अपर्याप्त राहत और वायदा खिलाफी

ऊँचे प्लेटफार्म के नाम पर जो कुछ बना वह केवल भुरभुरी मिट्टी का एक मीटर ऊँचा ढेर भर था जिसके ऊपर कोई छत नहीं थी। यह कभी भी बरसात में कट सकता था और अधिकांश जगहों पर कटा भी। ऐसे कुछ बाढ़ शरणस्थलों पर स्थानीय ग्रामवासियों ने परवल की खेती कर डाली और इसी से उनकी उपयोगिता भी तय हो जाती है। अब तो सरकार में किसी को याद भी नहीं होगा कि कभी ऐसे वायदे किये भी गये थे। राज्य में आबादी के विस्तार के साथ-साथ बाढ़ से प्रभावित होने वाले लोगों की तादाद भी बढ़ी है यद्यपि यह आनुपातिक नहीं है। दो-चार हजार से बढ़ कर रिलीफ बजट भी अब अरबों रुपये से ऊपर चला गया है। बाढ़ से होने वाला नुकसान उपलब्ध रिलीफ के दस गुने की मियाद पार कर चुका है। इस तरह से रिलीफ बजट अरबों में होने के बावजूद सागर में बूंद के बराबर की ही औकात रखता है। राज्य सरकार के पास राहत कार्य चलाने के लिए उपलब्ध पैसा, आपदा राहत कोष, आपदा राहत के लिए राष्ट्रीय राहत कोष, राज्य सरकार का अपना हिस्सा तथा दूसरे तरीकों से जुटाई गई राहत राशि आदि सब मिला कर भी बाढ़ प्रभावित लोगों की जरूरतों को देखते हुये किसी ओर की नहीं होती। दुनु रॉय कहते हैं, “... इससे यह प्रतीत होता है कि भले ही केन्द्र ने 75 प्रतिशत राशि अपने स्तर से निर्गत कर दी हो मगर यह राशि राज्य सरकार द्वारा निर्धारित वास्तविक जरूरतों के दस प्रतिशत से अधिक नहीं होती। इसमें अगर राज्य सरकार का 25 प्रतिशत का अंश भी जोड़ दिया जाय तो भी इससे कुल नुकसान के 14 प्रतिशत से ज्यादा की भरपाई नहीं हो सकती। इसका यह मतलब निकलता है कि या तो राज्य सरकारें बाढ़ से हुये नुकसानों को इतना ज्यादा बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रही हैं (10 गुने से भी ज्यादा) या फिर जो प्रावधान किया जाता है वह बुरी तरह से नाकाफी है ... इसका यह भी मतलब होता है कि अगर बाढ़ से प्रभावित लोग बाढ़ का पानी निकल जाने के बाद अपनी जीविका के उपार्जन के लिए अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश करें तो यह कोशिश उन्हें अपने संसाधनों के ही दम पर और बड़े पैमाने पर करनी पड़ेगी।’’

यह देखने के लिए कि बाढ़ प्रभावित लोगों में से कितनों के पास राहत पहुँच पाती है हम 2002 की बाढ़ के बाद के दरभंगा जिले के आंकड़ों पर एक नजर दौड़ाते हैं जिसकी गिनती उस साल बाढ़ से सबसे ज्यादा प्रभावित जिलों में होती थी। यह आंकड़े चौंकाने वाले हैं क्योंकि जिले की 18 प्रखण्डों, 286 ग्राम पंचायतों और 1078 गाँवों में फैली 26 लाख 26 हजार आबादी इस बाढ़ से प्रभावित हुई थी। अगर प्रति परिवार सदस्यों की संख्या 6 मान लें तो कोई 4,37,670 परिवारों पर बाढ़ का असर पड़ा होगा। सरकारी आलेखों के अनुसार वहाँ केवल 28,839 परिवारों को आश्रय दिया गया जो कि कुल पीड़ित परिवारों का मात्रा 6.6 प्रतिशत है।

इस राहत में भी राजा और प्रजा का अन्तर स्पष्ट दिखाई पड़ता है। इसी साल तत्कालीन मुख्यमंत्री के गृह जिले गोपालगंज में 7 प्रखण्डों में 89 ग्राम पंचायतों के 314 गाँवों पर बाढ़ का असर पड़ा और 6,96,000 लोग बाढ़ की चपेट में आये। इन परिवारों की संख्या 1,16,000 के आस-पास रही होगी। मगर यहाँ 58,295 परिवारों को बाढ़ के समय आश्रय दिया गया जो कि कुल प्रभावित लोगों का 50.25 प्रतिशत है। सच मगर यह भी है कि खुद मुख्यमंत्री के जिले में बाढ़ से पीड़ित होने वाले आधे हकदार इस सुविधा से वंचित रह गये।

पिछली शताब्दी में आई 1987 की प्रलयंकारी बाढ़ के बाद बिहार सरकार ने लोगों से बहुत से वायदे किये थे जिनमें यह भी कहा गया था कि, “... बाढ़ से प्रभावित हर पंचायत में ऊँचे और ऊपर से ढके प्लेटफॉर्म बनाये जायेंगे और प्रत्येक प्रखण्ड में हेलीपैड का निर्माण किया जायेगा। प्रत्येक ग्राम पंचायत में जीवनदायी औषधियों के बक्से दिये जायेंगे।” ऊँचे प्लेटफार्म के नाम पर जो कुछ बना वह केवल भुरभुरी मिट्टी का एक मीटर ऊँचा ढेर भर था जिसके ऊपर कोई छत नहीं थी। यह कभी भी बरसात में कट सकता था और अधिकांश जगहों पर कटा भी। ऐसे कुछ बाढ़ शरणस्थलों पर स्थानीय ग्रामवासियों ने परवल की खेती कर डाली और इसी से उनकी उपयोगिता भी तय हो जाती है। अब तो सरकार में किसी को याद भी नहीं होगा कि कभी ऐसे वायदे किये भी गये थे।

Path Alias

/articles/aparayaapata-raahata-aura-vaayadaa-khailaaphai

Post By: tridmin
×