीन अभियंता कैप्टन हाल ने तो उस समय तक निर्मित तटबंधों को ध्वस्त करने की अपील की।

दूसरी ओर डॉ. राजेंद्र प्रसाद सहित कतिपय अन्य भारतीय राजनेताओं ने यह रेखांकित किया कि बिहार में बाढ़ की विभीषिका साल दर साल नयी बुलंदियों को छू रही है। उन्होंने उस वक्त तक निर्मित तटबंधों की उपयोगिता पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए नये विकल्पों की तलाश का आह्वान किया। डॉ. राजेंद्र प्रसाद के कहा कि समस्या के लिए समेकित समाधान की आवश्यकता है।

दृष्टि एक : दृष्टिकोण अलग


1937 से 1945 तक वह बहस जिंदा रही। 1937 की वह बहस इस मायने में “अधूरी” रही कि उसमें क्रियान्वयन के स्तर पर कोई ठोस फैसला नहीं किया जा सका लेकिन 1945 तक उस बहस में दी गयी चेतावनियां एवं सुझाव गुलाम भारत में किसी भी योजना की मंजूरी के लिए सर्वोच्च पैमाने बने रहे। भारत के आज़ाद होते ही वह बहस गुलाम भारत की पिछड़ी एवं पराजित मानसिकता का प्रतीक बन गयी।

इसके साथ ही पूरी तस्वीर बदल गयी। जहां “गुलाम भारत” नदियों को मुक्त करने व रखने की हिमायत कर रहा था, वहीं आजाद भारत नदियों को बांधने की हिम्मत करने लगा। शीघ्र ही आज़ाद भारत ने वह बहस एवं उसकी चेतावनियां ही नहीं भुला दी वरन् भविष्य के लिए उस तरह की किसी बहस की जरूरत को भी नामंज़ूर कर दिया।

1937 की बहस को नकारने के प्रथम परिणाम के रूप में दामोदर घाटी परियोजना और कोसी परियोजना प्रकट हुई। और, उस तरह की किसी “बहस की जरूरत” तक को नकारने के परिणाम हैं – बिहार में करीब 428 करोड़ रुपए के खर्च से अब तक निर्मित 3454 किलोमीटर लम्बे ऊंचे तटबंध तथा 5,600 करोड़, रुपये (1981 के मूल्यों के आधार पर) से निर्मित, निर्माणाधीन और प्रस्तावित वृहद एवं मध्यम परियोजनाएं।

तटबंधों एवं परियोजनाओं के वर्तमान महाजाल में उलझने के पूर्व उस “रहस्य” को रेखांकित करना प्रासंगिक होगा, जो 1937 की बहस और चिंतन की 1947 आते-आते पूरी तरह नकारने की “प्रक्रिया” में छिपा है।

यह रहस्य संक्रमण काल की उस राजनीति के विश्लेषण से स्पष्ट होगा, जो 1945 के आस-पास शुरू हुई थी और उथल-पुथल एवं अनिश्चितता के दौर से गुजरते हुए 1947 आते-आते दामोदर घाटी एवं कोसी परियोजनाओं के रूप में ठोस आकार ग्रहण करने लगी।

दूसरी ओर भारत में आज़ादी के आंदोलन के नेतृत्व को भी यह स्पष्ट नजर आने लगा था कि ब्रिटिश शासक चंद दिनों के मेहमान हैं। पाश्चात्य चिंतन एवं विश्व में तेजी से हो रहे परिवर्तनों के पारखी भारतीय राजनेताओं को “सत्ता” कोई सपना नहीं बल्कि वास्तविकता के रूप में बिल्कुल प्रत्यक्ष दिख रही थी। उनमें भारत को सेवा संघर्ष नहीं बल्कि सत्ता की आंखों से देखने की ललक जगने लगी। इस ललक का पहला संकेत यह था कि महात्मा गांधी जैसे नेता “आंदोलन” की प्रेरणा भर रह गये और पंडित जवाहरलाल नेहरू और उनके सहयोगी “आजादी” के असली “प्रवक्ता” बन गये। गांधी “भारत का अतीत” हो गए जबकि नेहरू “भारत का भविष्य” जो शीघ्र ही वर्तमान बनने वाला था 1937 की बहस के रिकॉर्ड उपलब्ध हैं। उस बहस के अध्ययन से यह स्पष्ट रूप से पहचाना जा सकता है कि ब्रिटिश शासकों एवं भारतीय राजनेताओं की “दृष्टि” एक जैसी थी लेकिन “दृष्टिकोण” में फर्क था। विज्ञान एवं तकनीक मानदंडों के आधार पर बाढ़ के कारण एवं निदान के प्रति ब्रिटिश शासकों एवं भारतीय राजनेताओं (भारतीय अभियंता भी उसमें शामिल थे।) की दृष्टि एक जैसी थी लेकिन उसके राजनीति नफा-नुकसान और “इस्तेमाल” के संदर्भ में दोनों पक्षों के दृष्टिकोण अलग-अलग थे। विश्लेषण के जरिये इस निष्कर्ष पर पहुँचना कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी कि भारत की आज़ादी के लिए संघर्षरत भारतीय राजनेता तकनीकी दृष्टि से जिस उपाय को समस्या का सही और कम नुकसानदेह निदान मान रहे थे, उसी उपाय को ब्रिटिश शासक वर्षों से चले आ रहे अपने साम्राज्यवादी शोषण को अक्षुण्ण रखने के राजनीतिक साधन के रूप में इस्तेमाल कर रहे थे। इसलिए दोनों पक्षों में नदी को मुक्त करने के बारे में एक जैसी दृष्टि थी। “नदी बांधना” भारतीय राजनेताओं के लिए तकनीकी दृष्टि से एकांगी समाधान था, समेकित नहीं। दूसरी ओर नदी बांधना ब्रिटिश शासकों के लिए राजनीतिक दृष्टि से अनावश्यक था। उस समय तक ब्रिटिश हुकूमत भारत की स्थाई संपत्ति को अपनी प्रचलित नीतियों के तहत किसी मेहनत के बगैर लूट रही थी। इस सीधी आय की तुलना में नदी बांधने में मेहनत और भारी पूँजी लगाना उसके लिए फ़िज़ूलखर्ची ही था।

1945 में अचानक स्थितियाँ बदलीं। द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटेन विजयी होकर भी पस्त था। उसकी आर्थिक स्थिति क्षत-विक्षत थी। उसके उद्धार के लिए ब्रिटेन के शोषण के प्रचलित जरिये नाकाफी साबित हो रहे थे। उसे शोषण के तेज और वृहद साधनों की खोज थी।

उसी वक्त ब्रिटानी हुकूमत को यह कड़ुवा एहसास भी हो चुका था कि अब भारत पर अपना कब्ज़ा बनाये रखना उसके बूते के बाहर है। यानि बितानी ब्रिटानी हुकूमत को शोषण के तेज एवं वृहद साधनों की ही नहीं बल्कि उसके नये सूत्रों की तलाश थी, जो बदली हुई स्थिति में भी अक्षुण्ण रहे। जाहिर है, इस लिहाज से ब्रिटानी हुक्मरानों के राजनीतिक लक्ष्य बदलने लगे।

दूसरी ओर भारत में आज़ादी के आंदोलन के नेतृत्व को भी यह स्पष्ट नजर आने लगा था कि ब्रिटिश शासक चंद दिनों के मेहमान हैं। पाश्चात्य चिंतन एवं विश्व में तेजी से हो रहे परिवर्तनों के पारखी भारतीय राजनेताओं को “सत्ता” कोई सपना नहीं बल्कि वास्तविकता के रूप में बिल्कुल प्रत्यक्ष दिख रही थी। उनमें भारत को सेवा संघर्ष नहीं बल्कि सत्ता की आंखों से देखने की ललक जगने लगी। इस ललक का पहला संकेत यह था कि महात्मा गांधी जैसे नेता “आंदोलन” की प्रेरणा भर रह गये और पंडित जवाहरलाल नेहरू और उनके सहयोगी “आजादी” के असली “प्रवक्ता” बन गये। गांधी “भारत का अतीत” हो गए जबकि नेहरू “भारत का भविष्य” जो शीघ्र ही वर्तमान बनने वाला था। भारत के भावी शासकों के लिए यह जरूरी था कि वे नये और आज़ाद भारत को सत्ता की आंखों से देखना-पहचानना सीखे। इसलिए भारत के भावी शासकों के राजनीतिक पैमाने एवं लक्ष्य तेजी से बदलने लगे क्योंकि उन्हें जल्द ही भारत छोड़कर जाने वाले अंग्रेजी हुक्मरानों का स्थान लेना था।

शोषण का साधन विकास का पैमाना बना


यही दौर था जब ब्रिटानी हुक़ूमत ने अचानक बाढ़ “नियंत्रण” के नाम पर एक तरफ “दामोदर घाटी परियोजना” शुरू करने का फैसला किया और दूसरी तरफ “कोसी परियोजना” का प्रारूप तैयार किया।

इसके दो वर्ष बाद ही 15 अगस्त 1947 को भारत आज़ाद हुआ। कांग्रेसी नेतृत्व ने ब्रिटिश हुक्मरानों से देश का शासन भार ग्रहण किया। इसके चंद महीने पूर्व अप्रैल 1947 में ही भारत के भावी शासकों ने कोसी को स्वीकृत करने की घोषणा की थी। 1948 में दामोदर घाटी परियोजना का कार्य शुरू हो गया।

इस प्रकार 1937 की जो बहस 1945 आते-आते “गुलाम भारत” के ब्रिटिश हुक्मरानों के लिए अप्रासंगिक हो गयी, वह 1947 आते-आते आज़ाद भारत के कांग्रेसी शासकों के लिए भी निरर्थक हो गयी।

रिलीफ का मतलब है “सहाय” । समझे?


नवादा के एस.डी.ओ. जनाब अब्दूल खैर के बंगले पर जब हम पहुंचे, रोशनी जल चुकी थी। बरामदे के बाहर में कई कारिंदे, क्लर्क और चपरासियों के अलावा तीन-चार “व्यापारी-कम-नेता” किस्म के लोग भी थे। हमें “चैंबर” में बैठाकर चपरासी अंदर से खबर लाया कि “साहब” नमाज पढ़ रहे हैं।... इस समय “मगरिब की नमाज” (यानी सूर्यास्त के समय पढ़ी जाने वाली) पढ़ रहे हैं या ‘नमाजे-इस्तरका’ (अकाल और सूखा के समय वर्षा के लिए पढ़ी जाने वाली)?

हम “अरदास” लगाकर बैठे। जिंदगी में बहुत बार बहुत से हुजूरों के दरबार में दीदार के इंतजार में बैठा हूं। इसलिए, ऐसे लोगों को अच्छी तरह पहचानता हूं, जो मिलने वालों को “अंदर हवेली” से खबर भेजते रहते हैं – मालिक पूजा कर रहे हैं या साहब नमाज पढ़ रहे हैं।

कोने की दीवार पर गया जिले का बड़ा नक्शा टंगा था। अज्ञेय और जितेंद्र कोने में खड़े होकर नक्शा देखने लगे। मैं (फणीश्वर नाथ रेणु) बैठा सोच रहा था कि हाकिम साहब अभी आएंगे तो उनके चेहरे पर कैसे भाव होंगे। पूजा ध्यान और रोजा-नमाज से आदमी का तन-मन पिघला-सा रहता है। लेकिन हाकिम पर्दा हटाकर प्रकट हुए और मारे अचरज के अवाक हो गए। शायद, पूछना चाहते थे- आप लोग कौन हैं, जो इस तरह मेरी गैर-हाजिरी में मेरे दफ्तर का नक्शा देख रहे हैं? लेकिन, हकलाते हुए बोले – “आप लोग कौन... आप लोगों को पहचाना नहीं।”

जितेंद्र बोले –“आदाब अर्ज। अभी बतलाता हूं। आप हैं दिनमान संपादक... मैं जितेंद्र... और आप हैं...। इस “ड्राउट एफेक्टेड” इलाके में घूम रहे हैं।”

“ओ! मैंने समझा कि आप लोग कोई रिलीफ देने आए हैं। खैर! तो, महाशय रिलीफ यानी “सहाय” का काम देखने के लिए तो... और हां, “रिलीफ” का क्या मतलब समझते हैं, आप?” सहायता? जी नहीं! गलत रिलीफ का सही माने है “स-हा-य”! समझे?”

जितेंद्र आंखे मूंदकर और सर झुकाकर खैर साहब के तर्जे-बयां का मजा ले रहे थे। अज्ञेय मेरी ओर देखते हैं: आदमी जिंदादिल है...।

हमें पद-यात्रा के लिए सहर्ष प्रस्तुत देखकर उनको फिर अचरज हुआ। कहने लगे-सहाय का कार्य और “कार्यक्रम” तो वहीं है जो आप लोगों ने पढ़ा होगा या यहां आने के पहले सुना होगा।... अंचल अधिकारी अर्थात् अंचलाधिकारी ...अर्थात् ...मतलब समझते है न?” – अज्ञेय जी से इस बार पूछा गया।

“हां साहब, समझने की बात है। आजकल, हर बात का सही और गलत मतलब होता है। अब तक मैं जानता था कि “प्रधानमंत्री” का मतलब “प्राइम मिनिस्टर” होता है। मगर, यहां आकर मालूम हुआ कि यहां भी एक “प्रधानमंत्री” रहते हैं...।”

मैंने अचरज से पूछा, “दूसरे प्रधानमंत्री कौन हैं?”उन्होंने हंसकर मेरी ओर देखा और एक स्थानीय सार्वजिक संस्था का नाम लिया। यह पूछने पर विधानसभा में इस क्षेत्र से प्रतिनिधि कौन है, जवाब मिला – “साहब, यहां “कांग्रेस-राज” नहीं। यह “जनसंघी” पाकेट है...।” “जन प्रतिनिधि” विधानसभा में हमेशा गलत सवाल करते हैं और उनको जवाब भी हमेशा गलत मिलता है।”

हम खैर साहब को मान गए


हमें बाहर से आने वाले खाद्यान्न के दैनिक आंकड़े पूछने की जरूरत नहीं पड़ी। हाकिम ने बा-तकल्लुफ हम लोगों से माफी मांगकर टेलिफोन उठाया और उस छोर पर बैठे किसी “साहब” को पिछले कई दिनों के आंकड़े देने लगे – “हां, लिखिए! लिख रहे हैं न? तारीख पचीस नवंबर... पांच वैगन मकई...जनाब, यहां से तिलैया स्टेशन की लाइन “जाम” है। वैगन खाली हो जल्दी तब तो...रात में हमारे सिपाही पहरा तो करते हैं, मगर...कल ही रात कई मुसहरों को पकड़ा है-बोरे से अनाज निकाल रहे थे...और सब ठीक है...उधर का क्या हाल है...आज का “स्टेटमेंट” तो स्टेशन से आदमी आने पर ही दिया जा सकेगा...आदाब अर्ज!”

एस.डी.ओ. साब से “रेड कार्ड” के बारे में पूछा। जवाब देते समय उनके होठों पर फिर “वक्र मुस्कराहट” खील गई। “बोले – “रेड कार्ड! रिलीफ कोड118?... हां, साहब । कार्ड बंट रहे हैं। जहां अब तक नहीं बंटे है, आशा है कि “शीघ्रा-ति-शीघ्र”...!” हमने कोसला और मियांबीघा का नाम लिया और सूचना दी –“वहां रेडकार्ड नहीं मिला और सूचना दी-“वहां रेडकार्ड नहीं मिला है किसी को। ...वहां की हालत चिंताजनक है।”

इतनी देर में पहली बार खैर साहब को गंभीर होते देखा। उन्होंने न जाने क्यों, हमारी ओर बारी-बारी से देखा और फिर गर्दन हिलाते हुए कहा – “हां, उधर नहीं बंटा है।... मैं हंसुआ के अंचलाधिकारी को कल ही ताकीद करता हूं।...हालत चिंताजनक नहीं रहेगी।...और मेरे “योग्य” कोई सेवा?”
– फणीश्वर नाथ रेणु

इतना ही नहीं 1937 की बहस में व्यक्त दोनों पक्षों की एक जैसी “दृष्टि” भी 1947 आते-आते एक सौ अस्सी डिग्री घूम गयी। लेकिन आश्चर्य चकित करने वाला तथ्य है कि यह परिवर्तित दृष्टि भी दोनों पक्षों की एक जैसी रही। यानी बाढ़ नियंत्रण के लिए कल तक दोनों पक्ष नदी को मुक्त करने की वकालत कर रहे थे और अब नदी बांधने की आवश्यकता पर बल देने लगे।

जाहिर है इसके कारण दृष्टिकोण में भी बदलाव आ गया। आज भी यह कहने वालों की शायद कमी नहीं होगी कि 1937 की तरह 1947 में भी दोनों पक्षों के दृष्टिकोण में फर्क कायम रहा। लेकिन इस फर्क को इसके सिवा और किसी तरह से परिभाषित नहीं किया जा सकता कि जो परियोजनाएं ब्रिटिश हुक्मरानों के लिए साम्राज्यवादी शोषण को तेज एवं अबाध बनाने का “साधन” थी, वही भारतीय शासकों के लिए आधुनिक “विकास” का पैमाना बन गयी।

दूसरे महायुद्ध के बाद 1945 में कोसी योजना का प्रारूप बना, जिसमें कोसी पर नेपाल से लेकर बिहार में गंगा के संगम तक दोनों किनारों पर करीब 10 मील लंबे सीमांत तटबंध बनाने का प्रस्ताव था। विशेषज्ञों ने कहा कि नदी को बांधने की यह योजना तभी लाभप्रद (इफेक्टिव) हो सकती है जब वाराह क्षेत्र (नेपाल) में एक बड़ा बांध (जलाशय) बने। 1945 में बाढ़ के वक्त भारत के तत्कालीन वाइसराय लार्ड वैवेल ने कोसी क्षेत्र का हवाई सर्वेक्षण किया और उक्त परियोजना की प्राथमिक रिपोर्ट तैयार करने को कहा। इस रिपोर्ट के लिए उन्होंने संयुक्त राज्य अमरीका के बांध विशेषज्ञ डॉ. जे.एल. सैवेज, श्री वाल्टर यंग और भूवैज्ञानिक डॉ. एफ.एच. निकेल आदि की मदद ली।

यह महज संयोग नहीं था कि लार्ड वैवेल ने उसी दौरान अचानक दामोदर घाटी बहुउद्देशीय परियोजना के क्रियान्वयन का फैसला कर लिया। बाढ़ नियंत्रण के साथ-साथ सिंचाई सुविधा और जल विद्युत उत्पादन करने की भव्य एवं आकर्षक परियोजना। इसके लिए लार्ड वैवेल ने अमरीका की “टेनेन्सी वैली परियोजना” को क्रियान्वित करने वाले यहां के विशेषज्ञों से तकनीक हासिल की। यहां तक कि टेनेन्सी वैली अथॉरिटी के अध्यक्ष ई. मोर्गन को दामोदर घाटी परियोजना के लिए विशेष सलाहकार बनाया गया तथा टी.वी.ए. के प्रख्यात विशेषज्ञ इंजीनियर श्री डब्ल्यू.एल. वुडविन की सेवाएं प्राप्त की गयीं।

प्रख्यात अभियंता स्व. कपिल भट्टाचार्य ने इस परियोजना का क्रियावयन शुरू होने के वक्त ही इसे ब्रिटिश राज के साम्राज्यवादी शोषण को अक्षुण्ण रखने की “देशी शासकों की साज़िश” कहा था। उन्होंने इसके प्रमाण में यह जानकारी भी दी कि 1948 में निर्माण कार्य शुरू होने के 6 वर्ष के भीतर भारत की देशी सरकार ने करीब 45 करोड़ रुपये खर्च किये, जिसमें 21 करोड़ रुपये खर्च किये, जिसमें 21 करोड़ रु. ब्रिटेन एवं अमरीका से वांक्षित सामग्री खरीदने के लिए खर्च किया गया।

दूसरी ओर दामोदर घाटी परियोजना की प्रारूप तैयार करने वाले कार्यरत विशेषज्ञों की राय को “अंतिम सत्य” मानकर उसी के अनुरूप “कोसी परियोजना” को भी स्थापित करने की घोषणा की गयी।

यह घोषणा 6 अप्रैल 1947 को ही निर्मली (तत्कालीन भागलपुर, वर्तमान सहरसा) में आयोजित कोसी पीड़ितों के सम्मेलन में की गयी। उस सम्मेलन में डॉ. राजेंद्र प्रसाद और श्री अनुग्रह नारायण सिन्हा भी उपस्थित थे। उसमें तत्कालीन अंतरिम केंद्रीय सरकार के निर्माण मंत्री एवं महान् वैज्ञानिक श्री सी.एच. भाभा ने करीब 60 हजार स्थानीय बाढ़ पीड़ित गरीब जनता के समक्ष कहा, “मुझे पीड़ितों का सामना करने में लज्जा का अनुभव होता है। झिझक होती है। कोसी पीड़ितों के समझ हम अकर्मण्य थे। मुझे कोसी नियंत्रण की सारी बातें थोथी लगती थी क्योंकि हमने पीड़ितों के लिए कुछ नहीं किया। अब हमारे योजनाकार एवं इंजीनियर कोसी की उच्छृखंलता को नियंत्रित करने जा रहे हैं। नदी नियंत्रण का यह आधुनिक तरीका है। इसका विकास पश्चिम के विकसित देशों में भी पिछले 25 वर्षों में हुआ है। हमारे देश के नदी विशेषज्ञों ने भी इसे पिछले करीब 5 वर्षों से स्वीकार किया है।

हम वाराह क्षेत्र (चतरा घाटी) में 750 फीट ऊंचा कंक्रीट का बांध बनायेंगे। उसमें एक करोड़ 10 लाख एकड़ फुट जल का संचयन होगा। उससे नेपाल और बिहार मिलाकर 30 लाख एकड़ ज़मीन में सिंचाई होगी और 1800 मेगावाट जल विद्युत का उत्पादन होगा।”

1937 की बहस की चर्चा करते हुए उन्होंने यह भी कहा, “तकनीकी जानकारी के अभाव में कोसी जैसी उच्छृंखल नदियों के नियंत्रण के पूर्व प्रयास असफल रहे हैं। समेकित समाधान के लिए वैज्ञानिक एवं विकसित तकनीक की जानकारी न होने के कारण ही हमारे इंजीनियर “तटबंध हां या तटबंध नहीं” की बहस में उलझे रहे। इसके कारण, चाहते हुए भी, कोई काम नहीं किया जा सका। सौभाग्यवश, अब बड़े बांध के नये ज्ञान को हमारे तकनीकी विशेषज्ञ बड़ी फुर्ती से आत्मसात कर रहे हैं।”

यह एक तथ्य है कि निर्मली सम्मेलन की घोषणा आज तक महज एक “सपना” बनी हुई है। इससे दीगर तथ्य यह है कि उस घोषणा के आलोक में यानी श्री भाभा द्वारा घोषित भव्य परियोजना की छाया में वर्तमान कोसी परियोजना (1953) का क्रियान्वयन हुआ, जिसमें चतरा (नेपाल) में बांध तो नहीं बना लेकिन भारत नेपाल सीमा पर 3,770 फीट लंबा बराज और कोसी की धारा को सीमाबद्ध करने के लिए सैकड़ों किलोमीटर लम्बे तटबंधों का निर्माण बिना किसी बहस के संभव हो गया।

अखिल भारतीय स्तर पर


बाढ़ से हुई औसत वार्षिक क्षति और बिहार में 1987 में बाढ़ से हुई क्षति

मद

बाढ़ से अखिल भारतीय औसत वार्षिक क्षति (1953-1986)

1987 की बाढ़ से बिहार में क्षति

प्रभावित क्षेत्र (लाख एकड़)

188.33

117.57

प्रभावित जनसंख्या (लाख)

313.60

286.70

फसलों की क्षति

  

क्षेत्रफल (लाख एकड)

85.58

63.47

मूल्य (लाख रु.)

34465.15

58200.00

घरों की क्षति

  

संख्या (लाख)

11.56

17.00

मूल्य (लाख रु.)

10226.87

25800.00

बाढ़ से मृत जानवरों की संख्या

100.630

5302

बाढ़ से मृत मनुष्यों की संख्या

1428

1283

सार्वजनिक सम्पत्ति की क्षति (लाख रु.)

20017.00

37200.00

कुल क्षति (लाख रु.)

71509.02

121200.00

 



स्रोत : सिंचाई विभाग/बिहार सरकार

तटबंध : बेकार नहीं खतरनाक


उसके बाद जो कुछ हुआ वह वर्तमान है। आज बिहार में विभिन्न नदियों पर बने तटबंधों की लम्बाई 3 हजार 454 किलोमीटर है।

इन तटबंधों की उपयोगिता जगजाहिर है। 1987 की बाढ़ में 106 स्थानों पर तटबंध ध्वस्त हुए। सरकार कहती है कि 29 स्थानों पर तटबंध खुद-ब-खुद ध्वस्त हुए लेकिन 77 स्थानों पर लोगों ने तटबंध काट दिये। सरकार तटबंध काटने के कारणों की तफसील में जाने से बेहतर यह समझती है कि तटबंध काटने वालों को असामाजिक तत्व करार दिया जाए। वह इस सवाल पर न आश्चर्य करती है और न चिंता कि बाढ़ की सुरक्षा के लिए बने तटबंधों को ठीक बाढ़ के वक्त असामाजिक तत्वों द्वारा तोड़ते देख भुक्तभोगी जनता कैसे और क्यों चुप रहती है?

सरकारी रिपोर्ट बाती है कि 1971 से 1987 के बीच हर साल बाढ़ आयी और 1971, 1975, 1976, 1984 और 1987 में आयी बाढ़ ने पिछले रिकार्ड तोड़ते हुए तांडव का नया इतिहास रचा।

मार्च 1988 तक बिहार में 428.40 करोड़ रुपये तटबंधों के निर्माण में खर्च हुए लेकिन नतीजा यह निकला कि प्रदेश का बाढ़ प्रवण क्षेत्र, जो 1954 में 25 लाख हेक्टेयर था, 1971 में 45 लाख हेक्टेयर होते हुए 1988 में 64.61 लाख हेक्टेयर हो गया।

तटबंधों के निर्माण से जिस क्षेत्र को आंशिक सुरक्षा प्रदान करने का दावा किया गया, वह क्षेत्र बाढ़ विभीषिका के स्थाई आतंक से ग्रस्त हो गया और इसके कारण दूसरे क्षेत्र में बाढ़ विभीषिका का विस्तार हुआ। तटबंधों से बाढ़ सुरक्षा नहीं बल्कि बाढ़ विभीषिका के स्थानांतरण का परिणाम सामने आया।

सरकार हर बाढ़ विनाश के आंकड़े तैयार करती है और रिपोर्ट बनाती है लेकिन निष्कर्षों से आँख चुराती है। निष्कर्ष यह कि जो तटबंध बाढ़ से सुरक्षा के लिए बनाये गये थे, वे अब निरर्थक नहीं बल्कि स्थाई और भीषण बाढ़ के कारण बन गये हैं यानी तटबंध अब सिर्फ बेकार नहीं बल्कि खतरनाक बन गये हैं। इस निष्कर्ष के बावजूद सरकार तटबंधों की लम्बाई बढ़ाने में प्राणपण जुटी हुई है।

बाढ़ से सुरक्षा यानी तटबंधों की सुरक्षा


अब स्थिति यह है कि “बाढ़ से सुरक्षा” तटबंधों की सुरक्षा का दूसरा नाम है, जिस पर करोड़ों रुपये प्रतिवर्ष खर्च करने पड़ते हैं, फिर भी इन सुरक्षा उपायों को टूटने से बचाया नहीं जा पा रहा है।

1985-86 में बाढ़-प्रक्षेत्र की योजना के लिए 24 करोड़ रुपये की अधिसीमा निर्धारित की गयी। इसमें से सिर्फ 4.83 करोड़ रुपये ही नये तटबंधों के निर्माण के लिए रखे गये शेष 19.17 करोड़ रुपये कटाव निरोधक, बैंक प्रोटेक्शन, गांव एवं शहर सुरक्षा, बांधों के उच्चीकरण एवं सुदृढ़ीकरण आदि के लिए रखे गये। यानी कुल बाढ़ नियंत्रण बजट का अब मात्र 20 प्रतिशत नये प्रतिशत नये तटबंधों के निर्माण के लिए और बाकी 80 प्रतिशत पुराने तटबंधों के रखरखाव और उनकी मरम्मत पर खर्च किया जाता है।

1990 के आंकड़ों के अनुसार, बाढ़ नियंत्रण प्रक्षेत्र के लिए कुल 40.50 करोड़ निर्धारित किये गये। उसमें से 10 करोड़ नये तटबंधों के निर्माण के लिए और 9 करोड़ स्थापना में खर्च किये जायेंगे। बाकी 21.50 करोड़ रुपये पुराने तटबंधों की सुरक्षा में खर्च किये जाएंगे। यानी सिर्फ 6 वर्षों में 1985 से 1990 तक बाढ़ नियंत्रण के नाम पर नये तटबंधों के निर्माण में 40 करोड़ से अधिक खर्च नहीं किये गये जबकि पुराने तटबंधों की मरम्मत एवं रखरखाव में 125 करोड़ रुपये खर्च किये गये।

मार्च 1988 तक बिहार में 3,454 किलोमीटर लम्बे तटबंध बनाकर करीब 29.23 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को बाढ़ से सुरक्षा प्रदान करने का दावा किया गया। अगर प्रदेश में बाढ़ से प्रभावित 65.61 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को स्थिर माना जाय तो अभी भी 35.38 लाख हेक्टेयर क्षेत्र की बाढ़ से सुरक्षा प्रदान करने का काम बाकी है।

पिछले 8 वर्षों में (1980 से 88) करीब 2.63 लाख हेक्टेयर ज़मीन को सुरक्षा प्रदान की गयी यानी सुरक्षा प्रदान करने की औसत रफ्तार है 0.326 लाख हेक्टेयर प्रति वर्ष। इस रफ्तार से पूरे बाढ़ प्रवण क्षेत्र को सुरक्षा प्रदान करने में अभी और 109 वर्ष लगेंगे।

आंकड़ों में निहित “निरीहता” इस तथ्य से और बढ़ जाती है कि उक्त तटबंधों से क्षेत्र की “आंशिक” सुरक्षा ही संभव है और यह सुरक्षा भी “तात्कालिक” है “दीर्घकालीन” नहीं।

विनाश के द्वार को बंद करने का जादू


1945 से 47 तक के घटनाक्रम एवं निर्मली सम्मेलन में श्री भाभा की भव्य स्पष्टोक्ति के बाद इस विरोधाभास में कोई रहस्य नहीं रह जाता है कि जो माध्यम निरंतर आतंक पैदा कर रहा है, उसी के प्रति आकर्षण कायम है और वह आकर्षण दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है।

सत्ता हस्तांतरण के दौर में ही राजनीतिक स्तर पर यह “आकर्षण” अपना जादू चला चुका था। आज़ादी के बाद यह जादू पूरे देश में फैला। इसे भारतीय शासकों ने सूत्रबद्ध किया और गरीब जनता ने स्वीकार किया कि विनाश का द्वार वहीं बंद किया जा सकता है जहां से विकास का द्वार खुलता है। यानी विनाश के द्वार को विकास के कपाट से बंद करने का भव्य कार्यक्रम।

विभिन्न परियोजनाओं के जरिये नदियों को बांधने के महायुद्ध का मूल संदेश भी यही है कि बाढ़ विभीषिका से राहत एक नकारात्मक पहलू है। सकारात्मक पहलू है, बाढ़ नियंत्रण की वह आधुनिक तकनीक, जो सिंचाई और बिजली की सुविधा मुहैया करे।

इस संदेश के विस्तार में जाने पर वह समझ में आयेगा कि बांध और बराज के दीर्घकालीन उपाय के अंग के रूप में शामिल होकर “तटबंध निर्माण” किस राजनीति के तहत और कैसे अल्पकालीन या तात्कालिक उपाय के रूप में मान्य हो गया और अंततः “आवश्यक होकर उसने अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम कर लिया।

इस संदेश का एक और असर हुआ। एक तरफ उत्तर बिहार की बाढ़ विभीषिका पर पूर्ण नियंत्रण के लिए वहां की तमाम प्रमुख नदियों को बांधने की योजनाएं बनने लगी। और, दूसरी तरफ दक्षिण बिहार में सुखाड़ नियंत्रण के लिए भी वहां की मुख्य नदियों को बांधना ही अंतिम विकल्प मान लिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि उत्तर बिहार में कोसी के साथ साथ गंडक, बूढ़ी गंडक, बागमती, कमला, महानंदा सहित अधवारा समूह की नदियों को बांधने की योजनाएं बनने लगी और दक्षिण बिहार में दामोदर के साथ स्वर्णरेखा, औरंगा, अजय एवं अन्य नदियों को बांधने की परियोजनाएं जोरशोर से चलने लगीं।

जल नियंत्रण की राजनीति


यहां यह याद रखना चाहिए कि सिंचाई परियोजनाओं के रूप में नदी बांधने का यह “महायुद्ध” अब ऐसा नहीं रहा कि इस पर नियंत्रण या इसमें “हार या जीत” का फैसला करना भारत जैसे तीसरी दुनिया के देश के हाथ में है। अब यह महायुद्ध विश्व की महाशक्तियों के हाथ में है। यह उन महाशक्तियों की “पानी पर कब्ज़े” की राजनीति के विस्तार की एक कड़ी बन गयी है। इसके तहत लड़ाई भारत जैसे देश में होती है लेकिन उसका नियंत्रण अमरीका जैसी महाशक्तियां विश्व बैंक जैसी संस्था के जरिये कर रही है। उसमें “जीत या हार” का फैसला भी वही पूंजीवादी देश करते हैं।

बड़े बांधों के लिए और बड़े बांध से ऐसी किसी औद्योगिक वस्तु या कृषि की वस्तु का उत्पादन होता नहीं, जिसका सीधे-सीधे उपभोग हो। ये मुख्य रूप से सिंचाई और बिजली उत्पादन की परियोजनाएं हैं। ऐसी सिंचाई व्यवस्था जिसका उपयोग भविष्य में खेती में तमाम किस्म के बदलाव के लिए किया जा सकता है, व्यापारिक महत्व की फसल उगाने के लिए किया जा सकता है, इसी तरह विश्व बैंक या विदेशी बैंक हमारे उद्योगों को मदद करते हैं, जिनके उत्पादन से एक विशेष तरह के उद्योगीकरण की प्रक्रिया चलती है। शायद उस तरह का उद्योगीकरण, जैसा कि विकसित देश चाहते हैं। विश्व में अब जमीन और जंगल के साथ-साथ “जल” भी सत्ता की राजनीति का औजार बन गया है। समुद्री जल पर कब्ज़े के लिए तो कई देश संघर्षरत है। बड़ी परियोजनाएं अब नदियों का जल, भूगर्भ जल और वर्षा के जल पर कब्ज़े की होड़ का प्रतीक बन गयी है। यह तो सामान्य समझ की बात है कि नदी मुक्त रहे तो वह आम जनता की होती है। बंधती है तो उस पर ‘कुछ लोगों’ का कब्जा हो जाता है। उस कब्जे को आम जनता तबाही और कुछ लोगों के मुनाफे के रूप में देख रही है। जैसे, स्वर्णरेखा परियोजना का मुख्य उद्देश्य टाटा के औद्योगिक क्षेत्र को पानी उपलब्ध कराना है। टाटा के औद्योगिक विकास में विदेशी एवं मल्टीनेशनल्स की पूंजी लगी है। यह पूंजी मुनाफा में फले इसके लिए स्वर्णरेखा परियोजना चल रही है, जिसे भरपूर मदद कर रहा है, विश्व बैंक। यहां तक की ,सिंचाई परियोजनाओं के लिए तकनीक भी विदेशों से आयतित हो रही है। अगर इतने से महाशक्तियों द्वारा भारत में उपनिवेश बनाने की साजिश का पूरी तरह खुलासा न होता हो तो यह भी जोड़ लेना चाहिए। कि बड़ी सिंचाई परियोजनाओं ने देश में एक विशेष प्रकार की “हरित क्रांति” पैदा की है। उस क्रांति में शामिल भारतीय किसान को अधिक उपज के नाम पर विशेष किस्म के बीज, रासायनिक खाद एवं कीटनाशक दवाओं के लिए विदेश का “गुलाम” बना दिया गया है। इसके परिणामस्वरूप भारत में भी अंतरराज्यीय जल विवाद चल रहे हैं।

इस हरित क्रांति को जिंदा रखने के लिए विदेश तकनीक और विदेशी कर्ज के बढ़ते बोझ का यह आलम है कि जल, जंगल और ज़मीन के बारे में राष्ट्रीय चिंतन और राष्ट्रीय संवेदना में दरार पड़ती जा रही है। गजब है कि विदेशी कर्ज उस गरीब पर भी है, जो उस कर्ज से पोषित सिंचाई परियोजनाओं से तबाह हैं।

विदेशी सिक्के का गोपनीय पहलू


बड़े बांध और बड़ी सिंचाई परियोजनाओं के लिए हमें विदेशी पैसे मिल रहे हैं, विश्व बैंक या दूसरे देशों से, जहां बहुउद्देशीय बैंक हैं। ये बैंक हमारे लिए अपनी तिजोरी खोल रहे हैं, उसके पीछे क्या वजह है?

इस संबंध में एक बात स्पष्ट है कि ये बैंक हमें सहायता देते हैं, बड़े बांधों के लिए और बड़े बांध से ऐसी किसी औद्योगिक वस्तु या कृषि की वस्तु का उत्पादन होता नहीं, जिसका सीधे-सीधे उपभोग हो। ये मुख्य रूप से सिंचाई और बिजली उत्पादन की परियोजनाएं हैं। ऐसी सिंचाई व्यवस्था जिसका उपयोग भविष्य में खेती में तमाम किस्म के बदलाव के लिए किया जा सकता है, व्यापारिक महत्व की फसल उगाने के लिए किया जा सकता है, इसी तरह विश्व बैंक या विदेशी बैंक हमारे उद्योगों को मदद करते हैं, जिनके उत्पादन से एक विशेष तरह के उद्योगीकरण की प्रक्रिया चलती है। शायद उस तरह का उद्योगीकरण, जैसा कि विकसित देश चाहते हैं।

विकसित देशों के जो बड़े स्तर पर काम करने वाले एवं अच्छे संसाधनों वाले बैंक हैं, उनकी कोई दूरगामी योजना कि वो हमारे देश की कृषि और औद्योगिक विकास को कैसा रूप देना चाहते हैं, उसको किस दिशा में जाना चाहते हैं, इसकी हमें पूरी जानकारी नहीं रहती। किसी एक प्रोजेक्ट का डाक्युमेंट, (दस्तावेज़) प्राप्त करना तो आसान होता है कि स्वर्णरेखा प्रोजेक्ट के बारे में विश्व बैंक एवं अन्य संस्थाओं ने क्या कहा है या कोयलकारों परियोजना या नर्मदा प्रोजेक्ट के बारे में क्या कहा है? लेकिन जो दूरगामी सोच है, वह प्रायः हम लोगों के सामने स्पष्ट नहीं हो पाती है। विभिन्न देश के अनुभव को देखते हुए यह कहना गलत नहीं लगता कि बिजली और सिंचाई परियोजनाओं के जरिये जो विदेशी बैंक हमारे देश में हैं, वे एक खास किस्म के विकास को बढ़ावा दे रहे हैं। भलें ही वह विकास देश की गरीब जनता के लिए हितकर न हो।

महत्व की एक और बात है। विश्व बैंक या इसी तरह का कोई अन्य बैंक किसी बहुत बड़े प्रोजेक्ट के लिए सहायता देता है तो बड़े-बड़े ठेके होते हैं। चाहे बड़ा कंस्ट्रक्शन का ठेका हो या बहुत बड़ी मशीन खरीदने की बात हो, तो उसके लिए ग्लोबल टेंडर होते हैं। यानी विश्व स्तर पर टेंडर होते हैं। विश्व बैंक के कर्जों में शर्त होती है कि आप सिर्फ अपने देश से ही टेंडर नहीं मंगवानें, विश्वस्तर पर टेंडर मंगवायें। हमारे देश में बिजली के साज-सामान का उत्पादन करने वाली सार्वजनिक क्षेत्र की सबसे बड़ी कम्पनी है, भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड। हम सब यह जानते हैं कि बिजली उत्पादन हमारा महत्वाकांक्षी उद्योग बन रहा है। जितनी बिजली हम पहले बनाते थे आज या अगले 5-7 सालों में हम उससे अधिक बिजली बनाने के बारे में सोच रहे हैं। इसके बावजूद स्थिति यह है कि “भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड” के पास आर्डरों की कमी है। यह कम्पनी दुनिया की दूसरी कंपनियों की उत्पादन क्षमता के अनुकूल उत्पादन कर सकती है। इसकी स्थिति यह होनी चाहिए थी कि आर्डर नहीं पूरी कर सके, क्योंकि देश में बड़ी-बड़ी बिजली परियोजनाएं चल रही है, विस्तार की बड़ी-बड़ी योजनाएं चल रही हैं। लेकिन वस्तु स्थिति यह है कि इसकी आर्थिक स्थिति बेहद खराब है, क्योंकि हमारे देश में बिजली की बहुत-सी परियोजनाएं चल रही हैं, लेकिन उसकी आवश्यकताएं विदेशी कंपनियां पूरी करती है। विदेशी बैंकों से मिलने वाला पैसा अनुदान नहीं होता है, ऋण होता है। और, वह पूंजी भी इस प्रकार पुनः उन्हीं को वापस चली जाती है।

विश्व बैंक से कई तरह के ऋण मिलते हैं। पहले हमें आई.डी.ए. (इंटरनेशनल डेवलपमेंट एजेंसी) के तहत ऋण मिलता था जो सस्ते दर का होता था। आई.एफ.सी. (इंटरनेशनल फाइनान्स कॉरपोरेशन) के तहत जो ऋण मिलता है उसके ब्याज की दर काफी अधिक होती है। आज से दो तीन साल पूर्व तक हमारे देश को आई.डी.ए. ऋण मिलता था और अब अधिकतर ऋण ज्यादा ब्याज के होते हैं। विश्व बैंक के ऋण में अनुदान तो होता नहीं। पहले जो रियायती कर्ज मिलता था, वह भी अब काफी कम होता जा रहा है। विश्व बैंक से जितना कर्जा मिलता है, वह परियोजना का पूरा खर्च नहीं होता। परियोजना खर्च का 45-50 प्रतिशत हिस्से का हमें खुद प्रबंध करना होता है। लेकिन कर्ज के कारण परियोजना में विदेशी कंपनियों का वर्चस्व बन जाता है। और वे हमारे देश के विकास की दिशा तय करने लगती है। विश्व बैंक बिजली, सिंचाई आदि परियोजनाओं के लिए भी कर्ज देता है।

इस क्षेत्र में काफी पहले से दूसरी विदेशी सहायता का दखल रहा है। बिजली, सिंचाई, उद्योग आदि तमाम परियोजनाओं को अगर मिलाकर देखें तो यह स्पष्ट होगा कि इन खास किस्म की परियोजनाओं के लिए क्यों इतना अधिक पैसा दिया जा रहा है। विदेशी संस्थाएं हमारी परियोजनाओं के लिए, जो सहायता देती है, वह हमारी सहायता नहीं है बल्कि विश्वस्तर की उन बड़ी-बड़ी कंपनियों की सहायता है, जिनका उन वित्त संस्थाओं में दखल है, भागीदारी है।

आज हमारे पर विदेशी ऋण का भार इतना बढ़ गया है कि कोई सरकार जनोन्मुख नीतियाँ अपनाना चाहेगी भी, तो पूर्व ऋण-भार के दबाव में उसे वे नीतियां बदलनी पड़ेगी। 5-7 साल पहले भारत को “अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा कोष” से दुनिया के एकमुश्त कर्जे के इतिहास में सबसे बड़ा कर्जा दिया गया। ये कर्जे यों ही नहीं मिल जाते हैं। हमारे देश का जो आर्थिक विकास है उसकी नीतियां कर्जे की शर्तों के अनुकूल होनी पड़ती है। कर्जों की ये शर्तें ही यह तय करती है कि विदेशी कंपनियों के प्रति कैसी नीति होगी? मुद्रा कोष से जब कर्ज लिया गया तो जनता के भुलावे के लिए कहा गया कि यह कर्ज देश की विदेशी मुद्रा की स्थिति सुधारने के लिए है, जिससे हमारी स्वालंबिता बढ़ेगी। लेकिन हुआ क्या? कर्जें की शर्तों को अपनाने के कारण हम विदेशी कर्जें में बुरी तरह डूब गये। इस प्रकार देश की गरीब जनता के विकास के लिए नीतियाँ अपनाने के बदले ऐसी नीतियाँ अपनानी पड़ती हैं, जिससे विदेशी कर्जों व सहायता पर निर्भरता लगातार बढ़ती जाती है।

सहायता करने वाली जो संस्थाएं एवं बैंक है, वे बाहर से देखने में अलग-अलग अस्तित्व वाले दिखते हैं। लेकिन वास्तव में ये अपनी प्लानिंग में या काम करने के ढंग में एक दूसरे से बंधे होते हैं। हमारे देश को जो संस्थाएं सहायता देती हैं, उनका संगठन बना हुआ है। हमारे देश को कितनी सहायता देनी है, कितना कर्ज देना है, इस पर “अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष” और “विश्व बैंक” की नजर रहती है। यह जो विदेशी सहायता है, उसे गौर से देखें तो यह बात नजर आती है कि सभी देश, सभी संस्थाएं मिलजुलकर तीसरी दुनिया के देशों के लिए एक जैसी नीतियाँ अपनाती हैं। हो सकता है कभी एक देश का दूसरे देश से झगड़ा यह है कि तीसरी दुनिया के देशों में उनका व्यवसाय बढ़ना चाहिए। वे उसको मिल बांट कर खायेंगे। कभी इस देश को काम मिलेगा, कभी उस देश को काम मिलेगा।
- भारत डोगरा

सिंचाई परियोजनाओं की निरीह भव्यता


अब तक की इन परियोजनाओं से कुल कितना विकास हुआ और कितना विनाश ? यूं तो यह पूरी पुस्तक इस सवाल का जवाब खोजने का परिणाम है। फिर भी चंद उदाहरणों से सवाल की गहराई स्पष्ट करने के पूर्व बिहार में निर्मित, निर्माणाधीन एवं प्रस्तावित परियोजनाओं की भव्य निरीहता एवं भविष्य की तस्वीर की पहचान करना अप्रासंगिक न होगा।

बिहार में छठी पंचवर्षीय योजना (1985) तक 172 बड़ी एवं मध्यम परियोजनाएं पूरी की जा चुकी हैं। उनमें करीब 25 बड़ी परियोजनाएं हैं।

सातवीं योजना के काल (1985 से 90) में 18 वृहद एवं 41 मध्यम परियोजनाओं पर कार्य जारी रहा और आठवीं पंचवर्षीय योजना काल (1990 से 95) में सरकार 9 वृहद एवं 30 मध्यम नयी सिंचाई परियोजनाओं का काम शुरू करने वाली है। हाल तक योजना में होने वाला खर्च उस योजना के वृहद या मध्यम होने का आधार था लेकिन अब जिस परियोजना से 2 से 10 हजार हेक्टेयर की सिंचाई संभव है वह मध्यम और 10 हजार हेक्टेयर से अधिक की सिंचाई करने वाली वृहद परियोजना कहलाती है। लेकिन नदी बांधने में बांध की ऊंचाई एक निर्णायक तत्व होती है। इस दृष्टि से मझोले और वृहद में कहीं-कहीं तो 19-20 का भी फर्क नहीं है। जैसे गुमला की सीमा पर पराम डैम है। उसकी ऊंचाई 80 फीट है। वह मझौली परियोजना है। मधुपुर (देवघर) में बुढ़ई डैम बन रहा है। यह एक वृहद परियोजना है। इसमें डैम की ऊंचाई है सवा 83 फीट।

सरकारी दावों की सही माने तो 1995 तक बिहार में कुल 272 सिंचाई परियोजनाएं पूरी हो जायेंगी अथवा पूरी होने की स्थिति में होंगी। उनमें 50 से अधिक वृहद परियोजनाएं होंगी।

परियोजनाओं की संख्या से अधिक चौकाते हैं, इनसे संभावित सिंचाई क्षमता के सृजन के आंकड़े।

बिहार में कुल 173 लाख हेक्टेयर ज़मीन है, जिसमें 115 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य है।

भौगोलिक एवं तकनीकी आधारों पर या अनुमान लगाया गया है कि बिहार में बड़ी एवं मध्यम सिंचाई परियोजनाओं के माध्यम से सिर्फ 65 लाख हेक्टेयर में सिंचाई सुविधा का सृजन किया जा सकता है। बाकी 50 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य ज़मीन को लघु सिंचाई (कुआं, तालाब, नलकूप आदि) के साधनों तथा वर्षा के पानी पर निर्भर रहना है।

फिलहाल यह आंकलन नहीं किया जा सका है कि 65 लाख हेक्टेयर में सिंचाई उपलब्ध कराने के लिए कुल कितनी बड़ी और मध्यम सिंचाई परियोजनाओं की जरूरत होगी? यह सवाल भी अनुत्तरित है कि इस 65 लाख हेक्टेयर ज़मीन को सिंचाई सुविधा से लैस करने के लिए सिर्फ बड़ी एवं मध्यम परियोजनाएं ही क्यों उपयोगी हैं?

लेकिन, सरकारी आंकड़ों से यह स्पष्ट हो चुका है कि बिहार में निर्मित, निर्माणाधीन एवं प्रस्तावित 272 परियोजनाओं से अधिक से अधिक 38 लाख हेक्टेयर ज़मीन में सिंचाई क्षमता का सृजन संभव है यानी 65 लाख हेक्टेयर के आधे हिस्से में पानी पहुँचाते-पहुँचाते 272 परियोजनाएं चुक जायेंगी।

ये 272 परियोजनाएं कब तक पूरी होगी? इससे मौजूद सवाल यह होगा कि बिहार की सिर्फ 65 लाख हेक्टेयर ज़मीन में शत प्रतिशत सिंचाई क्षमता करने का सपना कब पूरा होगा?

प्रथम पंचवर्षीय योजना से लेकर अब तक बिहार में वृहद एवं मध्यम सिंचाई परियोजनाओं के जरिये सिंचाई क्षमता के सृजन की रफ्तार (अगर आपको सरकारी आंकड़ों पर विश्वास हो तो) 0.60 लाख हेक्टेयर प्रतिवर्ष है। उत्तर प्रदेश में यह रफ्तार करीब 1.1 लाख हेक्टेयर प्रतिवर्ष है।

इस रफ्तार को पैमाना माने तो 38 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई क्षमता का सृजन करने का दावा करने वाली 272 परियोजनाएं सन् 2000 तक पूरी हो जायेगी। बाकी 27 लाख हेटेयर में सिंचाई क्षमता का सृजन करने में करीब 39 वर्ष लगेंगे। हालांकि यहां यह याद रखना होगा कि बिहार की कई परियोजनाएं करोड़ों रुपये पचाकर भी 15-20 वर्षों से अधूरी पड़ी है।

सिंचाई की सृजित क्षमता और उपयोग का वर्तमान अनुपात (बिहार में 75.58 प्रतिशत) और राष्ट्रीय औसत 83.02 प्रतिशत को ध्यान में रखा जाय तो सन् 2050 के पूर्व बिहार में 65 लाख हेक्टेयर ज़मीन में शत प्रतिशत सिंचाई सिर्फ एक कपोल कल्पना मात्र होगी।

परियोजनाओं की लागत का उल्लेख किये बिना बात अधूरी होगी। सरकारी आंकड़ों की गवाही यह है कि 1981 के मूल्यों के आधार पर 272 परियोजनाओं को पूरा करने में कुल 55 अरब 61 करोड़ रुपये खर्च होंगे। 1990 तक करीब 27 अरब 62 करोड़ रुपये खर्च किये जा चुके हैं जबकि 45 परियोजनाएं अधूरी हैं और 39 योजनाएं प्रस्तावित हैं। 1995 तक और करीब 28 अरब रुपये खर्च किये जायेंगे।

लेकिन सरकार भी यह मानने से इनकार नहीं करती है कि कीमतों में वृद्धि के मद्देनज़र लागत का यह अनुमान गलत साबित होगा। क्योंकि प्रत्येक पंचवर्षीय योजना के दौरान बड़ी एवं मध्यम सिंचाई परियोजनाओं के माध्यम से प्रति हेक्टेयर में सिंचाई क्षमता के सृजन के लिए लागत में निरंतर वृद्धि हो रही है।

इससे यह अनुमान करना कठिन नहीं कि बिहार की 65 लाख हेक्टेयर ज़मीन में सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराने के लिए बड़ी एवं मध्यम परियोजनाओं पर कुल मिलाकर सवा सौ से डेढ़ सौ अरब रुपये की लागत आयेगी। उपरोक्त तथ्यों के बावजूद विडम्बना यह है कि सरकार बड़ी परियोजनाओं के प्रति मोह ग्रस्त है।

भव्य परियोजनाओं के भयानक परिणाम


आंकड़ों की उक्त तस्वीर में छिपी वास्तविकता की छोटी-सी झलक प्रस्तुत करते हैं ये उदाहरण। लगभग 1953 में शुरू हुई उत्तर बिहार में कोसी परियोजना का लक्ष्य था उत्तर बिहार में 9 लाख घन सेक प्रवाह पर 5.28 लाख एकड़ भूमि को बाढ़ से सुरक्षा प्रदान करना। हुआ क्या? इस परियोजना से आज की तारीख तक दोनों तटबंधों के बीच 2.7 लाख एकड़ जमीन स्थाई बाढ़ से ग्रस्त हो गयी। तटबंध से सुरक्षित क्षेत्र की 4.5 लाख एकड़ जमीन जल जमाव की समस्या से ग्रस्त है। तटबंधों के बनाने के समय, उनके बीच 304 गाँवों में बसने वाली जनसंख्या 1.92 लाख थी । उनका जीवन स्थाई तौर पर नारकीय हो गया। आज उनकी संख्या 9.5 लाख है।

यहां यह बताना भी प्रासंगिक होगा कि पूर्वी कोसी नहर प्रणाली से 17.59 लाख एकड़ (7.11 लाख हेक्टेयर) ज़मीन की सिंचाई करने का वादा किया गया था। और 1985-86 तक मात्र 3.195 लाख एकड़ क्षेत्र की सिंचाई हो सकी।

दक्षिण बिहार के “सुखाड़ क्षेत्र” में सिंचाई सुविधा के नाम पर चल रही है स्वर्णरेखा परियोजना। सिंहभूम जिले में चल रही दो बड़े डैम, दो बराज एवं सात नहरों वाली इस परियोजना में विश्व बैंक आर्थिक मदद कर रहा है। 1977 में इसकी लागत 179 करोड़ थी। आज उसकी लागत बढ़कर 1285 करोड़ रु. हो गयी है।

इस परियोजना के बाबत सरकार द्वारा उपलब्ध कराये गये आंकड़ों एवं गैरसरकारी सर्वेक्षण के अनुसार इस से चांडिल और ईचा के इलाके में करीब 182 गांव डूब जायेंगे। इनमें 44 गांव पूर्णतः डूब जायेंगे। कुल मिलाकर एक लाख लोग, जिनमें अधिकतर आदिवासी हैं, विस्थापित हो जायेंगे।

इससे दक्षिण बिहार (सिंहभूम) में कुल 4 लाख एकड़ जमीन को सिंचाई सुविधा प्रदान करने का लक्ष्य है, जिसके लिए करीब 1 लाख 60 हजार एकड़ ज़मीन आदिवासियों से छीनीं जा रही है। यह आंकड़ा अभी और विस्तार पायेगा क्योंकि अभी दो बराज एवं 5 नहरों के लिए अधिग्रहित की जाने वाली ज़मीन का नाप जोख नहीं किया गया है। इस परियोजना से करीब 10 हजार एकड़ क्षेत्र में फैला जंगल नष्ट हो जायेगा।

या ध्रुवाणि परित्यज्य...


नदी बांधने की बड़ी परियोजनाओं के आकर्षण ने बिहार में भूगर्भ जल स्रोत एवं सतही जल के इस्तेमाल के तमाम छोटे-छोटे अभिक्रमों एवं कोशिशों को उपेक्षा के गर्त में धकेल दिया है। बिहार सरकार ने एक तरफ भूगर्भ जल से संबद्ध योजनाओं को लघु सिंचाई विभाग के खाते में डालकर उन्हें सिंचाई के समग्र चिंतन एवं कार्यक्रम से अलग कर दिया और दूसरी तरफ बड़ी परियोजनाओं का प्रलोभन देकर आम जनता में छोटी सिंचाई परियोजनाओं के प्रति विकर्षण पैदा कर दिया। कुएं, तालाब, नलकूप आदि से सिंचाई करने की परंपरागत पद्धतियां ध्वस्त हुई। इनसे जुड़ा जनता का अभिक्रम सरकारी सहारे पर आश्रित हो गया है।

सबसे बड़ा और घातक परिणाम यह हुआ है कि बिहार का किसान आज “अध्रुव” की आस में “ध्रुव” से भी वंचित है। लघु सिंचाई विभाग के तहत आज सिर्फ आकड़ों का खेल चल रहा है। इस खेल में प्रति वर्ष करोड़ों रुपयों का वारा-न्यारा होता है। खेल का यह “लघु” रूप लूट को छोटे-छोटे हिस्से में बांटकर इस कदर अदृश्य कर देता है कि करोड़ों रुपयों का घपला भी नजर नहीं आता।

आंकड़ों के इस खेल का असली रहस्य इस तथ्य में है कि कृषि विभाग की रिपोर्ट लघु सिंचाई की सृजित क्षमता में 10 प्रतिशत सालाना ह्रास का अनुमान करते हुए भी मानती है कि छठी पंचवर्षीय योजना के अंत तक राज्य में 30.71 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में लघु सिंचाई की सुविधा उपलब्ध थी। दूसरी ओर लघु सिंचाई विभाग इस ह्रास को सिर्फ 5 प्रतिशत मानकर भी यह बताने को विवश है कि छठी योजना के अंत तक सिर्फ 21.37 लाख हेक्टेयर में लघु सिंचाई की सुविधा उपलब्ध थी। पूर्व में दस हजार रुपये की अधिसीमा में आने वाली स्कीमों को लघुसिंचाई स्कीम के नाम से जाना जाता था। बाद में भारत सरकार ने परिभाषा बदल दी। अब दो हजार हेक्टेयर तक सिंचाई क्षमता का सृजन करने वाली परियोजनाएं लघु सिंचाई की कोटि में आ गयीं। इसका अर्थ इस आंकड़े से समझा जा सकता है कि सातवीं पंचवर्षीय योजना काल में लघु सिंचाई कार्यक्रमों पर राज्य में करीब 284 करोड़ रुपये खर्च किये गये। यानी सालाना औसतन 56 करोड़ रुपये। आठवीं पंचवर्षीय योजना में औसतन 90 करोड़ रु. सालाना खर्च का अनुमान है।

कृषि विभाग के आंकड़ों के अनुसार राज्य में अधिक से अधिक 59 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में लघु सिंचाई परियोजनाओं के माध्यम से सिंचाई क्षमता का सृजन किया जा सकता है। कृषि विभाग ने चावल उत्पादन के विशेष कार्यक्रम के लिए 1988 में जो दस्तावेज़ प्रकाशित किये, उसमें यह दावा भी किया कि छठी पंचवर्षीय योजना के अंत तक 34.12 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में लघु सिंचाई परियोजनाओं के माध्यम से सिंचाई सुविधा उपलब्ध करा दी गयी है। सातवीं योजनाकाल में 11.48 लाख हेक्टेयर अतिरिक्त ज़मीन में सिंचाई सुविधा मुहैया कराने का लक्ष्य है।

दूसरी ओर 1989-90 के वार्षिक प्रतिवेदन में लघु सिंचाई विभाग ने दावा किया कि उसने राज्य में कुल 90 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई क्षमता सृजन का अंतिम लक्ष्य निर्धारित किया है, जिसमें 71 लाख हेक्टेयर भूगर्भ जल स्रोत एवं 19 लाख हेक्टेयर सतही सिंचाई स्रोत से सृजित किया जाना है। इस प्रतिवेदन में भी दावा किया गया कि लघु सिंचाई कार्यक्रम द्वारा छठी योजना योजना के अंत तक 34.12 लाख हेक्टेयर और सातवीं योजना में कुल 10.16 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई क्षमता सृजित कर ली गयी।

आंकड़ों के इस खेल का असली रहस्य इस तथ्य में है कि कृषि विभाग की रिपोर्ट लघु सिंचाई की सृजित क्षमता में 10 प्रतिशत सालाना ह्रास का अनुमान करते हुए भी मानती है कि छठी पंचवर्षीय योजना के अंत तक राज्य में 30.71 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में लघु सिंचाई की सुविधा उपलब्ध थी। दूसरी ओर लघु सिंचाई विभाग इस ह्रास को सिर्फ 5 प्रतिशत मानकर भी यह बताने को विवश है कि छठी योजना के अंत तक सिर्फ 21.37 लाख हेक्टेयर में लघु सिंचाई की सुविधा उपलब्ध थी।

अगर 5 प्रतिशत सालाना ह्रास माना जाय तो सातवीं योजना के अंत तक (1990 तक) राज्य में सिर्फ 22.84 लाख हेक्टेयर ज़मीन को लघु सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है। अगर 10 प्रतिशत सालाना ह्रास को मान्यता दी जाय तो सातवीं योजना के अंत तक राज्य में लघु सिंचाई योजनाओं से सिर्फ 10.79 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई हो रही है। उपरोक्त आंकड़ों में क्या सही है, यह न कृषि विभाग को मालूम है और न लघु सिंचाई विभाग को।

लेकिन लघु सिंचाई के स्कीमों द्वारा राज्य में 59 लाख हेक्टेयर के बजाय 90 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई उपलब्ध कराने के लक्ष्य में भी दिलचस्प रहस्य छिपा है। वह यह है कि राज्य में जिन क्षेत्रों में सिंचाई की बड़ी योजनाएं चलायी जा रही है, वहीं लघु सिंचाई की योजनाएं भी चल रही है।

आंकड़ों के अनुसार राज्य में कुल 65 लाख हेक्टेयर ज़मीन में बड़ी परियोजनाओं के जरिये सिंचाई सुविधा उपलब्ध करा सकने का आकलन किया है औ, उसी 65 लाख हेक्टेयर में से 40 लाख हेक्टेयर क्षेत्र ऐसा है जिसमें लघु सिंचाई की स्कीमें भी चलायी जा रही हैं या चलाये जाने का लक्ष्य है यानी उन क्षेत्रों में बड़ी सिंचाई परियोजनाएं अनुपयोगी साबित हुई है।

जब उन क्षेत्रों में लघु सिंचाई परियोजनाएं सफलतापूर्वक चल सकती है तो वहीं बड़ी परियोजनाओं पर करोड़ों रुपये क्यों खर्च किये जा रहे हैं? इस सवाल का जवाब ढूंढने की किसी को फुर्सत नहीं है।

सरकार में यह भी बताने वाला कोई नहीं है कि राज्य में लघु सिंचाई स्कीमों द्वारा सिंचित 22.84 लाख हेक्टेयर ज़मीन कहां है? क्या यह उन क्षेत्रों में है, जहां कोई बड़ी या मध्यम सिंचाई परियोजना नहीं है? या फिर यह भी वही है जहां सिंचाई की बड़ी-बड़ी योजनाएं चल रही हैं?

एक सर्वेक्षण के अनुसार राज्य में 1967-69 में कुओं से 2.79 लाख हेक्टेयर में सिंचाई थी। 1985-86 में कुओं से होने वाली सिंचाई का क्षेत्रफल सिर्फ 1.32 लाख हेक्टेयर रह गया। 1987-88 में तो कुओं से सिंचित क्षेत्रफल 1.14 लाख हेक्टेयर हो गया।

यही हाल नलकूपों से होने वाली सिंचाई का भी है। सरकारी नलकूपों (ट्यूबवेल) की स्थिति यह है कि उनसे 1976-77 में करीब 1.84 लाख हेक्टेयर क्षेत्र की सिंचाई होती थी। पिछले दस-ग्यारह वर्षों में सरकारी नलकूपों से सिंचाई सृजन क्षमता का विकास ऐसा हुआ कि सिंचित क्षेत्र का क्षेत्रफल क्रमशः घटते घटते 1987 में सिर्फ 36 हजार हेक्टेयर हो गया। यानी 1987 में कुओं से 1.14 लाख हेक्टेयर तो सरकारी नलकूपों से सिर्फ 36 हजार हेक्टेयर क्षेत्र को सिंचाई सुविधा मिल रही थी सरकारी अनुदान और ऋण पर निजी नलकूप लगाने की कोशिशों का आलम यह रहा कि 1977-78 में निजी नलकूपों से करीब 10.65 लाख एकड़ ज़मीन में सिंचाई हुई और 1987-88 में यानी 11 वर्ष के बाद भी उसमें सिर्फ 2.63 लाख हेक्टेयर की वृद्धि हुई। फिर नलकूपों पर जो खर्च किया गया वह कहां गया?

अद्यतन जानकारी के अनुसार बिहार में कुल 5015 में से सिर्फ 2790 नलकूप चालू हालत में और 2225 नलकूप मरम्मत के अभाव में ठप हैं या पूरी तरह से बेकार हो चुके हैं।

नलकूपों के जरिये सिंचाई सुविधा के उपरोक्त सारे आंकड़े बिल्कुल गलत साबित किये जा सकते हैं क्योंकि यह सुविधा बिजली पर आश्रित है और बिहार में बिजली का कोई भरोसा नहीं। 1983 के सर्वेक्षण के मुताबिक राज्य में उस वक्त अक्तूबर के महीने में सिंचाई के लिए किसानों को रोज़ाना तीन घंटे की बिजली आपूर्ति की जाती थी। सरकारी नलकूपों की दक्षता के अनुसार उन्हें प्रति माह प्रति हार्स पावर 164 यूनिट बिजली की जरूरत थी। इसका अर्थ यह है कि सिंचाई के लिए रोज़ाना 7 से 9 घंटे तक बिजली की जरूरत है। आज बिहार में बिजली की हालत और भी बदतर है।

राष्ट्रीय हित बनाम क्षेत्रीय हित


इस तरह के और भी कई उदाहरण मौजूद हैं। विनाश के आतंक को विकास के आकर्षण से खत्म करने के सपने दिखाने वाली ऐसी तमाम परियोजनाओं के साथ एक तथ्य यह भी जुड़ा है कि ज्यादातर बड़े बांध ऐसे इलाकों में बनाये जा रहे हैं, जहां आधुनिक विकास का स्पर्श तक नहीं हुआ है। उन इलाकों के अनेक लोग इन परियोजनाओं को भविष्य की आशा का प्रतीक मान लेते हैं। वे इस क्रूर तर्क को बिना किसी विरोध के स्वीकार भी कर लेते हैं कि वृहत्तर समाज की भलाई के लिए किसी न किसी को कीमत अदा करनी पड़ती है। यानी देश के हित के लिए स्थानीय हित को गौण करना पड़ता है। इसके कारण कई डूब क्षेत्र के निवासी भी बड़े बांधों का पूरी ताकत से विरोध नहीं कर पाते। ऐसे लोग अंततः विस्थापन को अपनी नियति मानकर अपने विरोध को मुआवजा और आजीविका तक सीमित कर लेते हैं। कोयलकारों एवं स्वर्ण रेखा (चांडिल डैम) की तरह अधिकतर मामलों में लोग पुनर्वास की अच्छी सुविधाओं के लिए ही लड़ रहे हैं। स्वर्ण रेखा से जुड़े ईचा डैम जैसे मामले बहुत कम हैं, जहां लोग अपने सांस्कृतिक-सामाजिक विस्थापन को रोकने के लिए बड़े बांध का विरोध कर रहे हों। ऐसे में नदी को बांधने की मूल अवधारणा को चुनौती देने का कोई सवाल ही नहीं पैदा होता।

नदी बांधना आधुनिक विकास की पहचान है


यहां यह सवाल उठ सकता है कि विकल्प के रूप में नदी को मुक्त करने की तकनीक विकसित नहीं की जाती? इस सवाल के उत्तर में पहले यह दोहराना उचित होगा कि नदी बांधने की तकनीक सिर्फ एक समस्या का समाधान नहीं, वह आधुनिक विकास की अवधारणा का अंग है। यह केंद्रित सत्ता का आधार है। यह वर्तमान विकसित उपभोगवादी सभ्यता-संस्कृति की पहचान है। इस संस्कृति के विकास की मूल अवधारणा ही यह है कि मानव प्रकृति का जेता है। नदी बांधना उसके इसी अवधारणा की अभिव्यक्ति है।

ऐसे में नदी को मुक्त करने की तकनीक कैसे विकसित हो सकती है? इसके लिए वर्तमान संस्कृति की मूल अवधारणा पर ही प्रहार होने का खतरा आ जायेगा।

नदी को मुक्त करने के मुद्दे पर विशेषज्ञों में अक्सर होने वाली बहसें इसी बिंदु पर आकर स्थगित भी होती है। जो विशेषज्ञ नदी बांधने के खतरों और तबाही से अच्छी तरह परिचित है, वे भी बचाव में यही कहते नजर आते हैं कि माना, मानव प्रकृति का जेता नहीं हो सकता या उसे जेता होने की प्रवृत्ति का त्याग करना चाहिये लेकिन यहां यह भी याद रखना चाहिए कि मानव प्रकृति का गुलाम नहीं हट सकता और न रहना चाहिए।

बाढ़ को नियंत्रित करने के लिए नदी को मुक्त करने का चिंतन प्रकारंतर से यह भी कहता है कि मानव को बाढ़ के साथ जीने का तरीका ढूंढना चाहिए। यानी नदी किनारे सीमेंट-कंक्रीट का मकान तबाही को बढ़ायेगा। नदी क्षेत्र में सड़कें एवं रेल पथ, जो आधुनिक विकास के प्रतिमान हैं, बाढ़ की विभीषिका को बढ़ाते हैं। उनका भी विकल्प खोजना होगा। इस चिंतन को स्वीकार करने वाले यह भी कहते हैं मानव नदी के पास गया। नदी मानव के पास नहीं गयी। इसलिए मानव को नदी की प्रकृति का सम्मान करना चाहिये। इस चिंतन को आधुनिक मानव कैसे स्वीकार करेगा? यह तो उसके अब तक अर्जित ज्ञान-विज्ञान एवं प्रतिभा कर प्रश्नचिह्न लगा देगा।

अतिवादी चिंतन से मुक्ति विकल्प का द्वार खोलेगी


तो क्या नदी बांधने का महायुद्ध इसलिए जारी रहेगा कि यह अब ऐसे मोड़ पर पहुंच चुका है, जहां से योद्धा वापस नहीं आ सकता? क्या बड़े बांध, बड़ी परियोजनाएं विकल्पहीन “विकल्प” हैं?

इसके जवाब में यह सवाल उठे कि क्या नदी बांधने को महायुद्ध की संज्ञा देकर हर बड़ी परियोजना को नकार देना अतिवादी एवं पुरानी पराजित मानसिकता का परिचायक नहीं है?

स्थानीय बोली में बाढ़ और तबाही का प्रतीकात्मक वर्णन वह करीब एक घंटे तक सुनते रह गये थे। माई भी इसी बहाने जैसे अपनी वर्षों से संचित पीड़ा को शब्द देकर खुद को हल्का करने का जतन कर रही थी। गजब के शब्द, गजब के प्रतीक! वह माई की भाषा समझ ही नहीं रहे थे, बाढ़ और तबाही को साक्षात देख रहे थे। आज बिहार में बड़े बांध विरोधी कई लोग हैं जो अतिवादिता के इस आक्षेप का सामना कर रहे हैं। वे बताना चाहते हैं कि उनकी नजर में “हर नदी को बांधने का जारी सिलसिला” स्वयं अतिवादी चिंतन का परिणाम है। इसके कारण किसी नदी को बांधने के पूर्व आवश्यकता-उद्देश्य अथवा अन्य विकल्पों के बारे में विचार-विमर्श को ही निरर्थक मान लिया जाता है। ऐसी स्थिति में आज तात्कालिक जीत का सफलता के लिए शार्टकट रास्ता पकड़ने वाले सत्ताधीशों के हाथ में पड़कर नदी बांधने की हर बड़ी योजना ऐसे महायुद्ध का रूप ले रही है, जिसमें हारनिश्चित होते हुए भी लड़ते जाने की “आत्मघाती प्रवृत्ति” निहित है।

बड़े बांधों के विरोधी कहते हैं कि नदियों को मुक्त करने व रखने का उनका अतिवादी चिंतन, नदी बांधने के आत्मघाती चिंतन जैसा घातक नहीं है। उसमें अन्य विकल्पों के लिए अवसर हैं।

इस बहस के अन्य आयामों से साक्षात्कार करने के लिए वहां सिर्फ इतना कहना प्रासंगिक होगा कि अतिवादी चिंतन से “मुक्ति” समेकित समाधान के विकल्पों की तलाश की पहली शर्त है।

भीगी बिल्ली से भूखा शेर


उन्होंने (जिलाधिकारी सक्सेना ने) पूछा “मिस्टर सिंह, आप यह तो बता सकते हैं कि तटबंधों के नाम पिछले 15 सालों में जिले में ऐसा क्या हुआ कि बाढ़ भीगी बिल्ली से भूखा शेर बन गयी?”

इस विचित्र सवाल पर सभापति सिंह (मुख्य अभियंता) एकबारगी चौक उठे थे। सक्सेना भी उस दिन आश्चर्य में पड़ गये थे, जब बैजनाथ की बूढ़ी माई ने बाढ़ की तुलना भूखे शेर से की थी। वह राहत कार्यों के निरीक्षण के सिलसिले में पहली बार झौआ (महानंदा के नज़दीक का क्षेत्र) पहुंचे थे। तटबंधों के ऊपर सैकड़ों प्लास्टिक के टपरे बने हुए थे। उनके वहां पहुंचते ही सैकड़ों नंगधरंग औरत-मर्द और बच्चों ने उन्हें घेर लिया था। हर चेहरे पर भूख की छाया, आंखों में राहत की प्रतीक्षा और जुबान पर हाकिमों की शिकायत। उनके बीच बैजनाथ की बूढ़ी माई ने जो कुछ कहा, उससे वह अंदर तक हिल उठे थे। वह कलपती हुई कह रही थी, “बउवा, पहिले हमारे गांव में त बाढ़ भींगल बिल्ली जैसन सहमी-सहमी क आवे छेले, प पिछला दस बरिस से भूखल शेर नियन अचानक आवे छे और हम सबक लील जाय छे। ई बरस त बाढ़ आरो खूंखार बनके आयल छे। बबर शेरक जेना आदमीर खूनक सवाद लागि गेल छे।”

बीच में ही कल्पना छोड़कर माई पूछा था, “हम्मर भाषा बूझ रहे हो न, बउवा?”

स्थानीय बोली में बाढ़ और तबाही का प्रतीकात्मक वर्णन वह करीब एक घंटे तक सुनते रह गये थे। माई भी इसी बहाने जैसे अपनी वर्षों से संचित पीड़ा को शब्द देकर खुद को हल्का करने का जतन कर रही थी। गजब के शब्द, गजब के प्रतीक! वह माई की भाषा समझ ही नहीं रहे थे, बाढ़ और तबाही को साक्षात देख रहे थे।

“हां बेटा, पहले बाढ़क पानी गांव-खेत में घुसता था, धीरे-धीरे। बस दो-तीन अंगुर! बहुत भेलउ त दिन-रात मिला के हाथ – दू हाथ पानी चढ़े रहे। उतना टेम में त हम सब संभली जाय रहिये। माल-मत्ता, ढोर-डांगर सब बची जाय रहे। लेकिन अब त पांच-पांच मरद पानी एके हाली ऐसे हमला करि दै छै, जैसे शेर खुंखार पंजाक चोट। हमरा सबके संभले के तनिकों मौका नै! कुछ न बचै छै। ऊपर से पानी तीन-चार महीना तक उतरै नै छै।”

“आखिर ऐसा क्यों होता है?” इस सवाल पर बूढ़ी माई रोते-कलपते अपनी तकदीर को कोसने लगी थी, लेकिन नशे में धुत्त अब तक चुपचाप खड़ा बैजनाथ तिलमिलाकर अचानक उठ पड़ा, ई हमसे का पूछते हैं? दम है तो अपनी संगी-साथी भ्रष्ट सभापति सिंह से पूछो। वहीं तो बड़का इंजीनियर है न! हमारे उद्धार के वास्ते । उस जालिम ठेकेदार भरत सिंह से पूछो ऊ एम्मेले-एप्पी से पूछो। जितना हमारी तबाही, उतना ही उनका फायदा। 16 फीट ऊंचा बालू का तटबंध यहां हमारे लिए बनाते ही पटना-पूर्णियां में उनकी 50 फीट ऊंची सीमेंट की कोठियां खड़ी हो जाती हैं। यही तो हिसाब हैं। हुं हम मरे और बतायें कि काहे ऐसा होता है? कौनों यहां सौक से मरता है का?

“मिस्टर सक्सेना, यह तो आपने ऐसा सवाल रख दिया, जो सरकार की पॉलिसी से ताल्लुक रखता है,” काफी देर बाद सभापति सिंह खुद को संभाल पाये थे। तटबंध बनाना और उनको साल दर साल ऊंचा करना तो पालिटिकल फैसले हैं। हमें उन पर सिर्फ अमल करना होता है। इसलिए बेहतर है कि आप यह सवाल गवर्नमेंट से करे। राजनीति के फैसले किसी कन्स्ट्रक्शन के लिए सिर्फ टेक्निकल वायबिलिटी पर डिपेंड नहीं करते।
- हेमंत

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