आदमी बुलबुला है पानी का और पानी की बहती सतह पर टूटता भी है, डूबता भी है, फिर उभरता है, फिर से बहता है, न समंदर निगल सका इसको, न तवारीख तोड़ पाई है, वक्त की मौज पर सदा बहता आदमी बुलबुला है पानी का।
गुलजार साहब का यह गीत जिंदगी के साज पर इंसान के हौसलों का राग है। पृथ्वी और हमारे शरीर में सबसे ज्यादा मात्रा में मौजूद यह तत्व पानी, कला माध्यमों में भी बहुतायत में मिलता है। बचपन से जब कल्पनाएँ परवान चढ़ने लगती हैं। अभिव्यक्ति के लिए मन बेचैन हो उठता है, तब से पानी हमारी अभिव्यक्ति का केन्द्र बनता है। एक बच्चा जब कूची थामता है तो कुछ अभ्यास के बाद नदी, पहाड़, फूल और पेड़ की आकृति उकेरता है। छुटपन के गिने-चुने खेलों में से एक है ‘मछली-मछली कितना पानी.’
स्थूल और सूक्ष्म दोनों ही रूपों में पानी सृजनधर्मियों का सहायक रहा है। चाहे वह शिल्प हो, संगीत हो, वास्तु या चित्रकला, नाट्य या वक्तृत्व कला। औजारों को धार देने का मामला हो या रोशनाई को घोलने का उपक्रम। बिना पानी सब सूना है, अधूरा है। पानी के जितने स्वाद और प्रकार हैं, जीवन के भी उतने ही रूप हैं और उतनी कला में अभिन्यक्ति भी। ठहरा हुआ पानी, गहरा, उथला पानी, गंदला पानी, साफ पानी, बदली में काला पानी, समंदर में नीला पानी, बाढ़ का उपद्रवी पानी, झीर का सूखता पानी....
नैनों से झलकता पानी, मेहनतकश के शरीर का खारा पानी, शर्म का पानी, चेहरे का पानी...
रंगों में घुलता पानी दूध में मिलता पानी, कड़ाही पर पकता पानी, रोटी में फूलता पानी...चातक की प्यास बुझाता पानी, सीप में मोती बनता पानी....
इन सभी में से एक पानी हमारा भी है। हमारा पानी एक समय में कई रंग दिखलाता है। अपनों के लिए मीठा होता है तो दूसरों के लिए खारा। प्यासे के लिए गंदला पानी भी मीठा हो जाता है और तृप्त कंठ के लिए मीठा पानी भी अर्थहीन। भेद भरे सृजन का पानी लोगों को बाँटता है, विभाजित करता है। वैमनस्यपूर्ण कला मनभेद रचती है और पानीदार कला मेल कराती है। ऐसी कला पानी की उन दो चार बूँदों की मानिंद होती है जो उफनते दूध को शांत कर देती है।
सवाल यह है कि आपका पानी कौन सा है?
गुलजार साहब का यह गीत जिंदगी के साज पर इंसान के हौसलों का राग है। पृथ्वी और हमारे शरीर में सबसे ज्यादा मात्रा में मौजूद यह तत्व पानी, कला माध्यमों में भी बहुतायत में मिलता है। बचपन से जब कल्पनाएँ परवान चढ़ने लगती हैं। अभिव्यक्ति के लिए मन बेचैन हो उठता है, तब से पानी हमारी अभिव्यक्ति का केन्द्र बनता है। एक बच्चा जब कूची थामता है तो कुछ अभ्यास के बाद नदी, पहाड़, फूल और पेड़ की आकृति उकेरता है। छुटपन के गिने-चुने खेलों में से एक है ‘मछली-मछली कितना पानी.’
स्थूल और सूक्ष्म दोनों ही रूपों में पानी सृजनधर्मियों का सहायक रहा है। चाहे वह शिल्प हो, संगीत हो, वास्तु या चित्रकला, नाट्य या वक्तृत्व कला। औजारों को धार देने का मामला हो या रोशनाई को घोलने का उपक्रम। बिना पानी सब सूना है, अधूरा है। पानी के जितने स्वाद और प्रकार हैं, जीवन के भी उतने ही रूप हैं और उतनी कला में अभिन्यक्ति भी। ठहरा हुआ पानी, गहरा, उथला पानी, गंदला पानी, साफ पानी, बदली में काला पानी, समंदर में नीला पानी, बाढ़ का उपद्रवी पानी, झीर का सूखता पानी....
नैनों से झलकता पानी, मेहनतकश के शरीर का खारा पानी, शर्म का पानी, चेहरे का पानी...
रंगों में घुलता पानी दूध में मिलता पानी, कड़ाही पर पकता पानी, रोटी में फूलता पानी...चातक की प्यास बुझाता पानी, सीप में मोती बनता पानी....
इन सभी में से एक पानी हमारा भी है। हमारा पानी एक समय में कई रंग दिखलाता है। अपनों के लिए मीठा होता है तो दूसरों के लिए खारा। प्यासे के लिए गंदला पानी भी मीठा हो जाता है और तृप्त कंठ के लिए मीठा पानी भी अर्थहीन। भेद भरे सृजन का पानी लोगों को बाँटता है, विभाजित करता है। वैमनस्यपूर्ण कला मनभेद रचती है और पानीदार कला मेल कराती है। ऐसी कला पानी की उन दो चार बूँदों की मानिंद होती है जो उफनते दूध को शांत कर देती है।
सवाल यह है कि आपका पानी कौन सा है?
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