अराजकता फैलाने वाला साबित होगा, भूमालिकों से जलाधिकार छीनना

groundwater
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“नदियोंको मां नहीं, कारपोरेट बनाना है।
लहरों से पुण्य नहीं, पौंड कमाना है।।
सोना होता होगा नीला तुम्हारे लिए।
हमें तो पानी को रक्त में बदल जाना है।’’


कौन नहीं जानता कि कंपनियां मुनाफा कमाने के लिए बनाई जाती हैं, खैरात बांटने के लिए नहीं; जबकि पानी जीवनाधार है। पानी कुदरत की ऐसी नियामत है, जो कभी जरूरतमंद को खैरात में भी बांटनी पड़ सकती है। सवाल यह है कि जब शिक्षा, चिकित्सा से लेकर अनाज तक कम दाम पर मुहैया कराने का सरकारी ढांचा इस देश में काम कर रहा है, तो ऐसी कौन सी विवशता है, जो सरकार समूची जलापूर्ति कंपनियों को ही सौंप देना चाहती है? खासकर पीपीपी के नाम पर हो रहे तमाम घोटालों और विदेशी कंपनियों के साथ हो रहे बुरे अनुभवों के बावजूद। इन पंक्तियों को लिखते वक्त मैने यह नहीं सोचा था कि पानी के रास्ते से देश की समृद्धि की चोरी का यह काम इतना जल्दी सीनाजोरी पर उतर आयेगा। जब जुलाई में लिखे एक लेख में मैने गंगा को एक कारपोरेट एजेंडा बताया था, तब मेरे कई साथियों ने इससे नाइत्तफाकी जताई थी; लेकिन दुनियाई कुचक्र की इस नीयत पर अब भारतीय जलनीति-2012 के सरकारी प्रारूप ने खुद मोहर लगा दी है। सभी को स्वच्छ व निर्बाध जलापूर्ति के नाम पर पानी से आर्थिक लाभ कमाने की जो गतिविधियां अभी तक चेहरा बदलकर चलाई जा रही थीं, उन्हें खुलेआम लाइसेंस देकर चलाने का निश्चय अब सामने आ गया है। प्रारूप का सारा जोर सिर्फ इस बात पर है कि कैसे पानी की बिक्री का काम कंपनियों को सौंपा जाये। इसके लिए सरकार भूमालिकों से उन्हीं की भूमि के नीचे के पानी के अधिकार छीनने जा रही है। जाते-जाते विश्व बैंक, एशिया विकास बैंक, यूरोपीयन कमीशन, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के भारत लूटने के एजेंडे को लागू करने की यूपीए सरकार क्या यह एक ऐसी कोशिश नहीं है, जिसकी चारों ओर भर्त्सना की जानी चाहिए?

यह कदम आगे चलकर देश में अराजकता फैलाने वाला साबित होगा। यह एक बड़े कुचक्र का प्रवेश बिंदु है। पहले भूजल भूमि मालिकों के हाथों से निकालकर सरकारी नियंत्रण में जायेगा; फिर पानी प्रबंधन के नाम पर पीपीपी के रास्ते उसे कंपनियों को सौंपा जायेगा। कुशल उपयोग व लागत पूर्ति के नाम पर फिर उसका मूल्य इतना बढ़ा दिया जायेगा कि कंपनियां मुनाफा कमायें और किसान की लागत इतनी बढ जाये कि वह खेती व पानी से भी जाये। इसके लिए कृषि क्षेत्र में बिजली दरों को भी खूब बढ़ाया जायेगा। निविदा कृषि का जो विचार अभी आगे नहीं बढ़ पा रहा है, उसके लिए किसान को इस रास्ते से मजबूर किया जायेगा। तब पानी के साथ-साथ कृषि भी एक दिन कारपोरेट हो जायेगी। तब वह शुभ दिन आयेगा, जब भारतीय गांवों का स्वावलंबन टूटेगा। दुनिया की मंदी की भारत पर सीधी मार का रास्ता खुलेगा। नतीजे में अराजकता फैलेगी ही। महाशक्तियों के आर्थिक साम्राज्यवाद का सपना पूरा होगा।

प्रारूप के बिंदु क्रमांक 2.2 में लिखा है-“भारतीय सुखाधिकार अधिनियम-1882 के उस प्रावधान में संशोधन करना पड़ सकता है, जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह अधिनियम भूमि स्वामी को भूजल का मालिकाना हक प्रदान करता है।’’ बिंदु क्रमांक 13.4 में अपनी मंशा को और साफ करते हुए प्रारूप कहता है कि राज्य को सेवाप्रदाता से धीरे-धीरे सेवाओं के नियामकों और व्यवस्थापकों की भूमिका में हस्तांतरित होना चाहिए। अतिदोहन रोकने के नाम पर उठाये जा रहे इस एक कदम से देश 20 करोड़ किसान परिवार सरकारी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ने को मजबूर हो जायेंगे। जिनके पास पैसा है, वकील हैं, दलाल हैं... वे जलनिकासी की अनुमति पा जायेंगे, गरीब, मजदूर और किसान तो कलक्टर-पटवारी-पतरौलकी मेज तक भी नहीं पहुंच पायेगा। भू-मालिक से जलाधिकार छीन जायेगा, बदले में बदहाली हाथ आयेगी। जलशुल्क न दे पाने वाले गरीबों को कंपनियों के लठैत उठा ले जायेंगे। यह बात और है कि दुनिया में जहां भी ऐसा हुआ है, अंतिम परिणति दंगे के रूप में हुई है और अंततः कंपनियों को भागना पड़ा है। लेकिन तब तक कंपनी पर्याप्त कमा चुकी होती है और लोग पर्याप्त लुट चुके होते हैं।

भूजल के अतिदोहन पर लगाम लगाने का यह ठीक रास्ता नहीं है। स्थानीय परिस्थितियों व जनसहमति के जरिए जलनिकासी की अधिकतम गहराई को सीमित कर जलनिकासी को नियंत्रित तथा जलसंचयन को जरूरी बनाया जा सकता है।... किंतु सरकार का असल मकसद तो कुछ और है। इसीलिए इस सदी के शुरू में आई जलनीति ने पानी को ‘वस्तु’ कहा था, तो अब नये प्रारूप का बिंदु क्रंमाक 7.1 ने इसे ’आर्थिक वस्तु’ समझे जाने की जरूरत बता रहा है। प्रारूप आज कह रहा है कि जल का मूल्य जल से अधिकतम लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से निर्धारित किया जाना चाहिए!.. बिंदु क्रमांक 7.2 जल संसाधन के संचालन हेतु प्रशासनिक, प्रचालन व रखरखाव संबंधी शुल्क की उपभोक्ता से पूर्ण वसूली तथा इसके लिए राज्यवार एक प्रणाली स्थापित करने की बात करता है। यह, जलापूर्ति सीधे-सीधे कंपनियों को सौंपकर उन्हें जनता की लूट का लाइसेंस देने का रास्ता है। षड़यंत्र देखिए कि बिंदु क्रमांक 7.4 जल प्रयोक्ता संघों को जलशुल्क एकत्रित करने का अधिकार देकर समाज में झगड़े पैदा करने का रास्ता तो खोलता है, लेकिन जलप्रयोक्ताओं की सर्वसम्मति के मुताबिक जलशुल्क दरें तय करने का अधिकार नहीं देता। बिंदु क्रमांक 7.5 विद्युत मूल्य के कम निर्धारण को विद्युत व जल की बर्बादी की बड़ी वजह बताते हुए विद्युत दरों की वृद्धि की वकालत करता है।

कहने को आप कह सकते हैं कि प्रारूप का बिंदु क्रमांक 13.4 जलसेवाओं को सार्वजनिक निजी भागीदारी के उचित प्रारूप के अनुसार निजी क्षेत्र के साथ-साथ समुदायों को भी हस्तांतरित करने की बात करता है, लेकिन अब तक के अनुभव बताते हैं कि सुप्रबंधन के नाम पर सरकार खुद के नगर निगमों/जलबोर्डों के ढांचे को नकारा और जनसमुदाय को अक्षम मानती रही है। सक्षमता के दर्शन उसे कारपोरेट में ही होते रहे हैं। क्यों? यह गंभीर प्रश्न है। कौन नहीं जानता कि कंपनियां मुनाफा कमाने के लिए बनाई जाती हैं, खैरात बांटने के लिए नहीं; जबकि पानी जीवनाधार है.... पानी कुदरत की ऐसी नियामत है, जो कभी जरूरतमंद को खैरात में भी बांटनी पड़ सकती है।

पीने के लिए पानी, खाने के लिए रोटी, सिर पर छत और चिकित्सा तथा शिक्षा- ये पांच न्यूनतम जरूरतें ऐसी हैं, जिन्हे मुहैया कराने का दायित्व सरकार को निभाना ही चाहिए। सवाल यह है कि जब शिक्षा, चिकित्सा से लेकर अनाज तक कम दाम पर मुहैया कराने का सरकारी ढांचा इस देश में काम कर रहा है, तो ऐसी कौन सी विवशता है, जो कि सरकार जलापूर्ति को अपने हाथ में नहीं रखना चाहती? वह कौन से कारण हैं कि सरकार समूची जलापूर्ति कंपनियों को ही सौंप देना चाहती है? खासकर पीपीपी के नाम पर हो रहे तमाम घोटालों और विदेशी कंपनियों के साथ हो रहे बुरे अनुभवों के बावजूद।

शायद इसका जवाब पं. नेहरु द्वारा 1933 में लिखी पुस्तक ’ग्लिम्सिस ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री’ के उसे अंश में खोजा जा सकता है, जिसमें उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका के आर्थिक साम्राज्यवाद का खुलासा करते हुए लिखा था-’’ सबसे नये किस्म का यह साम्राज्यवाद जमीन पर कब्जा नहीं करता; यह तो सिर्फ देश की दौलत या देश दौलत पैदा करने वाले संसाधनों पर कब्जा करता है।... आधुनिक ढंग का यह साम्राज्यवाद आंखों से ओझल आर्थिक साम्राज्यवाद है।’’ पं. नेहरु ने आगाह किया था -’’ इस तरह का साम्राज्यवाद फैलाने वाली महाशक्तियां कमजोर, विकासशील और छोटे देशों में राजनैतिक जोड़तोड़ व षड़यंत्र करती रहती हैं। राजनैतिक रूप से वह जैसे चाहे आजाद देशों की लगाम खींच देती हैं।’’ उन्हे इसे अंतर्राष्ट्रीय का इतना उलझा हुआ जाल बताते हुए आगाह किया था कि एक बार उलझने या एक बार घुस जाने के बाद इससे बाहर निकलना आसान बात नहीं है।

1990 के दशक में आर्थिक उदारवाद को पूरी तरह स्वीकार कर पं. नेहरु की चेतावनी की गई अनदेखी और फिर कालांतर में पानी के क्षेत्र को वैश्विक निवेश के लिए खोलकर की गई गलती के असली नतीजे भुगतने का वक्त अब आ गया है। आज भारत की राजनैतिक सत्ता, समाज और प्रकृति के बीच मचे कोहराम के पीछे का मूल कारण यह वैश्विक जोड़तोड़ ही है। वरना भला क्या कारण हो सकते हैं कि खण्डवा में जलसत्याग्रह पर सरकार निर्णय ले लेती है और हरदा के आंदोलनकारियों को जबरन घसीट कर बाहर कर देती है? क्या कारण है कि सर्वश्रेष्ठ समाधानों को जानते-बूझते हम उन्हें लागू नहीं करते?.. जानते-बूझते सरकारें जनता को अंधी खाई में ढकेलना पंसद करती हैं? क्या कारण है कि जो इंजीनियर/अधिकारी नौकरी में रहते हुए जिन गलत नीतियों को आगे बढ़ाते हैं, सेवानिवृत होते ही वे सबसे बड़े राष्ट्रभक्त बनकर उन्हीं नीतियों की खिलाफत करने लगते हैं? स्पष्ट है कि अब भारत में भी नीतियां अब सरकारें नहीं, कोई और बना रहे हैं। खेल कोई और रहा है; सरकारें सिर्फ गर्दन हिला रही हैं।

अब वक्त आ गया है कि समाज उठकर सीधे-सीधे सरकारों की ऐसी अनाधिकार चेष्टाओं को संवैधानिक और नैतिक तरीके से चुनौती दे। वरना पानी के लिए तीसरे युद्ध से पहले देश में गांव-गांव... शहर-शहर में छोटी-छोटी लड़ाइयों के लिए तैयार रहें। बीज बोये जा चुके हैं।

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