आसमान में घन कुरंग

टेम्स नदी
टेम्स नदी

पिछले दिनों लंदन के कुछ इलाकों में हुए भारी दंगों का बादल अब शहर से छंट चुका है। पूरा शहर टेम्स नदी के किनारे सालाना जलसा ‘टेम्स समारोह’ मनाने के लिए जुटा हुआ है। यह समारोह लंदन शहर के जज्बे को सलाम करने और उसके दिल में बसे टेम्स के प्रति अपना प्यार जताने के लिए मनाया जाता है। टेम्स के किनारे चिनार के हरे और हल्के पीले पत्ते हवा के झोंके के संग इधर-उधर उड़ते रहते हैं। माहौल चारों तरफ काफी खुशगवार है। टेम्स नदी के किनारे दूर तक लगे झाड़-फानूस, खाने-पीने के खोमचों, सड़कों पर नाच-गाने और शोर-शराबे को देख कर ऐसा लगता है कि हम किसी भारतीय शहर में आ गए हैं लेकिन जहां भारत में पर्व-त्योहारों पर ही ऐसा रेला दिखता है, वहीं टेम्स के प्रति अपना हक अदा करने के लिए लंदनवासी इस पर्व का आयोजन करते हैं। हमने अपनी नदियों को देवी-देवता मान कर उसे पूज्य तो बना दिया, पर प्यार और सम्मान देना कहां सीखा!

बहरहाल, गर्मी की अब बस छाया भर है और शरद की आहट हवाओं में महसूस की जा सकती है। हल्की बूंदा-बांदी और बादल के घिरने से ठंड का अहसास होने लगता है। हालांकि कुछ लोग कमीज में हैं तो कुछ लोग स्वेटर और जैकेट पहने हुए दिखते हैं। सप्ताहांत पर पबों में मस्ती और सड़कों पर बीयर की टूटी हुई बोतलें! लेकिन सोमवार की सुबह होते ही ट्यूब स्टेशनों और लंदन की सड़कों की पहचान लाल रंग की दुमंजिली बसों पर कामकाज के लिए आने-जाने वालों की भीड़ का रेला। हल्की धूप में ‘ट्रैफल्गर स्क्वेयर’ पर सैलानियों की चहल-पहल और रात में ‘सोहो’ की गलियों की रंगीनियां! शहर अपनी पूरी रफ्तार में है।

पर इस भीड़ और कोलाहल के बीच भी आर्थिक बदहाली की चर्चा कहीं दबी जुबान में तो कहीं सरगोशी से सुनाई पड़ जाती है। चर्चित सेंट पॉल कैथिडरल और लंदन संग्रहालय के बीच सड़क के एक किनारे स्थित ‘इंडियन क्यूजिन’ नामक रेस्तरां में काम करने वाले महफूज कहते हैं- ‘बड़ा कठिन समय है...। अजीब-अजीब लगता है कभी कि किस मुलुक में आ गए हैं हम!’ तीस वर्षीय महफूज मूलत: बांग्लादेश के सिलहट के हैं और पिछले चार वर्षों से वे लंदन में हैं। तलघर और पहले मंजिल में फैले इस रेस्तरां में महज दो-चार लोग रात का खाना खाते हुए दिखते हैं। ‘करी’ भले ही भारतीय व्यंजन के रूप में लंदन में चर्चित हो, लेकिन ज्यादातर भारतीय रेस्तरां में इसे बांग्लादेशी मूल के लोग ही बनाते हैं। महफूज बताते हैं- ‘आजकल सब कुछ मंदा चल रहा है। कम ही लोग रेस्तरां में आते हैं। पता नहीं क्यों है ऐसा? पर यह पिछले साल था और फिर इस साल भी है।’ महफूज की बीवी लंदन की नागरिक हैं और अब वे भी लंदन के नागरिक हो गए हैं। बीवी अध्यापिका थीं, लेकिन दो बच्चों को संभालने के लिए फिलहाल नौकरी नहीं कर रही हैं। ऐसे में परिवार पर आर्थिक बोझ आजकल ज्यादा है। वे कहते हैं कि अब तो लगता है कि यहीं के होकर रह गए। अब वापस भी नहीं लौट सकते।

इससे पहले दिन में ‘यूनिवर्सिटी ऑफ वेस्टमिंस्टर’ में भारतीय मीडिया को लेकर एक कॉन्फ्रेंस के दौरान भारतीय मूल के प्रोफेसर और शोधार्थिर्यों से मुलाकात हुई। विश्वविद्यालय में एक युवा शोधार्थी ने कहा- ‘दोहरी मंदी की मार झेल रहे हैं हम। आप भारत में ही अच्छे हैं।’ ऐसा नहीं कि मंदी की मार सिर्फ लंदन पर है। ग्रीस से लेकर फ्रांस तक इससे जूझ रहा है। ट्यूब में यात्रा के दौरान मिले ग्रीस के एक शोधार्थी का कहना था- ‘एक कमरे का साढ़े छह सौ पाउंड देना पड़ रहा है, जिसे हम कुछ छात्र मिल कर अदा कर रहे हैं और कमरा क्या है, बस रहने लायक जगह भर है।’ ग्रीस के हालात को जानते हुए मुझे यह पूछने की हिम्मत नहीं हुई कि वे किस तरह लंदन में जिंदगी बसर कर रहे हैं। मंदी की मार बेरोजगारों से बेहतर कौन जानता है।

शिशु घन-कुरंग लंदन के आसमान की पहचान हैं। इससे पहले भी सत्तर और अस्सी के दशक में लंदन आर्थिक मंदी की मार झेल कर मजबूती से उबरा था। पर इस बार मंदी का घना बादल लंदन के आसमान में फैला दिखता है। ऐसा लगता है कि लोग ‘गर्मी की तपिश’ के बाद इस बार ‘शीत के असंतोष’ को झेलने के लिए मन को मजबूत कर रहे हैं।
 

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