प्रसाद की रचना कामायनी का प्रमुख पत्र मनु उस विनाश का साक्षी है, जहाँ देवताओं की घोर भौतिकतावादी प्रवृत्ति भोग, विलास और उनके द्वारा प्रकृति के अनियन्त्रित दोहन के परिणामस्वरूप पूरी सभ्यता का विनाश हो जाता है। सिवाय मनु के कोई भी नहीं बचता है। देव सभ्यता के प्रलय के बाद नए जीवन की उधेड़बुन में लगे मनु के जीवन में श्रद्धा और इड़ा नामक दो स्त्रियाँ आती हैं। श्रद्धा मनु को अहिंसक तथा प्रकृति प्रेमी बनाती है, जबकि इड़ा उसे घोर भौतिकतावाद में उलझा देती है और एतमाम लिप्साओं को ही मनु जीवन का उद्देश्य समझने लग जाता है। फिर एक दिन ऐसा आता है, जब उसे अपनी तमाम गलतियों का अहसास होता है और उसके बुरे समय में श्रद्धा उसकी रक्षा करती है। श्रद्धा जो कि अहिंसा, सात्विकता और प्रकृति प्रेम की परिचायक है।
पिछले कुछ दिनों से लगातार जारी भूचाल की घटनाओं से ऐसा लगने लगा है कि प्रकृति का चक्र खुद को दोहरा तो नहीं रहा है। कहीं अपने-आपको सबसे सभ्य कहने का दम्भ भरने वाले मनुष्य के पापों का घड़ा भर तो नहीं गया है। उन देवताओं की तरह जो अपनी नितान्त दोहनवादी प्रवृत्तियों की वजह से समूल नष्ट हो गए। ऐसा नहीं भी है तो कम से कम इसका संकेत जरूर है कि हम सुधर जाएँ।
हमने अपनी इच्छाओं के अनुसार प्रकृति को तोड़ा-मरोड़ा है, चारों तरफ मौजूद हरियाली को हमारे द्वारा बनाई गई विकास की ऊँची चिमनियों ने लगभग खत्म कर दिया है। प्रकृति और इंसान की लड़ाई में प्रकृति ही जीतेगी, यह ऐतिहासिक सत्य है और अभी जितनी भी भयावह घटनाएँ हम देख रहे हैं, वह प्रकृति की जीत भी नहीं बल्कि एक संकेत मात्र हैं आने वाली तमाम भयावह आपदाओं का। अगर सीधे शब्दों में कहें तो अभी यह ट्रेलर मात्र है, विनाश की पूरी फिल्म अभी बाकी है, जिसकी पटकथा हमने ही लिखी है...हिलती धरती ने दिल दहला कर रख दिया और हर धर्म में अपने अनुसार बताई गई विनाश की तमाम मिथकीय कथाएँ सच नजर आने लगीं कि ये दुनिया एक दिन नष्ट हो जाएगी। वो विनाश की तमाम गाथाएँ पता नहीं कितनी सच है और कितनी झूठ, ये बहस का एक अलग मुद्दा है लेकिन कई दिनों से काँप रही धरती और मनुष्य के मन में व्याप्त मृत्यु का भय, बिछी हुई लाशें, टूटते आलिशान बंगलों को देखकर पता नहीं क्यों ऐसा आभास होने लगा कि कहीं प्रकृति के असीमित दोहन के बाद सच में वह समय तो नहीं आ गया, जब ये दुनिया खत्म हो जाएगी। आखिर इन तमाम आपदाओं की दोषी अनियन्त्रित मानवीय इच्छाएँ ही तो हैं, जहाँ हम घर के ऊपर घर बनाते चले जाते हैं, हिमालय की छाती चीरकर सड़कें बना डालते हैं, आलिशान बंगलों के लिए नदियों का रुख मोड़ने तक की हिमाकत कर डालते हैं और फिर ऐसे ही किसी दिन सूनामी, भूकम्प और कोई खतरनाक तूफान आता है और सबकुछ नष्ट हो जाता है।
धरती के गर्भ में जो कुछ भी था, हम एक-एक करके सब कुछ छीनते गए हैं, चाहे वह तमाम खनिज संसाधन हों अथवा जल हो। और हमने इसके बदले में धरती को दिया क्या है तो सच्चाई यही है कि कुछ भी नहीं। हमने अपनी इच्छाओं के अनुसार प्रकृति को तोड़ा-मरोड़ा है, चारों तरफ मौजूद हरियाली को हमारे द्वारा बनाई गई विकास की ऊँची चिमनियों ने लगभग खत्म कर दिया है। आज इस धरती पर सबकुछ प्रदूषित और सबकुछ अशुद्ध है। प्रकृति और इंसान की लड़ाई में प्रकृति ही जीतेगी, यह ऐतिहासिक सत्य है और अभी जितनी भी भयावह घटनाएँ हम देख रहे हैं, वह प्रकृति की जीत भी नहीं बल्कि एक संकेत मात्र हैं आने वाली तमाम भयावह आपदाओं का। अगर सीधे शब्दों में कहें तो अभी यह ट्रेलर मात्र है, विनाश की पूरी फिल्म अभी बाकी है, जिसकी पटकथा हमने ही लिखी है।
नेपाल में फिलहाल जो भूकम्प आया है, उसके दरारों के आँकड़े नहीं मिले हैं, लेकिन सम्भावना यह है कि यह 100-200 किलोमीटर के दायरे में होगा। इससे पहले 15 जनवरी, 1934 में बिहार और नेपाल में एक बहुत बड़ा भूकम्प आया था, जिसमें 10,000 से अधिक लोग मारे गए थे। उसकी तुलना में हम कह सकते हैं कि अभी तो फिलहाल उतना तीव्र भूकम्प नहीं आया है। रियेक्टर स्केल पर इस भूकम्प की तीव्रता 7.9 थी, जो भीषण श्रेणी में नहीं आती है। भारत में उतना नुकसान तो नहीं हुआ है लेकिन नेपाल से सीख लेते हुए अब हमें अतिसतर्क हो जाने की जरूरत है।
जरा कल्पना करें कि जिस तीव्रता का भूकम्प काठमाण्डू में आया, उसे झेलने के लिए हमारी दिल्ली तैयार भी है। जिस हिसाब से दिल्ली में कंक्रीट का जंगल बिछ गया है, भला यहाँ आदमी भाग के भी जाएगा तो कहाँ जाएगा। अधिकतर भवन पर्यावरणीय मानकों के विपरीत ही बनाए गए हैं। कहा जाता है कि भारत में आपदा प्रबन्धन की बजाय, प्रबन्धन की आपदा है। जरूरत इस बात की भी है कि बेहतर आपदा प्रबन्धन के उपाय विकसित किए जाएँ। प्रयास तो इस बात के किए जाएँ कि ऐसी आपदाएँ आएँ ही न। फिर भी इन आपदाओं की स्थिति में लोगों को कैसे जल्द से जल्द राहत पहुँचाई जाए, इसके लिए पुलिस, सेना के साथ ही साथ एनसीसी, एनएसएस जैसे संगठनों को भी पूरी तरह से प्रशिक्षित किया जाए, जिससे कि उनकी मदद ऐसी आपदाओं के समय ली जा सके। साथ ही साथ जनता को जागरूक करना भी जरूरी है कि अगर भूकम्प जैसी आपदाएँ आती हैं तो इनसे बिना घबराए हुए, कैसे निबटा जाए। क्योंकि कई बार ऐसे घटनाओं की अफवाह से मची भगदड़ में सैकड़ों लोगों की जान चली जाती है।
हमें जापान से सीख लेने की जरूरत है, जहाँ आएदिन के भूकम्प से बचने के लिए भवन निर्माण का तरीका भूकम्परोधी बनाया गया, वहाँ की स्कूली शिक्षा में भूकम्प से बचाव के उपाय सिखाए गए और आज हम देखते हैं कि जापान ने काफी हद तक इसमें सफलता प्राप्त की है। हाल ही में नेपाल में आई भीषण आपदा से निबटने में हमारे प्रधानमन्त्री द्वारा बढ़ाया गया मदद का हाथ सराहनीय है और भारत के भी कुछ भागों में आई इस भयावह आपदा से निबटने में सरकार द्वारा तत्परता दिखाई गई। ऐसे ही प्रयासों को और अधिक तेजी के साथ अमल में लाने की जरूरत है।
समय आ गया है कि प्रकृति को दांव पर लगा कर किए जाने वाले विकास के मॉडल को तत्काल खत्म किया जाए और पर्यावरण को बचाने के वैश्विक प्रयास सामूहिक रूप से किए जाएँ। विकसित और विकासशील देशों के बीच जारी तमाम मतभेदों को भुलाकर पर्यावरण की समस्याओं से मिलकर निबटा जाए और एक बात यह भी कि पर्यावरण की दिन-प्रतिदिन गम्भीर होती समस्याओं का समाधान सिर्फ तमाम वैश्विक सम्मेलनों में न देखा जाए, क्योंकि अब तक अनुभव यही रहा है कि ये तमाम सम्मलेन एक-दूसरे पर दोषारोपण की कवायद मात्र बनकर रह जाते हैं और अगर इनके कुछ परिणाम भी निकलते हैं तो वह ये कि विकासशील देशों पर विकसित देशों द्वारा कुछ नए नियम-कानून थोप दिए जाते हैं और विकसित देश अपनी जिम्मेदारियों से बच निकलते हैं।
बहरहाल, यह भी सच है कि हम सारा दोष विकसित देशों पर थोप कर अपनी गलतियों को छुपा नहीं सकते हैं। इस सच को हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा कि पर्यावरण संरक्षण को लेकर हमसे बहुत ही गम्भीर भूलें हुई हैं, अगर तमाम विकषित देश दोषी हैं तो हम भी कोई दूध के धुले नहीं हैं। आखिर हमारे कितने घर ऐसे हैं, जिनके निर्माण में पर्यावरणीय मानकों का ध्यान रखा जाता है, भूकम्परोधी मानकों का कितना प्रयोग हम भवन निर्माण के समय करते हैं।
भारत में भूकम्परोधी निर्माण से सम्बन्धित पहली संहिता 1935 में आए भूकम्प के बाद बनी थी। ब्यूरो ऑफ इण्डियन स्टैण्डर्ड ने भूकम्परोधी डिजाइन की अपनी पहली संहिता 1962 में बनाई थी, पर अभी तक भारत ऐसा कोई कानून तैयार नहीं कर सका है, जिसमें इस संहिता को अनिवार्य तौर पर लागू करने का दिशा-निर्देश हो। वर्ष 1997 के भूकम्प संवेदी एटलस पर यकीन करें तो दिल्ली में रियेक्टर पैमाने पर आठ अंक की तीव्रता वाला भूकम्प आने से यहाँ के 85 फीसदी से ज्यादा मकान ढह सकते हैं।
एक रिपोर्ट इस बात की पुष्टि करती है कि ग्रीन रेटेड बिल्डिंग्स, ऊर्जा दक्षता ब्यूरो-बीईई द्वारा जारी सरकारी रेटिंग प्रणाली के न्यूनतम मानक स्तर को भी पूरा नहीं कर पा रही हैं। भारत ने 2007 में भवनों के लिए राष्ट्रीय रेटिंग प्रणाली के रूप में ग्रीन मूल्यांकन इण्टीग्रेटेड हैबिटेट एसेसमेण्ट को अपनाया। भारत ने भवनों के लिए ग्रीन रेटिंग की यह प्रणाली संयुक्त राज्य अमेरिका की एक निजी संस्था यूएसजीबीसी द्वारा भारत में ग्रीन रेटिंग के लिए शुरू की गई एक निजी पहल का परिणाम थी। भारत में कुल ग्रीन रेटेड भवन निर्मित क्षेत्र भारत के कुल भवन निर्मित क्षेत्रों का महज तीन प्रतिशत ही हैं। रिपोर्ट के अनुसार, इन इमारतों के निर्माण तथा उनके संचालन में 30-50 फीसदी ऊर्जा और 20-30 फीसदी पानी बचाने का पैमाना तो महज एक स्वप्न बनकर रह गया है और मूल्यांकन व्यस्था में तय किए गए विभिन्न सिल्वर, गोल्ड तथा डायमण्ड स्टार के पैमानों में ज्यादातर भवन न्यूनतम सिल्वर स्टार के लायक भी नहीं हैं।
हमारे ऐतिहासिक काल में हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के समय भवन निर्माण कला प्रकृति के बेहद करीब थी, परन्तु सभ्यता के विकास क्रम में आधुनिक विज्ञान और तकनीकी से लैस होकर भी हम उनसे हजारों साल पीछे हो गए हैं तथा छद्म भौतिकतावाद और पूँजीवाद द्वारा बिछाए जाल मे ऐसे फंसे हैं कि हालात यह हो गए हैं कि आगे कुआँ और पीछे खाई है। हम एक ऐसे बाजार में खड़े हो गए हैं, जहाँ हमने प्राकृतिक संसाधनों के साथ ही खुद को भी बेच डाला है। ये गगनचुम्बी इमारतें प्रलय की आँधी में चकनाचूर हो जाएँ, इससे पहले हमें सचेत हो जाने की आवश्यकता है।
समय की माँग है कि गाँव में मिट्टी के कच्चे मकानों को ढहा कर बनाई गई आग उगलने वाली ईंट की दीवारों और शहर में कंक्रीट के बड़े महलों की निर्माण प्रक्रिया को पर्यावरण मैत्री बनाया जाए और हम ऐसे हरित भवनों का निर्माण करें जो कि हमारे आन्तरिक और वाह्य दोनों तरह के स्वास्थ्य को सन्तुलित करें। हम अगर मकान न रहे तो जिन्दा रह सकते हैं, जैसा कि इतिहास भी रहा लेकिन अगर पर्यावरण को दांव पर लगाकर आशियाने बनाए तो इंसान के अस्तित्व की कल्पना भी अकल्पनीय लगती है।
लेखक का ई-मेल : prabhansukmc@gmail.com
पिछले कुछ दिनों से लगातार जारी भूचाल की घटनाओं से ऐसा लगने लगा है कि प्रकृति का चक्र खुद को दोहरा तो नहीं रहा है। कहीं अपने-आपको सबसे सभ्य कहने का दम्भ भरने वाले मनुष्य के पापों का घड़ा भर तो नहीं गया है। उन देवताओं की तरह जो अपनी नितान्त दोहनवादी प्रवृत्तियों की वजह से समूल नष्ट हो गए। ऐसा नहीं भी है तो कम से कम इसका संकेत जरूर है कि हम सुधर जाएँ।
हमने अपनी इच्छाओं के अनुसार प्रकृति को तोड़ा-मरोड़ा है, चारों तरफ मौजूद हरियाली को हमारे द्वारा बनाई गई विकास की ऊँची चिमनियों ने लगभग खत्म कर दिया है। प्रकृति और इंसान की लड़ाई में प्रकृति ही जीतेगी, यह ऐतिहासिक सत्य है और अभी जितनी भी भयावह घटनाएँ हम देख रहे हैं, वह प्रकृति की जीत भी नहीं बल्कि एक संकेत मात्र हैं आने वाली तमाम भयावह आपदाओं का। अगर सीधे शब्दों में कहें तो अभी यह ट्रेलर मात्र है, विनाश की पूरी फिल्म अभी बाकी है, जिसकी पटकथा हमने ही लिखी है...हिलती धरती ने दिल दहला कर रख दिया और हर धर्म में अपने अनुसार बताई गई विनाश की तमाम मिथकीय कथाएँ सच नजर आने लगीं कि ये दुनिया एक दिन नष्ट हो जाएगी। वो विनाश की तमाम गाथाएँ पता नहीं कितनी सच है और कितनी झूठ, ये बहस का एक अलग मुद्दा है लेकिन कई दिनों से काँप रही धरती और मनुष्य के मन में व्याप्त मृत्यु का भय, बिछी हुई लाशें, टूटते आलिशान बंगलों को देखकर पता नहीं क्यों ऐसा आभास होने लगा कि कहीं प्रकृति के असीमित दोहन के बाद सच में वह समय तो नहीं आ गया, जब ये दुनिया खत्म हो जाएगी। आखिर इन तमाम आपदाओं की दोषी अनियन्त्रित मानवीय इच्छाएँ ही तो हैं, जहाँ हम घर के ऊपर घर बनाते चले जाते हैं, हिमालय की छाती चीरकर सड़कें बना डालते हैं, आलिशान बंगलों के लिए नदियों का रुख मोड़ने तक की हिमाकत कर डालते हैं और फिर ऐसे ही किसी दिन सूनामी, भूकम्प और कोई खतरनाक तूफान आता है और सबकुछ नष्ट हो जाता है।
धरती के गर्भ में जो कुछ भी था, हम एक-एक करके सब कुछ छीनते गए हैं, चाहे वह तमाम खनिज संसाधन हों अथवा जल हो। और हमने इसके बदले में धरती को दिया क्या है तो सच्चाई यही है कि कुछ भी नहीं। हमने अपनी इच्छाओं के अनुसार प्रकृति को तोड़ा-मरोड़ा है, चारों तरफ मौजूद हरियाली को हमारे द्वारा बनाई गई विकास की ऊँची चिमनियों ने लगभग खत्म कर दिया है। आज इस धरती पर सबकुछ प्रदूषित और सबकुछ अशुद्ध है। प्रकृति और इंसान की लड़ाई में प्रकृति ही जीतेगी, यह ऐतिहासिक सत्य है और अभी जितनी भी भयावह घटनाएँ हम देख रहे हैं, वह प्रकृति की जीत भी नहीं बल्कि एक संकेत मात्र हैं आने वाली तमाम भयावह आपदाओं का। अगर सीधे शब्दों में कहें तो अभी यह ट्रेलर मात्र है, विनाश की पूरी फिल्म अभी बाकी है, जिसकी पटकथा हमने ही लिखी है।
नेपाल में फिलहाल जो भूकम्प आया है, उसके दरारों के आँकड़े नहीं मिले हैं, लेकिन सम्भावना यह है कि यह 100-200 किलोमीटर के दायरे में होगा। इससे पहले 15 जनवरी, 1934 में बिहार और नेपाल में एक बहुत बड़ा भूकम्प आया था, जिसमें 10,000 से अधिक लोग मारे गए थे। उसकी तुलना में हम कह सकते हैं कि अभी तो फिलहाल उतना तीव्र भूकम्प नहीं आया है। रियेक्टर स्केल पर इस भूकम्प की तीव्रता 7.9 थी, जो भीषण श्रेणी में नहीं आती है। भारत में उतना नुकसान तो नहीं हुआ है लेकिन नेपाल से सीख लेते हुए अब हमें अतिसतर्क हो जाने की जरूरत है।
जरा कल्पना करें कि जिस तीव्रता का भूकम्प काठमाण्डू में आया, उसे झेलने के लिए हमारी दिल्ली तैयार भी है। जिस हिसाब से दिल्ली में कंक्रीट का जंगल बिछ गया है, भला यहाँ आदमी भाग के भी जाएगा तो कहाँ जाएगा। अधिकतर भवन पर्यावरणीय मानकों के विपरीत ही बनाए गए हैं। कहा जाता है कि भारत में आपदा प्रबन्धन की बजाय, प्रबन्धन की आपदा है। जरूरत इस बात की भी है कि बेहतर आपदा प्रबन्धन के उपाय विकसित किए जाएँ। प्रयास तो इस बात के किए जाएँ कि ऐसी आपदाएँ आएँ ही न। फिर भी इन आपदाओं की स्थिति में लोगों को कैसे जल्द से जल्द राहत पहुँचाई जाए, इसके लिए पुलिस, सेना के साथ ही साथ एनसीसी, एनएसएस जैसे संगठनों को भी पूरी तरह से प्रशिक्षित किया जाए, जिससे कि उनकी मदद ऐसी आपदाओं के समय ली जा सके। साथ ही साथ जनता को जागरूक करना भी जरूरी है कि अगर भूकम्प जैसी आपदाएँ आती हैं तो इनसे बिना घबराए हुए, कैसे निबटा जाए। क्योंकि कई बार ऐसे घटनाओं की अफवाह से मची भगदड़ में सैकड़ों लोगों की जान चली जाती है।
हमें जापान से सीख लेने की जरूरत है, जहाँ आएदिन के भूकम्प से बचने के लिए भवन निर्माण का तरीका भूकम्परोधी बनाया गया, वहाँ की स्कूली शिक्षा में भूकम्प से बचाव के उपाय सिखाए गए और आज हम देखते हैं कि जापान ने काफी हद तक इसमें सफलता प्राप्त की है। हाल ही में नेपाल में आई भीषण आपदा से निबटने में हमारे प्रधानमन्त्री द्वारा बढ़ाया गया मदद का हाथ सराहनीय है और भारत के भी कुछ भागों में आई इस भयावह आपदा से निबटने में सरकार द्वारा तत्परता दिखाई गई। ऐसे ही प्रयासों को और अधिक तेजी के साथ अमल में लाने की जरूरत है।
समय आ गया है कि प्रकृति को दांव पर लगा कर किए जाने वाले विकास के मॉडल को तत्काल खत्म किया जाए और पर्यावरण को बचाने के वैश्विक प्रयास सामूहिक रूप से किए जाएँ। विकसित और विकासशील देशों के बीच जारी तमाम मतभेदों को भुलाकर पर्यावरण की समस्याओं से मिलकर निबटा जाए और एक बात यह भी कि पर्यावरण की दिन-प्रतिदिन गम्भीर होती समस्याओं का समाधान सिर्फ तमाम वैश्विक सम्मेलनों में न देखा जाए, क्योंकि अब तक अनुभव यही रहा है कि ये तमाम सम्मलेन एक-दूसरे पर दोषारोपण की कवायद मात्र बनकर रह जाते हैं और अगर इनके कुछ परिणाम भी निकलते हैं तो वह ये कि विकासशील देशों पर विकसित देशों द्वारा कुछ नए नियम-कानून थोप दिए जाते हैं और विकसित देश अपनी जिम्मेदारियों से बच निकलते हैं।
बहरहाल, यह भी सच है कि हम सारा दोष विकसित देशों पर थोप कर अपनी गलतियों को छुपा नहीं सकते हैं। इस सच को हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा कि पर्यावरण संरक्षण को लेकर हमसे बहुत ही गम्भीर भूलें हुई हैं, अगर तमाम विकषित देश दोषी हैं तो हम भी कोई दूध के धुले नहीं हैं। आखिर हमारे कितने घर ऐसे हैं, जिनके निर्माण में पर्यावरणीय मानकों का ध्यान रखा जाता है, भूकम्परोधी मानकों का कितना प्रयोग हम भवन निर्माण के समय करते हैं।
भारत में भूकम्परोधी निर्माण से सम्बन्धित पहली संहिता 1935 में आए भूकम्प के बाद बनी थी। ब्यूरो ऑफ इण्डियन स्टैण्डर्ड ने भूकम्परोधी डिजाइन की अपनी पहली संहिता 1962 में बनाई थी, पर अभी तक भारत ऐसा कोई कानून तैयार नहीं कर सका है, जिसमें इस संहिता को अनिवार्य तौर पर लागू करने का दिशा-निर्देश हो। वर्ष 1997 के भूकम्प संवेदी एटलस पर यकीन करें तो दिल्ली में रियेक्टर पैमाने पर आठ अंक की तीव्रता वाला भूकम्प आने से यहाँ के 85 फीसदी से ज्यादा मकान ढह सकते हैं।
एक रिपोर्ट इस बात की पुष्टि करती है कि ग्रीन रेटेड बिल्डिंग्स, ऊर्जा दक्षता ब्यूरो-बीईई द्वारा जारी सरकारी रेटिंग प्रणाली के न्यूनतम मानक स्तर को भी पूरा नहीं कर पा रही हैं। भारत ने 2007 में भवनों के लिए राष्ट्रीय रेटिंग प्रणाली के रूप में ग्रीन मूल्यांकन इण्टीग्रेटेड हैबिटेट एसेसमेण्ट को अपनाया। भारत ने भवनों के लिए ग्रीन रेटिंग की यह प्रणाली संयुक्त राज्य अमेरिका की एक निजी संस्था यूएसजीबीसी द्वारा भारत में ग्रीन रेटिंग के लिए शुरू की गई एक निजी पहल का परिणाम थी। भारत में कुल ग्रीन रेटेड भवन निर्मित क्षेत्र भारत के कुल भवन निर्मित क्षेत्रों का महज तीन प्रतिशत ही हैं। रिपोर्ट के अनुसार, इन इमारतों के निर्माण तथा उनके संचालन में 30-50 फीसदी ऊर्जा और 20-30 फीसदी पानी बचाने का पैमाना तो महज एक स्वप्न बनकर रह गया है और मूल्यांकन व्यस्था में तय किए गए विभिन्न सिल्वर, गोल्ड तथा डायमण्ड स्टार के पैमानों में ज्यादातर भवन न्यूनतम सिल्वर स्टार के लायक भी नहीं हैं।
हमारे ऐतिहासिक काल में हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के समय भवन निर्माण कला प्रकृति के बेहद करीब थी, परन्तु सभ्यता के विकास क्रम में आधुनिक विज्ञान और तकनीकी से लैस होकर भी हम उनसे हजारों साल पीछे हो गए हैं तथा छद्म भौतिकतावाद और पूँजीवाद द्वारा बिछाए जाल मे ऐसे फंसे हैं कि हालात यह हो गए हैं कि आगे कुआँ और पीछे खाई है। हम एक ऐसे बाजार में खड़े हो गए हैं, जहाँ हमने प्राकृतिक संसाधनों के साथ ही खुद को भी बेच डाला है। ये गगनचुम्बी इमारतें प्रलय की आँधी में चकनाचूर हो जाएँ, इससे पहले हमें सचेत हो जाने की आवश्यकता है।
समय की माँग है कि गाँव में मिट्टी के कच्चे मकानों को ढहा कर बनाई गई आग उगलने वाली ईंट की दीवारों और शहर में कंक्रीट के बड़े महलों की निर्माण प्रक्रिया को पर्यावरण मैत्री बनाया जाए और हम ऐसे हरित भवनों का निर्माण करें जो कि हमारे आन्तरिक और वाह्य दोनों तरह के स्वास्थ्य को सन्तुलित करें। हम अगर मकान न रहे तो जिन्दा रह सकते हैं, जैसा कि इतिहास भी रहा लेकिन अगर पर्यावरण को दांव पर लगाकर आशियाने बनाए तो इंसान के अस्तित्व की कल्पना भी अकल्पनीय लगती है।
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Post By: birendrakrgupta