आपदा प्रबंधन के मोर्चे पर

कुदरत को नियंत्रित नहीं किया जा सकता। अलबत्ता मुकम्मल तैयारी हो तो प्राकृतिक आपदा से होने वाली तबाही बहुत हद तक कम की जा सकती है। मौसम के तीव्र उतार-चढ़ाव और जलवायु बदलाव के दौर में आपदा प्रबंधन की अहमियत और बढ़ गई है। लेकिन उत्तराखंड की त्रासदी से एक बार फिर जाहिर हुआ है कि हमारे देश में आपदा प्रबंधन बहुत लचर है। इसकी खामियों की पड़ताल कर रहे हैं, प्रसून लतांत।

प्राकृतिक आपदाएं प्राचीन काल से आती रही हैं, जिन्हें हम प्रकृति का, ईश्वर का प्रकोप मान कर छाती पर पत्थर रख कर फिर नए सिरे से जीवन की शुरुआत करते रहे हैं। हमारे देश में न केवल बड़ी आपदाओं से बल्कि छोटी-मोटी दुर्घटनाओं और बीमारियों तक से मुकाबला करने और उससे निजात पाने के तौर-तरीके उपलब्ध थे पर नए तरह के तथाकथित आधुनिक ज्ञान-विज्ञान ने हमारी परंपराओं और सरोकारों को पिछड़ा बताकर हमें उन तौर-तरीकों से अलग-थलग कर दिया है।

उत्तराखंड में आसमान फटने, लगातार मूसलाधार बारिश होने और पहाड़ के टूट कर बिखरने से हुई तबाही में जानमाल की जो हानि हुई है, उससे एक बार फिर आपदा प्रबंधन पर सवालिया निशान लगा है। अभी तक आपदा प्रबंधन के नाम पर किसी एजेंसी की इस मामले में कोई भूमिका देखने सुनने को नहीं मिल रही है। उलटे उसका खोखलापन ही सामने आ रहा है। राजनीतिक दल एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने तक सीमित हैं। यह भी तय नहीं हो पा रहा है कि केदारनाथ घाटी में आई आपदा राष्ट्रीय है या स्थानीय। विपक्ष इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित करने की मांग कर रहा है तो केंद्र इस मामले में चुप्पी साधे हैं। पर्यावरणविद और भू-वैज्ञानिक जहां इसे प्रकृति के साथ खिलवाड़ और अंधाधुंध विकास का दुष्परिणाम बता रहे हैं वहीं कुछ अंधविश्वासी लोग ईश्वर या दैवीय प्रकोप बताकर लोगों को भ्रम में डाल रहे हैं। सवाल यह भी किया जा रहा है कि विभिन्न राज्यों के फंसे लोगों को बचाने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं पर स्थानीय लोगों के हित में कुछ करने की कोई कार्ययोजना क्यों नहीं अमल में लाई जा रही है।

कहा यह भी जा रहा है कि अगर इस हादसे में विभिन्न राज्यों के लोग पीड़ित नहीं हुए होते तो इसकी आज इतनी चर्चा भी नहीं होती। अब तक इसे किसी एक राज्य का मामला बताकर स्थिति की गंभीरता को कमतर आंकने की कोशिश कर ली गई होती। तीन साल पहले भी उत्तराखंड में आई आपदा के कारण तबाह हुए पांच सौ से अधिक गांवों का अब तक पुनर्वास नहीं हुआ है। तबके मुख्यमंत्री ने तो तबाही से टूट गए पीड़ितों को भजन-संकीर्तन करने की सलाह दे दी थी। इस बार की आपदा में सबसे अधिक कीमत पहाड़ के लोगों को चुकानी पड़ी है। उनका न केवल आर्थिक नुकसान हुआ है बल्कि वे इस बार पिछले अनुभवों के मद्देनजर फिर से खड़े होने की उम्मीद भी खो चुके हैं।

केदारनाथ घाटी में सब कुछ इतना आकस्मिक हुआ कि लोगों को संभलने का मौका तक नहीं मिला। रुद्रप्रयाग, चमोली, उत्तरकाशी में संपर्क मार्ग पूरी तरह ध्वस्त हो गए और कई घंटों तक संचार सेवाएं बाधित रहीं। जून जैसे महीने में गर्मी से त्रस्त लोग जब बारिश के आने का इंतजार कर रहे थे तब उत्तराखंड में ऐसी बारिश आई, जैसे पिछले सौ सालों में कभी नहीं आई। बारिश के कारण उत्तराखंड की नदियों में आई बाढ़ में केदारनाथ के आसपास के मकान, होटल, धर्मशाला और दुकानें बह गईं और बह गए देश भर से पहुंचे हजारों यात्री। जल प्रलय के कारण जानमाल के भारी नुकसान का नजारा जब धीरे-धीरे सामने आया तो लोग जहां राहत पहुंचाने के लिए आगे आने लगे, वहीं आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के खोखलेपन की बात भी उठने लगी। लगता है कि जिस तरह की विनाशलीला हुई है उसका अंदाज भी आपदा प्रबंधन प्राधिकरण को नहीं रहा होगा।

प्राकृतिक आपदाएं प्राचीन काल से आती रही हैं, जिन्हें हम प्रकृति का, ईश्वर का प्रकोप मान कर छाती पर पत्थर रख कर फिर नए सिरे से जीवन की शुरुआत करते रहे हैं। हमारे देश में न केवल बड़ी आपदाओं से बल्कि छोटी-मोटी दुर्घटनाओं और बीमारियों तक से मुकाबला करने और उससे निजात पाने के तौर-तरीके उपलब्ध थे पर नए तरह के तथाकथित आधुनिक ज्ञान-विज्ञान ने हमारी परंपराओं और सरोकारों को पिछड़ा बताकर हमें उन तौर-तरीकों से अलग-थलग कर दिया है। नहीं तो इसके पहले अलग से कोई आपदा प्रबंधन की कोई जरूरत ही नहीं पड़ती थी। कहीं कभी कोई बड़ी दुर्घटना होती भी थी तो लोग खुद ही राहत और बचाव के लिए आगे आ जाते थे। अव्वल तो पहले लोगों को किसी आपदा के घटित होने के अंदेशों का अंदाजा भी लग जाता था। अब तो नए आधुनिक विकास के तामझाम में पारंपरिक ज्ञान और सरोकारों से किसी को कोई मतलब ही नहीं रह गया है। लोग कह भी रहे हैं कि मौजूदा आपदा में पुराने जमाने में बना केदारनाथ मंदिर बचा रह गया और आधुनिक इंजीनियरों की बनाई सड़कें और इमारतें बाढ़ में बह गईं। अब आपदा केवल राजनेताओं, अफसरों और ठेकेदारों के लिए संपदा जुटाने का अवसर बन जाती है। आपदा प्रबंधन के नाम पर चारों ओर से सहयोग मिलता है तो उसे जरूरतमंदों तक पहुंचाने के नाम पर लूटखसोट शुरू हो जाती है।

केदारनाथ घाटी की त्रासदी ने पूरे राष्ट्र को हिला कर रख दिया है। इसमें देश के ज्यादातर राज्यों के लोगों का नुकसान हुआ है। इस बार जिस केदारनाथ घाटी में यह जल प्रलय जैसी आपदा हुई है वहां देश-दुनिया से सैर-सपाटे के मकसद से आज भले भारी संख्या में लोग जाने लगे हों, पर वहां तीर्थ की भावना से पहुंचने वालों का सिलसिला सदियों से चला आ रहा है। तीर्थ की भावना से केदारनाथ जाने वाले लोग यह मान कर चलते रहे हैं कि यह घाटी दुर्गम और बेहद कठिनाईपूर्ण है और वहां पहुंचते-पहुंचते मौत भी हो सकती है।

ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि सरकारें किसी आपदा को समय रहते टालने या उसकी भयावहता का समय रहते आकलन करने में अक्षम रही हों। आपदा प्रबंधन करना हमारे लिए आज भी बहुत कठिन है। इससे निपटने के लिए फाइलों और कागजी योजनाओं की कमी बिल्कुल नहीं रही है पर जमीन पर कुछ करने के मामले में उत्तराखंड फिसड्डी साबित हुआ है। उत्तराखंड के राज्यपाल ने आपदा से निपटने में सरकारी तैयारीयों को नाकाफी बताते हुए कहा कि वे साल भर से सरकार को चेता रहे थे पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। लोगों में व्याप्त इस तीर्थ भावना का दोहन करने के मकसद से केदारनाथ घाटी में मंदिर के पास वहां की भौगोलिक संवेदनशीलता से बेपरवाह होकर होटलों और दुकानों की ऊंची-ऊंची इमारतों का बेहिसाब निर्माण के साथ लोगों को वहां पहुंचाने और फिर उन्हें वापस लाने की परिवहन व्यवस्था का पूरा इंतजाम किया जाने लगा। सुगम यात्रा के लिए सड़के बनाई गईं और ठहरने के लिए जगह-जगह होटलों का निर्माण तो किया गया पर ऐसी जगह पर कभी कोई आपदा आ जाए तो हमें क्या करना चाहिए और सरकार को क्या करना चाहिए, इसके बारे में कभी गंभीरता से कुछ उपाय करना तो दूर सोचना भी जरूरी नहीं समझा गया। यात्रा पर आने वाले लोग भी इस मामले में गंभीर नहीं रहते। वे दुर्गम घाटी में पैसे के बलबूते पर पहुंच जाना ही अपने जीवन की उपलब्धि मानते हैं।

अमरनाथ और केदारनाथ जैसी यात्राएं बेहद दुर्गम और कठिन हैं। इनमें तीर्थयात्रियों की संख्या नियंत्रित करनी चाहिए, लेकिन सच्चाई यह है कि उनकी संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है। पहले तो यात्रियों में ज्यादातर बुजुर्ग ही होते थे अब उनमें बच्चे और महिलाएं भी भारी संख्या में शामिल होने लगी हैं। यात्रियों में वैसे लोग भी होते हैं जो बीमार और कमजोर होते हैं। तीर्थयात्रियों की बढ़ती संख्या से स्थानीय व्यवस्था पर भी दबाव बढ़ता है लेकिन स्थानीय प्रशासन इस मामले में आमतौर पर लापरवाह ही रहता है। इन मंदिरों में भक्तों की ओर से चढ़ावे भी खूब आते हैं पर चढ़ावे में आए पैसे से मंदिर प्रबंधन स्वयंसेवकों की भी भर्ती नहीं करता जो आपदा के समय में यात्रियों के काम आए।

सवाल उठ रहा है कि जब पूरा उत्तराखंड राज्य ही आपदाओं के प्रति संवेदनशील माना जाता है तो फिर कोई जरूरी तैयारी समय रहते क्यों नहीं की गई। उत्तराखंड को अलग राज्य बने बारह साल से ज्यादा वक्त हो चुका है लेकिन आपदाओं से निपटने के लिए कोई कारगर इंतजाम नहीं है। केंद्र और राज्य एक दूसरे पर आरोप लगाने में व्यवस्त हैं। राज्य की जरूरतों के हिसाब से केंद्र अपनी जिम्मेदारी निभाए तो आपदाओं से निपटने के लिए बेहतर प्रबंधन हो सकता था। सीएजी और नागरिक संगठनों की ओर से दी जाने वाली चेतावनी पर सरकार नहीं चेती। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि सरकारें किसी आपदा को समय रहते टालने या उसकी भयावहता का समय रहते आकलन करने में अक्षम रही हों। आपदा प्रबंधन करना हमारे लिए आज भी बहुत कठिन है। इससे निपटने के लिए फाइलों और कागजी योजनाओं की कमी बिल्कुल नहीं रही है पर जमीन पर कुछ करने के मामले में उत्तराखंड फिसड्डी साबित हुआ है। उत्तराखंड के राज्यपाल ने आपदा से निपटने में सरकारी तैयारीयों को नाकाफी बताते हुए कहा कि वे साल भर से सरकार को चेता रहे थे पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। उन्होंने आपदा प्रबंधन की तैयारियों के लिए जिम्मेदार अधिकारियों के कार्यों की जांच कराने और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करने को कहा है।

राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की ओर से प्रधानमंत्री यह कहने में पीछे नहीं हैं कि हम सुरक्षित आपदा का सामना करने में सक्षम भारत का निर्माण करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। प्रधानमंत्री के इस दावे के मुताबिक समग्र, सक्रिय और विभिन्न आपदाओं को समाहित करने वाली प्रौद्योगिकी आधारित रणनीति बनाई है, जो सरकारी एजेंसियों और गैरसरकारी संगठनों के सामूहिक प्रयासों के जरिए आपदा प्रबंधन की जिम्मेदारी संभालेगी, लेकिन उत्तराखंड की मौजूदा विनाशलीला ने प्रधानमंत्री के दावे की पोल खोल दी है। कहने को प्रधानमंत्री के नेतृत्व में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण का गठन किया गया है लेकिन सीएजी के रिपोर्ट के मुताबिक प्राधिकरण में शुरू से ही किसी तरह की कार्ययोजना देखने को नहीं मिली। सरकार तब जागती है जब कोई आपदा आ जाती है। न तो इससे पहले और न उसके बाद आपदा प्रबंधन की बात सरकार की प्राथमिकता में रहती है, जबकि पारिस्थितिकी के मामले में संवेदनशील हिमालयी राज्यों में इसे सबसे ज्यादा प्राथमिकता दी जानी चाहिए। उत्तराखंड में हाल के दिनों में तीन बड़ी आपदाओं के बावजूद कोई कारगर कदम उठाने के बारे में नहीं सोचा गया। हादसे के बाद निरीह और असहाय लोगों को भगवान के भरोसे छोड़ कर सरकारें अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेती हैं। दो माह पहले सीएजी ने चिंता जताई थी कि उत्तराखंड में आपदा से निपटने के लिए किसी तरह का कोई कारगर इंतजाम नहीं किया गया है। तीन साल पहले ही राज्य में जलविद्युत परियोजनाओं के खिलाफ चेताया गया था।

लेकिन सरकार ने इसकी अनदेखी की, जिसका बुरा नतीजा अब सामने हैं। सीएजी की अप्रैल में जारी रिपोर्ट में कहा गया कि प्राधिकरण के गठन के बाद से अब तक एक भी बैठक नहीं हुई और किसी भी कार्यकलाप के लिए कोई नियम, अधिनियम, नीतियां या दिशानर्देश कुछ भी स्पष्ट नहीं किए गए। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि उत्तराखंड में अपर्याप्त संचार प्रणाली के कारण ऐसी स्थितियों में संपूर्ण चेतावनी जारी किए जाने की कोई तैयारी नहीं है। प्राधिकरण में कर्मियों की संख्या भी पर्याप्त नहीं है। जिला स्तर पर जिला आपात आपरेशन सेल्स में करीब 44 फीसद पद खाली हैं।

सरकार की लापरवाही और उसके आपदा प्रबंधन के उपायों के खोखलेपन को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने राहत में तेजी लाने का निर्देश दिया है तो दूसरी ओर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने बाढ़ और भूस्खलन के कारण मानव जीवन और संपत्ति को हुए भारी नुकसान पर चिंता जताई है। आयोग ने सुरक्षा बलों और अन्य एजेंसियों के प्रयासों की सराहना की जो कि हजारों पीड़ित लोगों की मदद के लिए कठिन परिस्थितियों में भी सराहनीय कार्य कर रही हैं। उत्तराखंड में बाढ़ भूस्खलन की मौजूदा घटना में राहत और बचाव कार्य शुरू करने में काफी देरी की गई। राज्य सरकार के पास केवल दो हेलीकॉप्टर हैं और बचाव अभियान के लिए एक भी समर्पित बटालियन नहीं है। हादसे के बाद फंसे लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने में भी भारी दिक्कत हुई क्योंकि राज्य के पहाड़ी जिलों में डाक्टरों के अनुमोदित पदों के पचास फीसद पद अभी भी खाली हैं।

राज्य सरकार के आंकड़ों के मुताबिक पहाड़ी इलाकों में एक दशक में सरकारी अस्पतालों में केवल 573 डाक्टरों की नियुक्ति हो सकी है। राज्य सरकार ने केंद्र के पास इस मामले में खास पैकेज की मांग की पर केंद्र ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। मौजूदा घटनाक्रम के दौरान सवाल उठ रहे हैं कि तीन साल पहले उत्तराखंड में आई भयावह बाढ़ के बाद वहा मूलभूत ढांचे का विकास किए जाने में कोताही क्यों की गई, जबकि 2010 की बाढ़ में पांच सौ से ज्यादा गांव तबाह हो गए थे और दो सौ लोगों की मौत हुई थी।

अब जबकि भयावह आपदा आई है तो राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के उपाध्यक्ष शशिधर रेड्डी की नींद खुली है और वे भविष्य में ऐसी आपदाओं से निपटने के लिए एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने के लिए सक्रिय हुए हैं।

राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के वरिष्ठ विशेषज्ञ के जनरल आरके कौशल का कहना है कि जब भी कभी किसी राज्य में आपदा होती है तो दिल्ली की तरफ देखा जाने लगता है, जबकि आपदा प्रबंधन के लिए स्थानीय प्रशासन को ही पहले तैयार रहना होगा। आईआईटी गांधीनगर के निदेशक सुधीर जैन कहते हैं कि पहाड़ों पर आपदाएं चट्टानें खिसकने से आ रही हैं। इस तरह की घटनाओं का होना स्वाभाविक हैं, क्योंकि बदलाव और विकास प्रकृति के विपरीत किए जा रहे हैं। पहाड़ों को काटने के लिए जिन बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए उसकी अनदेखी की जा रही है। कुमाऊं विश्वविद्यालय के भूगर्भ वैज्ञानिक आरके पांडेय का कहना है कि उत्तराखंड सरकार के पास आपदाओं से निपटने के लिए कोई नीति नहीं है।

प्राकृतिक आपदाओं पर रोक लगाना आसान काम नहीं है। इसके लिए ठोस इच्छाशक्ति और दूरदर्शिता की जरूरत है। सर्व सेवा संघ की अध्यक्ष राधा भट्ट सहित प्रदेश के वैज्ञानिक और समाजकर्मी तो बहुत पहले से सरकार को चेता रहे हैं कि हिमालय क्षेत्र के विकास के लिए अलग से कोई नीति बननी चाहिए। इन सभी की ओर से इस नीति का प्रारूप भी सरकार को दिया गया है। पर सरकार ने इसे ठंडे बस्ते में डाल कर विद्युत परियोजनाओं के लिए कंपनियों को पूरे उत्तराखंड को रौंदते रहने की छूट दे दी।

सरकार की लापरवाही और उसके आपदा प्रबंधन के उपायों के खोखलेपन को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने राहत में तेजी लाने का निर्देश दिया है तो दूसरी ओर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने बाढ़ और भूस्खलन के कारण मानव जीवन और संपत्ति को हुए भारी नुकसान पर चिंता जताई है। आयोग ने सुरक्षा बलों और अन्य एजेंसियों के प्रयासों की सराहना की जो कि हजारों पीड़ित लोगों की मदद के लिए कठिन परिस्थितियों में भी सराहनीय कार्य कर रही हैं।

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