आपदा प्रबन्धन के लिए बढ़ती ललक

सदियों से उन कठिन परिस्थितियों में रह कर जीने वालों और उनके पारम्परिक ज्ञान का यह सीधा-सीधा अपमान है। यह आश्चर्यजनक ही है कि आज तक सरकार ने या किसी दाता संस्था ने विभिन्न क्षेत्रों में उपलब्ध पारम्परिक ज्ञान को एकत्रित करके उसे लिपिबद्ध करने और उसके प्रचार-प्रसार की कोशिश की हो। राहत कार्यों और आपदा प्रबन्धन में आकण्ठ डूबी किसी गैर-सरकारी संस्था से तो अब यह उम्मीद करना ही व्यर्थ है कि वह अपनी दाता संस्थाओं को ऐसा करने के लिए कहेगी क्योंकि दाता संस्थाओं ने तो पहले से ही अपने आप को हर विषय का सर्वज्ञ घोषित कर रखा है।

विपत्ति की अगर बात करें तो बाढ़ों को आपदा के तौर पर प्रस्तुत करना और आपदा प्रबन्धन के अजेण्डा को आगे बढ़ाने की आज एक तरह से होड़ सी लगी हुई है। यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि उत्तर बिहार में बाढ़ कभी आपदा नहीं थी, यह एक जीवन शैली है। यहाँ के इंजीनियरों और राजनीतिज्ञों ने बाढ़ को आपदा का स्वरूप दिया है जिसका यहाँ की अधिकांश गैर-सरकारी संस्थाएँ और सरकार प्रबन्धन करना चाहती हैं। उन्होंने बड़ी चालाकी से बाढ़ की बहस को आपदा बता कर उसके प्रबंधन की ओर मोड़ दिया है। यह ठीक उसी तरह है कि आपके पास न्यूमोनियाँ की दवा है और आपके पास ज़ुकाम के इलाज के लिए कोई आये तो उसे दवा तो तभी दी जा सकती है जब उसे न्यूमोनियाँ हो जाये। इसलिए सारी कोशिशें जुकाम को न्यूमोनियाँ में बदल देने के लिए की गई हैं और बिहार में तो कम से कम यही हुआ है। जब तक हम उन कारणों पर चोट नहीं करेंगे जिन्होंने समाज द्वारा चिर-प्रतीक्षित बाढ़ को प्रलय में बदल दिया तब तक समाधान की दिशा में एक कदम भी नहीं बढ़ाया जा सकता।

इसका सीधा मतलब है कि नदियों के किनारे तटबन्ध या उस तरह की कोई संरचना, जो कि पानी के प्रवाह के रास्ते की रुकावट बनती है, अव्वल तो बननी ही नहीं चाहिये और अगर यह बन गई है तो इसे अचानक टूटने से बचाया जाना चाहिये। अगर यह संरचना टूट जाती है तब इसे पुर्नस्थापित करने या खुला छोड़ देने का निर्णय स्थानीय जनता पर छोड़ देना चाहिये। जल-निकासी की एक कारगर व्यवस्था का निर्माण किया जाना चाहिये ताकि पानी ज्यादा समय तक टिक कर न रहे। हमें यह बात भली भांति समझ लेनी चाहिये कि तटबन्धों, नहरों, सड़कों और रेल-लाइनों के अवैज्ञानिक और अंधाधुंध निर्माण ने पानी के रास्ते में रुकावटें पैदा की हैं। इन सारी संरचनाओं से अधिकाधिक जल-निकासी की व्यवस्था करने पर बाढ़ की समस्या का एक हद तक निवारण होगा। इसके अलावा बाढ़ के पानी में बड़ी मात्रा में गाद मौजूद रहती है। पानी के प्रबन्धन से कहीं ज्यादा जरूरी इस गाद का प्रबन्धन है। परम्परागत रूप में बाढ़ के पानी को पूरे इलाके पर फैलने दिया जाता था जिससे बाढ़ का लेवेल घटता था, मिट्टी पूरे इलाके पर फैलती थी, जमीन की नमी और उर्वराशक्ति बरकरार रहती थी और नदी निर्बाध गति से भूमि का निर्माण करती थी।

जल-संसाधन विभाग नदी को अपना स्वाभाविक काम करने से रोकता है और आपदा प्रबंधन विभाग, देशी-विदेशी दाता संस्थाएँ और उनके द्वारा पोषित अधिकांश स्वयं सेवी संस्थाएँ इस पूरी घटना का संज्ञान ही नहीं लेतीं। समस्या यह नहीं है कि पानी का क्या किया जाये, समस्या यह है कि गाद का क्या किया जाये? हमने पूर्ववर्ती अध्यायों में देखा है कि किस तरह से बाढ़ की समस्या दुरूह हुई है और किस तरह स्थानीय लोगों ने इस समस्या से निपटने की कोशिशें की हैं। अधिकांश लोगों के लिए और अक्सर बाढ़ के समय कोई बाहरी मदद नहीं पहुँच पाती है जबकि उन्हें इसकी सर्वाधिक जरूरत होती है। कभी किसी ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि लोग इतनी गंभीर परिस्थितियों में किस तरह जीते हैं।

यह विधा जाने और सीखे बिना कुछ लोग या लोगों के समूह किस तरह से आपदा प्रबन्धन पर भाषण देने के लिए अपने आप को उपयुक्त पाते हैं, यह समझ से परे है। सदियों से उन कठिन परिस्थितियों में रह कर जीने वालों और उनके पारम्परिक ज्ञान का यह सीधा-सीधा अपमान है। यह आश्चर्यजनक ही है कि आज तक सरकार ने या किसी दाता संस्था ने विभिन्न क्षेत्रों में उपलब्ध पारम्परिक ज्ञान को एकत्रित करके उसे लिपिबद्ध करने और उसके प्रचार-प्रसार की कोशिश की हो। राहत कार्यों और आपदा प्रबन्धन में आकण्ठ डूबी किसी गैर-सरकारी संस्था से तो अब यह उम्मीद करना ही व्यर्थ है कि वह अपनी दाता संस्थाओं को ऐसा करने के लिए कहेगी क्योंकि दाता संस्थाओं ने तो पहले से ही अपने आप को हर विषय का सर्वज्ञ घोषित कर रखा है।

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Post By: tridmin
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