आपत काल बिरस भयो फागुन… …उचित होय सो की जै

बोनासाही आमों व देसी लीचियों में बौर आ गई हैं। लाई-सरसों, मूली और धनियाँ के फूलों से घरबाड़े और खेत भरे हुए हैं। तोतों और गोंतालों की चहचहाहट से यूक्लिप्टस का पेड़ चारबाग स्टेशन की तरह शोरियाया हुआ है परन्तु कोयल नहीं दिख रही। हेमंत में, काले कौवों और कोयलों के झुण्ड बाबा रामदेव के शिविर की तरफ एफटीआई की ओर उड़ते हुए देखे थे। तब से उन्हें अपने आस-पड़ौस के पेड़ों में बैठते नहीं देखा। अनुमान कर रहा हूँ वे उन्हीं के साथ मध्यप्रदेश, झारखण्ड, उड़ीसा होकर असम-अरुणांचल की तरफ चले गये हैं। हो सकता है एक दल बाबा साहेब अन्ना हजारे की तरफ पश्चिम की ओर और दूसरा पूरब हो गया हो। भारत स्वाभिमान का जगराता हो रहा है। कौवों की तो नहीं कह सकता कोयलों ने अबकी बार कविवर सुमित्रानंदन पंत का कहना मान लिया है और वो ‘पावक कण’ बरसाने भारत स्वाभिमानियों के साथ हो गई हैं। इसलिए हवाओं को पगला देने वाले इस पतझड़ में अपनी कोकली-कलकल से दिन चक्र को वाचाल करने वाली कोयल उत्तराखण्ड की अमराइयों में न दिखाई दे तो आश्चर्य न करना।

अमराइयाँ हैं भी कहाँ। जिन घाटियों में वे हुआ करती थी वहाँ अब बिल्डिगें, सड़कें, बाजार और ऑफिस हैं। जंगल हैं तो पिछले भू-स्खलनों से, सिरकटे बकरों की खाल-उधेड़े कबन्धों जैसी पहाड़ियाँ अभी हरियायी ही नहीं हैं। जगह-जगह बलियानाले के ट्रीटमेण्ट जैसे डिजायन बनाए हैं कुदरत ने। भटवाड़ी के जीआईसी के पिछवाड़े ढकामक्क फूलों से लदे चुल्लुओं के अब नामोनिशान नहीं बचे हैं। भागीरथी से लेकर गोरी के किनारों तक जगह-जगह डंपयार्डों जैसे सड़कों और बाँधों के मलवे हैं। दूर-संचार कंपनियों के टावरों की विद्युत-चुम्बकीय तरंगों की करेन्टों से डरी हुई चिड़ियायें अन्यत्र-अन्यत्र भागी फिर रही हैं। पालतू पशु वहाँ के बलिपथों पर घास चरने से भी डर रहे हैं। बागेश्वर के सुमगढ़ स्कूल की समाधियों के बगड़ में उगी कुजियारी की कांटेदार झाड़ियाँ भी अनफूली हैं। वे बाड़ से बहकर आई, आड़ी बेड़ी लकड़ियों, शाखों-टहनियों के गांजों, शौल-शुत्तरों और रेहड़ों से अटी पड़ी हैं। भुजियाघाट के मलवे की घच्चम-घच्च में, मुँह की ओर आ रही गर्द के गुब्बार में, पान खाये मुँह की पियाली जैसी, प्रेयसी के खूबसूरत-खुशबूदार मुँह जैसी चौंच क्यों गंदा करेगी कोयल ? वह काकड़ी घाट-सुयालबाड़ी की तरफ भी जाने से रही जहाँ ध्वांयां, बासिंग, शकुना, घिगारू-किरमोड़ा की झाड़ियाँ अपनी जड़ें आकाश की तरफ और सिर माटी में दफन किए पड़ी हैं। च्यूरे, रीठे, और तनु शीर्षासन किये हुए हैं। हां रकसिया रौले की बाड़ में बहकर आये दड़े-बालू-बोल्डर और मिट्टी को खोद-खोद का डम्परों में लादे बेच रहे ठेकेदारों की बग्यियों में वह बैसाख-जेठ तक दस्तक दे दे, ऐसा अन्दाज होता है। यह भी संभव है कि वह मई-जून की लू में, उत्तराखण्ड की सरकार के बुलावे पर बद्रीकेदार महोत्सवों में ही आये जैसे मुनाल सैफ गेम के उद्घाटन में आई थी। लेकिन ये सब भविष्य की अटकलें हैं बाबा रामदेव के भावी प्रोग्रामों के कार्यान्वयन के अनुसार ही उसका आगमन सुनिश्चित होगा।

उत्तराखण्ड के पर्वतीय गाँवों में, यों भी कोयल के आने की प्रतीक्षा में कोई बैठा हुआ नहीं है। वहाँ के लोगों को दो रुपये किलो गेहूँ और तीन रुपये किलो चावलों की प्रतीक्षा है। कुब्वतदार और हैसियतदार लोगों को वीपीएल के लिस्ट की प्रतीक्षा है। आमा की देखरेख के लिए गाँव में ठहरे हुए उसके एकमात्र 35 वर्षीय बेरोजगार ग्रेजुएट नाती को एलटी के इन्टरेंस के रिजल्ट की प्रतीक्षा है। राहत शिविर में रह रहे हुओं को भले दिनों की प्रतीक्षा है। आमा का लड़का फौज से रिटायर होकर घर आया तो पेंशन लगी थी। वह मर गया तो पेंशन बहू के नाम हुई। उसी से नाती की पढ़ाई और खाना-खर्चा चलता था। दुर्विपाक् से बहू भी चल बसी। उसकी बचा-बुचू कर लुकाई हुई एक लाख की रकम लगा कर नाती बीएड कर आया। काम-धाम उससे कुछ होता-हवाता नहीं। नौकरी मिलेगी तो शादी ही कर सकता है और क्या करेगा? एलटी की नौकरी खुलने की आशा में बैठा था। उसके लिए फिर इम्तहान निश्चित हुआ तो उसी के साथ 5 लाख की दलाली फीस की खबर आई ऊपर से पर्चा बनाने वालों का बज्जर गिरा। बहुत कठिन पर्चा बना दिया। अब रीजल्ट आता है कि दुबारा इंतहान होता है। कोई-कोई कह रहे हैं इंतहान जमा नहीं। दुबारा बोना पड़ेगा करके नाती को रात-दिन उसी का सूर है।

किसी तरह सिर-सिर बिरालू करके शिशिर कटी है। अब पतरुवा नचनिया जैसी फागुन की हवा नचा रही है। अपने अंतस को कुछ लाल-पीला करने की मंशा से आमा अपने ही, भांडन और सिसूण जमे बाड़े में फूली हुई मिट्टी, प्यूंली और शंखपुष्पी के फूलों को पहचानने के लिए निकलती है तो वे कहीं दिखाई नहीं पड़ते। एक घुगूता जरूर पगडंडी पर बैठा हुआ मिलता है। कह रहा है ‘भुक्वे छूं, भुक्वे छूं’।

होली आ रही है। लड़का फौज में था तो दो वर्ष आमा को भी घरवाली के साथ देश दिखाने ले गया था। बाड़मेर-पुष्कर, आगरा, मथुरा-वृन्दावन सब जगह दिखाया। आमा ने रसिया, फाग, धमाल, चाँचर खेलते लोग देखे थे। घुलंडी से लेकर पंक-कीचड़, राख-गोबर सनी कैसी-कैसी होलियाँ खेलते नर-नारी देखे थे। उसी निमित्तर बरसाने की लट्ठमार, बागड़ की पत्थर मार और आदिवासी औरतों की वह होली भी देखी थी जिसमें ‘ईलो ईली’ याद किए जाते हैं। बल्लभगढ़ के समीप किसी गाँव में ‘ईलोजी’ की मूर्ति भी देखी थी। वह अर्द्धनग्न मूर्ति आमा के दिल में आज भी बैठी हुई है। बहुत खूबसूरत थी। बेटे के साथी फौजी की घरवाली ने आमा के कान में मुँह ले जाकर यह भी बताया था कि घुलण्डी की रात उसके गाँव की निपूती औरतें घाघरा-अंगिया उतार कर एकदम, नहाने के लिए बैठी हुई जैसी होकर ईलोजी की उस मूरत के पास जाती हैं। उसने सशंकित हो इधर-उधर नज़र भर कर यह भी फुसफुसाया था कि ईलोजी के पिण्ड को वे अपने उस अंग से छुआती हैं जहाँ से बच्चा पैदा होता है। ऐसा करके वे कृतकृत्य हो उठती हैं। उन्मत्त हो नाच की ‘घूमरलाई’ लेकर लौटती हैं। घर में अपने आदमी के साथ तो जो भी करनी होगी पर समझ यह लेती हैं कि ‘ईलोजी’ के साथ रमण कर लिया है तो अगले वर्ष बच्चा जनूंगी जरूर। उसे गोदी में लेकर ‘ईली’ बनकर आऊंगी ईलोजी के दर्शन को क्योंकि मैं अब ईलोजी की हो गई हूँ।

उस अपूर्व याद की बांकी अप्रासंगिक चीजें आमा भूल गई हैं लेकिन जो-जो प्रासंगिक था वो उन्हें ऐसे याद है जैसे कल की ही घटना हो। उस स्त्री ने ‘ईलोजी’ को हिरण्यकश्यप राजा का बहनोही बताया था। वही राजा जिसकी बहिन ‘होलिका’ थी। उस होलिका के साथ शादी तय हुई थी ईलोजी की। लगन का दिन भी पक्का हो गया था। वे बारात लेकर घर से चल भी चुके थे। रास्ते में बारात सुस्ताने बैठी और गुड़-पानी खा पी रही थी।

ऐन उसी वक्त इधर हिरण्यकश्यप के दिमाग में प्रह्लाद को खत्म कर देने की बात सूझी। होलिका, हिरण्यकश्यप की बहुत प्यारी बहिन थी। उसका हर कहा मानती थी। हिरण्यकश्यप ने होलिका को प्रहलाद की हत्या का काम सौंपा। उसी रात बहिन का ब्याह और उसी के हाथों लड़के की हत्या का षड़यंत्र! राजनीति करने वाले राक्षस हमेशा ऐसा ही करते रहे होंगे। कोई आज थोड़ा ही कर रहे हैं।

होलिका के पास एक ‘अग्निचीर’। वह लिबास कागज जैसा कपड़ा था। उसके शरीर में लपेट कर वह कैसी ही भयानक लपटों में घुस जाती फिर भी जलती नहीं थी। उस दिन राजा ने अपनी घराती प्रजाजनों के मनोरंजन और घूमघाम के लिये विशाल अलाव जगह-जगह जलाये हुए थे। नाच-रंग हो रहे थे। हिरण्यकश्यप ने प्यारी बहिन को बुलाकर कहा ‘तू आज इस कपड़े में अपने को लपेट कर प्रहलाद के साथ घूनी में बैठ जा।’ होलिका भाई का कहा कभी नहीं टालती थी। फिर आज रात तो उसे ससुराल चले जाना था। वह प्रहलाद को गोदी में लेकर घूनी में बैठ गयी। अग्निचीर को जलना नहीं चाहिये था परंतु प्रहलाद की भक्ति से भगवान इतने प्रसन्न थे कि उन्होंने अग्निचीर सहित होलिका को भी भस्म कर दिया और प्रहलाद के प्राण बचा लिये।

ईलोजी बारात लेकर पहुँचे तो होलिका राख हो उठी थी। वे सती-साध्वी स्त्रियों जितने पवित्र मन के थे। मन से होलिका को वरण कर लिया सो किये रहे। फिर किसी से शादी नहीं की। जिन्दगी भर कुँवारे रहे। कामदेव जैसे सुंदर थे। जीवन भर ईली ईली करके होलिका को ऐसे जपते रहे जैसे राधा कृष्ण को और कृष्ण राधा को। उनके पवित्र प्रेम को नागरों-नगरों की ‘बनावटी’ से नहीं समझा जा सकता। आदम और हव्वा, शीरी और फाहाद, लैला मजनू, नल और दमयंती, राम और सीता का जैसा उनका प्यार केवल आदिवासी ही समझ सकते हैं। शरम हया जैसे भाव उनके थे ही नहीं। उनके अनछुए, अशरीरी प्रेम की समझ रखने वाले आदिवासी की कौम में ही रहना उन्हें पसंद है। इसलिये उनके प्रति एकनिष्ठ आदिवासिन अपने को ईली कहने में गौरव महसूस करती हैं। ‘ईली’ का मतलब ही है ‘ईलोजी की पत्नी’ और ऐसी बनकर वह ईलोजी का गर्भ धारण करती हैं।

आमा की यादों में ईली-ईली पूर्वजन्म के लिये हुए किसी पुण्य की स्मृति की तरह आये हैं। उन्हें लगता है दिन सफल हो गया है। धूप के रहने तक वह बाड़े के भूड़-भाड़ में भभरती रही। उधर पहाड़ पर सूरज का गोला लुढ़का। इधर छाया का ठंडा तालाब पसरा तो वह सिसियाती हुई घर के भीतर चले आई। पुराने जर्जर घरखंड के चाख में रूँण था। घुघुआती सी दो लकड़ियों में छिपी आग को खचाखच कर जगाया और घुटनों को उसके करीब फैला कर अपने जमाने की उस वर्ष की होली की याद करने बैठी जिस वर्ष मनमोहन देवर की शादी हुई थी। नयी-नवेली देवरानी घर में आयी हुई है। परन्तु हुकुम सास का ही चलता है। ननद अनब्याही है। फागुन आया नहीं कि सास ननद की टीम बातों-बातों में सीबीआई की जैसी पूछताछ करने लगती है। जहाँ-तहाँ बिलौटों जैसे देवर लोग भाभियों की ताक में दुबके मिलते हैं। घर में जैसे किसी का किसी पर यकीन ही न रह जाता। परिवार पन्द्रहवीं लोकसभा जैसा चलता है। रोज घोटालों पर घोटाले खुलते हैं। जेपीसी बैठती है। सुप्रीम कोर्ट जैसे ससुर इंटरफीयर करते हैं और अंत में सबकुछ मिलकर टांय-टांय फिस हो जाता है। होलियों के पाँच दिन सरकारों के पाँच वर्ष के कार्यकालों जैसे गुजर जाते हैं और परिवार का कुछ भी नहीं बिगड़ता।

दादी की स्मृतियों में आसन्नभूत हेतु मदभूत और अद्यतन भूत सब वर्तमान में विलीन हो जाते हैं। बीसियों साल पहले की वह घटना ऐसे सामने आयी जैसे दादी टीवी के सामने बैठी हुई है।

नवेली देवरानी आग बबूला होकर आई है। अजीब हड़बड़ाहट और अचकचाट है। होंठ सूख रहे हैं। दाँतों के घाव भी हैं। ऐसी त्रसित है जैसे जंगल का काकड़ अपने ही मल-मूत्र की सणक-भणक से चौंक-चौंक उठता हो। भीतातुर हो बोलती है, जेठानी दीदी तुम्हारा देवर हमसे बोलता नहीं। सीधे शब्दों में व्यक्त हुई शिकायत तो मामूली जैसी है। जेठानी के रौब से आमा ने अपनी आँख उसकी आँखों में चुभाई हैं। देवरानी का गुस्सा, दर्द और कराह शब्द में बदलता ‘झखमार’ विशेषण जड़ दिया उसने। अब जेठानी के कान खड़े हुए, लगा सीधे से शब्द के अर्थ बहुत हैं। गहरे भी। तब की जेठानी आज की आमा को लगा कहीं उसने मेरे ही ऊपर रीझते देवर को न देख लिया हो। विशेषण ‘मछुवारे के जैसे’ निशाने को संकेतित कर रहा है। हो सकता है कि किसी दूसरी मछली पर काँटा डाला हो। बिरानी के संदेह से तो जेठानी का जहन भी जलता-जलता हो उठा है। ‘तहकीकात करना ही पड़ेगा’ सोच उसने देवरानी की तरफ भी दिमाग घुमाया है। इसी के कहे का क्या भरोसा ? उधर बाहें फँसा आई हो कहीं और, घाल मोल डाल देना चाहती हो देवर के सिर! सो जेठानी उसीकी चोली-चूनर, नथ-बेसर, नख-मुख्या, होंठ-कपोल की सिनाख्त में जुटी जैसे कि वह आरुषी की हत्या का मामला हो।

आँखों से एक्सरे, मन से इडोस्कोपी और मस्तिष्क से एमआरआई कराने पर तुल गई है। वह दूसरी तरफ देवरानी है कि क्या कहना है क्या नहीं कहना है की मर्यादा का ही बाँध तोड़े जा रही है। मेरे साथ अलां हुआ, मेरे साथ फलां हुआ। दिन-दहाड़े छीना-झपटी जोर-जबर्दस्ती, हाथापाई। जेठानी धक्क है। सुनते-सुनते। समझै मैं नहीं आ रहा है कि होली की हुड़दंग है कि बलात्कार का आरोप।

हां रे जेठानी तुमरो देवर हमसे ना बौले, बोलै ना झखमार जेठानी, तुमरो देवर…
हाँ रे जेठानी फागुन मास पतरुवा आई…, फूल उठी बनराई जेठानी, तुमरो देवर…
हाँ रे जेठानी खोल्यो केवाड़ ले गयो घर भीतर, मेरो दिल धड़काय जेठानी, तुमरो देवर…
हाँ रे जेठानी लिपट झपट दाइयाँ मरोरत, मारी मोहि पिचकारि जेठानी, तुमरो देवर…
हाँ रे जेठानी खटिया में नीढाल कियो है, चरमर चरमर होय जेठानी, तुमरो देवर…
हाँ जे जेठानी चोली चदरा भीजि गयो है, सब रस भँवरा लेय जेठानी, तुमरो देवर…

 

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