विश्व आर्द्रभूमि दिवस 2 फरवरी 2018 पर विशेष
2 फरवरी को दुनिया भर में विश्व आर्द्रभूमि (वेटलैंड्स) दिवस मनाया जाता है। सन 1971 में इसी दिन वेटलैंड्स को बचाने के लिये ईरान के रामसर में पहला सम्मेलन किया गया था। इसलिये इस सम्मेलन को रामसर सम्मेलन (कन्वेंशन) भी कहा जाता है।
इस कन्वेंशन में एक अन्तरराष्ट्रीय समझौता किया गया था। इस समझौते की बुनियाद में विश्व भर की आर्द्रभूमि की सुरक्षा का संकल्प था।
पहला कन्वेंशन सन 1971 में हुआ था, लेकिन 2 फरवरी को विश्व आर्द्रभूमि दिवस के रूप में पालन करने का सिलसिला सन 1997 में शुरू किया गया था। इस साल यह 21वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है।
हर वर्ष इस खास मौके को सेलिब्रेट करने के लिये एक थीम चुना जाता है। इस वर्ष का थीम है - चिरस्थायी शहरी भविष्य के लिये आर्द्रभूमि। मोटे तौर पर इस थीम के जरिए दीर्घकालिक शहरी विकास में आर्द्रभूमि के महत्त्व को रेखांकित करना है।
कन्वेंशन के नीति-निर्धारक अंग की बैठक हर तीन साल पर आयोजित की जाती है। वर्ष 2015 में उरुग्वे में बैठक हुई थी। इस वर्ष दुबई में होनी है।
गुजिस्ता साल विश्व आर्द्रभूमि दिवस का थीम ‘आपदा का जोखिम कम करने में आर्द्रभूमि की भूमिका’ था। इससे पूर्व ‘हमारे भविष्य के लिये आर्द्रभूमि’, ‘पानी की देखरेख के लिये आर्द्रभूमि’, ‘स्वस्थ वेटलैंड्स स्वस्थ लोग’, ‘आर्द्रभूमि की विविधता में सम्पत्ति है, इसे खो मत दीजिए’, ‘आर्द्रभूमि नहीं तो पानी नहीं’, ‘पर्वत से सागर तक वेटलैंड्स हमारे लिये कर रहा काम’ जैसे थीमों के साथ विश्व आर्द्रभूमि दिवस मनाया जा चुका है।
ऊपर जिन थीमों का जिक्र किया गया है, उनसे साफ हो जाता है कि आर्द्रभूमि मानव सभ्यता के अस्तित्व के लिये बेहद जरूरी है।
आर्द्रभूमि के महत्त्व की चर्चा करने से पहले हम यह समझने की कोशिश करते हैं कि आर्द्रभूमि क्या है और तालाब व झील से यह कितनी अलग है।
आर्द्रभूमि उस दलदले भूखण्ड को कहा जाता है जिसमें करीब 6 मीटर गहरा पानी हो और वह वर्ष भर जमा रहे। कुछ आर्द्रभूमि में 8-9 महीने तक ही पानी रहता है। आर्द्रभूमि में उगने वाले जलीय पेड़-पौधों की विशेषता भी अलग होती है। इनके अलावा कई और भी खासियत हैं, जो आर्द्रभूमि को तालाब व झीलों से अलग करती है। लेकिन, इन दो विशेषताओं के जरिए आर्द्रभूमि व दूसरी वाटरबॉडीज में अन्तर किया जा सकता है।
रामसर कन्वेंशन के अनुसार, आर्द्रभूमि ऐसे भूखण्ड को कहा जाता है जो दलदला और पानी से भरा हो, जो प्राकृतिक या कृत्रिम हो और जिसका पानी ठहरा या बहता हुआ हो। रामसर कन्वेंशन के मुताबिक, आर्द्रभूमि में पानी की गहराई 6 मीटर से अधिक नहीं होती है।
आर्द्रभूमि न केवल बनावट और चरित्र में तालाब व झील से अलग होती है, बल्कि इसका किरदार भी दूसरी वाटरबॉडीज से अलहदा और महत्त्वपूर्ण है।
आर्द्रभूमि मानव सभ्यता के अस्तित्व और लोगों की कई जरूरी जरूरतों को पूरा करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यही नहीं, पानी को स्वच्छ-साफ रखने, बाढ़ नियंत्रण, कार्बन को सोखने, भूजल स्तर को बनाए रखने और जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निबटने में भी आर्द्रभूमि का अहम रोल है। आर्द्रभूमि में शहरों से निकलने वाले गन्दे पानी को प्राकृतिक तरीके से ट्रीट कर उसे सिंचाई लायक बनाने की भी क्षमता होती है।
इस वर्ष होने वाले कन्वेंशन का थीम शहर में स्थित आर्द्रभूमि और इनका शहरी आबादी के साथ अन्तर्सम्बन्ध पर केन्द्रित है और शहरों की आर्द्रभूमि पर ही सबसे अधिक खतरा भी मँडरा रहा है, इसलिये यह कन्वेंशन बहुत अहम माना जा रहा है।
उल्लेखनीय है कि केन्द्र सरकार व इसरो द्वारा सेटेलाइट इमेजरी के जरिए देश भर में 2,01,503 वेटलैंड्स के बारे में पता लगाया गया है।
रामसर कन्वेंशन ने वर्ष 2016 तक विश्व भर की 2266 आर्द्रभूमि को अन्तरराष्ट्रीय महत्त्व का घोषित किया है इनमें 26 आर्द्रभूमि भारत की है।
इनमें पश्चिम बंगाल का ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स, उत्तर प्रदेश का ऊपर गंगा, त्रिपुरा का रुद्रसागर, तमिलनाडु का प्वाइंट कैलिमेरे, राजस्थान के केवलादेव व सम्भर, पंजाब के हरिके, कांजली और रोपर, ओड़िशा के चिल्का व भतरकनिका, मणिपुर का लोकटक, केरल के अष्टमुडी, सस्थामकोट्टा और वेमबनाद कोल, मध्य प्रदेश का भोज, जम्मु-कश्मीर के वुलर, सो मोरारी, होकरसर, मनसर व सुरिनसर, हिमाचल प्रदेश के पोंगडैम, चंद्रताल व रेणुका, गुजरात का नमसरोवर बर्ड सेंचुरी, असम का दीपर बिल और आन्ध्र प्रदेश का कोल्लेरू शामिल है। इनमें सबसे बड़ी आर्द्रभूमि वेमबनाद कोल है, जो 3,73,700 एकड़ में फैला हुआ है।
पूरी दुनिया में आज विश्व आर्द्रभूमि दिवस का पालन किया जा रहा है। तो इस मौके पर भारत के सन्दर्भ में ये पूछा जाना चाहिए कि इन दो दशकों की अवधि में आर्द्रभूमि को कितना संरक्षण मिला और क्या मौजूदा सूरत-ए-हाल इतना सन्तोषजनक है कि हम खुश हो जाएँ?
इन सवालों की पृष्ठभूमि में अगर हम बीते कुछ वर्षों की मीडिया रपट और सरकारी आँकड़ों पर गौर करें, तो पाएँगे कि भारत में पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक के क्षेत्रों में स्थित आर्द्रभूमि के अस्तित्व पर गम्भीर खतरा मँडरा रहा है।
द ट्रिब्यून की एक रिपोर्ट के अनुसार जम्मू-कश्मीर के बंदीपोरा जिले में स्थित एशिया की वृहत्तर आर्द्रभूमि में शुमार वुलर लेक का क्षेत्रफल 157 वर्ग किलोमीटर था, जो वर्ष 2007 तक आते-आते घटकर 86 वर्ग किलोमीटर पर आ गया। बताया जाता है कि इसके 40 फीसद हिस्से को कृषि भूमि में तब्दील कर दिया गया है। इस लेक से आसपास रहने वाले 80 हजार लोगों की आजीविका चलती है।
वुलर की तरह ही डाल और निगील झील के अस्तित्व पर भी संकट मँडरा रहा है।
असम के गुवाहाटी में स्थित डीपोर आर्द्रभूमि के किनारे कूड़ा डम्प किया जा रहा है जिस कारण यह गन्दा हो रहा है।
इसी तरह वर्ष 2002 में रामसर साइट्स के रूप में चिन्हित ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स पर भी अतिक्रमण का आक्रमण तेज है। यह आर्द्रभूमि कोलकाता और आसपास के क्षेत्र से निकलने वाले 250 मिलियन लीटर गन्दे पानी का प्राकृतिक तरीके से परिशोधन करती है और कार्बन भी सोखती है।
‘नॉट ए सिंगल बिल बोर्ड: द शिफ्टिंग प्रायरिटी इन लैंड यूज विदिन द प्रोटेक्टेड वेटलैंड्स ऑफ ईस्ट कोलकाता’ नाम से किये गए एक रिसर्च के अनुसार सन 2002 में जब ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स को रामसर साइट्स घोषित किया गया था, तब इसके दक्षिण 24 परगना में पड़ने वाले भगवानपुर मौजा (जो वेटलैंड्स का हिस्सा है) में 88.38 फीसद आर्द्रभूमि थी, जो वर्ष 2007 में घटकर 57.15 प्रतिशत पर आ गई। यह वेटलैंड्स अच्छी-खासी आबादी के लिये रोजी-रोटी का भी जरिया है।
साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रीवर्स एंड पीपल्स की ओर से 2 फरवरी 2017 को प्रकाशित की गई एक रिपोर्ट के अनुसार राजस्थान, यूपी, हरियाणा, गुजरात, गोवा, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, असम, ओड़िशा, मणिपुर, आन्ध्र प्रदेश तेलंगाना, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु की आर्द्रभूमियों पर संकट के बादल मँडरा रहे हैं। यह रिपोर्ट विभिन्न अखबरों में छपी खबरों के आधार पर तैयार की गई है।
कुछ साल पहले एम. के. बालकृष्णन की ओर से सुप्रीम कोर्ट में दायर एक जनहित याचिका में देश भर के 36 आर्द्रभूमियों की शिनाख्त कर उन्हें प्राथमिकता में शामिल करते हुए बचाने की गुहार लगाई गई थी।
इन 36 आर्द्रभूमि में जम्मू-कश्मीर की तीन, पंजाब की चार, हिमाचल प्रदेश की तीन, चंडीगढ़ की एक, उत्तर प्रदेश की एक, उत्तराखण्ड की एक, बिहार की एक, झारखण्ड की एक, राजस्थान की दो, हरियाणा की एक, सिक्किम की एक, गुजरात की एक, मध्य प्रदेश की एक, पश्चिम बंगाल की दो, असम की एक, मणिपुर की एक, त्रिपुरा की एक, हैदराबाद की एक, कर्नाटक की दो, आन्ध्र प्रदेश की दो, तमिलनाडु की एक और केरल की भी एक आर्द्रभूमि शामिल थीं।
देश भर के इन वेटलैंड्स की यह हालत तब है, जब इसको लेकर केन्द्रीय कानून बन चुका है। केन्द्र सरकार ने सन 2010 में आर्द्रभूमि संरक्षण व प्रबन्धन अधिनियम (2010) बनाया था। इसका उद्देश्य था आर्द्रभूमि को सुरक्षित व संरक्षित करना। लेकिन, कानून बन जाने के बावजूद आर्द्रभूमि की सुरक्षा नहीं हो पा रही है।
ज्यादातर मामलों में देखा जा रहा है कि आर्द्रभूमि को पाटकर उन पर कंक्रीट के जंगल उगाए जा रहे हैं। कुछ जगहों पर आर्द्रभूमि को डम्पिंग ग्राउंड में तब्दील कर दिया गया है। वहीं, कई मामलों में राज्य व केन्द्र सरकार की तरफ से भी कोताही सामने आई है।
‘नॉट ए सिंगल बिल बोर्ड: दी शिफ्टिंग प्रायरिटी इन लैंड यूज विदिन द प्रोटेक्टेड वेटलैंड्स ऑफ ईस्ट कोलकाता’ नाम से छपे शोध पत्र में शोधकर्ताओं ने बताया है कि आर्द्रभूमि को भरकर वहाँ घर बनाकर लोग रहने लगे हैं। शोध में यह भी पाया गया कि राज्य सरकार का रवैया इस मामले में बेहद शर्मनाक रहा। शोध में बताया गया है कि समय के साथ लैंड यूज में बदलाव आता गया, जिसने ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स को बहुत नुकसान पहुँचाया।
इन सबके बीच केन्द्र सरकार वर्ष 2010 बनाए गए आर्द्रभूमि संरक्षण व प्रबन्धन अधिनियम में तब्दीली करना चाह रही है। माना जा रहा है कि इस बदलाव से आर्द्रभूमि को संरक्षण मिलना तो दूर, उल्टे उन्हें नष्ट करना आसान हो जाएगा।
सामाजिक कार्यकर्ता व लेखक नित्यानंद जयरमण ने अपने एक लेख में इस सम्बन्ध में लिखा है कि नए नियम में अधिसूचित आर्द्रभूमि के संरक्षण की बात कही गई है। लेकिन, इसमें राज्य सरकार को यह अधिकार दिया गया है कि वह अगर चाहे तो अपने अधिकार क्षेत्र में पड़ने वाली अर्द्रभूमि के किसी हिस्से को डम्पिंग ग्राउंड में तब्दील कर सकती है। केन्द्र सरकार इसमें हस्तक्षेप नहीं करेगी। साथ ही नए नियम में गैर-अधिसूचित आर्द्रभूमि के संरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है।
वह आगे लिखते हैं, ‘नए नियम के तहत उन्हीं आर्द्रभूमि को सुरक्षा मिल सकती है जो रामसर कन्वेंशन के तहत अन्तरराष्ट्रीय महत्त्व की आर्द्रभूमि की सूची में शामिल हो या फिर राज्य या केन्द्र सरकार द्वारा अधिसूचित हो।’
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने हालिया सुनवाई में आर्द्रभूमि संरक्षण व प्रबन्धन अधिनियम के नए नियम को लागू करने पर रोक लगा दी है, जो राहत देने वाली खबर है।
बहरहाल, मौजूदा हालात अगर जारी रहे और आर्द्रभूमि की इसी तरह अनदेखी की जाती रही, तो इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
विशेषज्ञों के मुताबिक, आर्द्रभूमि का इसी तरह अतिक्रमण होता रहा, तो बाढ़ का खतरा बढ़ेगा क्योंकि आर्द्रभूमि बाढ़ के पानी को बसाहट वाले क्षेत्रों में जाने से रोकती है। आर्द्रभूमि में कई प्रकार के वन्य जीव पाये जाते हैं। इनका अस्तित्व आर्द्रभूमि के समाप्त होते ही खत्म हो जाएगा। यही नहीं, आर्द्रभूमि के खत्म होने से ग्राउंड वाटर का रिचार्ज बाधित होगा और मछलियों का उत्पादन भी घटेगा। इन सबके साथ ही आर्द्रभूमि के नहीं रहने पर वायु प्रदूषण बेतहाशा बढ़ जाएगा, क्योंकि आर्द्रभूमि कार्बन को सोखती भी है। आर्द्रभूमि से लाखों लोगों की रोजी-रोटी जुड़ी है, उनको रोजी-रोजगार के लाले पड़ेंगे, सो अलग।
कुल मिलाकर आर्द्रभूमि के अतिक्रमण का फौरी लाभ भले ही मिल जाये, लेकिन दीर्घकाल में इससे नुकसान-ही-नुकसान होगा। इसलिये जरूरी है कि आर्द्रभूमि के संरक्षण को प्राथमिकता की सूची में डाला जाये और इस पर गम्भीरता से काम किया जाये।
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