विक्रम की 18वीं शताब्दी के प्राय: अंतिम भाग में कन्नौज के निकट निवासी घाघ कवि एक अनुभवी किसान हो गये, इनको खगोल का अच्छा ज्ञान था। उनकी प्रत्येक कविता उनके गुरुज्ञान और अपूर्व अनुभव की उदाहरण हैं। परंतु खेद का विषय है कि आज के विकास युग में हमें ऐसे अनुभवी पुरुष की न तो पूरी जीवनी मिलती है और न ही उनके सिद्धांतों पर वैज्ञानिक अध्ययन हुआ है। घाघ की कहावतें उत्तर प्रदेश व बिहार में प्रचलित हैं और भड्डरी की पंजाब और राजस्थान में। शायद भड्डरी जिनकी जीवनी नहीं मिलती, राजस्थान के निवासी एक योग्य ज्योतिषी थे। इनका घाघ कवि के समान ही वर्षा और खेती के संबंध में अच्छा ज्ञान था, जिसका कुछ उदाहरण इस प्रकार है : घाघ कवि ने वर्षा कब नहीं होती इस संबंध में कहा है-
दिन का बद्दर रात निबद्दर, बहै पुरवैया भव्बर भव्बर।।
घाघ कहैं कुछ होनी होई। कुवा के पानी धोबी धोई।।
घाघ कवि की उक्तियों का वैज्ञानिक अध्ययन करने से पता चलता है कि आज के मौसम विज्ञान पर वे आधारित हैं। आज मौसम विज्ञान भारत में विशेषकर उत्तर में वर्षा का कारण अरब सागर से उठने वाला मानसूनी बादल है, जो उत्तर पूर्व की ओर बढ़कर वर्मा की हिमालय-पर्वत श्रेणी से टकराकर पश्चिम की ओर मुड़ जाती है और गंगा के मैदानी भागों, तराई एवं उत्तरांचल में बरस जाता है अरबसागर से मानसूनी वर्षा एवं पश्चिमी विक्षोम से जाड़े की वर्षा भारत में होती है। बंगाल की खाड़ी से उठने वाला बादल जब वहाँ से कम दबाव वाले क्षेत्रों - तमिलनाडु एवं बंगाल, आंध्रप्रदेश में आता है तो वर्षा होती है। घाघ कवि वर्षाकाल को विशेषकर मानसूनी वर्षा के समय को नक्षत्रों से मिलाते हैं अर्थात पृथ्वी जब ब्रह्माण्ड के उस भाग (नक्षत्र वाले भाग) पहुँचती हैं ज्योतिष के अनुसार उनकी भविष्यवाणी खरी है। यथा-
जल वर्षा चित्रा (कार्तिक) में हो तो कृषि को हानि है। जाहिर है उस समय खरीफ की फसल पक कर तैयार है और सड़ सकती है। परंतु चित्रा नक्षत्र में पृथ्वी जब पहुँचे अर्थात ब्रह्माण्ड में 180 डिग्री पर हो तो प्राकृतिक दृष्टि से वर्षा का अंत निकट है और रबी की तैयारी होती है। अत: वर्षा लाभदायक नहीं। परंतु पूर्व का नक्षत्र यानि हस्त में खूब वर्षा होती है क्योंकि सूर्य का कोण पृथ्वी के समानांतर हो ताप को न्यून एवं आकाश में दबाव में बढ़त भी लाने लगता है, अत: घाघ ने कहा है कि-
बढ़त जो बरसे चित्रा उतरत बरसे हस्त।
कितनौ राजा डांड़ ले, हारे नहीं गृहस्थ।।
ज्ञातव्य है कि इसी समय दिन-रात बराबर (22 सितंबर) हो जाते हैं और सूर्य दक्षिण की ओर तेजी से बढ़ता जाता है। जबकि इसके पूर्व सूर्य 22 जून को पूरे तेज से उत्तरी गोलार्ध को गर्म कर देता है और दिनमान उच्चतम होता है। इसी प्रकार सूर्य से पृथ्वी ब्रह्माण्ड के 120 डिग्री कोण पर होती है (मघा नक्षत्र) वर्षाजल अत्यंत सुस्वादु एवं वर्षा खूब होती है कवि कहते हैं- ‘मघा भूमि अधा’ परंतु अगर यह न बरसा तो ऊसर भूमि भी सूख जावेगी। आगे घाघ भविष्यवाणी करते हुए कहते हैं कि-
माघ पूष जो दखिन चले, तो सावन के लच्छन भले।
यह लक्षण है जब दक्षिणी मानसून (मद्रास वाला) को लाने वाली उत्तर भारत में हवा आवे तो श्रावण मास में अवश्य वर्षा लाती है।
वर्षा की शुरुआत जब आद्री नक्षत्र में पृथ्वी पहुँचे अर्थात 60 डिग्री में यानि 15 जून के लगभग हो जावे तो वर्षा बराबर होती रहेगी अर्थात जब पृथ्वी 110 डिग्री एवं 15 जुलाई तक वृष्ट होती रहेगी। यह इसका प्रमाण है कि समुद्र से हवा (दक्षिण पश्चिम से) पूर्व होते सिलसिला चालू हो गया और मानसून में सहसा रोक (मानसून ब्रेक) न होगा जो बीच-बीच में वर्षा मौसम में यदा-कदा देखा जाता है। इसी प्रकार जब पृथ्वी आर्द्रा 60 डिग्री से 160 डिग्री अर्थात हस्त के चौथे भाग में पहुँच जावे तो अवश्य वर्षा होनी चाहिए। इस स्थिति में पृथ्वी सूर्य से 160 अंश पर रहने से गर्मी की समाप्ति एवं जाड़े की शुरुआत भी हो जाती है क्योंकि सूर्य का ताप कम हो जाता है। एक कारण यह भी है कि सूर्य पृथ्वी के दक्षिणी भाग अर्थात विषुवत रेखा के दक्षिण गोलार्द्ध में पहुँचकर उत्तरी गोलार्द्ध में ठंडक ला देता है तभी हमारे लोक में प्रचलित है कि हथिया के पेट में जाड़ा अर्थात प्रारंभ हो जाता है। वैज्ञानिक दृष्टि से सूर्य से दूरस्थ कोण पर होने के कारण यह घटना होती है। इसको महत्त्व देते हुए घाघ ने कहा कि-
आवत ना आदर दियो जात न दीनी हस्त।
ये दोनों पछितायेंगे पाहुन और गृहस्त।
यह नहीं कि केवल हस्त से प्रसन्न हो बल्कि घाघ ने कहा कि स्वाती जो हस्त के पश्चात 200 अंश पर रहता है, में जरा भी वर्षा हो जावे तो अति घनी खेती हो जावेंगी और पपीहा भी प्रसन्न होगा। स्वाती का जल इतना शुद्ध होता है कि तुरंत रासायनिक क्रियाकर सर्प में विष, सीप में मोती एवं केले में कपूर का निर्माण कर डालता है, जैसा प्रचलित है। यह उस जल की वर्षा के अंत में आता है जब आकाश एकदम स्वच्छ हो, प्रदूषण रहित होने से वर्षाजल को डिस्टिल वाटर के समान कर देता है।
वर्षा न होने का संकेत घाघ कवि वैज्ञानिक दृष्टि से देते हैं। जैसे-
दिन में गर्मी रात में ओस, कहें घाघ बरखा सौ कोस।
अर्थात दिन की गर्मी से बादल न बने या दबाव कम न हुआ तो रात्रि में ओस पड़कर समस्त आर्द्रता निकल जावेगी, फलत: वर्षा नहीं होगी क्योंकि आर्द्रता कम रही। परंतु जब वन में कास का फूल उगे अथवा अगस्त या कोनोपस तारा आकाश में दिखे तो वर्षा समाप्त हो जावेंगी। वर्षा तथा हवा का संबंध है कि बादल किस दिशा में जा रहे हैं।
अगर हवा दक्षिणी अर्थात दक्षिण पश्चिम की हो और पूर्व की ओर बादलों को न ले जावे तो वर्षा न होगी क्योंकि पूर्व की ओर जाना तभी होता है जब वह हिमशृंग (पर्वत की चोटी) से टकराकर बरस जावे। तभी आपने कहा कि-
सब दिन बरसो दखिना बाय, कभी न बरसो बरसा पाय।
जब हवा पूरब की हो तो मानसून के पथ के अनुसार होती है तो वर्षा अवश्यंभावी है और विपरीत स्थिति में वर्षा नहीं ही होगी। तभी कहा है कि-
पूरब के बादर पश्चिम जाय, पतरी पकावै मोटी खाय,
पकुंवा बादर पूरब के जाय, मोटी पकौव पतरी खाय।।
पुनर्वसु एवं पुष्य नक्षत्रों में पृथ्वी सूर्य से 90 से 100 डिग्री अर्थात लंब रहती है, अत: वायुमंडल हल्का होने से वर्षा की अवश्य आशा होती है। इस समय वर्षा न होना दुर्भाग्यसूचक होगा। अत: कवि कहते हैं कि-
पुरब पुनर्वसु भरे न ताल। तो फिर मरिहौं अगली साल।।
वर्षा के आगमन की सूचना बड़े वैज्ञानिक ढंग से दी गयी कि ज्येष्ठ मास में जितनी गर्मी पड़ेगी वर्षा उतनी ही होगी। जाहिर है गर्मी का चरम जैठ में होकर वाष्पीकरण लाकर वर्षा लाता है।
जेठ मास जो तपै निरासा, तो जानों बरखा की आसा।
वर्षा के प्रधान नक्षत्रों में आद्रा, कृतिका में कुछ वर्षा होनी चाहिए, नहीं तो अकाल की संभावना बनेगी, ऐसी भड्डरी का कहना है।
कृतिका तो कोरी गई आद्रा मेंह न बूँद।
तो यौं जानौ भड्डरी काल मचावै दंद।।
इसी प्रकार वर्षा न होने का निर्देश देते हुए कहते हैं कि यदि मृगशिरा नक्षत्र में हवा न चले अर्थात पूर्व के रोहिणी में तपन की चरम सीमा के पश्चात, तो वर्षा नहीं होगी। स्पष्ट है कि तपन से वायुमंडल हल्का होता है और समुद्री हवा मृगशिरा में आने लगती है। फलत: वर्षा होगी ही। भड्डरी ने कहा कि-
मृगसिर वायु न बाजिया, रोहिणी तपै न जेठ।
गोरी बानै कांकरा, खड़ा खेजड़ी हेठ।।
वर्षा के अतिरिक्त कवि ने भूकम्प के विषय में भी लिखा कि - यदि जेठ प्रतिपदा को बुधवार पड़े और आषाढ़ की पूर्णिमा को मूल नक्षत्र हो तो भूकम्प आ सकता है।
जेठ जेठ पहिल परिवा, दिन बुध बासर जो होइ।
मूल असाढ़ी जो मिल पृथ्वी कम्पै जोइ।।
वर्षा के लिये कहा कि आद्रा और आगे के दस नक्षत्र जेठ की शुक्ल पक्ष में बरस जावे तो आगे वर्षा मासो में पानी नहीं बरसेगा। इसी प्रकार विशाखा, चित्रा, स्वाती, जेष्ठ मास में बादल तो वृष्ठि नहीं होगी। इस प्रकार आपने जेठ मास में वृष्टि के लक्षणों को बताया कि उससे मानसूनी वर्षा का पता लग जाता है। यह सत्य है क्योंकि जेठ मास में गर्मी अधिक होती है और वर्षा की संभावना मानसूनी महीनों में बढ़ जाती है।
भड्डरी दिनों को महत्त्व अधिक देते लिखते हैं कि -
जेठ बदी दसमी दिना, जो सनिवासर होई।
पानी होय न धरनि पर, बिरला जीवै कोई।
अर्थात जेठ बदी दशमी को यदि शनिवार पड़े तो पृथ्वी पर पानी बरसेगा। चूँकि जेठ मास गर्मी की चरम सीमा होती, परंतु उसमें वृष्टि हो और गर्मी न पड़े, वाष्पीकरण न हो तो जाहिर है, वर्षा मास सूखे रह जावेंगे। अत: कहा कि-
जेठ उजारे पच्छ में, आद्राविक दस रिच्छ,
सजल होय निरजल कहो, निरजल सजल प्रत्यक्ष।
आपने जेठ मास को विशेष इंगित कर कहा था कि जेठ शुक्ल तृतीया को आद्रा नक्षत्र होकर बरस जाय तो अकाल होगा। इसी जेठ की गर्मी में मृगशिरा नक्षत्र आने पर दस दिन खूब तपेगा, परंतु ग्रीष्म त्रतु का दूसरा मास आषाढ़ में भी आगे वर्षा होने के लक्षण बताये गये हैं। जैसे आषाढ़ की अमावस्या को बादल न होने चाहिए। इसके पूर्व नवमी को भी बादल न होने चाहिए। उसी प्रकार आषाढ़ की पूर्णिमा को स्वच्छ आकाश न रह कर बादलयुक्त हो, अर्थात वर्षा का प्रारंभ श्रावण मास होने को है। आपने दिन में बादल और रात्रि स्वच्छ आकाश हो तो दिन में वाष्पीकरण न होने से वृष्टि का संयोग नहीं होना, बताया। परंतु श्रावण में वाष्पीकरण रोहिणी नक्षत्र के कारण हो तो वर्षा कम होनी चाहिए।
मानसून के बढ़ने की दिशा ठीक होने से वर्षा होती है। यह वैज्ञानिक तथ्य ध्यान में रखते हुए आप कहते हैं कि जैसा होता है- पूर्व से मानसूनी बादल पश्चिम जाते हैं तो वर्षा होगी ही, परंतु उलटा होने पर वर्षा नहीं होती है। सत्य है कि मानसून पश्चिम से पूर्व को जाने के पश्चात नहीं बरसेगा। अत: श्रावण मास में आकाश का स्वच्छ या बादलरहित रहना अवर्षण की स्थिति होती है। श्रावण मास में चित्रा, सवाती और बिशाखा नक्षत्रों में वर्षा होना आवश्यक है। ये नक्षत्र चंद्र की गति से हैं। इस मास सूर्य उदय पर कर्क राशि न सामने आवे अपितु सिंह राशि होनी चाहिए, अर्थात सूर्य पृथ्वी का कोण 120 से 150 डिग्री का हो और किरणें गर्मी न लाकर वर्षा लावें तभी जोरदार वर्षा होगी। श्रावण मास के पश्चात भाद्रपद मास में एकादशी तक बादल बने रहने चाहिए और अगर छिन्न-भिन्न हो जावें तो आगे चार मास वर्षा का योग नहीं होगा।
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