अपनी गंगा मैली

यह बात किसी से भी छिपी हुई नहीं है कि नगरों-महानगरों की सारी गंदगी इन नदियों में लगातार छोड़ी जा रही है, नदियों के आसपास लगी हजारों फैक्ट्रियों से निकलने वाला केमिकल युक्त और जहरीला कचरा लाख मनाही के बाद भी बिना किसी रोक-टोक के इन नदियों में ही छोड़ा जाता है। करोड़ों रुपए खर्च कर लगाए गए जल शोधन संयंत्र रख-रखाव के अभाव में ठोस नतीजा नहीं दे पा रहे हैं। रही-सही कसर हमारी मान्यताओं और धार्मिक परंपराओं ने निकालकर रख दी है। अगले महीने से महाकुंभ शुरू होने जा रहा है। अनुमान है कि इस बार भारतीय आस्थाओं और जल संपदा की प्रतीक गंगा में 10 करोड़ श्रद्धालु डुबकी लगाएंगे। यह संख्या ज्यादा भी हो सकती है क्योंकि एक तो महाकुंभ 12 वर्ष बाद आता है, दूसरे इस बार यह इलाहाबाद में हो रहा है जहां गंगा और यमुना का संगम होता है लिहाजा तैयारियाँ जोरों पर हैं। इन्हीं तैयारियों के बीच एक अध्ययन ने इस सच्चाई को फिर से रेखांकित किया है कि गंगा-यमुना जैसी नदियों पर प्रदूषण की मार लगातार बढ़ रही है। अध्ययन के अनुसार उत्तर भारत की कोई भी नदी स्नान के योग्य नहीं रग गई है। उत्तर प्रदेश, बिहार और उत्तर बंगाल में 27 दिनों में 1800 किलोमीटर की यात्रा के बाद 11 पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने जब आंखों देखी सुनाई तो इससे भी इस बात पर मुहर लग जाती है कि यमुना सर्वाधिक प्रदूषित नदी है। अपने अनुभवों के आधार पर पर्यावरणप्रेमियों ने यह भी कहा है कि गांगेय क्षेत्र की नदियां जगह-जगह नालों में तब्दील हो गई हैं जो इनके किनारे बसने और इन पर जीवनयापन के लिए आश्रित लोगों की जान के लिए सीधे-सीधे खतरे का सबब बन गई हैं।

नदियों को प्रदूषण से मुक्ति दिलाने और जागरूकता पैदा करने की गरज से की गई इस यात्रा के सदस्य तीन राज्यों के 31 जिलों से गुज़रे। 300 बैठकें कीं और करीब 10 हजार लोगों से संवाद किया। इन यात्रियों ने इस दौरान पर्यावरण से जुड़े अन्य पहलुओं पर भी गांव-शहर के लोगों से बात की, बैठकें कीं और जल-जंगल और ज़मीन की बदहाली के कारण जानने की कोशिश की। नदियों की बर्बादी के कारण तो सब जाने पहचाने और समझे हुए हैं, पहले भी बार-बार गिनाए जाते रहे हैं, इसलिए जो बातें इन यात्रियों ने बताई हैं उनमें बहुत कुछ खुलासे वाली बात तो नहीं है, हां, इतना अवश्य है कि कुंभ से कुछ पहले इस अध्ययन की प्रासंगिकता और दरकार यही है कि धर्म के नाम पर कुछ भी करने वाले लोग नदियों की इस बदहाली पर कुछ तो विचार करें। जिन आस्थाओं और परंपराओं का निर्वहन करते हुए वे गंगा को मां का दर्जा देते हैं उसकी पीड़ा को समझें, उसके लिए ईमानदारी से कुछ करें और कम से कम धर्म के नाम पर उसकी दुर्गति की वजह तो न बनें।

यह बात किसी से भी छिपी हुई नहीं है कि नगरों-महानगरों की सारी गंदगी इन नदियों में लगातार छोड़ी जा रही है, नदियों के आसपास लगी हजारों फैक्ट्रियों से निकलने वाला केमिकल युक्त और जहरीला कचरा लाख मनाही के बाद भी बिना किसी रोक-टोक के इन नदियों में ही छोड़ा जाता है। करोड़ों रुपए खर्च कर लगाए गए जल शोधन संयंत्र रख-रखाव के अभाव में ठोस नतीजा नहीं दे पा रहे हैं। रही-सही कसर हमारी मान्यताओं और धार्मिक परंपराओं ने निकालकर रख दी है। हर साल दुर्गा पूजा पर लाखों की संख्या में मूर्तियों का विसर्जन किया जाता है। ये मूर्तियों प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनाई जाती हैं। केमिकल युक्त पेंट किसी जहर से कम तो होता नहीं लिहाजा वह भी नदी के पानी में घुल कर जन और जीव दोनों के लिए घातक साबित होता है। हालांकि आंशिक चेतना के चलते रसायनों के विकल्प भी इस्तेमाल किए जाने लगे हैं लेकिन आयोजनों की बढ़ती संख्या प्रदूषण कम करने की हलकी सी कोशिशों को भी बेकार साबित कर देती है।

अकेले पटना में ही दुर्गा पूजा के अवसर पर 5 हजार लीटर पेंट परोक्ष रूप से गंगा में बहा दिया जाता है। इसी तरह छठ या अन्य पर्वों पर भी पूजा सामग्री नदी में प्रवाहित कर दी जाती है जो सीधे-सीधे नदी की सांसें रोकने का काम करती है। पूजा के काम आए फूल-पत्तियों व अन्य सामग्री को नदी के ही हवाले करने के दृश्य कभी भी देखे जा सकते हैं। अस्थियों को नदी में बहाने की परंपरा तो है ही कुछ विशेष जगह पर उसे विसर्जित करने के पीछे मोक्ष मिलने (हिंदुओं में माना जात है कि वाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर अस्थियां विसर्जित करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है) की धारणा भी है। इसके अलावा नदियों के दम घुटने के और भी कई कारण हैं। विडंबना यह है कि नदियों में बढ़ते प्रदूषण और उनकी बर्बादी के तो ढेरों कारण हैं और हजारों करोड़ खर्च करने के बाद भी उन्हें बचाने का एक भी कदम कारगर साबित नहीं हो रहा। यमुना की सफाई के नाम पर 1200 करोड़ से ज्यादा खर्च किए गए किंतु इसकी एक बूंद भी साफ नहीं हुई।

उलटे यमुना और मैली होती चली गई। यही हाल गंगा का है। अब जबकि गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया जा चुका है, इसे फिर से नया जीवन देने और प्रदूषण की मार से बचाने को लेकर सत्ता और प्रशासन के स्तर पर कुछ सुगबुगाहट जरूर है। स्वयं प्रधानमंत्री भी गंगा की बदहाली पर चिंता व्यक्त कर चुके हैं। बहरहाल, अब यह बात साबित हो चुकी है कि मौखिक चिंतन करने और बगैर किसी ठोस और कारगर योजना के करोड़ों रुपए बहाने से नदियों का कायाकल्प नहीं होने वाला। यह काम हम और आपको, सबको साथ लेते हुए ही करना होगा। क्यों न इस कुंभ पर संकल्प लें कि अगले कुंभ तक जीवनदायिनी सभी नदियों को उनके मूल स्वरूप में लाने की कोशिश ईमानदारी से की जाए। तमाम श्रद्धालुओं के लिए इस कुंभ की सार्थकता भी यही होगी।
 

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