भारत में पानी अब पुण्य कमाने का देवतत्व नहीं, बल्कि पैसा कमाने की वस्तु बन गया है। हजारों करोड़ रुपए के बोतल बंद पानी का बढ़ता व्यापार शुद्धता के नाम पर महज एक छलावा मात्र है। यदि बारिश के आने से पहले तालाब-झीलों को साफ कर लें। खेतों की मेड़बंदियां मजबूत कर लें ; ताकि जब बारिश आये तो इन कटोरे में पानी भर सके। वर्षाजल का संचयन हो सके। धरती भूखी न रहे। साल का प्रत्येक दिन विश्व जल दिवस हो, हम संकल्प लें कि बाजार का बोतलबंद पानी नहीं पिउंगा। कार्यक्रमों में मंच पर बोतलबंद पानी सजाने का विरोध करुंगा। अपने लिए पानी के न्यूनतम व अनुशासित उपयोग का संयम सिद्ध करुंगा। दूसरों के लिए प्याऊ लगाउंगा।... मैं किसी भी नदी में अपना मल-मूत्र-कचरा नहीं डालूंगा। अगले दस दिन भारतीय महत्व के कई घोषित दिवसों के नाम रहेंगे: शक संवत् का नया साल, नंदगाँव की लट्ठमार होली की शुरुआत, होलिका दहन, फाग, आनंदपुर साहिब का होला मेला, गुड फ्राइडे, ईस्टर सचरडे, क्रमशः सरदार भगतसिंह और गणेशशंकर विद्यार्थी के शहीदी दिवस, तथा संत तुकाराम और एकनाथ जयंती। इतने सारे दिवसों का सिलसिलेवार मेल एक उदार भारतीय भाव का परिचायक है। इस बार 22 मार्च को दो भिन्न दिवसों का संगम हो रहा है। एक ओर शक संवत का शुभारंभ है तो दूसरी ओर यह अंतरराष्ट्रीय जल दिवस भी है। मेरे जेहन में इसे लेकर एक मौलिक प्रश्न यह है कि अंतरराष्ट्रीय दिवसों की चिंता करना और उन्हीं महत्व के भारतीय दिवसों को भूल जाना कितना वाजिब है? मेरा मत है कि इन अंतरराष्ट्रीय दिवसों का ठेका जिन राष्ट्रों के पास है, वे उपनी सुविधा, परिस्थिति और जरूरत के अनुसार इनकी तारीखें तय करते हैं; करनी भी चाहिए। किंतु भारत का सरकारी अमला तथा इन दिवसों के नाम पर पैसा पा रही संस्थाएं ऐसी तारीखों का अंधानुकरण जिस श्रद्धा और अनुशासन के साथ करती है, वह मेरी समझ में आज तक नहीं आया। आखिरकार हम विविध भूगोल वाले राष्ट्र हैं। हमारे अपने मौसम हैं। स्थिति-परिस्थिति है। सच यह है कि इन तारीखों पर भारत सिर्फ सेमिनार, कार्यशाला, रैली, दौड़ आदि आयोजित कर खानापूर्ति कर सकता है। सामान्यतया इन अंतरराष्ट्रीय दिवसों का भारतीय कर्मयोग से कोई योग नहीं। बावजूद इसके आज हम प्रकृति संरक्षण के भारतीय पारंपरिक तौर-तरीकों को भूलकर अंतरराष्ट्रीय ताक़तों की सोच, रहन-सहन, संस्कृति, प्रौद्योगिकी आदि को अपनी अनुकूलता जांचे बगैर बड़े आकर्षण के साथ स्वीकार करने लगे हैं। अनुकूलता न होने पर भी महज रस्म अदायगी क्यों? हमें गौर करने की जरूरत है कि उनकी वैश्विक चिंता सिर्फ कागजी है।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2013-14 को ’अंतरराष्ट्रीय जल सहकार वर्ष’ घोषित किया है। जल की इस अंतरराष्ट्रीयता का मतलब सिर्फ और सिर्फ जल की उपलब्धता और शुद्धता के नाम पर मनमानी शर्तों पर कर्ज देना, तकनीक-सलाह बेचना, सदस्य देशों की कंपनियों को काम दिलाना और दूसरों के जलसंसाधनों पर कब्ज़ा करना मात्र रह गया है। नीयत कुछ और दिखावे की नीति कुछ और। दुनिया के दूसरे देशों के प्रति उनका असल व्यवहार व संस्कार तो उनका बाजार है। दूसरे की कीमत पर आगे बढ़ना उनका स्वभाव है। किसी के संसाधन लूटकर खुद को समृद्ध करना उनके लिए गौरव की बात है। भारतीय सभ्यता की नींव ऐसे सिद्धांतों पर नहीं टिकी है। भारत की संस्कृति इसकी अनुमति भी नहीं देती। ऐसे दायित्वों को याद करने का हमारा तरीका श्रमनिष्ठ रहा है। हम इन्हें पर्वों का नाम देकर क्रियान्वित करते रहे हैं। भारत में जो दूसरे का छीनकर अपने को समृद्ध करता है। महापंडित होने के बावजूद यहां ऐसे रावण को भी एक दिन राक्षस का दर्जा दे दिया जाता है। अपने को नष्ट कर सभी के शुभ के लिए तत्पर रहने वाले को मुहर्रम की सी याद मिलती है। शुभ लाभ - यानी लाभ के साथ सभी का शुभ देखने वालों को महाजन कहा जाता है। महान जन!
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश - भारत के लिए ये महज् कोई भौतिक तत्व नहीं हैं। ये जीवन देने वाले देवतत्व हैं। भारत इन पंचतत्वों की पूजा करता हैं। चींटी, कुत्ता, मगरमच्छ से लेकर हाथी, शेर तक सभी को किसी न किसी रूप में पूजा जाता है। तुलसी, नीम, धरती, नदी व हमारा संतोष.. हमारी मातायें हैं। सूर्य-हमारा पिता और मकरसंक्रान्ति व छठ-हमारे सूर्यपर्व हैं। गंगावतरण-हमारा गंगा दशहरा है।... हमारा नदी पर्व! बसंत पंचमी-सबसे सुंदर ऋतु का स्वागत पर्व!! मकर संक्रान्ति का सामूहिक स्नान हमारे रोग प्रतिरोधक क्षमता विकास के अवसर हैं। लोहड़ी-होली पर व्यापक अग्निदहन तापमान परिवर्तन के वाहक हैं। शीतलाष्टमी-तुलसी विवाह आदि वनस्पति पूजन की तिथियां हैं, तो दैनिक हवन व यज्ञ.. वायु को शुद्ध करने के नित्य आयोजित पर्यावरण संरक्षण के अवसर। ऋतु बदलाव के दिनों में शारीरिक संयम और मानसिक अनुशासन के लिए श्राद्ध व नवरात्र हैं। रोजे का पाक महीना तथा गुड फ्राइडे का पवित्र पखवाड़ा भी यही अनुशासन लेकर आते हैं। उधर जब चौमासी बारिश में बादल सूर्य को ढक लेता है। हमारा सूर्य से संपर्क कम हो जाता है। वैज्ञानिक तथ्य है कि इसके परिणामस्वरूप इस काल में हमारी जठराग्नि मंद पड़ जाती है। हमने इसे शिव को छोड़कर अन्य समस्त देवताओं के सो जाने का काल माना। चौमासा कहा। आमजन ने शिव आराधना की कांवड़ उठाकर साधना की। धर्मगुरूओं का प्रवास कराकर उनके उपदेश सुने। शिव को चढ़ने वाले बेलपत्र समेत ऐसे तत्वों को आहार माना, जो मंद जठराग्नि को जागृत करते हैं। भारत के हर पर्व का एक विज्ञान है। अनुकूलता है। मकसद है। यह बात और है कि इन्हें मनाने के बदले हुए तौर-तरीके हमे असल मकसद से दूर ले जा रहे हैं।
जरा प्रकृति के प्रति भारतीय ज्ञान तंत्र की संवेदना तो देखिए! वह सावन-भादों में खेतों की खुदाई पाप मानता है। कहता है कि इस समय धरती गर्भवती होती है। देखें तो आषाढ़-सावन और पौष-माघ वृक्षारोपण के लिए अनुकूल होते हैं। ये महीने भारतीय पर्यावरण दिवस के महीने हो सकते हैं, लेकिन उनका अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण दिवस तो जून के ऐसे मौसम में आता है, जब भारत के बड़े हिस्से में लू का प्रकोप होता है। ऐसे में हम पर्यावरण बचाने के नाम पर वृक्षारोपण भी तो नहीं कर सकते। मिट्टी भी कठोर हो चुकी होती है। लेकिन सिर्फ बात करनी हो, तो कोई भी दिन ठीक है। बातें तो सरकार भी खूब करती है। पर्यावरण संरक्षण का कार्य श्रमदान व व्यवहार के अनुशासन के बिना नहीं हो सकता। यूं भी प्रकृति-पर्यावरण संरक्षण के काम सभी के शुभ के लिए होते हैं। शुभ काम के लिए मुहुर्त भी शुभ ही होना चाहिए। कार्तिक में देवउठनी ग्यारस और बैसाख में आखा तीज अबूझ मुहुर्त माने गये हैं। इन दो तारीखों को कोई भी शुभ कार्य बिना पंडित से पूछे भी किया जा सकता हैं। ये हमारे जल दिवस हैं। समझना चाहिए कि क्यों? हमारा पहला जलदिवस-देवउठनी ग्यारस....देवोत्थान एकादशी! चतुर्मास पूर्ण होने की तारीख। जब देवता जागृत होते हैं। यह तिथि कार्तिक मास में आती है। यह वर्षा के बाद का वह समय होता है, जब मिट्टी नर्म होती है। उसे खोदना आसान होता है। नई जल संरचनाओं के निर्माण के लिए इससे अनुकूल समय और कोई नहीं। खेत भी खाली होते हैं और खेतिहर भी। तालाब, बावड़ियां, नौला, धौरा, पोखर, पाइन, जाबो, कूलम, आपतानी - देशभर में विभिन्न नामकरण वाली जलसंचयन की इन तमाम नई संरचनाओं की रचना का काम इसी दिन से शुरू किया जाता था। राजस्थान कापारंपरिक समाज आज भी देवउठनी ग्यारस को ही अपने जोहड़, कुण्ड और झालरे बनाने का श्रीगणेश करता है।
दूसरा जल दिवस है- आखा तीज! यानी बैसाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि। यह तिथि पानी के पुराने ढांचों की साफ-सफाई तथा गाद निकासी का काम की शुरुआत के लिए एकदम अनुकूल समय पर आती है। बैसाख आते-आते तालाबों में पानी कम हो जाता है। खेती का काम निपट चुका होता है। बारिश से पहले पानी भरने के बर्तनों को झाड़-पोछकर साफ रखना जरूरी होता है। हर वर्ष तालों से गाद निकालना और टूटी-फूटी पालों को दुरुस्त करना। इसके जरिए ही हम जलसंचयन ढांचों की पूरी जलग्रहण क्षमता को बनाये रख सकते हैं। ताल की मिट्टी निकाल कर पाल पर डाल देने का यह पारंपरिक काम अब नहीं हो रहा। नतीजा? इसी अभाव में हमारी जलसंरचनाओं का सीमांकन भी कहीं खो गया है... और इसी के साथ हमारे तालाब भी। बैसाख-जेठ में प्याऊ-पौशाला लगाना पानी का पुण्य हैं। खासकर बैसाख में प्याऊ लगाने से अच्छा पुण्य कार्य कोई नहीं माना गया। इसे शुरू करने की शुभ तिथि भी आखातीज ही है। लेकिन अब तो पानी का शुभ भी व्यापार के लाभ से अलग हो गया है। भारत में पानी अब पुण्य कमाने का देवतत्व नहीं, बल्कि पैसा कमाने की वस्तु बन गया है। 50-60 फीसदी प्रतिवर्ष की तेजी से बढ़ता कई हजार करोड़ का बोतलबंद पानी व्यापार! शुद्धता के नाम पर महज एक छलावा मात्र!! यदि बारिश के आने से पहले तालाब-झीलों को साफ कर लें। खेतों की मेड़बंदियां मजबूत कर लें ; ताकि जब बारिश आये तो इन कटोरे में पानी भर सके। वर्षा जल का संचयन हो सके। धरती भूखी न रहे।
जहां तक संकल्पों का सवाल है। हर वह दिवस जल दिवस हो सकता है, जब हम संकल्प लें - बाजार का बोतलबंद पानी नहीं पिउंगा। कार्यक्रमों में मंच पर बोतलबंद पानी सजाने का विरोध करुंगा। अपने लिए पानी के न्यूनतम व अनुशासित उपयोग का संयम सिद्ध करुंगा। दूसरों के लिए प्याऊ लगाउंगा।... मैं किसी भी नदी में अपना मल-मूत्र-कचरा नहीं डालूंगा। नदियों के शोषण-प्रदूषण-अतिक्रमण के खिलाफ कहीं भी आवाज़ उठेगी या रचना होगी, तो उसके समर्थन में उठा एक हाथ मेरा भी होगा। हम संकल्प कर सकते है कि मैं पॉलीथीन की रंगीन पन्नियों में सामान लाकर घर में कचरा नहीं बढ़ाउंगा। मैं हर वर्ष एक पौधा लगाउंगा भी और उसका संरक्षण भी करुंगा। उत्तराखंड में “मैती प्रथा” है। मैती यानी मायका। लड़की जब विवाहोपरान्त ससुराल जाती है, तो मायके से एक पौधा ले जाकर ससुराल में रोप देती है। वह उसे ससुराल में भी मायके की याद दिलाता है। वह दिन होता है उत्तराखंड का पर्यावरण दिवस। दुनिया को बताना जरूरी है कि हम अंतरराष्ट्रीय जल दिवस मनायेंगे ज़रूर, लेकिन भारत के प्राकृतिक संसाधन अंतरराष्ट्रीय हाथों में देने के लिए नहीं, बल्कि उसकी हकदारी और जवाबदारी.. दोनों अपने हाथों में लेने के लिए। इस अंतरराष्ट्रीय जल दिवस का महत्व इतना ही हैं कि इस बहाने हमें आने वाले भारतीय जल दिवस को भूलें नहीं। उसकी तैयारी में जुट जायें। नई शक संवत पर एक नया संकल्प। याद रहे कि संकल्प का कोई विकल्प नहीं होता और प्रकृति के प्रति पवित्र संकल्पों के बगैर किसी जल दिवस मनाने का कोई औचित्य नहीं।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2013-14 को ’अंतरराष्ट्रीय जल सहकार वर्ष’ घोषित किया है। जल की इस अंतरराष्ट्रीयता का मतलब सिर्फ और सिर्फ जल की उपलब्धता और शुद्धता के नाम पर मनमानी शर्तों पर कर्ज देना, तकनीक-सलाह बेचना, सदस्य देशों की कंपनियों को काम दिलाना और दूसरों के जलसंसाधनों पर कब्ज़ा करना मात्र रह गया है। नीयत कुछ और दिखावे की नीति कुछ और। दुनिया के दूसरे देशों के प्रति उनका असल व्यवहार व संस्कार तो उनका बाजार है। दूसरे की कीमत पर आगे बढ़ना उनका स्वभाव है। किसी के संसाधन लूटकर खुद को समृद्ध करना उनके लिए गौरव की बात है। भारतीय सभ्यता की नींव ऐसे सिद्धांतों पर नहीं टिकी है। भारत की संस्कृति इसकी अनुमति भी नहीं देती। ऐसे दायित्वों को याद करने का हमारा तरीका श्रमनिष्ठ रहा है। हम इन्हें पर्वों का नाम देकर क्रियान्वित करते रहे हैं। भारत में जो दूसरे का छीनकर अपने को समृद्ध करता है। महापंडित होने के बावजूद यहां ऐसे रावण को भी एक दिन राक्षस का दर्जा दे दिया जाता है। अपने को नष्ट कर सभी के शुभ के लिए तत्पर रहने वाले को मुहर्रम की सी याद मिलती है। शुभ लाभ - यानी लाभ के साथ सभी का शुभ देखने वालों को महाजन कहा जाता है। महान जन!
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश - भारत के लिए ये महज् कोई भौतिक तत्व नहीं हैं। ये जीवन देने वाले देवतत्व हैं। भारत इन पंचतत्वों की पूजा करता हैं। चींटी, कुत्ता, मगरमच्छ से लेकर हाथी, शेर तक सभी को किसी न किसी रूप में पूजा जाता है। तुलसी, नीम, धरती, नदी व हमारा संतोष.. हमारी मातायें हैं। सूर्य-हमारा पिता और मकरसंक्रान्ति व छठ-हमारे सूर्यपर्व हैं। गंगावतरण-हमारा गंगा दशहरा है।... हमारा नदी पर्व! बसंत पंचमी-सबसे सुंदर ऋतु का स्वागत पर्व!! मकर संक्रान्ति का सामूहिक स्नान हमारे रोग प्रतिरोधक क्षमता विकास के अवसर हैं। लोहड़ी-होली पर व्यापक अग्निदहन तापमान परिवर्तन के वाहक हैं। शीतलाष्टमी-तुलसी विवाह आदि वनस्पति पूजन की तिथियां हैं, तो दैनिक हवन व यज्ञ.. वायु को शुद्ध करने के नित्य आयोजित पर्यावरण संरक्षण के अवसर। ऋतु बदलाव के दिनों में शारीरिक संयम और मानसिक अनुशासन के लिए श्राद्ध व नवरात्र हैं। रोजे का पाक महीना तथा गुड फ्राइडे का पवित्र पखवाड़ा भी यही अनुशासन लेकर आते हैं। उधर जब चौमासी बारिश में बादल सूर्य को ढक लेता है। हमारा सूर्य से संपर्क कम हो जाता है। वैज्ञानिक तथ्य है कि इसके परिणामस्वरूप इस काल में हमारी जठराग्नि मंद पड़ जाती है। हमने इसे शिव को छोड़कर अन्य समस्त देवताओं के सो जाने का काल माना। चौमासा कहा। आमजन ने शिव आराधना की कांवड़ उठाकर साधना की। धर्मगुरूओं का प्रवास कराकर उनके उपदेश सुने। शिव को चढ़ने वाले बेलपत्र समेत ऐसे तत्वों को आहार माना, जो मंद जठराग्नि को जागृत करते हैं। भारत के हर पर्व का एक विज्ञान है। अनुकूलता है। मकसद है। यह बात और है कि इन्हें मनाने के बदले हुए तौर-तरीके हमे असल मकसद से दूर ले जा रहे हैं।
जरा प्रकृति के प्रति भारतीय ज्ञान तंत्र की संवेदना तो देखिए! वह सावन-भादों में खेतों की खुदाई पाप मानता है। कहता है कि इस समय धरती गर्भवती होती है। देखें तो आषाढ़-सावन और पौष-माघ वृक्षारोपण के लिए अनुकूल होते हैं। ये महीने भारतीय पर्यावरण दिवस के महीने हो सकते हैं, लेकिन उनका अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण दिवस तो जून के ऐसे मौसम में आता है, जब भारत के बड़े हिस्से में लू का प्रकोप होता है। ऐसे में हम पर्यावरण बचाने के नाम पर वृक्षारोपण भी तो नहीं कर सकते। मिट्टी भी कठोर हो चुकी होती है। लेकिन सिर्फ बात करनी हो, तो कोई भी दिन ठीक है। बातें तो सरकार भी खूब करती है। पर्यावरण संरक्षण का कार्य श्रमदान व व्यवहार के अनुशासन के बिना नहीं हो सकता। यूं भी प्रकृति-पर्यावरण संरक्षण के काम सभी के शुभ के लिए होते हैं। शुभ काम के लिए मुहुर्त भी शुभ ही होना चाहिए। कार्तिक में देवउठनी ग्यारस और बैसाख में आखा तीज अबूझ मुहुर्त माने गये हैं। इन दो तारीखों को कोई भी शुभ कार्य बिना पंडित से पूछे भी किया जा सकता हैं। ये हमारे जल दिवस हैं। समझना चाहिए कि क्यों? हमारा पहला जलदिवस-देवउठनी ग्यारस....देवोत्थान एकादशी! चतुर्मास पूर्ण होने की तारीख। जब देवता जागृत होते हैं। यह तिथि कार्तिक मास में आती है। यह वर्षा के बाद का वह समय होता है, जब मिट्टी नर्म होती है। उसे खोदना आसान होता है। नई जल संरचनाओं के निर्माण के लिए इससे अनुकूल समय और कोई नहीं। खेत भी खाली होते हैं और खेतिहर भी। तालाब, बावड़ियां, नौला, धौरा, पोखर, पाइन, जाबो, कूलम, आपतानी - देशभर में विभिन्न नामकरण वाली जलसंचयन की इन तमाम नई संरचनाओं की रचना का काम इसी दिन से शुरू किया जाता था। राजस्थान कापारंपरिक समाज आज भी देवउठनी ग्यारस को ही अपने जोहड़, कुण्ड और झालरे बनाने का श्रीगणेश करता है।
दूसरा जल दिवस है- आखा तीज! यानी बैसाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि। यह तिथि पानी के पुराने ढांचों की साफ-सफाई तथा गाद निकासी का काम की शुरुआत के लिए एकदम अनुकूल समय पर आती है। बैसाख आते-आते तालाबों में पानी कम हो जाता है। खेती का काम निपट चुका होता है। बारिश से पहले पानी भरने के बर्तनों को झाड़-पोछकर साफ रखना जरूरी होता है। हर वर्ष तालों से गाद निकालना और टूटी-फूटी पालों को दुरुस्त करना। इसके जरिए ही हम जलसंचयन ढांचों की पूरी जलग्रहण क्षमता को बनाये रख सकते हैं। ताल की मिट्टी निकाल कर पाल पर डाल देने का यह पारंपरिक काम अब नहीं हो रहा। नतीजा? इसी अभाव में हमारी जलसंरचनाओं का सीमांकन भी कहीं खो गया है... और इसी के साथ हमारे तालाब भी। बैसाख-जेठ में प्याऊ-पौशाला लगाना पानी का पुण्य हैं। खासकर बैसाख में प्याऊ लगाने से अच्छा पुण्य कार्य कोई नहीं माना गया। इसे शुरू करने की शुभ तिथि भी आखातीज ही है। लेकिन अब तो पानी का शुभ भी व्यापार के लाभ से अलग हो गया है। भारत में पानी अब पुण्य कमाने का देवतत्व नहीं, बल्कि पैसा कमाने की वस्तु बन गया है। 50-60 फीसदी प्रतिवर्ष की तेजी से बढ़ता कई हजार करोड़ का बोतलबंद पानी व्यापार! शुद्धता के नाम पर महज एक छलावा मात्र!! यदि बारिश के आने से पहले तालाब-झीलों को साफ कर लें। खेतों की मेड़बंदियां मजबूत कर लें ; ताकि जब बारिश आये तो इन कटोरे में पानी भर सके। वर्षा जल का संचयन हो सके। धरती भूखी न रहे।
जहां तक संकल्पों का सवाल है। हर वह दिवस जल दिवस हो सकता है, जब हम संकल्प लें - बाजार का बोतलबंद पानी नहीं पिउंगा। कार्यक्रमों में मंच पर बोतलबंद पानी सजाने का विरोध करुंगा। अपने लिए पानी के न्यूनतम व अनुशासित उपयोग का संयम सिद्ध करुंगा। दूसरों के लिए प्याऊ लगाउंगा।... मैं किसी भी नदी में अपना मल-मूत्र-कचरा नहीं डालूंगा। नदियों के शोषण-प्रदूषण-अतिक्रमण के खिलाफ कहीं भी आवाज़ उठेगी या रचना होगी, तो उसके समर्थन में उठा एक हाथ मेरा भी होगा। हम संकल्प कर सकते है कि मैं पॉलीथीन की रंगीन पन्नियों में सामान लाकर घर में कचरा नहीं बढ़ाउंगा। मैं हर वर्ष एक पौधा लगाउंगा भी और उसका संरक्षण भी करुंगा। उत्तराखंड में “मैती प्रथा” है। मैती यानी मायका। लड़की जब विवाहोपरान्त ससुराल जाती है, तो मायके से एक पौधा ले जाकर ससुराल में रोप देती है। वह उसे ससुराल में भी मायके की याद दिलाता है। वह दिन होता है उत्तराखंड का पर्यावरण दिवस। दुनिया को बताना जरूरी है कि हम अंतरराष्ट्रीय जल दिवस मनायेंगे ज़रूर, लेकिन भारत के प्राकृतिक संसाधन अंतरराष्ट्रीय हाथों में देने के लिए नहीं, बल्कि उसकी हकदारी और जवाबदारी.. दोनों अपने हाथों में लेने के लिए। इस अंतरराष्ट्रीय जल दिवस का महत्व इतना ही हैं कि इस बहाने हमें आने वाले भारतीय जल दिवस को भूलें नहीं। उसकी तैयारी में जुट जायें। नई शक संवत पर एक नया संकल्प। याद रहे कि संकल्प का कोई विकल्प नहीं होता और प्रकृति के प्रति पवित्र संकल्पों के बगैर किसी जल दिवस मनाने का कोई औचित्य नहीं।
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