अन्त की शुरुआत

कोसी परियोजना में सब कुछ अच्छा और आदर्श प्रस्तुत करने जैसा ही चल रहा था, यह स्थिति तो कभी भी नहीं थी। बराहक्षेत्र बांध के निर्माण के प्रस्ताव से लेकर तटबंधों के निर्माण तक में होने वाले प्रपंच, षडयंत्र और आये दिन की उलट-बयानी की एक झलक हम पहले भी देख आये हैं। इन सारी घटनाओं में नेताओं और इंजीनियरों की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा और स्वार्थ तो शामिल थे मगर तब तक उसमें पैसों की कोई भूमिका नहीं थी। पैसों की भूमिका शुरू हुई 14 जनवरी 1955 को जिस दिन योजना का शिलान्यास हुआ और बड़े पैमाने पर काम में हाथ लगाया गया।

भारत सेवक समाज तो सरकार का लाड़ला था मगर व्यवस्था के हत्थे चढ़ गया था। व्यवस्था से लड़ पाना उसके बूते से बाहर की बात थी, फिर इस संस्था ने जो आदर्श अपने लिए बना रखे थे वह तो बड़े-बड़े नेताओं और समाजकर्मियों ने अपने लिए बनाये थे। उसके बाकी कार्यकर्ताओं की हैसियत एक नौकरी पेशा मुलाजिम और एक अदना ठेकेदार से ज्यादा नहीं थी। संस्था के आदर्शों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता भी उसी अनुपात में थी जितना उनको योजना से पैसा मिलता था।

यह सच है कि जून 1956 तक गुलजारी लाल नन्दा ने अपना बहुत समय कोसी परियोजना और उस पर चल रहे भारत सेवक समाज के जन-सहयोग को दिया। 1956 की कोसी क्षेत्र की बाढ़ और तटबन्धों के बीच फंसने वाले लोगों की इस बाढ़ में हुई दुर्दशा ने सरकार को आलोचना के घेरे में ला खड़ा किया जिसके छींटे नन्दा पर भी पड़े। शायद इसी वजह से उनका कोसी योजना में आना-जाना बहुत कम हो गया। मगर उनका वहाँ से हटना और ललित नारायण मिश्र का 1957 के आम चुनाव में लोकसभा के लिए चुना जाना-यह दो घटनायें ऐसी थीं कि समाज नेतृत्व विहीन हो गया। यहीं से कोसी परियोजना में भारत सेवक समाज के पतन की शुरुआत हुई।

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Post By: tridmin
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