सन् 1983 में स्कूल ऑफ ट्रापीकल मेडीसन, कोलकाता के चर्मरोग विशेषज्ञ डॉ. साहा ने मानवीय चमड़ी में होने वाले घावों के लिये आर्सेनिक को जिम्मेदार पाया था। इलाज के दौरान उन्हें लगा कि इस बीमारी के पीड़ित अधिकांश लोग, मुख्यतः पूर्वी बंगाल के रहने वाले वे लोग हैं जो नलकूपों का पानी उपयोग में ला रहे हैं।
इसके बाद, जादवपुर विश्वविद्यालय के पर्यावरणविद दीपंकर चक्रवर्ती ने प्रमाणित किया कि आर्सेनिक का स्रोत वे नलकूप हैं जो पिछले सालों में पेयजल और सिंचाई के लिये बड़ी मात्रा में लगाए गए हैं।
ग़ौरतलब है कि पूरे बंगाल में परम्परागत रूप से कुओं और पोखरों के पानी का उपयोग होता था। इन स्रोतों का पानी पूरी तरह निरापद था। कालान्तर में इन जलस्रोतों में प्रदूषण पनपा और वे अशुद्ध पानी से होने वाली बीमारियों के केन्द्र बनने लगे तब लोगों को अशुद्ध पानी से बचाने के लिये 1970 से 1980 में नलकूपों का विकल्प अपनाया गया।
इन नलकूपों की गहराई 70 मीटर या उससे कम थी। उनमें पर्याप्त मात्रा में पानी था। वे पेयजल के अलावा सिंचाई के लिये भी मुफीद थे। इसलिये बहुत जल्दी मुख्यधारा में आ गए। इस विकल्प के कारण दूषित पानी से होने वाली डायरिया, टायफाइड, कालरा, पेचिस, हेपेटाइटस जैसी बीमारियों की रोकथाम हुई।
गुणवत्ता की प्रारम्भिक जाँचों में आर्सेनिक को सम्मिलित नहीं किया था इसलिये उसकी जानकारी नहीं मिली पर जल्दी ही भारत और बांग्लादेश के लगभग पाँच-पाँच करोड़ लोग आर्सेनिक की चपेट में आ गए। माना जाता है कि पूरी दुनिया में तेरह करोड़ सैंतीस लाख लोग आर्सेनिक से प्रभावित हैं। इसे दुनिया की सबसे बड़ी प्राकृतिक त्रासदी माना जाता है।
यह त्रासदी भारत के अलावा नेपाल, वियतनाम, चीन, अर्जेंटीना, मेक्सिको, अमेरिका, चिली, मंगोलिया, ताइवान और बंग्लादेश में भी है। भारत और बंग्लादेश का सर्वाधिक प्रभावित इलाका गंगा, मेघना और ब्रह्मपुत्र नदी मार्गों और उनके डेल्टा के निकट है।
भारत में आर्सेनिक का प्रकोप पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश, असम, मणीपुर राज्यों तथा छत्तीसगढ़ के राजनांदगाँव जिले में है। पश्चिम बंगाल के 69 विकासखण्डों में यह समस्या अत्यन्त गम्भीर स्वरूप ले चुकी है। इस क्षेत्र में आर्सेनिक गंगा के निकटवर्ती कछारी क्षेत्र में लगभग 70 मीटर गहराई तक पाया जाता है।
अनुमान है कि 70 मीटर के नीचे मिलने वाला पानी साफ है पर उसे निकालने में तकनीकी, प्राकृतिक और निरापदता को लेकर अनिश्चितताएँ हैं। बंगाल में मिलने वाले आर्सेनिक का स्रोत, सम्भवतः हिमालय में है। वहीं से इसके अंश मिट्टी के साथ आये और कछार में अलग-अलग गहराई में जमा हो गए।
आर्सेनिक एक धातु है जो प्राकृतिक रूप से विभिन्न खनिजों के रूप में मिलती है। भारत में इसकी अल्प मात्रा कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल, राजस्थान और कश्मीर में मिलती है। इसके अलावा वह ज्वालामुखियों, चट्टानों पर मौसम के प्रभाव, दावानल एवं मनुष्यों की गतिविधियों के कारण भी प्राप्त होता है।
उसकी प्राप्ति कतिपय फर्टीलाइजरों, तांबे के शोधन, खनन गतिविधियों और कोयले को जलाने से भी होती है। इसके सल्फाइडों से कीटनाशक दवाएँ बनाई जाती हैं। इसका उपयोग मुख्यतः काँच उद्योग, लकड़ी और चमड़े के संरक्षण, रंगों के निर्माण तथा कपड़ों की छपाई में होता है।
यदि किसी जलस्रोत के एक लीटर पानी में आर्सेनिक की मात्रा 0.05 माइक्रोग्राम से अधिक हो और उसका उपयोग लम्बे समय तक किया जाये तो वह पानी, सेहत के लिये हानिकारक है। अर्थात यदि पानी, पेय पदार्थों और भोजन इत्यादि के माध्यम से आर्सेनिक दस साल से अधिक तक मानव शरीर में पहुँचता है तो वह कैंसर का कारण बनता है।
आर्सेनिक युक्त पानी से पैदा किये खाद्यान्न भी सेहत के लिये खतरनाक होते है। अनुसन्धानों से पता चला है कि तम्बाकू के पौधे की जड़ों में आर्सेनिक को सोखने की क्षमता होती है इसलिये वह तम्बाकू के पत्तों में पाया जाता है। तम्बाकू के पत्तों का उपयोग सिगरेट और खैनी बनाने में किया जाता है इसलिये तम्बाकू के सेवन को कैंसर कारण माना जाता है।
खेती में आर्सेनिक मिले फर्टीलाइजरों तथा कीटनाशकों का उपयोग नहीं करना चाहिए। ऐसे फर्टीलाइजर तथा कीटनाशक, भले ही तात्कालिक रूप से अधिक उत्पादन तथा आर्थिक लाभ दिलाने में मददगार हों पर उनकी मदद से उपजाया अनाज, अन्ततः गम्भीर बीमारियों को जन्म देता है। महंगे इलाज के कारण सारा लाभ व्यर्थ हो जाता है।
परिवार भयानक मानसिक वेदना से गुजरता है और कर्ज में डूब जाता है। कभी-कभी होने वाली हानि की भरपाई सम्भव नहीं होती। पंजाब का मालवा ऐसा क्षेत्र है, जहाँ खेती में प्रयुक्त विषैले कीटनाशकों और हानिकारक फर्टीलाइजरों के कारण घर-घर में कैंसर की बीमारी पैर पसार रही है। कैंसर की बीमारी पर होने वाला खर्च उत्पादन लाभों पर पानी फेर रहा है।
आर्सेनिक युक्त पानी और उसमें पकाए खाने का उपयोग करने से होने वाले अल्पकालिक प्रभावों में उल्टी, पेट दर्द, डयरिया, झुनझुनी मांसपेशियों में अवरोध मुख्य हैं। दस साल से अधिक तक आर्सेनिक युक्त पानी एवं उसमें पकाए भोज्य पदार्थ लेने से चमड़ी बदरंग हो जाती है और उस पर नीले चकत्ते उभर आते हैं। उसमें घाव हो जाते हैं और प्रभावित हिस्सा सड़ जाता है।
आर्सेनिक पानी में घुलनशील है इसलिये हानिकारक पानी में वर्षाजल मिलाकर उसे निरापद बनाया जा सकता है। अर्थात, प्रभावित इलाकों में बड़े पैमाने पर रेनवाटर हार्वेस्टिंग और ग्राउंड वाटर रीचार्ज कार्यक्रमों को लिया जाना चाहिए। इसके अलावा, घरों की छत पर बरसे वर्षाजल और आर्सेनिक युक्त पानी को उचित अनुपात में मिलाकर उपयोग में लाया जा सकता है। प्रभावित इलाकों के असुरक्षित जलस्रोतों पर चेतावनी के बोर्ड लगाए गए हैं। उन्हें चिन्हित किया है।हथेली और पैर के तलुओं की चमड़ी कठोर हो जाती है। चमड़ी के कैंसर सहित पित्ताशय, फेफड़े, चमड़ी, गुर्दा, स्वास नली, यकृत और पौरुष ग्रन्थि में कैंसर होने का खतरा बढ़ जाता है। आर्सेनिक का सम्बन्ध मधुमेह, हृदय रोग और तंत्रिका रोगों से भी माना जाता है। आर्सेनिक के कारण होने वाली अनेक बीमारियाँ अत्यन्त गम्भीर तथा अन्तिम अवस्था में लाइलाज होती हैं।
स्रोतों के पानी को देखकर आर्सेनिक की मौजूदगी या उसकी मात्रा का अनुमान लगाना सम्भव नहीं होता। यह बहुत कम मात्रा में पाया जाता है इसलिये उसकी मात्रा को जानने के लिये सूक्ष्म रासायनिक जाँच करना आवश्यक होता है। दूसरा तरीका मानवीय शरीर पर होने वाला प्रतिकूल असर है पर यह तरीका बेहद असुरक्षित तथा खतरनाक है।
आर्सेनिक से होने वाली बीमारियों के कारण सरकार पर भारी आर्थिक बोझ पड़ता है। उसे मेडीकल सुविधा जुटानी पड़ती है। दवाओं पर खर्च करना पड़ता है। इसके अलावा, सरकारी कर्मचारियों के मेडिकल बिल का भुगतान करना होता है। इन सब पर हर साल बड़ी धनराशि खर्च करनी होती है।
यदि इस स्थिति से कोई लाभान्वित होता है तो वह दवा उत्पादक, वितरक और दवा विक्रेता है। इसका लाभ प्राइवेट अस्पतालों को भी होता है। वे मुनाफ़ा कमाते हैं। ख़ामियाज़ा समाज और सरकार को भोगना पड़ता है। कई बार इलाज महंगी व्यवस्था रोगियों के बीच असमानता का कारण बनती है।
सरकारों की ज़िम्मेदारी समाज को आर्सेनिक के बुरे असर से बचाने की होती है। इस कारण, सरकारें पानी और मिट्टी में आर्सेनिक की मात्रा को निरापद सीमा में लाने के लिये अनेक प्रयास करती है।
विदित हो, आर्सेनिक पानी में घुलनशील है इसलिये हानिकारक पानी में वर्षाजल मिलाकर उसे निरापद बनाया जा सकता है। अर्थात, प्रभावित इलाकों में बड़े पैमाने पर रेनवाटर हार्वेस्टिंग और ग्राउंड वाटर रीचार्ज कार्यक्रमों को लिया जाना चाहिए। इसके अलावा, घरों की छत पर बरसे वर्षाजल और आर्सेनिक युक्त पानी को उचित अनुपात में मिलाकर उपयोग में लाया जा सकता है। प्रभावित इलाकों के असुरक्षित जलस्रोतों पर चेतावनी के बोर्ड लगाए गए हैं। उन्हें चिन्हित किया है।
बाजार में अनेक उपकरण उपलब्ध हैं जो आर्सेनिक युक्त पानी को निरापद बनाते हैं। सरकारें और परमार्थ संस्थाएँ भी पानी साफ करने वाले उपकरण लगाती हैं। इन उपकरणों के निर्माण का सिद्धान्त आर्सेनिक को सतह पर एकत्रित कर, आयन-एक्सचेंज, रिवर्स-आस्मोसिस, इलेक्ट्रोलिसिस, अवक्षेपण या उसे थक्कों में बदल कर हटाया जाता है।
आर्सेनिक को हटाने में ऑक्सीजन युक्त पानी की भी अच्छी-खासी और सुरक्षित भूमिका है। इनमें से कुछ विधियों का उपयोग छोटे पैमाने पर तो कुछ का बसाहटों के स्तर पर किया जा सकता है। सावधानी में ही सुरक्षा है।
Path Alias
/articles/arasaenaika-samasayaa-badhatae-khatarae
Post By: RuralWater