अपूर्व छटा छिटकाती हुई

अचला वृत्त है अचला जिसपै बनराजि छटा दिखला रही है।
विटपावलि पुष्पित हो करके निज सौरभ पुंज लुटा रही है।।
द्रुम पल्लवों में छिपी श्यामा जहां मन-मोहन गान-सुना रही है।
सिखला रही राग-विहाग भरा अनुराग का पाठ पढ़ा रही है।।
गिरि बिन्ध्य की गोद सजाती हुई सुख प्राणियों में सरसाती हुई।
गुण गाती हुई मनभावन के इठलाती हुई बलखाती हुई।।
बही जा रही है नदी वेत्रवती जहां प्रस्तरों से टकराती हुई।
वहीं पूर्व में कोटरा बस्ती बसी है अपूर्व छटा-छिटकाती हुई।।

- कवि श्री मोहनजी, कोटरा (जालौन)

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