यों हमारे यहां चरागाह के लिए अपार संभावनाएं हैं जैसे पश्चिमी राजस्थान में ऐसी जमीन बहुत है जो खेती लायक नहीं है। एक सर्वे के अनुसार पश्चिम राजस्थान के 11 जिलों में खेती योग्य परती जमीन 94.7 लाख हेक्टेयर और स्थायी चरागाह के योग्य जमीन 45.6 लाख हेक्टेयर है। इसमें थोड़ा भी सुधार कर लिया जाए तो भी बहुत बड़ी संख्या में पशुधन का गुजारा हो सकता है।
राष्ट्रीय कृषि आयोग ने 1976 में सिफारिश की थी कि “हरे चारे की पैदावार अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी पर पशुपालन के सारे कार्यक्रमों की सफलता निर्भर है। इसके लिए सभी तरह की परती जमीन में पेड़-पौधे लगाए जाएं या सदा हरी रहने वाली घास और फलियों वाली किस्में बोई जाएं।”
सूखे और अधसूखे इलाकों में सामाजिक वानिकी के अंतर्गत ऐसे ही पेड़ लगाए जाने चाहिए जो ईंधन और चारा दोनों देते हैं। लेकिन विडंबना यह है कि सरकारी, गैर-सरकारी संस्थाएं और किसान भी सफेदे जैसे पेड़ लगाने में ही ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं जिनके पत्तों को कोई जानवर नहीं खाता। आजकल सभी अधसूखे इलाकों में सफेदा लगाया जा रहा है। यही कारण है कि अनेक गांवों में ऐसे लोग जिनके पास मवेशी हैं पर जमीन नहीं है, वन लगाने के कार्यक्रम का विरोध कर रहे हैं क्योंकि उन्हें उनकी चराई की जमीन खत्म हो जाने का डर है।
राजस्थान वन विभाग ने अपनी मरुभूमि विकास योजना के अंतर्गत चरागाह की भूमि के विकास का एक कार्यक्रम शुरू किया है। वन विभाग वहां पनप सकने वाली जातियों की घास उगाता है और एक चौकीदार रखता है। चरागाह के दो हिस्से किए जाते हैं। चार-छह महीने के बाद, जब घास काफी ऊंची हो जाती है तो एक हिस्से को चराई के लिए खोल दिया जाता है और फिर उसमें चराई की अवधि और पशुओं की संख्या तय की जाती है। चौकीदार पशुओं की संख्या पर निगाह रखता है, पशु के मालिकों से पैसा उगाह कर सरपंच को सौंप देता है। यह पैसा घास की पैदावार और चरागाह की देखरेख पर खर्च किया जाता है। देखरेख का खर्च लगभग 400 रुपये प्रति हेक्टेयर आता है।
जोधपुर के वन संवर्धन और चरागाह विकास निदेशक श्री माथुर कहते है, “यह योजना बहुत अच्छी चल रही है, क्योंकि इसे गांव वालों का पूरा-पूरा सहयोग मिला है।” चारे की कमी के दिनों में ये चरागाह बंद कर दिए जाते हैं। बारिश के बाद नवंबर से मार्च तक फिर खोले जाते हैं। फिर भी 300 गांवों में यह योजना अच्छी चल रही है।
राष्ट्रीय कृषि आयोग ने 1976 में सिफारिश की थी कि “हरे चारे की पैदावार अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी पर पशुपालन के सारे कार्यक्रमों की सफलता निर्भर है। इसके लिए सभी तरह की परती जमीन में पेड़-पौधे लगाए जाएं या सदा हरी रहने वाली घास और फलियों वाली किस्में बोई जाएं।”
सूखे और अधसूखे इलाकों में सामाजिक वानिकी के अंतर्गत ऐसे ही पेड़ लगाए जाने चाहिए जो ईंधन और चारा दोनों देते हैं। लेकिन विडंबना यह है कि सरकारी, गैर-सरकारी संस्थाएं और किसान भी सफेदे जैसे पेड़ लगाने में ही ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं जिनके पत्तों को कोई जानवर नहीं खाता। आजकल सभी अधसूखे इलाकों में सफेदा लगाया जा रहा है। यही कारण है कि अनेक गांवों में ऐसे लोग जिनके पास मवेशी हैं पर जमीन नहीं है, वन लगाने के कार्यक्रम का विरोध कर रहे हैं क्योंकि उन्हें उनकी चराई की जमीन खत्म हो जाने का डर है।
राजस्थान वन विभाग ने अपनी मरुभूमि विकास योजना के अंतर्गत चरागाह की भूमि के विकास का एक कार्यक्रम शुरू किया है। वन विभाग वहां पनप सकने वाली जातियों की घास उगाता है और एक चौकीदार रखता है। चरागाह के दो हिस्से किए जाते हैं। चार-छह महीने के बाद, जब घास काफी ऊंची हो जाती है तो एक हिस्से को चराई के लिए खोल दिया जाता है और फिर उसमें चराई की अवधि और पशुओं की संख्या तय की जाती है। चौकीदार पशुओं की संख्या पर निगाह रखता है, पशु के मालिकों से पैसा उगाह कर सरपंच को सौंप देता है। यह पैसा घास की पैदावार और चरागाह की देखरेख पर खर्च किया जाता है। देखरेख का खर्च लगभग 400 रुपये प्रति हेक्टेयर आता है।
जोधपुर के वन संवर्धन और चरागाह विकास निदेशक श्री माथुर कहते है, “यह योजना बहुत अच्छी चल रही है, क्योंकि इसे गांव वालों का पूरा-पूरा सहयोग मिला है।” चारे की कमी के दिनों में ये चरागाह बंद कर दिए जाते हैं। बारिश के बाद नवंबर से मार्च तक फिर खोले जाते हैं। फिर भी 300 गांवों में यह योजना अच्छी चल रही है।
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