असमानता का पैरोकार आम बजट

“नेहरू के जमाने में जो भी जनसंघर्ष था, वह सामंतवाद के विरुद्ध था। वह पूंजीवाद के विरुद्ध नहीं था, क्योंकि वह तो पूंजीवाद को ही विकसित करने का अदृश्य कौशल था। बस इसमें इतनी सतर्कता चाहिए थी कि विकास आहिस्ते-आहिस्ते हो ताकि पूंजीवाद, सामन्तवाद की सत्ता को अपने हाथ में ले सके और बचे हुए सामंतवादी तत्वों को अपने अंदर अंगीभूत कर सके।”
किशन पटनायक

सन् 2014-15 के बजट में दो विशिष्ट प्रावधान हैं, पहला है गंगा नदी की सफाई एवं पुनरुद्धार हेतु “नमामि गंगा” परियोजना और इलाहाबाद से हल्दिया तक 1800 किलोमीटर का नौवहन। दूसरा प्रावधान है उत्तरपूर्वी राज्यों का विशिष्ट विकास एवं बड़ी मात्रा में धन का आबंटन। वहां पर विकास के माध्यम से उग्रवाद से निपटने की योजनाएं, जिसमें पर्यटन व जैविक खेती शामिल हैं, लागू किए जाने की बात कही गई है। भारत के आर्थिक विकास को विश्लेषित करने का सबसे अच्छा माध्यम प्रतिवर्ष प्रस्तुत होने वाला हमारा आम बजट है। अपने पूर्ववती बजटों की तरह यह बजट भी आर्थिक असमानता को दूर करने की बात तक को अपने आसपास फटकने ही नहीं देता और पूंजीवाद और सामंतवाद का एक घना अंधकार हमारे ऊपर ऊंडेल देता है। यह घुप्प अंधेरा ऐसी अनूठी चकाचौंध पैदा करता है कि हम फटी आंखों से भी कुछ नहीं देख पाते और घबराकर अंधेरे को ही रोशनी मानने पर मजबूर हो जाते हैं।

यह बजट अपनी पूरी चालाकी से सामाजिक जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ता नजर आता है। इस बार के केेंद्रीय बजट में जहां अनुदान की राशि आसमान छूती नजर आती है, वहीं दूसरी ओर इसकी अधिकांश योजनाएं राज्य के खातों में डाल दी गई हैं। यानि केंद्र सरकार धीरे-धीरे सामाजिक क्षेत्रों की पूरी जिम्मेदारी राज्यों पर डालती नजर आ रही है।

यह सब कुछ एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा है। विकेंद्रीकरण के नाम पर की जा रही यह रस्साकशी कमोवेश सामाजिक क्षेत्र में सरकारी हस्तक्षेप को कमजोर करने की दिशा में बड़ी छलांग है। किसी भी योजना या कार्यक्रम के क्रियान्वयन के पीछे यदि कानूनी सहारा है तो उसकी स्थिति काफी मजबूत होती है।

यह बात हमें महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कानून (मनरेगा), सूचना का अधिकार कानून (आरटीआई), शिक्षा का अधिकार कानून एवं हाल ही में पारित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून की विवेचना से समझ में आ जाएगी। इसके विपरीत यदि हम राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) जैसी अनेक अन्य योजनाएं, जिन्हें कानूनी संरक्षण प्राप्त नहीं है को देखें तो पता चलता है कि इनके क्रियान्वयन में अधिक मनमानी हो रही है।

अंबेडकर ने संविधान सभा की बहस में जिस आर्थिक लोकतंत्र की दलील दी थी, वह लोकतंत्र के स्थायित्व की गारंटी है उसी से सामाजिक समानता की शर्त पूरी होती है। अतएव हमें अर्थव्यवस्था में विषमता को मर्यादित करना होगा। विकासशील देश के नाते कुल आय के मद्देनजर प्रत्येक परिवार को एक व्यवस्थित रोजगार देने का कानूनी प्रावधान रखेंगे तो देश की आर्थिक विषमता को 1:5 या 1:10 के अनुपात में मर्यादित किया जा सकेगा। परंतु मनरेगा जो कि वर्ष में मात्र 100 दिन (वह भी गांवों में) का अस्थायी रोजगार देता है, के खिलाफ भी भरे पेट वाला पूरा समाज लग गया है। उसे मात्र 33 हजार करोड़ रु. की इस योजना/कानून की समाप्ति से पूरे देश की अर्थव्यवस्था में सुधार नजर आने लगता है। इसकी वजह है कि अपने लंगड़े-लूले क्रियान्वयन के बावजूद इसने देश के अनेक हिस्सों में मजदूरों को मोल-तोल करने की ताकत प्रदान की है।

इस आम बजट में जहां महिला बाल विकास, ग्रामीण विकास, उच्च शिक्षा, अल्पसंख्यक मामलों के विभाग, विद्यालयीन शिक्षा व साक्षरता जैसे महत्वपूर्ण विभागों के बजट में नाममात्र की वृद्धि दिखाई देती है वहीं श्रम व रोजगार एवं सामाजिक न्याय व अधिकारिता विभाग के बजट आवंटन में कमी आई है।

आदिवासी मामलों के विभाग को अपवाद माना जा सकता है, जिसके बजट काफी वृद्धि हुई है। वहीं दूसरी ओर शहरी विकास मंत्रालय का बजट दुगना किया गया है। गृह निर्माण एवं शहरी गरीबी के बजट में भी काफी वृद्धि की गई है, लेकिन इसी के साथ कम लागत वाले घरों के निर्माण हेतु विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की भी जबरदस्त मनुहार की जा रही है।

बजट में किए गए प्रावधानों की सातत्यता की भी पड़ताल आवश्यक है। इस बात की भी निगरानी की जाना चाहिए कि बजटीय प्रावधानों के साथ कोई छेड़छाड़ तो नहीं की जा रही है। इस संबंध में लोकस्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग के बजट पर गौर करते हैं। सन् 2013-14 के बजट अनुमानों में इस विभाग की विभिन्न मदों (लोक स्वास्थ्य विभाग, 35874.94 करोड़ रु., आयुष, 1259 करोड़ रु. स्वास्थ्य शोध 1008 करोड़ रु. व एड्स नियंत्रण 1785 करोड़ रु.) पर कुल 39926.94 करोड़ रु. का प्रावधान किया गया था। लेकिन संशोधित अनुमानों में इसे घटाकर 32777.06 करोड़ रु. (लोक स्वास्थ्य, 29460.75 करोड़ रु., आयुष 935.75 करोड़ रु. व एड्स नियंत्रण 1500 करोड़ रु.) कर दिया गया। यानि बजट अनुमान की बनिस्बत संशोधित अनुमान 7150 करोड़ रु. कम थे। विशेषज्ञों का कहना है कि चूंकि सबकी निगाहें बजट पर रहती हैं, इसलिए वहां आबंटन ज्यादा बताया जाता है। बजट संशोधन की प्रक्रिया पर न तो किसी की नजर रहती है, न ही कोई सवाल पूछता है। यानि भारत सरकार व राज्य सरकारें इस संदर्भ में गैर जिम्मेदाराना व्यवहार करती हैं। इन मामलों की विस्तार से पड़ताल होना आवश्यक है और किसी भी कटोत्री की सार्वजनिक घोषणा भी अनिवार्य होना चाहिए।

आर्थिक प्रगति या सकल घरेलू उत्पाद दर (जीडीपी) ही अब मानव विकास का एकमात्र पैमाना है। हमारा नवीनतम बजट भी इसी विचार या विचारधारा की पुष्टि करता नजर आता है। आर्थिक विकास की होड़ में वह पर्यावरण ही नहीं मानवता तक की उपेक्षा करने से नहीं चूका।

सन् 2014-15 के बजट में दो विशिष्ट प्रावधान हैं, पहला है गंगा नदी की सफाई एवं पुनरुद्धार हेतु “नमामि गंगा” परियोजना और इलाहाबाद से हल्दिया तक 1800 किलोमीटर का नौवहन। दूसरा प्रावधान है उत्तरपूर्वी राज्यों का विशिष्ट विकास एवं बड़ी मात्रा में धन का आबंटन। वहां पर विकास के माध्यम से उग्रवाद से निपटने की योजनाएं, जिसमें पर्यटन व जैविक खेती शामिल हैं, लागू किए जाने की बात कही गई है।

पहले गंगा की बात करते हैं। नए प्रधानमंत्री बनारस से चुनाव जीते हैं और गंगा का पुनर्जन्म उनका नया सपना है। इस विभाग की मंत्री उमा भारती भी पिछले कई वर्षों से गंगा मुक्ति में जुटी है, लेकिन किसी भी नीति निर्माता का ध्यान इस ओर नहीं गया कि बनारस के मणिकर्णिका घाट पर 19 जुलाई 2008 से अनशन पर बैठे गंगा मुक्ति अभियान के प्रणेता बाबा नागनाथ का केंद्रीय बजट प्रस्तुत होने के एक दिन बाद 11 जुलाई को बनारस के एक अस्पताल में निधन हो गया।

चार वर्ष पहले उन्होंने घोषणा की थी कि जब तक गंगा बांधों और प्रदूषण से मुक्त नहीं होती तब तक वे अन्न ग्रहण नहीं करेंगे। लेकिन बजट के आंकड़ों में उलझे वित्त मंत्रालय और फिजूल के गंगा मंथनों में उलझी मंत्री सुश्री उमा भारती ने उनकी ओर ध्यान नहीं दिया। गौरतलब है, तीन वर्ष पूर्व उत्तराखंड में स्वामी नित्यानंद भी गंगा मुक्ति को लेकर अपने प्राण त्याग चुके हैं। लेकिन किसी को इन समर्पित लोगों की भावना और योजनाओं से मतलब नहीं है, क्योंकि मान लिया गया है कि सिर्फ आर्थिक प्रावधान ही समस्या का निराकरण कर सकते हैं?

हृदयहीनता का दूसरा मामला उत्तरपूर्व के राज्य मणिपुर का है, जहां पर ईरोम शर्मिला पिछले ग्यारह वर्षों से अनशन पर हैं। उनका अनशन सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून को हटाने को लेकर है। किसी भी क्षेत्र का विकास शांतिपूर्ण परिस्थितियों में ही हो सकता है। इस कानून के लागू होने से फायदे से ज्यादा नुकसान हुए हैं।

यदि इसे प्रायोगिक तौर पर एक वर्ष के लिए भी हटा लिया जाए और अध्ययन किया जाए तो किसी परिणाम पर पहुंचा जा सकता है। लेकिन हमारा बजट और सरकार तो सेना, अर्द्धसैनिक बलों एवं पुलिस को अत्याधुनिक बनाने के प्रयास को ही मान्यता देते हैं। उसके लिए ईरोम शर्मिला या उत्तरपूर्व की जनाकांक्षाओं का कोई अर्थ नहीं है।

दरअसल जब तक आम बजट अमीर व गरीब के बीच की खाई को पाटने का प्रयास नहीं करेगा, विकास के नाम पर पांच लाख करोड़ से ज्यादा की करों में छूट को न्यायोचित ठहराएगा, मनरेगा व खाद्य सुरक्षा जैसे कानून कानूनों को लागू करने में ठिठकेगा, शिक्षा व स्वास्थ्य के निजीकरण के खिलाफ बिगुल नहीं बजाएगा और गोपनीयता के अपने दायरे को नहीं तोड़ेगा तब तक अर्थहीन ही बना रहेगा। वैसे डॉ. राममनोहर लोहिया ने लिखा है, “यह कोई नया विकास नहीं है। पहले भी, जब एक सभ्यता प्रौढ़ता पा लेती थी और उसका पतन निकट आ जाता तो अपने को जीवित रखने के लिए वह बिखर जाती थी।”

अपनी सभ्यता और स्वयं को लेकर हमारा क्या नजरिया है?

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