अनंत दीप

हिमालय पिघल के
उतर आया
सागर से मिलने को आतुर

पृथ्वी के वक्ष से
बह रही गंगा

यह कैसी संध्या है!
घुल रहे जलधार में
आरती के मंत्र
ठहर गया हवा में
अंतस का संगीत

उतर आया
एक उत्सव घाट पर
गंगा से आ लिपटी
आकाशगंगा
पृथ्वी की गोद में
जल की लहरों पर
उर में अग्नि लिए
प्रकंपमान जगत्प्राण में
महाशून्य में प्रकाशमान
अनंत दीप

बह रहा
असंख्य दीपों संग
आत्मीय
निर्विकल्प
अनंत में बढ़ रहा
मेरे हाथों से
अभी-अभी छूटा
अंत दीप।

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