हमारा शहर बड़ा नहीं है। पर ऐसा कोई छोटा-सा भी नहीं है। इस प्यारे से शहर का नाम है मूंडवा। यह राजस्थान के नागौर जिले में आता है। नागौर से अजमेर की ओर जाने वाली सड़क पर कोई 22 किलोमीटर दूर दक्षिण दिशा में है यह मूंडवा। आबादी है कोई चौदह हजार। इसकी देखरेख बाकी छोटे-बड़े नगर की तरह ही एक नगर पालिका के माध्यम से की जाती है। शहर छोटा है पर उम्र में बड़ा है, काफी पुराना है। इसकी गवाही यहां की सुंदर हवेलियां देती हैं। समय-समय पर इस शहर से कई परिवार बाहर निकले और पूरे भारत वर्ष में व्यापार के लिए गए। हां, पर यहां की खास बात यह है कि ये लोग इसे छोड़कर नहीं गए। सालभर ये लोग कोई न कोई निमित्त से, विवाह, मुंडन, अन्य सामाजिक कार्य से यहां आते रहते हैं और अपने मूंडवा का पूरा ख्याल रखते हैं।
आप जानते ही होंगे कि राजस्थान में कई क्षेत्रों में भूजल खारा है, भारी है और इसलिए पीने लायक नहीं है। हमारे शहर की भी यही हालत थी। पाताल पानी जहां खारा है, वहां राजस्थान में कुछ ही इलाकों पर प्रकृति की, प्रभु की ऐसी कृपा रही है कि कहीं-कहीं रेजवानी पानी भी दे दिया है। यह आपके लिए एक नया शब्द है। इसलिए इसे थोड़ा समझ लेना होगा। नीचे का पानी खारा है। तब ऊपर से गिरने वाला वर्षा जल भी उसमें, धीरे-धीरे ही सही मिलकर खारा ही हो जाता है। पर रेगिस्तान में जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर तथा चुरू जैसे जिलों में कहीं-कहीं विशाल रेतीले क्षेत्रों में एक विशेष तरह की पट्टी चलती है कुदरती। इसे मेट कहा जाता है। यह मेट वर्षा के मीठे जल को नीचे के खारे पानी से मिलने से रोक लेती है। ऐसे वर्षा जल को रेजवानी कहा जाता है। तो यह रेजवानी हमारे शहर में है नहीं। मेट नहीं तो बस सारा पानी खारा ही होगा नीचे जाकर। इसलिए इस कस्बे में हमारे पुरखों ने छोटे-बड़े कोई एक दर्जन तालाब बना लिए थे अपना जीवन चलाने के लिए। तालाब तो कई जगह थे, हमारे यहां ऐसी क्या अनोखी बात होगी यह। पर सच कहें तो यह अनोखा ही शहर है। देश के न जाने कितने शहरों, गांव ने अपने तालाबों को कचरे, मिट्टी, गंदगी से भरकर पाट दिया गया है। उन पर कब्जे हो गए हैं। और फिर जरूरत भी क्या है उन तालाबों की ऐसा कहने वाले नागरिक भी हैं और नगरपालिकाएं भी। नल जो हैं। यह बात अलग है कि अब कई जगह तो उन नलों में कैसा और कितना पानी आता है, इसकी भी कोई गारंटी नहीं बची है। नल तो हमारे शहर में भी लगे थे। पर उनमे खारा पानी ही आता था, लेकिन हमारा यह छोटा-सा शहर मूंडवा इस मामले में एकदम अनोखा है। नगरवासियों और नगर पालिका दोनों ने मिलकर यहां के तालाबों की रखवाली की है और शहर को इन्हीं से मिलता है पूरे वर्षभर मीठा पानी पीने के लिए।
शहर के दक्षिण में न जाने कितने सौ बरस पहले बना लाखोलाव तालाब का यहां विशेष उल्लेख करना होगा। इसे बणज (व्यापार) करने वाली बंजारा जाति के किसी लाखा बंजारे ने बनाया था। यहां लाखा बंजारे के गीत और उनके कई किस्से आज भी शहर और आसपास के गांव में बुजुर्ग हमें सुनाते हैं। उन दिनों बंजारा समाज के लोग बैलगाडियों और खच्चरों के साथ यहां से वहां व्यापार के लिए घूमते थे। इनके कारवां में इतनी बड़ी संख्या में बैल आदि होते थे कि उनकी गिनती नहीं। इन्हें सारे रास्ते दाना-चारा और पानी भी तो चाहिए। दाना-चारा रख सकते हैं पर पानी? इसलिए बुजुर्ग बताते हैं कि ये लोग अपने रास्ते के गांवों और शहरों में तथा बीच के निर्जन इलाकों में पड़ने वाले पड़ावों पर भी अपनी ओर से तालाब बनवाते थे। जब यहां से निकले तो खुद भी उसका इस्तेमाल किया और बाकी समय में वहां की आबादी के लिए इस सुविधा को छोड़ दिया। तो किस्सा बताता है कि लाखा बंजारा हमारे शहर से निकला। यहां रूका उनका कारवां और यह तालाब बना गया। तब से इसका नाम उन्हीं की याद में लाखोलाव पड़ गया।
शहर से बाहर आप निकलें तो बस शुरू हो जाती है इसकी विशाल पाल। पाल के दूसरी तरफ आप आ जाएं, तो दिखेगा एक सुंदर दृश्य। चारों तरफ बरगद और पीपल के बड़े-बड़े पेड़ों में घिरा एक सुंदर निर्मल तालाब। एकदम नीला साफ पानी। चारों तरफ ठीक बनी चौकियां, कहीं कचरा, गंदगी नहीं। ऐसी सफाई आपको आसानी से और शहरों में देखने नहीं मिलेगी।
शहर में और उसकी सीमा पर बने इन तालाबों में वर्षा का जल ठीक से भरता रहे, इसकी पूरी चौकसी की जाती है। इन पुराने तालाबों का पानी शहर में आज भी पीने के लिए काम में आता है। पर 14,000 की आबादी का मुख्य स्रोत तो है हमारा लाखोलाव तालाब। यह पूरे शहर को ठेठ गर्मी के दिनों में भी मजे से पानी पिलाता है। इसका आगौर खूब बड़ा है। वहां से वर्षा का सारा जल कोई दो किलोमीटर लंबे पक्के साफ-सुथरे नाले से बह कर तालाब तक आता है। यह नाला छह फीट चौड़ा और पांच फुट गहरा है। बीच-बीच में लगी हैं कई जगह जालियां। इनमें आगौर से बह कर आने वाली पत्तियां और यहां-वहां का कचरा रूक जाता है। समय-समय इन जालियां की साफ-सफाई होती रहती हैं। सारा कचरा यहां से निकाल बाहर कहीं दूर फेंक दिया जाता है। इसी नाले में कचरा छानने के अलावा एक विशेष व्यवस्था की गई है, जहां आगौर के पानी के साथ आने वाली मिट्टी, साद या गाद भी रोकी जाती है। इससे तालाब में मिट्टी का जाना रूक जाता है। कई बरस पहले पड़े एक अकाल में लाखोलाव का पानी बहुत ही कम हो गया था। शहर ने संकट की इस घड़ी में किसी तरह की हायतौबा नहीं की। उस घड़ी का हमारे नगर ने, नगरपालको ने खूब समझदारी से उपयोग किया। तालाब का पानी कम हो ही गया था। बचा पानी इंजिन लगाकर टैंकरों में भर-भर कर बाहर निकाला और बस तालाब की पूरी सफाई कर डाली। बरसों से जमा हुई मिट्टी को निकाल लाखा बंजारे के तालाब को और लंबी उमर दे दी। यहां नब्बे साल के एक बुजुर्ग ने हमें बताया है कि उन्होंने अपनी याद में इस तालाब को बस सिर्फ एक बार सूखते हुए देखा था।
आज शहर के सारे घरों, दफ्तरों के अलावा होटलों में प्याऊ आदि पर भी इसी तालाब का पानी टैंकरों से दिया जाता है। ये टैंकर बैलों के छकड़ों से और ट्रैक्टरों से भी ढोए जाते हैं। इसमें थोड़-सा सेवा शुल्क देना पड़ता हैं जो घर यह राशि नहीं देना चाहते, उनके सदस्य खुद घड़ों में पानी भर कर ले जाते हैं। कभी वर्षा कम हो, वर्षा आने में थोड़ी देरी होती दिखे, तो नगरपालिका निर्णय लेती है, लोगों के साथ बैठकर और फिर टैंकर-टंकी बंदी का हेला देते हैं यानी घोषणा कर दी जाती है कि अब यहां से कोई टैंकर-टंकी नहीं भरेगा। भरने पर ग्यारह सौ रूपए का जुर्माना। सब लोग इसका पालन करते हैं फिर। तब तो दिनभर यहां पानिहारिनें आती-जाती मिलेंगी। जैसा कि पहले बताया है, जो परिवार शहर से बाहर चले गए हैं, जब वे यहां लौटते हैं, तो इस तालाब से उनका पुराना जुड़ाव फिर से हरा हो जाता है। गर्मी के दिनों में शाम को इसकी सीढियां पर एक ओर तो पनिहारिनों का मेला मिलेगा, तो दूसरी ओर शहर में आए मेहमानों का आना-जाना। कहीं कोई टूट-फूट दिखे तो उसमें भी ये लोग अपनी ओर से पूरी मदद देते हैं।
नगरपालन सचमुच कैसा होना चाहिए, यह देखना हो तो इस तालाब पर आप पधारें। यहां की साफ-सफाई देख कर आपको लगेगा कि आप अपने घर के चौक में, आंगन में खड़े हैं। इसमें नगरपालिका और समाज का हर सदस्य एक-दूसरे के साथ मिलकर काम करता है। और जगह तो जनभागीदारी एक खोखला नारा भी हो जाता है पर यहां तो कौन किसका भागीदार है, यह भी पता नहीं चलेगा। तालाब की पाल पर बड़े-बड़े पेड़ों का जिक्र पहले किया है। इन पेड़ों के नीचे मवेशियों का आना-जाना लगा ही रहता है। पर यहां की सफाई ऐसी कि शाम को चूल्हा लीपने के लिए भी आपको गोबर नहीं मिल पाएगा। तालाब में कपड़े धोना, नहाना आदि तो मना है ही। अपनी बाल्टी भरो, पाल के बाहर जाओ, नहा कर आ जाओ। तालाब में नहीं छोड़ सकते अपना मैल, गंदगी। हमारे छोटे से शहर मूंडवा का मन साफ है, माथा साफ है, इसलिए हमारा तालाब लाखोलाव भी साफ बना हुआ है। अब तो सुना है कि दिल्ली में भी नलों का पानी बंद हो जाता है पीछे हरियाणा से आने वाली गंदगी के कारण। ऐसे में बस यही प्रार्थना है कि हमारे इस शहर पर किसी की भी, नल की भी नजर नहीं लगे।
गिरधारी सिंह समाजसेवी
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