1988 में आई भीषण बाढ़ में तो सरकारी लापरवाही के चलते 1250 के करीब गैंडे मारे गए थे। 2008 की बाढ़ में भी तकरीब 655 गैंडों की मौत हुई थी। लेकिन सरकार ने उससे कोई सबक नहीं सीखा, नतीजन 2012 में ब्रहमपुत्र में आई भीषण बाढ़ के चलते काजीरंगा में पानी भर जाने से 28 गैंडे डूबकर मर गए। कुछ पानी के तेज बहाव में बह गए और कुछ पानी से घबराकर जान बचाने की खातिर जंगल की ओर भागे जिनमें से 11 गैंडों को शिकारियों द्वारा मार दिया गया और उनके सींग काट लिये गए थे। दुनिया में संकटग्रस्त प्राणियों में शुमार एक सींग वाले गैंडे का अस्तित्व आज संकट में है। एक समय मौजूदा पाकिस्तान के सिन्ध प्रान्त से लेकर नेपाल, भूटान, भारत और म्यांमार में पाया जाने वाला गैंडा आज केवल भारत के असम में 430 वर्ग किलोमीटर में फैले काजीरंगा नेशनल पार्क में ही सिमट कर रह गया है।
यहाँ भी लगातार इनके शिकार किये जाने से इस प्रजाति पर विलुप्ति का खतरा मँडरा रहा है। अगर यही सिलसिला जारी रहा तो इस दशक के अन्त तक गैंडे की प्रजाति पूरी तरह विलुप्त हो जाएगी। इस बारे में विशेषज्ञों ने आगाह किया है कि बीते छह सालों में दुनिया में काले और सफेद गैंडों का शिकार तेजी से बढ़ा है। उनके अनुसार बीते सालों में तकरीब 1004 से अधिक गैंडों की जान जा चुकी हैं।
बार्न फ्री फ़ाउंडेशन के मुख्य कार्यकारी अधिकारी विल टॉवर्स की मानें तो आज दुनिया में केवल 2000 सफेद और 5000 काले गैंडे ही बचे हैं। इस बारे में अलग-अलग दावे किये जा रहे हैं। वह बात दीगर है कि अभी तक जीवित गैंडों का कोई स्पष्ट आँकड़ा सामने नहीं आ सका है।
यदि डेली एक्सप्रेस की मानें तो आपराधिक गिरोह सींग, चमड़े के लिये हर साल गैंडों को मारकर अरबों रुपए बनाते हैं। आये दिन नपुंसकता मिटाने और यौवनवर्धक दवाओं की खातिर इनके शिकार से यह आंशका बलवती होती जा रही है कि यदि इनके मारे जाने का सिलसिला यूँ ही जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब एक सींग वाले गैंडे के तो दर्शन ही दुर्लभ हो जाएँगे। अब तो यह चर्चा जोरों पर है कि इसके सींग से बनी दवा कैंसर की बीमारी में रामबाण की तरह कारगर है।
ऐसी हालत में गैंडे जीवित बच पाएँगे, इसकी सम्भावना भी न के बराबर है। गैर सरकारी सूत्रों के अनुसार आज पूरी दुनिया में तकरीब तीन हजार गैंडे ही जीवित बचे हैं। माना जाता है कि उनमें से तीन चौथाई के करीब हमारे देश में असम में ही पाये जाते हैं। इनके संरक्षण के लिये काजीरंगा में विशेष वन क्षेत्र आरक्षित है लेकिन आज यही इनकी मौत का सबब बन गया है।
यदि इसे गैंडों के कत्लगाह की संज्ञा दें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। आँकड़ों के मुताबिक साल 2013 में तकरीब 25 से अधिक गैंडों को मार दिया गया। इनमें 9 तो साल के 45 दिनों के भीतर और 7 अप्रैल महीने में तथा बाकी बाद के महीनों में मार दिये गए। गैर सरकारी सूत्र इनकी तादाद 40 के करीब बताते हैं। गैंडों को मारने के बाद उनके सींगों को काट लिया गया। यह सिलसिला थमा नहीं है, कमोबेश बेरोकटोक आज भी जारी है। इसमें दो राय नहीं। यह सब जंगल की सुरक्षा व्यवस्था की नाकामी और सरकार की लापरवाही का नतीजा है।
गैंडे के बढ़ते शिकार के पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि बाजार में गैंडे के एक किलो सींग की कीमत 30 से 40 लाख रुपए तक है जो चीन और कोरिया तक पहुँचते-पहुँचते डेढ़ गुनी बढ़ जाती है। सूत्रों के अनुसार गैंडे के सींग का यौनवर्द्धक दवाईयों और कैंसर की दवा बनाने में इस्तेमाल होता है। कहा जाता है कि इसकी खाल पर गोली, तलवार जैसे हथियार का कोई असर नहीं होता है और इसके सींग से बनी दवाओं का इस्तेमाल बुखार, गठिया, लूमेटिज्म और जोड़ों के दर्द को दूर करने में भी किया जाता है।
चीन, म्यांमार, कोरिया, थाइलैंड सहित कुछ पूर्वी देशों में गैंडे के सींग का चूर्ण बनाया जाता है जो नपुंसकता दूर करने व यौवनवर्धक दवाई बनाने में इस्तेमाल किया जाता है। गैंडे के सींग में दुर्लभ पाये जाने वाला तत्व कार्बन और मेलेनिन होता है जिसका बहुतेरी औषधियों में प्रयोग किया जाता है। बहरहाल इसका खामियाजा इस बेचारे निरीह जानवर को जान देकर चुकाना पड़ता है। नतीजन इनकी तादाद दिन-ब-दिन तेजी से घटती जा रही है।
दुख इस बात का है कि सरकार ने आज तक इस समस्या की गम्भीरता को नहीं समझा। न उसने इस वन क्षेत्र के आस-पास मानव आबादी की बेतहाशा होने वाली बसावट को ही रोका। काजीरंगा वन क्षेत्र के चारों ओर बसी सैंकड़ों बस्तियाँ इस क्षेत्र में नाजायज रूप से घुसे बांग्लादेशियों की है। इसमें पिछले एक-डेढ़ दशक में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है।
इस क्षेत्र के पास मानव बस्तियों की बढ़ोत्तरी के चलते अब इस इलाके में बाढ़ भी ज्यादा आती है और संरक्षित वन क्षेत्र की बाढ़बंदी भी इससे प्रभावित हुई है। सुरक्षा व्यवस्था पर असर पड़ा है सो अलग। फिर सुरक्षा में खामी तो जगजाहिर है। अब तो हर साल बाढ़ से गैंडों के मरने की खबरें आम हैं।
इस वन क्षेत्र के आसपास इन मानव बस्तियों में रहने वाले लोगों में से अधिकांश गैंडों के शिकार व उनके सींगों की अवैध तस्करी के कारोबार में संलिप्त हैं। खुफिया रिपोर्टें इसकी सबूत हैं कि स्थानीय पुलिस ने एक नामचीन आतंकी संगठन के कई सदस्यों को गैंडे के सींग की तस्करी करते रंगे हाथ पकड़ा है। इस संगठन के सदस्य गैंडे के सींग की तस्करी कर म्यांमार और थाइलैंड से मादक पदार्थ और हथियार लाते हैं। इसकी पुलिस और खुफिया एजेन्सियों को पूरी जानकारी है।
प्राप्त जानकारी के अनुसार खुफिया जाँच में पता चला है कि गैंडे के सीगों की तस्करी का लांचिंग पैड नागालैण्ड का दीमापुर है। यही वजह है कि खुफिया विभाग ने इस इलाके के टावरों के द्वारा मोबाइल और टेलीफोन नम्बरों को भी खंगाला ताकि वह स्थानीय तस्करों तक पहुँच सके। यही नहीं चीन और म्यांमार को उसने इसकी खातिर लैटर ऑफ रेटरोगेटरी भेजने का और इंटरपोल से भी मदद लेने पर विचार किया था। लेकिन उसके बाद खुफिया जाँच में क्या हुआ, इसका खुलासा आज तक नहीं हो सका।
खुफिया सूत्रों के अनुसार दीमापुर में मौजूद तस्कर गिरोह का सरगना गैंडे को मारने की सुपारी शिकारी गिरोह को देता है। एके-47 से लैस शिकारी जंगल के रास्ते काजीरंगा पहुँचकर वहाँ के स्थानीय लोगों की मदद से गैंडों की तलाश करते हैं। फिर उसे मारकर सींग को तेज धारदार हथियार से काटकर स्थानीय मददगार लोगों को मोटी रकम का भुगतान कर बरास्ता जंगल दीमापुर पहुँच जाते हैं।
वहाँ से सींगों को म्यांमार, चीन, कोरिया, थाइलैण्ड, इंडोनेशिया सहित कई पूर्वी एशियाई देशों में भेजा जाता है। इसके अलावा बाढ़ से भी गैंडों के मरने का सिलसिला कोई नया नहीं है, यह बरसों पुराना है। यह आज भी जारी है। 1988 में आई भीषण बाढ़ में तो सरकारी लापरवाही के चलते 1250 के करीब गैंडे मारे गए थे। 2008 की बाढ़ में भी तकरीब 655 गैंडों की मौत हुई थी। लेकिन सरकार ने उससे कोई सबक नहीं सीखा, नतीजन 2012 में ब्रहमपुत्र में आई भीषण बाढ़ के चलते काजीरंगा में पानी भर जाने से 28 गैंडे डूबकर मर गए।
कुछ पानी के तेज बहाव में बह गए और कुछ पानी से घबराकर जान बचाने की खातिर जंगल की ओर भागे जिनमें से 11 गैंडों को शिकारियों द्वारा मार दिया गया और उनके सींग काट लिये गए थे। इसमें सरकार की लापरवाही उजागर हुई थी। उसके बाद भी सरकार का मौन समझ से परे है। बाढ़ तो हर साल इनके लिये मौत का सबब बनती है। ऐसा लगता है कि यह मसला सरकार की प्राथमिकता की सूची में है ही नहीं। अगर इस पर शीघ्र अंकुश नहीं लगाया गया तो एक सींग वाला गैंडा इतिहास बन जाएगा। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता।
यहाँ भी लगातार इनके शिकार किये जाने से इस प्रजाति पर विलुप्ति का खतरा मँडरा रहा है। अगर यही सिलसिला जारी रहा तो इस दशक के अन्त तक गैंडे की प्रजाति पूरी तरह विलुप्त हो जाएगी। इस बारे में विशेषज्ञों ने आगाह किया है कि बीते छह सालों में दुनिया में काले और सफेद गैंडों का शिकार तेजी से बढ़ा है। उनके अनुसार बीते सालों में तकरीब 1004 से अधिक गैंडों की जान जा चुकी हैं।
बार्न फ्री फ़ाउंडेशन के मुख्य कार्यकारी अधिकारी विल टॉवर्स की मानें तो आज दुनिया में केवल 2000 सफेद और 5000 काले गैंडे ही बचे हैं। इस बारे में अलग-अलग दावे किये जा रहे हैं। वह बात दीगर है कि अभी तक जीवित गैंडों का कोई स्पष्ट आँकड़ा सामने नहीं आ सका है।
यदि डेली एक्सप्रेस की मानें तो आपराधिक गिरोह सींग, चमड़े के लिये हर साल गैंडों को मारकर अरबों रुपए बनाते हैं। आये दिन नपुंसकता मिटाने और यौवनवर्धक दवाओं की खातिर इनके शिकार से यह आंशका बलवती होती जा रही है कि यदि इनके मारे जाने का सिलसिला यूँ ही जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब एक सींग वाले गैंडे के तो दर्शन ही दुर्लभ हो जाएँगे। अब तो यह चर्चा जोरों पर है कि इसके सींग से बनी दवा कैंसर की बीमारी में रामबाण की तरह कारगर है।
ऐसी हालत में गैंडे जीवित बच पाएँगे, इसकी सम्भावना भी न के बराबर है। गैर सरकारी सूत्रों के अनुसार आज पूरी दुनिया में तकरीब तीन हजार गैंडे ही जीवित बचे हैं। माना जाता है कि उनमें से तीन चौथाई के करीब हमारे देश में असम में ही पाये जाते हैं। इनके संरक्षण के लिये काजीरंगा में विशेष वन क्षेत्र आरक्षित है लेकिन आज यही इनकी मौत का सबब बन गया है।
यदि इसे गैंडों के कत्लगाह की संज्ञा दें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। आँकड़ों के मुताबिक साल 2013 में तकरीब 25 से अधिक गैंडों को मार दिया गया। इनमें 9 तो साल के 45 दिनों के भीतर और 7 अप्रैल महीने में तथा बाकी बाद के महीनों में मार दिये गए। गैर सरकारी सूत्र इनकी तादाद 40 के करीब बताते हैं। गैंडों को मारने के बाद उनके सींगों को काट लिया गया। यह सिलसिला थमा नहीं है, कमोबेश बेरोकटोक आज भी जारी है। इसमें दो राय नहीं। यह सब जंगल की सुरक्षा व्यवस्था की नाकामी और सरकार की लापरवाही का नतीजा है।
गैंडे के बढ़ते शिकार के पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि बाजार में गैंडे के एक किलो सींग की कीमत 30 से 40 लाख रुपए तक है जो चीन और कोरिया तक पहुँचते-पहुँचते डेढ़ गुनी बढ़ जाती है। सूत्रों के अनुसार गैंडे के सींग का यौनवर्द्धक दवाईयों और कैंसर की दवा बनाने में इस्तेमाल होता है। कहा जाता है कि इसकी खाल पर गोली, तलवार जैसे हथियार का कोई असर नहीं होता है और इसके सींग से बनी दवाओं का इस्तेमाल बुखार, गठिया, लूमेटिज्म और जोड़ों के दर्द को दूर करने में भी किया जाता है।
चीन, म्यांमार, कोरिया, थाइलैंड सहित कुछ पूर्वी देशों में गैंडे के सींग का चूर्ण बनाया जाता है जो नपुंसकता दूर करने व यौवनवर्धक दवाई बनाने में इस्तेमाल किया जाता है। गैंडे के सींग में दुर्लभ पाये जाने वाला तत्व कार्बन और मेलेनिन होता है जिसका बहुतेरी औषधियों में प्रयोग किया जाता है। बहरहाल इसका खामियाजा इस बेचारे निरीह जानवर को जान देकर चुकाना पड़ता है। नतीजन इनकी तादाद दिन-ब-दिन तेजी से घटती जा रही है।
दुख इस बात का है कि सरकार ने आज तक इस समस्या की गम्भीरता को नहीं समझा। न उसने इस वन क्षेत्र के आस-पास मानव आबादी की बेतहाशा होने वाली बसावट को ही रोका। काजीरंगा वन क्षेत्र के चारों ओर बसी सैंकड़ों बस्तियाँ इस क्षेत्र में नाजायज रूप से घुसे बांग्लादेशियों की है। इसमें पिछले एक-डेढ़ दशक में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है।
इस क्षेत्र के पास मानव बस्तियों की बढ़ोत्तरी के चलते अब इस इलाके में बाढ़ भी ज्यादा आती है और संरक्षित वन क्षेत्र की बाढ़बंदी भी इससे प्रभावित हुई है। सुरक्षा व्यवस्था पर असर पड़ा है सो अलग। फिर सुरक्षा में खामी तो जगजाहिर है। अब तो हर साल बाढ़ से गैंडों के मरने की खबरें आम हैं।
इस वन क्षेत्र के आसपास इन मानव बस्तियों में रहने वाले लोगों में से अधिकांश गैंडों के शिकार व उनके सींगों की अवैध तस्करी के कारोबार में संलिप्त हैं। खुफिया रिपोर्टें इसकी सबूत हैं कि स्थानीय पुलिस ने एक नामचीन आतंकी संगठन के कई सदस्यों को गैंडे के सींग की तस्करी करते रंगे हाथ पकड़ा है। इस संगठन के सदस्य गैंडे के सींग की तस्करी कर म्यांमार और थाइलैंड से मादक पदार्थ और हथियार लाते हैं। इसकी पुलिस और खुफिया एजेन्सियों को पूरी जानकारी है।
प्राप्त जानकारी के अनुसार खुफिया जाँच में पता चला है कि गैंडे के सीगों की तस्करी का लांचिंग पैड नागालैण्ड का दीमापुर है। यही वजह है कि खुफिया विभाग ने इस इलाके के टावरों के द्वारा मोबाइल और टेलीफोन नम्बरों को भी खंगाला ताकि वह स्थानीय तस्करों तक पहुँच सके। यही नहीं चीन और म्यांमार को उसने इसकी खातिर लैटर ऑफ रेटरोगेटरी भेजने का और इंटरपोल से भी मदद लेने पर विचार किया था। लेकिन उसके बाद खुफिया जाँच में क्या हुआ, इसका खुलासा आज तक नहीं हो सका।
खुफिया सूत्रों के अनुसार दीमापुर में मौजूद तस्कर गिरोह का सरगना गैंडे को मारने की सुपारी शिकारी गिरोह को देता है। एके-47 से लैस शिकारी जंगल के रास्ते काजीरंगा पहुँचकर वहाँ के स्थानीय लोगों की मदद से गैंडों की तलाश करते हैं। फिर उसे मारकर सींग को तेज धारदार हथियार से काटकर स्थानीय मददगार लोगों को मोटी रकम का भुगतान कर बरास्ता जंगल दीमापुर पहुँच जाते हैं।
वहाँ से सींगों को म्यांमार, चीन, कोरिया, थाइलैण्ड, इंडोनेशिया सहित कई पूर्वी एशियाई देशों में भेजा जाता है। इसके अलावा बाढ़ से भी गैंडों के मरने का सिलसिला कोई नया नहीं है, यह बरसों पुराना है। यह आज भी जारी है। 1988 में आई भीषण बाढ़ में तो सरकारी लापरवाही के चलते 1250 के करीब गैंडे मारे गए थे। 2008 की बाढ़ में भी तकरीब 655 गैंडों की मौत हुई थी। लेकिन सरकार ने उससे कोई सबक नहीं सीखा, नतीजन 2012 में ब्रहमपुत्र में आई भीषण बाढ़ के चलते काजीरंगा में पानी भर जाने से 28 गैंडे डूबकर मर गए।
कुछ पानी के तेज बहाव में बह गए और कुछ पानी से घबराकर जान बचाने की खातिर जंगल की ओर भागे जिनमें से 11 गैंडों को शिकारियों द्वारा मार दिया गया और उनके सींग काट लिये गए थे। इसमें सरकार की लापरवाही उजागर हुई थी। उसके बाद भी सरकार का मौन समझ से परे है। बाढ़ तो हर साल इनके लिये मौत का सबब बनती है। ऐसा लगता है कि यह मसला सरकार की प्राथमिकता की सूची में है ही नहीं। अगर इस पर शीघ्र अंकुश नहीं लगाया गया तो एक सींग वाला गैंडा इतिहास बन जाएगा। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता।
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Post By: RuralWater