
हमने अंधाधुंध विकास की आड़ में उद्योग और इनसे जुड़े उत्पादों को जिस तरह से प्राथमिकता दी है, उससे पृथ्वी का सारा संतुलन चरमरा गया है। जानकारों का कहना है कि पृथ्वी आवश्यकताओं तक तो साथ दे सकती है पर इसका सुविधाओं के लिए अत्यधिक शोषण शायद ही इसे भाये। प्रकृति अब तेज़ी से हमारा साथ छोड़ रही है और कई रूपों में हमें डरा रही है। हमारे देश में इसका एक रूप वर्षा के असंतुलन के रूप में देखने को मिल रहा है।
भारतीय मौसम विभाग के आंकड़ों पर गहराई से चिंतन करें, तो स्थिति बेहद चिंताजनक है। देश के कुछ हिस्सों में पूर्वानुमान से कहीं अधिक वर्षा ने आफ़त मचाई, तो कुछ हिस्सों में किसान पानी के लिए तरस गए। सामान्य से अधिक या सामान्य से कम, दोनों ही स्थितियां चिंता पैदा करने वाली हैं। मौसम विभाग सहित विभिन्न वैज्ञानिक संस्थानों के अध्ययनों के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा का पैटर्न निरंतर बदल रहा है, जिससे न केवल खेतीबाड़ी पर, बल्कि देश की आर्थिक, स्वास्थ्य और बढ़ती आपदाओं के कारण जनधन की सुरक्षा पर भी असर पड़ रहा है।
मौसम विभाग के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, इस साल के मानसून में एक जून से लेकर 21 जुलाई तक देश के 244 जिलों में सामान्य वर्षा हुई, जबकि 241 जिलों में सामान्य से कमा 42 ज़िलों में सामान्य से बहुत कम और 76 जिलों में सामान्य से अत्यधिक कम वर्षा दर्ज हुई है। 121 जिलों में सामान्य से थोड़ी अधिक वर्षा हुई है। उत्तर प्रदेश के पांच जिलों में अतिवृष्टि, नौ में सामान्य से अधिक, 27 में सामान्य, तो 27 ज़िलों में सामान्य से कम और छह जिलों में जबरदस्त सूखे जैसी स्थिति है। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में सामान्य से 49 प्रतिशत कम वर्षा हुई है। पंजाब और जम्मू-कश्मीर में भी क्रमशः 46 प्रतिशत और 38 प्रतिशत की भारी कमी है और ऐसा ही उत्तर प्रदेश में 34 प्रतिशत की कमी दर्ज हुई है। केरल के अलावा, अन्य दक्षिणी राज्यों में ज़्यादातर अधिक या सामान्य वर्षा हुई है।
मौसम विभाग ने सन 1989 से लेकर 2018 तक दक्षिण पश्चिम मानसन के जून से लेकर सितंबर तक के आंकड़ों के आधार पर 29 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में दर्ज मानसूनी वर्षा की परिवर्तनशीलता का जो विश्लेषण किया है, उसमें गत 30 वर्षों की अवधि में देश के विभिन्न हिस्सों में वर्षा के वितरण में भारी असमानता उजागर हो रही है। इस विश्लेषण में उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, मेघालय और नगालैंड में 1989-2018 के दौरान दक्षिण-पश्चिम मानसून की वर्षा में काफ़ी कमी का रुझान दिखाया गया है।
अरुणाचल प्रदेश और हिमाचल प्रदेश के साथ-साथ इन पांच राज्यों में वार्षिक वर्षा में भी काफ़ी कमी का रुझान दिखाई देता है। विश्लेषण में भारी वर्षा वाले दिनों की आवृत्ति के संबंध में, सौराष्ट्र और कच्छ, राजस्थान के दक्षिण-पूर्वी भागों, तमिलनाडु के उत्तरी भागों, आंध्र प्रदेश के उत्तरी भागों और दक्षिण-पश्चिम ओडिशा के आसपास के क्षेत्रों, छत्तीसगढ़ के कई हिस्सों, दक्षिण- पश्चिम मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, मणिपुर और मिजोरम, कोंकण और गोवा और उत्तराखंड में उल्लेखनीय वृद्धि की प्रवृत्ति देखी गई है।
पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने हाल ही में 'भारतीय क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन का आकलन' शीर्षक से एक रिपोर्ट प्रकाशित की है, जो देश में जलवायु चरम सीमाओं सहित क्षेत्रीय जलवायु परिवर्तन पर प्रकाश डालती है। रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में सतही वायु तापमान 1901-2018 के दौरान लगभग 0.7 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है, जिसके साथ ही वायुमंडलीय नमी की मात्रा में भी वृद्धि हुई है। हिंद महासागर की सतह के तापमान में भी 1951- 2015 के दौरान लगभग 1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। जलवायु परिवर्तनों के स्पष्ट संकेत भारतीय क्षेत्र में मानवजनित ग्रीनहाउस गैसों और एरोसोल फोर्सिंग के कारण उभरे हैं, और भूमि उपयोग और भूमि आवरण में परिवर्तन ने जलवायु चरम सीमाओं में वृद्धि में योगदान दिया है। इसलिए गर्म होते पर्यावरण और क्षेत्रीय मानवजनित प्रभावों के बीच पृथ्वी प्रणाली घटकों के बीच जटिल अंतः क्रियाओं ने पिछले कुछ दशकों में स्थानीय भारी वर्षा, सूखे और बाढ़ की घटनाओं आदि की तीव्रता में वृद्धि की है। वर्षा के बदलते पैटर्न के कई नकारात्मक प्रभाव सामने आ रहे हैं। इस बदलाव का सीधा असर कृषि पर हो रहा है।
वर्षा के पैटर्न में बदलाव से पानी की कमी की समस्याएं बढ़ सकती हैं। भारी वर्षा से ऊपरी उपजाऊ मिट्टी के क्षरण के कारण उर्वरता कम होती है। यह परिवर्तन विभिन्न तरीक़ों से सार्वजनिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित करता है। भारत के वर्षा पैटर्न में परिवर्तनों की भविष्यवाणी और प्रबंधन के लिए परिवर्तन के कारणों को समझना और उनकी निगरानी करना महत्वपूर्ण है। इस बदलते पैटर्न के प्रतिकूल प्रभावों के समाधान के लिए एकीकृत दृष्टिकोणों की आवश्यकता है, जिसमें जलवायु-लचीली कृषि, टिकाऊ जल प्रबंधन प्रथाएं, बाढ़ के जोखिमों को कम करने के लिए बुनियादी ढांचा विकास और बदलती जलवायु परिस्थितियों को नियंत्रित करने वाली नीतियों को लागू किया जाना चाहिए, क्योंकि प्रकृति का सिद्धांत भी यही कहता है कि जो लेना है, उसे लौटाना भी है।
आज सुविधा जुटाने की होड़ व पागलपन इस हद तक जा पहुंचा है कि हम जीवन के मूल्यों और आधारों से भी कहीं आगे आ चुके हैं। हम ग़लतियों को न तो सुधारने के पक्ष में हैं और न ही यह समझने के लिये तैयार हैं कि अत्यधिक सुविधाएं संकट का ही पर्याय होती हैं। भोगवादी जीवनशैली हमेशा पृथ्वी को नुक़सान ही पहुंचाएगी, यह हम सबकी समझ में आ जाना चाहिए।
मनुष्य ये भूल गया कि प्रकृति पर उसका नियंत्रण नहीं है। यदि अपने देश की बात करें, तो एक ओर बारिश का बढ़ता असंतुलन और दूसरी ओर धुंध व प्राण वायु की दुश्वारी हमें क्या समझाने की कोशिश कर रही है। शायद यह कि प्रकृति जब भी बिगड़ेगी तो सबको ले डूबेगी। अब भी बहुत कुछ बचाया जा सकता है बशर्ते हम अपने विकास के वर्तमान मॉडल में मूलभूत परिवर्तन करें।
/articles/asantulan-ki-barish-mein-doobti-paryavaran-ki-naanv