यदि हमारे दल व मीडिया ऐसे साजिशों से अनभिज्ञ हैं, तो यह मामला और जागरूक होने का है। यदि जानते-बूझते वे इनकी वकालत कर रहे हैं, तो वे ऐसी शक्तियों के साथ खड़े हैं। क्योंकि यह बात पूर्णतया वैज्ञानिक और समय सिद्ध है कि बांध और नदी जोड़ उत्तराखंड ही नहीं, देश के किसी भी हिस्से में आई बाढ़ नियंत्रण का उपाय नहीं हो सकते। ये दोनों ही देश की आर्थिक व पर्यावरणीय आजादी तथा भूगोल के लिए बड़ा खतरा हैं।उत्तराखंड आपदा राहत के नाम पर राजनीति हुई, तो भी क्या आश्चर्य! वे करेंगे ही, क्योंकि वे लोकनेता नहीं हैं; वे राजनेता हैं। वे मां की लाश पर भी राजनीति कर सकते हैं। आश्चर्य तो इस बात का है कि कवि प्रदीप के लिखे गीत को गाकर देशभक्ति का परिचय देने वालों लोग “ऐ मेरे वतन के लोगों...’’ को तो भूल ही चुके हैं, वे “घायल हुआ हिमालय, खतरे में पड़ी आजादी..’’ को भी याद नहीं रख पाये। नेपाली मजदूरों ने आपदा के मारों के हाथ काटकर गहने लूटे, तो उत्तराखंडी व्यापारियों ने जीवितों को 250 रुपये का परांठा और 100 रुपये में एक लीटर पानी पिलाकर खुद की आत्मा को मार लिया। यह सब निजी मुनाफे के लिए हुआ। आपदा के आर्थिक कनेक्शन का यह छोटा सा नमूना है। बड़ा नमूना 1000 करोड़ रुपये के राहत पैकेज और राहत के नाम पर सामग्री और पैसे जमा करने वाली संस्थाओं की जांच हो, तो मिल जायेगा। बाहर जाना चाहिए बांध कंपनियों को, वे साजिश कर रही हैं कि लोग बाहर जाएं। वे लोगों से बयान दिला रही हैं कि वे अब वहां नहीं रहना चाहते। मुआवजा देकर उन्हें कहीं और बसाया जाए। याद कीजिए कि बुंदेलखंड आत्महत्याओं के दौर में भी ऐसा ही हुआ था। गरीब लोगों के विस्थापन की सच्ची -झूठी खबरें बाहर गईं और भूमाफिया भीतर आये। उत्तराखंड आपदा का आर्थिक कनेक्शन तो और भी व्यापक है। बिजली बनाकर उत्तराखंड कितना पैसा कमाएगा और एक ही विध्वंस में उसने कितना गंवा दिया? बात अब इसके आकलन से भी आगे बढ़कर निवेशकों के लालच पर जा टिकी है।
पंडित जवाहरलाल नेहरु ने ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ के जरिए भारत को पहचानने की कोशिश की थी, तो अपनी दूसरी पुस्तक - ’ग्लिम्सिस ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री’ के जरिए दुनिया को। उन्होंने अमेरिका के आर्थिक साम्राज्यवाद का खुलासा करते हुए 1933 में लिखा था – “सबसे नये किस्म का यह साम्राज्यवाद जमीन पर कब्जा नहीं करता। यह दूसरे देशों की दौलत और दौलत पैदा करने वाले संसाधनों पर कब्जा करता है। आधुनिक ढंग का यह साम्राज्य आंखों से ओझल साम्राज्यवाद है।’’ हमारे नीति निर्धारकों और विकास नियोजकों ने दोनों को ही भूला दिया। न वे हिंदोस्तान को ही ठीक से पहचान पाए और न ही भारत की आर्थिक आजादी को कब्जा करने की दुनियाई साजिश के सबक को। इंदिरा जी ने टिहरी का काम रोका जरूर, लेकिन राजीव गांधी ने आते ही उसे शुरु करा दिया। भूले वह भी।
दुनियाई दुष्चक्र को फिर भूलने का ताजा नतीजा है कि प्रधानमंत्री कार्यालय अपनी निगरानी में किए जाने वाले पुनर्वास करने की बात कर रहा है, तो वह भी विश्व बैंक के कर्ज से ही। एक कोशिश उत्तराखंड में आई आपदा का ठीकरा बांध न बनने देने वाले देशभक्त पर्यावरण कार्यकर्ताओं के सिर फोड़ने की हो रही है। बयान आया – “टिहरी बांध न होता, तो आपदा और भयानक होती।’’ दूसरी कोशिश नदी जोड़ परियोजना के जिन्न को फिर से उभारने की हो रही है। यह कोशिश प्राकृतिक संपदा पर कब्जे के जरिए भारत की आर्थिक आजादी पर कब्जा करने के षड़यंत्र में जुटे विकसित देशों की कर्जदाता एजेंसियों ने शुरू कर दी है; ताकि जब आपदा निवारण को लेकर भावी योजना बने, तो उनकी साजिश सफल हो। चालाकी यह कि वे अपनी यह बंदूक हमारे मीडिया, अफसर और नेताओं के कंधे पर रखकर चला रहे हैं। मौका पाकर वे सवाल उठवा रहे हैं कि नदी जोड़ परियोजना को आगे क्यों नहीं बढ़ाया गया? नदी जोड़ हो गए होते, तो बाढ़ से बच जाते। अब समझ में आ रहा है कि पंडित नेहरू ने क्यों लिखा था कि ऐसी महाशक्तियां अपने आर्थिक फैलाव के लक्ष्य देशों की सत्ता के उलट-पलट में सीधी दिलचस्पी रखती हैं। कमजोर, छोटे व विकासशील देशों में राजनैतिक जोड़-तोड़ करती हैं। जैसे चाहे सरकारों की लगाम खींच देती हैं।
यदि हमारे दल व मीडिया ऐसे साजिशों से अनभिज्ञ हैं, तो यह मामला और जागरूक होने का है। यदि जानते-बूझते वे इनकी वकालत कर रहे हैं, तो वे ऐसी शक्तियों के साथ खड़े हैं। क्योंकि यह बात पूर्णतया वैज्ञानिक और समय सिद्ध है कि बांध और नदी जोड़ उत्तराखंड ही नहीं, देश के किसी भी हिस्से में आई बाढ़ नियंत्रण का उपाय नहीं हो सकते। ये दोनों ही देश की आर्थिक व पर्यावरणीय आजादी तथा भूगोल के लिए बड़ा खतरा हैं। ये उस विशाल जैवविविधता के लिए मौत का परवाना हैं, जो इस धरती पर जीवन को चलाए रखने के लिए बेहद जरूरी हैं।
भारत की आजादी, आबादी और बर्बादी की दृष्टि से यह बेहद नाजुक समय है। हमला भीतरी और बाहरी दोनों है। जरूरत अत्यंत सावधान तथा देश के प्रति समर्पित रहने की है। हालांकि आशा पूरी तरह मरी नहीं है। सुधार की संभावना अभी भी जिंदा है। बांधों के विरोध में संसद के बाहर और भीतर कई स्वर सुनाई दिए हैं: शरद यादव, लालू यादव, रेवती रमण सिंह, मेनका गांधी, दिग्विजय सिंह, रवीन्द्र कुमार सिंह, प्रदीप टम्टा और अन्नू टंडन समेत कई अन्य। बांधों को लेकर कोई निर्णायक नीति न बना पाने के बावजूद देश के किसी हिस्से को बांधों को बचाने की जमीनी कोशिश के लिए जयराम रमेश की आप हमेशा सराहना कर सकते हैं।
नदी जोड़ के नुकसान समझने के बाद कई नेताओं ने बयान बदले हैं। 2003 में कार्यदल अध्यक्ष के रूप में नदी जोड़ को पूरे भारत की बाढ़-सुखाड़ का हल मानने वाले खुद सुरेश प्रभु ने तीन वर्षों में ही अपना बयान बदला। 2006 में उदयपुर में कहा- “नदियों को जोड़ देने मात्र से व्याप्त जलसंकट का हल नहीं हो सकता। जल संकट हल करने के लिए पानी की हर बूंद का उपयोग करना होगा।’’ तत्कालीन राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम ने 2002 के स्वतंत्रता दिवस पर दिए अपने भाषण के जरिए नदी जोड़ को शीघ्र शुरू करने पर जोर दिया था। उठी आपत्तियों तथा मिले ज्ञापनों को समझने के बाद वे नदी जोड़ की पैरवी पर वे कभी मुखर नहीं दिखे। विज्ञान के प्रोफेसर रहे श्री मुरली मनोहर जोशी ने उत्तराखंड की आपदा का समाधान में बांध या नदी जोड़ की डुगडुगी नहीं बजाई; हिमालयी क्षेत्र के विकास की अलग योजना का रास्ता सुझाया है। राहुल गांधी भावी प्रधानमंत्री के रूप में उभारे जाने से बहुत पहले यह कहकर नदी जोड़ परियोजना को नकार चुके हैं कि इससे लाभ से ज्यादा हानि है। इससे तय है कि विनाशकारी परियोजनाओं को लेकर नेताओं की समझ तो बेहतर हुई है, लेकिन संवेदना अभी इतनी जागृत नहीं हुई है कि वे इनके खिलाफ खंभ ठोककर खड़े हो जाएं।
सुशील कुमार सिंह औरंगाबाद के सांसद हैं। दिल से चाहते हैं कि बिहार बाढ़ से मुक्त हो और गुजरात सुखाड़ से। ताज्जुब हुआ कि नदियों को चाहने वाले होकर भी 25 जून को हुई चर्चा से पहले वह भी नदी जोड़ को मुनाफे का ही सौदा मानते थे। उनकी निगाह में उसके नुकसान शून्य थे। इससे एक बात तो स्पष्ट है कि उत्तराखंड समेत देश में नदियों की बाढ निवारण की भावी कार्ययोजना बनाने से पहले संसद/विधानसभाएं सभी सांसदों/विधायकों को बैठाकर पांच नीतिगत बातें साफ-साफ तय कर लें: नदियों पर बांध बने या न बनें? बनें तो कैसे, कहां, कब और किसलिए? नदी जोड़ हो या न हो? पक्के निर्माण नदियों और जलनिकासी मार्गों से कितने करीब और कितने दूर हों? रिहायशी, व्यापारिक व औद्योगिक क्षेत्र कहां बने और कहां न बने? यदि ये बातें एक बार यह तय हो जाती हैं, तो भ्रम मिट जायेगा। देश को बाढ़ के विध्वंस से बचाया जा सकता है या नहीं, यह भी तय हो जाएगा।...तब चुनौती सिर्फ तय किए को लागू करने की ही रहेगी। दोष भगवान के सिर नहीं जायेगा। भूमिका सरकार के साथ-साथ समाज की भी बढ़ जाएगी।...तब शायद आर्थिक आजादी भी बची रहे और बाढ़ के बढ़ते विध्वंस से हम भी।
पंडित जवाहरलाल नेहरु ने ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ के जरिए भारत को पहचानने की कोशिश की थी, तो अपनी दूसरी पुस्तक - ’ग्लिम्सिस ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री’ के जरिए दुनिया को। उन्होंने अमेरिका के आर्थिक साम्राज्यवाद का खुलासा करते हुए 1933 में लिखा था – “सबसे नये किस्म का यह साम्राज्यवाद जमीन पर कब्जा नहीं करता। यह दूसरे देशों की दौलत और दौलत पैदा करने वाले संसाधनों पर कब्जा करता है। आधुनिक ढंग का यह साम्राज्य आंखों से ओझल साम्राज्यवाद है।’’ हमारे नीति निर्धारकों और विकास नियोजकों ने दोनों को ही भूला दिया। न वे हिंदोस्तान को ही ठीक से पहचान पाए और न ही भारत की आर्थिक आजादी को कब्जा करने की दुनियाई साजिश के सबक को। इंदिरा जी ने टिहरी का काम रोका जरूर, लेकिन राजीव गांधी ने आते ही उसे शुरु करा दिया। भूले वह भी।
दुनियाई दुष्चक्र को फिर भूलने का ताजा नतीजा है कि प्रधानमंत्री कार्यालय अपनी निगरानी में किए जाने वाले पुनर्वास करने की बात कर रहा है, तो वह भी विश्व बैंक के कर्ज से ही। एक कोशिश उत्तराखंड में आई आपदा का ठीकरा बांध न बनने देने वाले देशभक्त पर्यावरण कार्यकर्ताओं के सिर फोड़ने की हो रही है। बयान आया – “टिहरी बांध न होता, तो आपदा और भयानक होती।’’ दूसरी कोशिश नदी जोड़ परियोजना के जिन्न को फिर से उभारने की हो रही है। यह कोशिश प्राकृतिक संपदा पर कब्जे के जरिए भारत की आर्थिक आजादी पर कब्जा करने के षड़यंत्र में जुटे विकसित देशों की कर्जदाता एजेंसियों ने शुरू कर दी है; ताकि जब आपदा निवारण को लेकर भावी योजना बने, तो उनकी साजिश सफल हो। चालाकी यह कि वे अपनी यह बंदूक हमारे मीडिया, अफसर और नेताओं के कंधे पर रखकर चला रहे हैं। मौका पाकर वे सवाल उठवा रहे हैं कि नदी जोड़ परियोजना को आगे क्यों नहीं बढ़ाया गया? नदी जोड़ हो गए होते, तो बाढ़ से बच जाते। अब समझ में आ रहा है कि पंडित नेहरू ने क्यों लिखा था कि ऐसी महाशक्तियां अपने आर्थिक फैलाव के लक्ष्य देशों की सत्ता के उलट-पलट में सीधी दिलचस्पी रखती हैं। कमजोर, छोटे व विकासशील देशों में राजनैतिक जोड़-तोड़ करती हैं। जैसे चाहे सरकारों की लगाम खींच देती हैं।
यदि हमारे दल व मीडिया ऐसे साजिशों से अनभिज्ञ हैं, तो यह मामला और जागरूक होने का है। यदि जानते-बूझते वे इनकी वकालत कर रहे हैं, तो वे ऐसी शक्तियों के साथ खड़े हैं। क्योंकि यह बात पूर्णतया वैज्ञानिक और समय सिद्ध है कि बांध और नदी जोड़ उत्तराखंड ही नहीं, देश के किसी भी हिस्से में आई बाढ़ नियंत्रण का उपाय नहीं हो सकते। ये दोनों ही देश की आर्थिक व पर्यावरणीय आजादी तथा भूगोल के लिए बड़ा खतरा हैं। ये उस विशाल जैवविविधता के लिए मौत का परवाना हैं, जो इस धरती पर जीवन को चलाए रखने के लिए बेहद जरूरी हैं।
भारत की आजादी, आबादी और बर्बादी की दृष्टि से यह बेहद नाजुक समय है। हमला भीतरी और बाहरी दोनों है। जरूरत अत्यंत सावधान तथा देश के प्रति समर्पित रहने की है। हालांकि आशा पूरी तरह मरी नहीं है। सुधार की संभावना अभी भी जिंदा है। बांधों के विरोध में संसद के बाहर और भीतर कई स्वर सुनाई दिए हैं: शरद यादव, लालू यादव, रेवती रमण सिंह, मेनका गांधी, दिग्विजय सिंह, रवीन्द्र कुमार सिंह, प्रदीप टम्टा और अन्नू टंडन समेत कई अन्य। बांधों को लेकर कोई निर्णायक नीति न बना पाने के बावजूद देश के किसी हिस्से को बांधों को बचाने की जमीनी कोशिश के लिए जयराम रमेश की आप हमेशा सराहना कर सकते हैं।
नदी जोड़ के नुकसान समझने के बाद कई नेताओं ने बयान बदले हैं। 2003 में कार्यदल अध्यक्ष के रूप में नदी जोड़ को पूरे भारत की बाढ़-सुखाड़ का हल मानने वाले खुद सुरेश प्रभु ने तीन वर्षों में ही अपना बयान बदला। 2006 में उदयपुर में कहा- “नदियों को जोड़ देने मात्र से व्याप्त जलसंकट का हल नहीं हो सकता। जल संकट हल करने के लिए पानी की हर बूंद का उपयोग करना होगा।’’ तत्कालीन राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम ने 2002 के स्वतंत्रता दिवस पर दिए अपने भाषण के जरिए नदी जोड़ को शीघ्र शुरू करने पर जोर दिया था। उठी आपत्तियों तथा मिले ज्ञापनों को समझने के बाद वे नदी जोड़ की पैरवी पर वे कभी मुखर नहीं दिखे। विज्ञान के प्रोफेसर रहे श्री मुरली मनोहर जोशी ने उत्तराखंड की आपदा का समाधान में बांध या नदी जोड़ की डुगडुगी नहीं बजाई; हिमालयी क्षेत्र के विकास की अलग योजना का रास्ता सुझाया है। राहुल गांधी भावी प्रधानमंत्री के रूप में उभारे जाने से बहुत पहले यह कहकर नदी जोड़ परियोजना को नकार चुके हैं कि इससे लाभ से ज्यादा हानि है। इससे तय है कि विनाशकारी परियोजनाओं को लेकर नेताओं की समझ तो बेहतर हुई है, लेकिन संवेदना अभी इतनी जागृत नहीं हुई है कि वे इनके खिलाफ खंभ ठोककर खड़े हो जाएं।
सुशील कुमार सिंह औरंगाबाद के सांसद हैं। दिल से चाहते हैं कि बिहार बाढ़ से मुक्त हो और गुजरात सुखाड़ से। ताज्जुब हुआ कि नदियों को चाहने वाले होकर भी 25 जून को हुई चर्चा से पहले वह भी नदी जोड़ को मुनाफे का ही सौदा मानते थे। उनकी निगाह में उसके नुकसान शून्य थे। इससे एक बात तो स्पष्ट है कि उत्तराखंड समेत देश में नदियों की बाढ निवारण की भावी कार्ययोजना बनाने से पहले संसद/विधानसभाएं सभी सांसदों/विधायकों को बैठाकर पांच नीतिगत बातें साफ-साफ तय कर लें: नदियों पर बांध बने या न बनें? बनें तो कैसे, कहां, कब और किसलिए? नदी जोड़ हो या न हो? पक्के निर्माण नदियों और जलनिकासी मार्गों से कितने करीब और कितने दूर हों? रिहायशी, व्यापारिक व औद्योगिक क्षेत्र कहां बने और कहां न बने? यदि ये बातें एक बार यह तय हो जाती हैं, तो भ्रम मिट जायेगा। देश को बाढ़ के विध्वंस से बचाया जा सकता है या नहीं, यह भी तय हो जाएगा।...तब चुनौती सिर्फ तय किए को लागू करने की ही रहेगी। दोष भगवान के सिर नहीं जायेगा। भूमिका सरकार के साथ-साथ समाज की भी बढ़ जाएगी।...तब शायद आर्थिक आजादी भी बची रहे और बाढ़ के बढ़ते विध्वंस से हम भी।
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