कुलदे आज अपना अस्तित्व लगभग खो चुका है। कहने को बच्चे के जन्म पर परिजन और नवविवाहित जोड़े अब भी परम्परागत रूप से मिट्टी निकालते हैं, लेकिन बेरी के निष्ठुर समाज ने अपने कुलदेव की जितनी दुर्गति की है, उससे साफ पता चलता है कि भौतिक विकास की दुनिया में तालाबों, कुओं की हमारे जीवन में अब कहाँ और कितनी जगह है। कुलदे के निकट बसा है गाँव का छाज्याण पाना। आज कुलदे के बीच से रास्ता निकाल दिया गया है। हरियाणवी के गाँवों में तालाबों के किनारे रचे-बसे किस्से हरियाणा को जानने-समझने की अपनी यात्रा में मुझे वहाँ तक ले जाते हैं जहाँ तालाब, जोहड़, झीलें एक अहम किरदार हैं। राज्य में एक कहावत है, हर दस कोस पै पाणी और वाणी बदल जाते हैं। इसी को जहन में रख मुझे लगा कि यहाँ के समाज को समझना है तो उसके पानी और पानी के प्रति वहाँ के समाज की संवेदनशीलता को समझा जाये।
अपनी इसी यात्रा के दौरान इस बार मेरा पड़ाव बेरी था। इस नगरी को लोग मन्दिरों और हवेलियों की नगरी कहते हैं, लेकिन अन्दर-बाहर से देखने पर पता चलता है कि यह तो शाही तालाबों और कुओं की नगरी है। ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे अधिक तालाब तो यहाँ हैं ही साथ ही वास्तुकला की दृष्टि से भी ये अद्भुत हैं। बेरी के अन्दर आते हुए झज्जर मार्ग पर लिखा है, धर्मनगरी बेरी में आपका स्वागत है। लेकिन जिस तरह से वरुण देवता के प्रति यहाँ का समाज निष्ठुर हुआ है, उससे लगता है कि धर्म की नगरी में अब पाप भी बहुत बढ़ गया है।
अपनी जल परम्पराओं के प्रति कोई समाज कितना निष्ठुर, निर्मम और निर्दयी हो सकता है तो बेरी उसके अध्ययन के लिये सबसे उर्वरा और उपयुक्त भूमि है। जिस समाज की आर्थिक धुरी का आधार जोहड़ और कुँए रहे हों, वहाँ के समाज ने अपने एक-एक कर सारे तालाबों, जोहड़ों और कुओं का खात्मा कर दिया है।
सबसे पहले हम पहुँचे बेरी के दक्षिण-पश्चिम में स्थित कुलदे सरोवर पर। सूखे सावन के अन्तिम दिनों में चिलचिलाती धूप में खड़ा होना घूमना बेहद जटिल काम था। ऊपर से सड़ांध मारते तालाब और बन्द पड़े कुओं की हालत ने इसे और जटिल बना दिया। तालाब के बारे में जानकारी लेने के लिये जब किनारे से गुजर रहे यहीं के किसान सतीश से पूछा तो वह काफी दूर तक चले गए। उनका पीछा किया तो बोले, कै करैगा तालाबांह के बारे म्ह पूछकै, हाड़ै तो तालाब ए तालाब सैं भाई अर न्यूह कहले इब ये गंदे पाणी के जोहड़ होंगे।
इस तालाब का क्या नाम है- कुलदे। समझा नहीं भाई साहब, अरै दादा कुलदे का तालाब। सेवानिवृत्त शिक्षक रमेश शर्मा ने बेरी का इतिहास लिखा है। वह बताते हैं, कुलदे यानी कुलदेव का तालाब। कुलदेव से बिगड़कर यह कुलदे हो गया। यह तालाब तब बना था जब तकरीबन 850 साल पहले बेरी बसा। परम्परा के मुताबिक हरियाणा में बस्तियाँ सरोवरों या बंधों के किनारे ही बसती थी। कई गाँव में इन जल क्षेत्रों को देवसर, गंगसर, देवबंध, रामसर, दादासर भी कहते हैं।
कुलदे आज अपना अस्तित्व लगभग खो चुका है। कहने को बच्चे के जन्म पर परिजन और नवविवाहित जोड़े अब भी परम्परागत रूप से मिट्टी निकालते हैं, लेकिन बेरी के निष्ठुर समाज ने अपने कुलदेव की जितनी दुर्गति की है, उससे साफ पता चलता है कि भौतिक विकास की दुनिया में तालाबों, कुओं की हमारे जीवन में अब कहाँ और कितनी जगह है।
कुलदे के निकट बसा है गाँव का छाज्याण पाना (बस्ती)। आज कुलदे के बीच से रास्ता निकाल दिया गया है। इस पर कई कब्जे भी हैं हालांकि ग्रामीण इन्हें प्लॉट बता रहे हैं और कहते हैं कि राजस्व रिकॉर्ड में यहाँ उनकी जमीन थी। कुलदे का पानी अब बदबूदार है। गाँव के एक बड़े हिस्से का गन्दा पानी कुलदे में आता है। घरों में पानी पिलाने के बाद कुछ लोग यहाँ भैंसों को नहलाने ले आते हैं।
बेरी निवासी 80 साल की सावित्री बादली से 61 साल पहले ब्याहकर आई बताती हैं, इस पाने के लोगों के लिये पहले कुलदे केवल पूजनीय नहीं था बल्कि वे कुलदे जीते थे। हर वर्ष बारिश आने से कुछ दिन पहले पूरा गाँव मिलकर कुलदे की खुदाई, सफाई करता था। इस काम में हर घर से तसला, एक कस्सी और एक आदमी का योगदान कम-से-कम होता था।
कुलदे पर अब तीन कुएँ हैं। तीनों कुँओं का पानी मीठा था। अब ये कुएँ चालू हालत में नहीं हैं। कुओं के पानी खींचने के रास्तों पर चारों ओर लोहे के मोटे जाल लगा दिये हैं ताकि कोई इनमें गिरकर डूब न जाये। गाँव की ओर तालाब की उत्तरी पुश्त पर बेरी के सेठ रधुनाय सहाय छज्जूराम ने एक भव्य कुएँ का निर्माण 106 साल पहले कराया था। इस कुएँ का पानी अब हरा, सड़ा और जहरीला हो गया है।
हरियाणा में कुओं का महत्त्व भौंणों (पानी खींचने में सहायक चकली) से आँका जाता है। इस कुएँ पर आठ भौंण लगी थी। ये कुछ साल पहले तक अच्छी हालत में थी। लोग इसे जंगी क्यां का (जंगी यानी जुझारू लोगों का कुआँ) भी कहते हैं। यहीं पर दूसरा कुआँ तकरीबन 215 साल पहले यहीं के जाटों ने बनवाया। बुजुर्ग रामकिशन के मुताबिक, यह कुआँ साठ हाथ गहरी और 9 हाथ चौड़ी नाल का गजब का कुआँ है। 10 भौंण वाला यह कुआँ उपरोक्त कुएँ से तकरीबन 100 बज की दूरी पर है। इस कुएँ के निर्माण में कई लाख लखोरी (छोटी) ईंटें लगी हैं। चबूतरे का आकार भी अच्छा खासा है। इसे भी लोहे के जाल से पूर दिया है। अब यह खण्डहर सा लगता है। दोनों कुओं के पानी में से अब दुर्गन्ध आती है और साफ है कि जल्दी ही यह भी काल के गाल में समा जाएँगे और इनकी मौत का एहसास बेरी के लोगों को तब होगा जब वह सब कुछ खो चुके होंगे।
नरक जीते देवसर (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
क्रम | अध्याय |
1 | |
2 | |
3 | पहल्यां होया करते फोड़े-फुणसी खत्म, जै आज नहावैं त होज्यां करड़े बीमार |
4 | |
5 | |
6 | |
7 | |
8 | |
9 | |
10 | |
11 | जिब जमीन की कीमत माँ-बाप तै घणी होगी तो किसे तालाब, किसे कुएँ |
12 | |
13 | |
14 | |
15 | |
16 | सबमर्सिबल के लिए मना किया तो बुढ़ापे म्ह रोटियां का खलल पड़ ज्यागो |
17 | |
18 | |
19 | |
20 | पाणी का के तोड़ा सै,पहल्लां मोटर बंद कर द्यूं, बिजली का बिल घणो आ ज्यागो |
21 | |
22 |
Path Alias
/articles/araai-kaisaa-kauladae-nairaa-kauudadae-saai-bhaai
Post By: RuralWater