अपनी सुविधा के अनुसार सरकार ने पुनर्वास की मांग स्वीकार की

तटबन्ध पीड़ितों ने सरकार पर दबाव बनाया कि उन्हें दूसरी जगह ले जाकर बसाया जाय मगर इस तरह के सम्पूर्ण पुनर्वास के लिए तो कहीं जमीन ही उपलब्ध नहीं थी। सरकार और नेताओं ने शायद यह कभी सोचा ही नहीं था कि भविष्य में लोग इतने संगठित हो जायेंगे कि वह नेताओं से उनके किये गये वायदों का हवाला देने की हालत में आ जायेंगें। क्योंकि ऐसा अगर रहा होता तो परियोजना शुरू होने के काफी पहले से पुनर्वास की तैयारी शुरू रहती। जुलाई, 1957 आते-आते पानी चारों तरफ था, तटबन्ध के अन्दर भी और तटबन्ध के बाहर भी। पानी तटबन्धों के अन्दर इसलिए था कि अब वही नदी का रास्ता था और यह बात अगर एक अंधे को भी बताई जाये तो वह भी अनुभव कर सकता था कि नदी के दोनों ओर तटबन्ध बन जाने पर नदी का पानी उनके बीच में ही रहेगा और वहीं फैलेगा। पानी तटबन्धों के बाहर इसलिए था कि बाहर से आकर कोसी से मिलने वाली दूसरी छोटी बड़ी नदियों के मुहाने तटबन्धों के बनने की वजह से बन्द हो गये थे। इतना समझने के लिए किसी का इंजिनियर होना जरूरी नहीं है। कोई भी औसत बुद्धि का आदमी यह समझ और समझा सकता है। मगर हमारे नतोओं और इंजीनियरों के न तो आंख थी और न बुद्धि, जिससे वह भविष्य में होने वाले घटनाक्रम का अंदाजा भी कर सकें। सबसे बुरी बात यह थी कि इन लोगों ने तटबन्ध पीड़ितों के साथ एक भद्दा मजाक किया-कभी पूना प्रयोगशाला के नाम पर तो कभी झूठे वायदों की बुनियाद पर। यह वह लोग थे जिनमें कुछ ने तो गीता और कुरान पर हाथ रख कर जनता की सेवा करने की कसमें तक खाई थीं और कुछ के सामने उनके इंजीनियरिंग के पवित्र पेशे के आदर्श थे जिनकी तुलना भगीरथ और विश्वकर्मा से की जाती है। नेताओं के पास अपने बचाव का रास्ता था कि वह तकनीक का ककहरा भी नहीं जानते हैं और किसी भी निर्णय के लिए इंजीनियरों पर निर्भर करते हैं। इंजीनियरों के पास बहाना था कि लोगों की बाढ़ से तुरन्त रक्षा के लिए तटबन्ध बनाने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं था क्योंकि बराहक्षेत्र बांध बनने में 15 साल का लम्बा समय लग जाता और बाढ़ पीड़ितों को इतने वर्षों तक इन्तजार करने के लिए नहीं कहा जा सकता है। उनके पास एक बहाना और था जिसे वह कभी सार्वजनिक नहीं करते कि वह स्वतंत्र रूप से कोई निर्णय नहीं लेते और उन्हें उन सारे फैसलों का पालन करना पड़ता है जो कि राजनीतिज्ञ लेते हैं। नेताओं और इंजीनियरों दोनों के ही पास एक दूसरे की पीठ खुजलाने का पूरा-पूरा बहाना और औचित्य रहता है और इन सम्बधों पर कभी भी समय की मार नहीं पड़ती। यह कतई जरूरी नहीं है कि राजनैतिक फैसले लोकप्रिय होते हुये भी तकनीकी तौर पर सही हों। इस तरह से इंजीनियरों की खामोशी की वजह से राजनैतिक फैसलों पर भी तकनीकी औचित्य की मुहर लग जाती है। यह एक व्यावहारिक सच्चाई है कि इंजीनियर कितना भी बड़ा क्यों न हो, जो व्यवस्था है उसमें वह नेताजी के नीचे ही रहता है और सही तकनीकी राय देने में हमेशा संकोच करता है। इस समस्या का कोई समाधान नहीं है।

अब तटबन्ध पीड़ितों ने सरकार पर दबाव बनाया कि उन्हें दूसरी जगह ले जाकर बसाया जाय मगर इस तरह के सम्पूर्ण पुनर्वास के लिए तो कहीं जमीन ही उपलब्ध नहीं थी। सरकार और नेताओं ने शायद यह कभी सोचा ही नहीं था कि भविष्य में लोग इतने संगठित हो जायेंगे कि वह नेताओं से उनके किये गये वायदों का हवाला देने की हालत में आ जायेंगें। क्योंकि ऐसा अगर रहा होता तो परियोजना शुरू होने के काफी पहले से पुनर्वास की तैयारी शुरू रहती। यह तो इतना फासला तय कर लेने के बाद सरकार को यह एहसास हुआ कि अगर सारी सम्पत्ति का मुआवजा देना पड़ गया तो उसे तत्कालीन मूल्यों पर दस से बारह करोड़ रुपये खर्च करने पड़ेंगे और यह खर्च परियोजना के पूरे खर्च (37 करोड़ रुपये) को देखते हुये अनुपात से कुछ ज्यादा ही था।

सरकार ने तटबन्धों के बीच फँसने वाले गाँवों का एक सर्वेक्षण करवा कर यह अनुमान लगाया कि तटबन्धों के अन्दर की कुल जमीन 2,60,108 एकड़ (1,05,307 हेक्टेयर) है और अगर खेती की जमीन, बाग-बगीचों और रिहायशी जमीन का मुआवजा 500 रुपये प्रति एकड़, कृषि योग्य परती जमीन का मुआवजा 200 रुपये प्रति एकड़ और बंजर जमीन के लिए 100 रुपये प्रति एकड़ की दर से भुगतान किया जाय तो इस काम के लिए नीचे दी हुई तालिका के अनुसार खर्च उठाना पडे़गा।

खेती की जमीन

7,26,91,000 रुपए

वह जमीन जिस पर खेती नहीं होती

1,13,47,800 रुपए

बाग-बगीचा

4,56,000 रुपए

खेती के लिए अनुपयुक्त जमीन

50,49,200 रुपए

बागगीत जमीन

32,91,500 रुपए

योग

9,28,35,500 रुपए



इसी तरह अगर पक्की छतों वाले पक्के घरों का मुआवजा 5 रुपये प्रति वर्ग फुट, खपड़े की छत मगर पक्की दीवारों वाले घरों के लिए 3.50 रुपये प्रति वर्ग फुट, कच्चे घरों के लिए 2.50 रुपया प्रति वर्ग फुट, खपड़े वाले कच्चे घरों के लिए 2 रुपये प्रति वर्ग फुट और साधारण फूस के बने घरों के लिए 0.75 रुपये प्रति वर्ग फुट का मुआवजा दिया जाय और उनकी मालियत पर 10 से लेकर 60 प्रतिशत का डेप्रिसिएशन दिया जाय तो सरकार को नीचे दी हुई तालिका के अनुसार पैसा खर्च करना पड़ेगा।

गृह निर्माण

65,94,904 रुपए

तालाब

27,92,325 रुपए

कुएं

5,16,573 रुपए

पेड़-पौधे

8,44,888 रुपए

योग

1,07,48,60 रुपए



इस तरह के कुल मुआवजे की रकम 10,35,84,190 रुपये बैठती है। इस में अगर 16 प्रतिशत राशि आवश्यक अर्जन के लिए अतिरिक्त जोड़ दी जाय तो कुल खर्च 11.90 करोड़ रुपये बैठता।

इसके अलावा सरकार ने माना कि इस मुआवजे का कोई मतलब ही नहीं होगा क्योंकि इतनी ऊँची कीमत पर इतनी ज्यादा जमीन कहीं मिलेगी ही नहीं। इस समस्या का सामाधान केवल कृषि पद्धति और फसल चक्र के सुधार से ही संभव है। साथ ही अगर 10 से 11.50 करोड़ की सम्पत्ति का पूरा-पूरा मुआवजा देना पड़े तब तो योजाना का प्राक्कलन बेतरह बढ़ जायेगा और योजना ही खटाई में पड़ जायेगी।

अगर किसी की जमीन पर ताजी मिट्टी पड़ गई या उसका किसी तरह से सुधार हो गया तो वह तो फायदे में रहा मगर जिसकी जमीन कट गई, उस पर बालू पड़ गया या वहाँ जल-जमाव हो गया तब ऐसा किसान और उसका परिवार तो औसत के सिद्धान्त की भेंट चढ़ जायेगा। कटाव, जल-जमाव और बालू का भरना स्थिर होकर एक जगह रहने वाली चीजें नहीं हैं। इनके स्थान और परिमाण, दोनों बदलते रहते हैं- कोसी का चरित्र ही ऐसा है।अब तय हुआ कि लोग तटबन्धों के बाहर पुनर्वास में रहें और अपनी पुश्तैनी जमीन पर खेती करें। उनका पुराना घर भी उन्हीं कब्जे में रहेगा। पुनर्वासितों के भविष्य का इतना बड़ा फैसला सरकार ने अपने स्तर पर तटबन्ध पीड़ितों की बिना किसी रजामन्दी या मशविरे के ठीक उसी तरह किया जैसे कि अधिकांश अभिभावक बेटियों की शादी तय किया करते हैं। बेटी की भलाई किस चीज में छिपी है यह फैसला सिर्फ पिता करता है और अभी तक हमारे समाज में लड़कियों को अपनी पसंदगी या नापसंदगी जाहिर करने का हक नहीं मिला है। अब यह तय पाया गया कि क्योंकि पुनर्वास में रहने के कारण लोग अपनी जमीन से कट जायेंगे इसलिए उनके पुनर्वास स्थलों में प्रति 2000 व्यक्तियों के पीछे एक तालाब खुदवाया जायेगा जिसकी लागत 10,000 रुपये प्रति तालाब होगी। इसी तरह से हर 100 व्यक्ति पीछे एक कूएँ या ट्यूब वेल की व्यवस्था किये जाने का प्रस्ताव किया गया जिसकी प्रति इकाई लागत 500/-रुपये थी। हर 50 व्यक्ति के पीछे 250/-रुपये प्रति नाव की दर से नाव का प्रावधान किया गया। तटबन्ध के बाहर पुनर्वास के निर्माण के लिए 800/-रुपये प्रति एकड़ की दर से जमीन के अधिग्रहण का प्रस्ताव किया गया। इस मद में 15/-प्रतिशत की दर से आवश्यक अर्जन का शुल्क भी सरकार देने वाली थी। इसी तरह से पुनर्वास का जो नया नक्शा उभरा वह कुछ इस प्रकार था-

बासगीत की जमीन

75,64,400 रुपए

गृह निर्माण अनुदान

1,14,22,990 रुपए

तालाब

5,70,000 रुपए

कुएं

5,70,000 रुपए

ट्यूबवेल

5,70,000 रुपए

नाव

5,70,000 रुपए

कुल योग

2,12,67,390 रुपए



पत्रांक 10234, दि. 6 सितम्बर 1957 को दी गई अपनी सिफारिश में बिहार सरकार के सचिव टी. पी. सिंह ने कहा कि क्योंकि पुनर्वासितों को जमीन का मुआवजा नहीं दिया जा रहा है, इसलिए उनके साथ सहानुभूतिपूर्वक पेश आना चाहिये।

सरकार को शायद यह भरोसा था कि इतना टुकड़ा फेंक देने के बाद लोग उसकी छीना-झपटी में मशगूल हो जायेंगे। केन्द्रीय जल और शक्ति आयोग के इंजीनियरों की चलती तो वह इतना भी नहीं होने देते। 2 मार्च 1956 को हुई कोसी कन्ट्रोल बोर्ड की मीटिंग में उन्होंने इस ओर इशारा भी किया था। दस्तूर यह है कि टोपियाँ सीने के लिए सिर का नाप लिया जाय मगर यहाँ तो पुनर्वास की टोपी तैयार थी और उसके नाप के सिर खोजे जा रहे थे।

पुनर्वास के मुद्दे पर परमेश्वर कुँअर के प्रश्न के उत्तर में डॉ. श्री कृष्ण सिंह ने बिहार विधान सभा को बताया (7 अप्रैल 1958) कि यह कहना सही नहीं होगा कि तटबन्धों के बीच में पड़ने वाले सभी गाँवों को बाढ़ से बह जाने का खतरा होगा। कुछ गाँवों केा इस खतरे का सामना करना पड़ सकता है। यह भी संभव नहीं है कि तटबन्धों के बीच की सारी जमीन खेती के उपयुक्त नहीं रह जायेगी। यदि कुछ क्षेत्र खेती के लिए अनुपयुक्त हो जायेंगे तो इसकी भी संभावना है कि कुछ क्षेत्रों की उत्पादन शक्ति और बढ़ जा सकती है। उन्होंने यह भी कहा कि यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि तटबन्धों के बीच की सारी जनसंख्या को बाहर रहना पड़ेगा।

यह सही है कि उक्त क्षेत्र के लोगों के मन में यह आशंका हो गई है कि ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो जा सकती है।

चीन से लौटने के बाद डॉ. के. एल. राव और कंवर सेन ने जो रिपोर्ट दी थी उसकी भाषा भी ऐसी ही थी। यहाँ भी सरकार का सोच न्यायसंगत नहीं था। अगर किसी की जमीन पर ताजी मिट्टी पड़ गई या उसका किसी तरह से सुधार हो गया तो वह तो फायदे में रहा मगर जिसकी जमीन कट गई, उस पर बालू पड़ गया या वहाँ जल-जमाव हो गया तब ऐसा किसान और उसका परिवार तो औसत के सिद्धान्त की भेंट चढ़ जायेगा। कटाव, जल-जमाव और बालू का भरना स्थिर होकर एक जगह रहने वाली चीजें नहीं हैं। इनके स्थान और परिमाण, दोनों बदलते रहते हैं- कोसी का चरित्र ही ऐसा है।

काफी जिद्दो-जहद के बाद सरकार की तरफ से दीप नारायण सिंह ने बिहार विधान सभा में एक प्रस्ताव रखा (3 दिसम्बर 1958) और सरकार की तरफ से यह आश्वासन दिया कि,

(1) तटबन्धों के आसपास बाढ़ मुक्त जमीन में पुनर्वास किये जाने वाले गाँवों के समीप ही घर बनाने के लिए पर्याप्त भूमि उपलब्ध।
(2) सामूहिक सुविधाओं जैसे विद्यालय, सड़क आदि के लिए अतिरिक्त भूमि का प्रबन्ध।
(3) पुनर्वास किये गये स्थानों में तालाब, जलकूप, कुएं आदि द्वारा जलापूर्ति की व्यवस्था।
(4) गृह निर्माण के लिए अनुदान।
(5) तटबन्ध के बीच जहाँ कृषि कार्य होगा वहाँ आने-जाने के लिए यथेष्ट संख्या में नौकाओं का प्रबन्ध।

15 फरवरी 1960 के दिन जब विधान सभा में वार्षिक बजट पर बहस हो रही थी तब विधान सभा को बताया गया कि कोसी तटबन्धों के बीच फंसे 304 गाँवों में से 70 गाँवों को पुनर्वासित किया जा चुका था और बाकी गाँवों को बसाने की कोशिशें जारी हैं। बहस में रामानन्द तिवारी ने सरकार पर एक बड़ी तीखी टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि, “... अगर 304 गाँवों में से सिर्फ 70 गाँवों का दो वर्षों में पुनर्वास का काम हो सका है तो अगर इसी रफ्तार से काम चला तो 9 साल का समय उन लोगों को बसाने में लग जायेगा। क्या इसी काम के लिए मैं आपकी पीठ थपथपाऊँ?” रामानन्द तिवारी को क्या मालूम था कि यह काम 9 साल में भी नहीं होने वाला था।

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Post By: tridmin
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