02 फरवरी को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, नई दिल्ली में विश्व आर्द्रभूमि दिवस के अवसर पर वेटलैंड्स इंटरनेशनल साउथ एशिया (WISA) द्वारा एक सेमिनार का आयोजन किया गया, जिसमें आर्द्रभूमियों की वर्तमान स्थिति और जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने में उनकी भूमिका पर प्रकाश डाला गया। इस सेमिनार के मुख्य अतिथि, नीति आयोग के उपाध्यक्ष डॉ. राजीव कुमार थे। इस अवसर पर उनके द्वारा ‘वेटलैंड कंजर्वेशन इथोस’ नामक पुस्तक का भी विमोचन किया गया। इस पुस्तक में आर्द्रभूमियों के प्रबन्धन सहित उनसे सम्बन्धित तमाम जानकारियाँ विस्तारपूर्वक उपलब्ध कराई गई हैं।
अपने सम्बोधन में डॉ. राजीव कुमार ने वेटलैंड्स इंटरनेशनल साउथ एशिया द्वारा आर्द्रभूमियों के संरक्षण एवं संवर्धन के लिये किये जा रहे प्रयासों की प्रशंसा के साथ मानव और आर्द्रभूमियों के बीच अनादिकाल से चले आ रहे सम्बन्धों की भी चर्चा की। उन्होंने कहा कि आर्द्रभूमियाँ भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा रही हैं जिसका आधार स्तम्भ प्रकृति और मानव के परस्पर सम्बन्धों पर आधारित है न कि मानव और प्रकृति के बीच के विरोध पर। उन्होंने विकास से सम्बन्धित योजनाओं में आर्द्रभूमियों वाले हिस्सों को भी शामिल किये जाने पर दुःख व्यक्त किया और कहा कि यही उचित समय है इस पर अंकुश लगाने का।
आर्द्रभूमियों को संरक्षित किये जाने में अब तक किये गए प्रयासों की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को विनियमन की भूमिका से परे जाकर ऐसे प्रयास करने होंगे जिससे लोगों में भी इनके संरक्षण के प्रति जागरुकता पैदा की जा सके। भारत में तेजी से आर्द्रभूमियों का ह्रास हो रहा है। इस बात की तस्दीक से चर्चा करते हुए उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर इनके संरक्षण के लिये समावेशी विकास के सिद्धान्त पर आधारित एक रूपरेखा तैयार करने पर भी बल दिया। इसके अलावा उन्होंने राज्यों और विभिन्न हितधारकों को वर्कशॉप, सेमिनार आदि के माध्यम से लोगों को जागरूक बनाने की भी सलाह दी।
मालूम हो कि आर्द्रभूमियाँ देश में पानी की बढ़ रही कमी से निपटने का एक महत्त्वपूर्ण औजार साबित हो सकती हैं बशर्ते इन्हें सही तरीके से संरक्षित किया जाए। देश में उपलब्ध कुल शुद्ध जल के 5 प्रतिशत हिस्से का भंडारण इन्हीं क्षेत्रों में है। परन्तु यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम प्रति वर्ग किलोमीटर के निर्माण पर एक हेक्टयर आर्द्रभूमि को खो रहे हैं। यही वजह है कि आज पारिस्थितिकीय असन्तुलन के साथ ही जैवविविधता का भी तेजी से ह्रास हो रहा है। वर्ष 2011 के नेशनल वेटलैंड एटलस के अनुसार भारत का 4.63 प्रतिशत हिस्सा आर्द्रभूमि के अन्तर्गत आता है।ग्लोबल वेटलैंड आउटलुक के अनुसार वर्ष 1970 से 2015 के बीच अन्तर्देशीय और तटीय आर्द्रभूमियों में 35 प्रतिशत की गिरावट आई है जो इसी दरम्यान वन क्षेत्र में आई कमी की तुलना में तीन गुना अधिक है। इसीलिए इनके संरक्षण एवं विकास के लिये समुचित कदम उठाना आवश्यक है।
अपने सम्बोधन में डॉ. राजीव कुमार ने वेटलैंड्स इंटरनेशनल साउथ एशिया द्वारा आर्द्रभूमियों के संरक्षण एवं संवर्धन के लिये किये जा रहे प्रयासों की प्रशंसा के साथ मानव और आर्द्रभूमियों के बीच अनादिकाल से चले आ रहे सम्बन्धों की भी चर्चा की। उन्होंने कहा कि आर्द्रभूमियाँ भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा रही हैं जिसका आधार स्तम्भ प्रकृति और मानव के परस्पर सम्बन्धों पर आधारित है न कि मानव और प्रकृति के बीच के विरोध पर। उन्होंने विकास से सम्बन्धित योजनाओं में आर्द्रभूमियों वाले हिस्सों को भी शामिल किये जाने पर दुःख व्यक्त किया और कहा कि यही उचित समय है इस पर अंकुश लगाने का।
आर्द्रभूमियों को संरक्षित किये जाने में अब तक किये गए प्रयासों की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को विनियमन की भूमिका से परे जाकर ऐसे प्रयास करने होंगे जिससे लोगों में भी इनके संरक्षण के प्रति जागरुकता पैदा की जा सके। भारत में तेजी से आर्द्रभूमियों का ह्रास हो रहा है। इस बात की तस्दीक से चर्चा करते हुए उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर इनके संरक्षण के लिये समावेशी विकास के सिद्धान्त पर आधारित एक रूपरेखा तैयार करने पर भी बल दिया। इसके अलावा उन्होंने राज्यों और विभिन्न हितधारकों को वर्कशॉप, सेमिनार आदि के माध्यम से लोगों को जागरूक बनाने की भी सलाह दी।
मालूम हो कि आर्द्रभूमियाँ देश में पानी की बढ़ रही कमी से निपटने का एक महत्त्वपूर्ण औजार साबित हो सकती हैं बशर्ते इन्हें सही तरीके से संरक्षित किया जाए। देश में उपलब्ध कुल शुद्ध जल के 5 प्रतिशत हिस्से का भंडारण इन्हीं क्षेत्रों में है। परन्तु यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम प्रति वर्ग किलोमीटर के निर्माण पर एक हेक्टयर आर्द्रभूमि को खो रहे हैं। यही वजह है कि आज पारिस्थितिकीय असन्तुलन के साथ ही जैवविविधता का भी तेजी से ह्रास हो रहा है। वर्ष 2011 के नेशनल वेटलैंड एटलस के अनुसार भारत का 4.63 प्रतिशत हिस्सा आर्द्रभूमि के अन्तर्गत आता है।ग्लोबल वेटलैंड आउटलुक के अनुसार वर्ष 1970 से 2015 के बीच अन्तर्देशीय और तटीय आर्द्रभूमियों में 35 प्रतिशत की गिरावट आई है जो इसी दरम्यान वन क्षेत्र में आई कमी की तुलना में तीन गुना अधिक है। इसीलिए इनके संरक्षण एवं विकास के लिये समुचित कदम उठाना आवश्यक है।
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