आपदा प्रबंधन एक चुनौती

भूस्खलन
भूस्खलन

 

प्राकृतिक आपदा जैसे बाढ़, सूखा, चक्रवात और भूकम्प आदि से व्यापक क्षति होती रही है। इस क्षति को कम करने के लिये हमें आपदा के प्रबन्धन को बहुआयामी बनाना होगा, जिसमें प्रशासन, स्थानीय जानकारी रखने वाले लोगों, इंजीनियरिंग के अतिरिक्त आम जनता आदि को शामिल करना होगा।

अपने देश में अभी भी प्राकृतिक आपदा की अग्रिम जानकारी के लिये बेहतर तकनीक विकसित नहीं हो पाई है। अतः यहाँ प्राकृतिक आपदा से बचने के लिये नहीं बल्कि आपदा के बाद की स्थिति से निपटने पर ज्यादा बल दिया जाता है। चाहे मौसम सम्बन्धी या भूकम्प जैसी कोई अन्य प्राकृतिक आपदा सूचना हो हम हर मामले में लगभग फिस्सडी हैं।

अब तक हमारे यहाँ मौसम विभाग द्वारा मौसम सम्बन्धी दी गई पूर्व सूचनाएँ अमूमन गलत साबित होती आई हैं। इस तरह सटीक पूर्व सूचना के अभाव में प्राकृतिक आपदाओं से लोगों को बचाना लगभग नामुमकिन हो जाता है।

प्राकृतिक आपदाओं के कई झंझावात झेल चुके उत्तराखण्ड में भी यहाँ की सरकार ने इस ओर कोई खास ध्यान नहीं दिया है। तभी तो 2013 के केदारनाथ आपदा के बाद भी सरकार राज्य में आपदा प्रबन्धन की दिशा में कोई खास प्रगति नहीं कर पाई है।

केदारनाथ आपदा ने लोगों को जो जख्म दिये हैं वे आज भी हरे हैं। कुल मिलाकर यह कहने में कोई गुरेज नहीं हैं कि हमें आपदा से पूर्व की तैयारी के दिशा में कदम आगे बढ़ाना होगा यानि वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना ही होगा।

  ज्ञातव्य है कि प्राकृतिक आपदा जैसे बाढ़, सूखा, चक्रवात और भूकम्प आदि से व्यापक क्षति होती रही है। इस क्षति को कम करने के लिये हमें आपदा के प्रबन्धन को बहुआयामी बनाना होगा, जिसमें प्रशासन, स्थानीय जानकारी रखने वाले लोगों, इंजीनियरिंग के अतिरिक्त आम जनता आदि को शामिल करना होगा।

जैसे-जैसे लोगों में प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की आदतें बढ़ने लगीं हम प्राकृतिक आपदाओं से जूझने को भी विवश होते जा रहे हैं।

  प्राकृतिक आपदाओं के प्रति दुनिया भर में जागरुकता बढ़ रही है लेकिन कोई खास असर भारत में देखने को नहीं मिल रहा है। लोग अभी भी प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाली मानव निर्मित वस्तुओं के प्रयोग से तौबा नहीं कर रहे हैं।

परिणाम सामने है जीवन के लिये आवश्यक मूलभूत चीजें जैसे हवा, पानी खाद्य सामग्री की कमी आदि से हमें रोज दो-चार होना पड़ रहा है। अब तक  पर्यावरण संरक्षण को लेकर मौखिक रूप से चिन्ता का प्रदर्शन एवं बयानबाजी ही सर्वाधिक होती रही है। मौजूदा समय में पर्यावरण असन्तुलन चिन्ता का विषय हो गया है।

  जल, थल और वायु में चलने वाली मशीनें प्रकृति की विरोधी हैं पर वैज्ञानिकों की माने तो इनके इस्तेमाल को सन्तुलित किया जा सकता है।  प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का सन्तुलित रूप में इस्तेमाल इसमें सहायक साबित हो सकता है। मानवजनित कारणों से भी पर्यावरण का असन्तुलन बढ़ रहा है।

जनसंख्या वृद्धि भी इस असन्तुलन की एक बड़ी वजह है। लोगों की संख्या में वृद्धि से प्रकृति पर दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है और प्राकृतिक संसाधन सिकुड़ते जा रहे हैं। पेड़ों का कटना, खनिज पदार्थों के लिये खानों का दुरुपयोग एवं वायुमंडलीय प्रदूषण पर्यावरण के लिये गम्भीर खतरा है।

प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि करने में इन सभी कारकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इधर पानी की बढ़ती जरूरत लगातार भूजल के स्तर को कम कर ही रही है। औद्योगिक कचरा को नदियों में बहाया जा रहा है जो अन्ततः जल को प्रदूषित कर रहा है।

कारखानों और मोटर वाहनों से लगातार निकलता गन्दा धुआँ एवं ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का कारण है। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट में यह कह चुके हैं कि राज्य आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण ने अपने गठन के बाद से 2013 तक कोई बैठक तक नहीं की थी।

अब तक प्राकृतिक आपदा की स्थिति में किसी भी उपचारात्मक उपायों को लागू करने के लिये सुझावों एवं उपायों के लिये कोई बैठक तक नहीं करवाई। रिपोर्ट में राज्य आपदा राहत निधि के उपयोग में व्यापक अनियमितताओं की ओर संकेत किया गया है।

आपदा में बर्बाद घरआपदा के प्रभाव को कम करने के लिये अग्रिम चेतावनी प्रणाली विकसित किये जाने की आवश्यकता है। प्राकृतिक आपदा की स्थिति में प्रभावित लोगों की सुरक्षित निकासी के लिये भी बड़े पैमाने पर प्रशिक्षण दिये जाने की आवश्यकता है। इसके साथ ही भूकम्परोधी भवनों के निर्माण के प्रति लोगों में जागरुकता फैलाने की भी आवश्यकता है।

प्राकृतिक आपदा की अवस्था से निपटने के लिये सरकार को राहत कोष में पर्याप्त राशि रखनी चाहिए ताकि राहत कार्य को चलाने में किसी प्रकार की कोई परेशानी न हो। इसके अलावा बाढ़, भूकम्प, भूस्खलन या किसी अन्य प्राकृतिक आपदा की स्थिति से निपटने के लिये बीमा योजना तैयार किया जाना चाहिए ताकि प्रभावित लोगों को आर्थिक सहायता प्रदान की जा सके।

प्रकृति के अनियोजित दोहन के कारण भौगोलिक और पर्यावरणीय असन्तुलन बढ़ रहा है। संयुक्त राष्ट्र अन्तरराष्ट्रीय आपदा शमन नीति (यूएनआईएसडीआर) के अनुसार प्राकृतिक आपदाएँ मुख्य रूप से भू-जलवायु परिस्थितियों और उनके अन्तर्निहित ढाँचे में परिवर्तन की वजह से एक नियमित अन्तराल पर आती रहती हैं।

आपदाओं से निपटने के लिये हमारे पास आपदा प्रबन्धन अधिनियम है। इसी के तहत प्रधानमंत्री के नेतृत्व में राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण तथा मुख्यमंत्रियों के नेतृत्व में राज्य आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण एवं जिला न्यायाधीशों की अध्यक्षता में जिला आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण के स्थापना का प्रावधान है। इसमें सम्बन्धित मंत्रालयों और विभागों द्वारा राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन योजना तैयार करने का भी प्रावधान है।

आपातकालीन कार्रवाई के लिये राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल बनाने और प्रशिक्षण क्षमता बढ़ाने के लिये राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन संस्थान बनाने का भी प्रस्ताव है। इसी अधिनियम में राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया कोष और राष्ट्रीय आपदा शमन निधि तथा राज्य और जिला स्तरों पर भी समान कोषों के गठन का प्रावधान है।

सरकार ने इन सभी उपायों के बावजूद भी प्रभावी आपदा प्रबन्धन विकसित नहीं की है। इस हेतु जागरुकता पहली शर्त है। आपदा क्षेत्रों में लोगों को बचाव के लिये जरूरी बुनियादी जानकारी देकर जहाँ तक सम्भव हो सके आपदाओं की वजह से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है।

समुचित संचार-व्यवस्था, ईमानदार और प्रभावी नेतृत्व, नियोजन एवं समन्वय, आदि आपदा प्रबन्धन के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिये सतत विकास को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

 

 

 

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